ईश्वर की सत्ता
वेद ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं और आस्तिकता के प्रचारक हैं। वेद नास्तिकता के विरोधी हैं। परन्तु संसार में कुछ व्यक्ति हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वेद ऐसे लोगों की बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करता है और उनकी भर्त्सना करता है।
न तं विदाथ य इमा जजानाऽन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।।
―(ऋ० १०/८२/७)
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।।
―(ऋ० १०/८२/७)
भावार्थ― तुम उसको नहीं जानते जो इन सबको उत्पन्न करता है। तुम्हारा अन्तर्यामी तुमसे भिन्न है। किन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होने के कारण वृथा जल्प करते हैं और बकवादी प्राण-मात्र की तृप्ति में लगे रहते हैं।
अब हम तर्क और सृष्टि-क्रम में आधार पर ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे।
संसार और संसार के जितने पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के संयोग से बने हैं, इस तथ्य को नास्तिक भी स्वीकार करता है। ये परमाणु संयुक्त कैसे हुए? नास्तिक कहता है कि ये परमाणु अपने-आप संयुक्त हुए। नास्तिक की यह धारणा मिथ्या है। परमाणुओं का संयोग अपने-आप नहीं हो सकता। संयोग करने वाली इस शक्ति का नाम परमात्मा है। जैसे सृष्टि और सृष्टि के पदार्थों के निर्माण के लिए परमाणुओं का संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी होता है। परमाणुओं का यह वियोग अपने-आप नहीं होता। इन परमाणुओं के वियोग करने वाला भी परमात्मा ही है। जड़ और बुद्धिशून्य परमाणुओं में अपने-आप संयोग कैसे हो हो सकता है? इन जड़ परमाणुओं में इतना विवेक कैसे उत्पन्न हुआ कि उन्होंने अपने-आप को विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित कर लिया?
यदि यह कहा जाए कि प्रकृति के नियमों एवं सिद्धान्तों से ही संसार की रचना हो जाती है, तो प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति में नियम और सिद्धान्त किसने लागू किए? नियमों के पीछे कोई-न-कोई नियामक होता है। इन नियमों और सिद्धान्तों के स्थापित करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है।
संसार की वस्तुएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ―हम दूषित वायु छोड़ते हैं, वह पौधों और वृक्षों के काम आती है; और पौधे एवं वृक्ष जिस वायु को छोड़ते हैं वह मनुष्यों के काम आती है। इस प्रक्रिया के कारण संसार नरक होने से बच जाता है। किसने वस्तुओं का यह पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया है? वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है।
विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं। विज्ञान जिन नियमों की खोज करता है, उन नियमों को स्थापित करने वाली ज्ञानवान् सत्ता का नाम ही तो ईश्वर है। यदि विकास के कारण ही सृष्टि-रचना को माना जाए तो विकास का कारण कौन है? डार्विन के पितृ-नियम, अर्थात् एक वस्तु से उसी के समान वस्तु का उत्पन्न होना, परिवर्तन का नियम अर्थात् उपयोग तथा अनुपयोग के कारण वस्तुओं में परिवर्तन, अधिक उत्पत्ति का नियम और योग्यतम की विजय―यदि इन चारों नियमों को भी सत्य माना जाए तो प्रश्न यह है कि नियमों को स्थापित करने वाला कौन है?
वैज्ञानिक, धातुओं का आविष्कार तो करता है, परन्तु उनका निर्माण नहीं करता। उनका निर्माण करने वाली कोई और शक्ति है जिसे परमात्मा कहते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक, सृष्टि में विद्यमान नियमों की खोज करता है; वह नियमों का निर्माता नहीं है। इन नियमों का निर्माता एवं स्थापितकर्त्ता परमात्मा है।
संसार में सोना, चाँदी, लोहा, सीसा, कांस्य, पीतल आदि अनेक धातुएँ पाई जाती हैं। हीरे, मोती, जवाहर आदि अनेक बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। ये सब ईश्वर के द्वारा बनाए गए हैं; किसी मनुष्य के द्वारा नहीं बनाए गए।
इस ब्रह्माण्ड की असीम वायु, अनन्त जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र―ये सब किसी महान् सत्ता का परिचय दे रहे हैं। आस्तिक इसी महान् सत्ता को ईश्वर के नाम से पुकारता है।
फल-फूल, वनस्पतियों और ओषधियों के संसार को देखकर भी मनुष्य को बहुत आश्चर्य होता है। गुलाब के पौधे वा नीम की पत्तियाँ देखने में कितनी सुन्दर लगती हैं। उनके किनारे बिना मशीन के एक-जैसे कटे होते हैं। गुलाब के फूल में सुन्दर रंग, मधुर मोहक सुगन्ध और उसके अन्दर इत्र का प्रवेश―ये किसी बुद्धिमान् कारीगर की कारीगरी को दिखा रहे हैं। अनार की अद्भुत रचना देखिए। ऊपर कठोर छिलका, छिलके के अन्दर झिल्ली, झिल्ली के अन्दर दानों का एक निश्चित क्रम में फँसा होना, दानों में सुमधुर रस का भरा होना, उन रसभरे दानों में छोटी-सी गुठली और गुठली में सम्पूर्ण वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति। वट का विशाल वृक्ष और सरसों के बीज में एक विशाल वृक्ष का समाविष्ट होना, ये सब उस अद्भुत रचयिता को सिद्ध करते हैं।
चींटी से लेकर हाथी तक जीव-जन्तुओं की शरीर-रचना, वन्य-जन्तुओं के आकार और विभिन्न पक्षियों और कीट-पतंगों की रचना―ये सब किसके कारण है? क्या जड़ प्रकृति में इतनी सूझ-बूझ है कि वह विभिन्न आकृतियों का सृजन कर दे? ये विभिन्न शरीर-रचनाएँ परमपिता परमात्मा की ओर संकेत कर रही हैं।
इस समय धरती पर पाँच अरब व्यक्ति निवास करते हैं। सृष्टि के रचयिता की अद्भुत कारीगरी देखिए कि एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती।
इस संसार की विशालता भी आश्चर्यकारी है। ऐसा कहते हैं कि पृथिवी की परिधि २५ हजार मील है। पाँच अथवा छ: फुट लम्बे शरीरवाले मनुष्य के लिए यह परिधि आश्चर्यजनक है। पर्वत की विशालता भी कुछ कम आश्चर्यकारी नहीं―पत्थरों की एक विशाल राशि, जिसके आगे मनुष्य तुच्छ प्रतीत होता है। समुद्र की विशालता को लीजिए। कितनी अथाह-जलराशि होती है। सूर्य पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। पृथिवी की परिधि आश्चर्यकारी है, परन्तु पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा सूर्य विशालता की दृष्टि से क्या कम विस्मयकारी है? और फिर सूर्य के समान ब्रहाण्ड में करोड़ों सूर्य हैं। क्या यह संसार किसी अद्भुत रचयिता की ओर संकेत नहीं कर रहा है?
जहाँ संसार की विशालता आश्चर्यकारी है, वहाँ सृष्टि की सूक्ष्मता भी कम विस्मयकारी नहीं। बड़े-से-बड़े हाथी को देखकर जहाँ आश्चर्य होता है, वहाँ चींटी-जैसे सूक्ष्म प्राणियों को देखकर भी विस्मय होता है। संसार की यह सूक्ष्मता भी किसी रचयिता की ओर संकेत कर रही है।
कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार अकस्मात् बना है। कोई भी घटना पूर्व-परामर्श अथवा पूर्व-प्रबन्ध के बिना नहीं होती। बाजार में दो व्यक्तियों का अकस्मात् मिलन उनकी इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर किसी उद्देश्य के लिए घर से निकलने का परिणाम है। अकस्मात् वाद का आश्रय लेकर यदि कोई कहे कि देवनागरी के अक्षरों को उछालते रहने से 'रामचरित मानस' की रचना हो जाएगी तो उनकी यह कल्पना असम्भव है। 'रामचरित मानस' की रचना के पीछे किसी ज्ञानवान् चेतन सत्ता की आवश्यकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं। जो कुछ बनता है वह नेचर अथवा कुदरत से बनता है। प्रश्न यह है कि नेचर अथवा कुदरत किसे कहते हैं? यदि नेचर का अर्थ सृष्टिनियमों से है तो सृष्टियों का कोई नियामक चाहिए। कुदरत अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है सामर्थ्य। सामर्थ्य, बिना सामर्थ्यवान् के टिक नहीं सकता। सामर्थ्यवान् कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है।
स्वभाववादी, स्वभाव से ही संसार को बना हुआ मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव होगा तो वे अलग नहीं होंगे, सदा मिले रहेंगे। यदि अलग रहने का स्वभाव है तो परमाणु मिलेंगे नहीं; सृष्टि-रचना नहीं हो पाएगी। यदि मिलने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो वे सृष्टि को कभी बिगड़ने नहीं देंगे। यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो सृष्टि कभी नहीं बन पाएगी। यदि बराबर होंगे तो सृष्टि न बन पाएगी, न बिगड़ेगी।
जैनी ऐसी शंका करते हैं कि ईश्वर तो क्रियाशून्य है, अत: वह जगत् को नहीं बना सकता। वे इस यथार्थ को भूल जाते हैं कि क्रिया की आवश्यकता एकदेशीय कर्त्ता को पड़ती है। जो परमात्मा सर्वदेशी है उसे क्रिया की आवश्यकता ही नहीं होती। वह सर्वव्यापक होने से ही संसार की रचना करने में समर्थ होता है, जैसे शरीर में आत्मा के स्थित होने के कारण शरीर सब प्रकार की चेष्टाएँ करता है।
जब परमात्मा आनन्दस्वरुप है तो वह आनन्द छोड जगत् के प्रपंच में क्यों फँसता है?―यह बात निर्मूल है क्योंकि, प्रपंच में फँसने की बात एकदेशी पर लागू होती है, सर्वदेशी पर नहीं।
साभार―
["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]
["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]
No comments:
Post a Comment