क्या ईश्वर जीव के भविष्य में करने वाले कर्मों को जानता है?
डॉ विवेक आर्य
धार्मिक जगत में एक प्रश्न सदा से उठता रहता है कि क्या ईश्वर जीव के भविष्य में करने वाले कर्मों को जानता है? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्यूंकि प्राय: लोग ईश्वर को त्रिकालदर्शी बताते है। स्वामी दयानन्द इस विषय पर सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में इस प्रकार से विवेचना करते हैं।
"(प्रश्न) परमेश्वर त्रिकालदर्शी है इस से भविष्यत् की बातें जानता है। वह अपने ज्ञान से जैसा निश्चय करेगा जीव वैसा ही करेगा। इस से जीव स्वतन्त्र नहीं। और जीव को ईश्वर दण्ड भी नहीं दे सकता। क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया है वैसा ही जीव करता है।
(उत्तर) ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है। क्योंकि जो होके न रहै वह भूतकाल और न होके होवे वह भविष्यत्काल कहाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान होके नहीं रहता तथा न होके होता है? इसलिये परमेश्वर का ज्ञान सदा एकरस, अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है।
हां जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। जैसा स्वतन्त्रता से जीव करता है, वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है। और जैसा ईश्वर जानता है, वैसा जीव करता है। अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतन्त्र और जीव किञ्चित् वर्तमान और कर्म करने में स्वतन्त्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है, वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। दोनों ज्ञान उस के सत्य हैं। क्या कर्मज्ञान सच्चा और दण्डज्ञान मिथ्या कभी हो सकता है? इसलिये इस में कोई भी दोष नहीं आता।"
प्रश्न 1 - क्या ईश्वर जीव के सभी कर्मों को जानता है?
उत्तर- इस विषय को ऐसे समझा जा सकता है कि जो कर्म जीव कर सकता है अच्छे वा बुरे उनको ईश्वर जानता है। परन्तु उन सब कर्मों में से कौन से कर्म को जीव कब करेगा यह नहीं जानता। जैसे ही जीव अपने मन में कर्म को करने का विचार करता है तो ईश्वर मन के कर्म को जानता है। और जब वाणी शरीर से कर्म करता है तब उसको परमात्मा जानता है। किन्तु जब जीव में ही कर्म करने का अभाव है तब उसको ईश्वर नहीं जानता।
प्रश्न 2- अगर परमात्मा नहीं जानता कि जीव कौन सा कर्म कर्म कब करेगा तो परमात्मा सर्वज्ञ कैसे सिद्ध हुआ?
उत्तर- सर्वज्ञ और त्रिकालज्ञता एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। सर्वज्ञ शब्द का अर्थ अभाव को भाव जानना नहीं है अपितु किसी भी ज्ञान का ईश्वर के लिए नया न होना है अर्थात ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो ईश्वर नहीं जानता। ईश्वर तब तक जीव के कर्म को नहीं जानता तब तक वह उस पर विचार नहीं करता। क्यूंकि जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। अगर ईश्वर पहले से ही जीव के सभी कर्मों का ज्ञाता होता तो उसकी स्वतंत्र सत्ता परतंत्रता में बदल जाती। ईश्वर की सर्वज्ञता इसी में है कि जीव द्वारा किया जाने वाला कोई ऐसा कर्म नहीं हैं जो ईश्वर नहीं जानता।
प्रश्न 3 अगर जीव जिस कर्म को करेगा और उस कर्म को परमात्मा जानेगा तो उससे परमात्मा का ज्ञान बढ़ेगा। इससे तो परमात्मा के ज्ञान में वृद्धि होगी। क्या यह संभव है?
उत्तर- जीव द्वारा किया जाने वाला ऐसा कोई कर्म नहीं हैं जो ईश्वर न जानता हो। ईश्वर न्यायाधीश के समान है। जो किसी भी जीव को उसके कर्मो को करने के पश्चात ही उसके अनुसार अपना न्याय देगा। कर्म करने से पहले कैसे देगा? मगर जिन कर्मों के अनुसार न्याय देगा वह कर्म ईश्वर पहले से ही जानता हैं। इसलिए ईश्वर के ज्ञान में न कोई वृद्धि होती है और न कोई क्षीणता।
प्रश्न 4 तो क्या ईश्वर को त्रिकालदर्शी न कहे?
उत्तर- ईश्वर त्रिकालदर्शी नहीं अपितु जीवों के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालज्ञता ईश्वर में है स्वत: नहीं। इसका अभिप्राय समझे। जब जीव कर्म करता है तब ईश्वर जानता है कि यह वर्तमान काल है जिसमें यह जीव कर्म कर रहा है। जब जीव कर्म की समाप्ति कर देता है तब ईश्वर जानता है कि इस जीव ने यह कर्म पूर्ण कर दिया है। यह भूतकाल का कर्म है। जब जीव कर कर रहा है तब परमात्मा इस कर्म को वर्तमान काल में जानता हैं और जब कर्म समाप्त हो गया तब इस कर्म को भूतकाल में जानता है। जीव के जिस कर्म का फल परमात्मा वर्तमान में दे रहा है उसको परमात्मा वर्तमान काल जानता है। और उसी जीव के जिन कर्मों का फल आगे आने वाले समय में देना है उस समय को परमात्मा भविष्य काल जानता हैं। इस प्रकार से जीवों के कर्मों की अपेक्षा से ईश्वर में त्रिकालज्ञता है। इसका उद्देश्य कर्म व्यवस्था को बनाये रखना हैं। ईश्वर के लिए तो सब वर्तमान काल ही है।
प्रश्न ५- पौराणिक वचन कि "होगा वही जो राम रच राखा" क्या गलत है। क्या ईश्वर के अनुसार सृष्टि में सब कुछ नहीं होता?
उत्तर- जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं और फल पाने के लिए ईश्वर के अधीन हैं। यह वैदिक सिद्धांत है। उपरोक्त कथन वेद विरुद्ध है। सृष्टि में कौन जीव कब कैसा कर्म करेगा यह ईश्वर के अधीन नहीं हैं। यह जीवात्मा के अधीन है। यही आत्मा की स्वतंत्र कर्म करने की सत्ता को सिद्ध करता हैं। अगर पहले से ही सभी कर्म निर्धारित होते तो वह दोषपूर्ण हो जायेगा। एक उदहारण से समझे। ईश्वर के ज्ञान में था कि एक व्यक्ति को 12 बजे बाज़ार जाना है। मान लो 12 बजे बाजार न जाकर वह अपने घर चला गया। तब तो परमात्मा ने जो जाना था वह मिथ्या सिद्ध हो जायेगा। और अगर उस व्यक्ति को यह स्वतंत्रता नहीं हैं कि वह 12 बजे बाज़ार ही जा सके। कहीं अन्य न जा सके तो उससे जीव कर्म करने में स्वतंत्र नहीं हैं। अगर जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र नहीं है तो फिर फल पाने के लिए बाध्य क्यों? अगर कर्म का फल नहीं मिलेगा तो ईश्वर की न्यायप्रियता कैसे सिद्ध होगी। इसलिए जीव का कर्म करने में स्वतंत्रता होना अनिवार्य हैं। इसलिए मनुष्य के जीवन में हर कार्य को ईश्वर इच्छा से होना बताना वेद विरुद्ध हैं।
प्रश्न 6- जब सभी कार्य जीव को करने है तो उसमें ईश्वर की सत्ता का क्या लाभ?
उत्तर- यह सही है कि जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। मगर ईश्वर ने सृष्टि के आदि में ही वेदों के माध्यम से यह बता दिया कि कौनसे कर्म जीव के लिए उचित और कौनसे अनुचित हैं। यही ज्ञान प्राचीन काल से वर्तमान में विभिन्न माध्यमों जैसे आचार्यों, शिक्षकों, माता-पिता, अनुभव आदि से मनुष्य को प्राप्त होता हैं। जीव जिसका मन करता है उसको वाणी से बोलता है। जिसको वाणी से बोलता है उसको कर्म से करता है। जिसको कर्म से करता है उसी के फल को प्राप्त होता हैं। स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है कि जब जीव बुरे कर्म करने की इच्छा करता है तब उसके मन में परमात्मा भय-शंका उत्पन्न करता हैं। परमात्मा की यह कृपा मनुष्य को अनुचित कर्म करने से रोकने के लिए ही होती हैं। यह ईश्वर की सत्ता का लाभ है।
उपरोक्त शंकाओं से मैंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि
- ईश्वर सर्वज्ञ है।
-ईश्वर त्रिकालदर्शी नहीं अपितु जीवों के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालज्ञ है।
-ईश्वर के लिए तो सब वर्तमान काल ही है।
-जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है इसलिए उसका भविष्य निर्धारित नहीं हैं।
- विचार उत्पन्न होने से पहले अनिर्धारित भविष्य को ईश्वर से लेकर इस जगत में कोई नहीं जानता।
- भविष्य बताने वाले वक्ताओं से बचे।
(साभार-शांतिधर्मी मासिक पत्रिका जींद, नवंबर अंक में प्रकाशित)
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