वर्ष
✍🏻 लेखक - स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी
🔥 संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसीदावत्सरोऽसीद्वत्सरोसि वत्स रोऽसि ॥ -यजु:० २७।४५
संवत्सर शब्द वर्ष का वाचक है। इस मन्त्र में संवत्सर, परिवत्सर इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर-ये पाँच शब्द हैं। क्या इस मन्त्र में ये सब शब्द वर्ष के ही वाचक हैं, वा किसी अन्यार्थ के वाचक हैं। यदि वर्ष ही के हैं तो इन पाँचों में कुछ अन्तर है, वा समान ही हैं। यदि समान ही हैं तो ये पाँच नाम क्यों, एक ही होना उचित था।
इस पर उव्वाचार्य जी का यह पाठ है।।
इस पर उव्वाचार्य जी का यह पाठ है।।
🔥 सञ्चितोग्निरनेन वपुषा अभिमृश्यते । पञ्च संवत्सरमयं युगाध्यक्ष प्रजातिमिति, यदुक्तं ज्योतिः शास्त्रे तदिहोच्यते। हे अग्ने यस्त्वं संवत्सरोऽसि, सर्वस्य सारितासि, न च त्वामन्यः सारयति । यश्च त्वं परिवत्सरोऽसि, यश्च इदावत्सरोऽसि इदा= इदानीमिति समानार्थी, यश्च इद्वत्सरोऽसि इदिति निपातः । यश्च वत्सरोऽसि निर्विशेषेण तस्य ते भवतः उषसः।
इसमें पाँच वर्ष का युग मान कर उसमें विनियोग किया है, इससे कोई विशेष बोध नहीं होता कि यह क्या है ? महीधर जी ने इसी भाव को कुछ साफ करके लिखा है, अन्य विशेष कुछ नहीं। उनका पाठ यह है।
🔥 अग्निदेवत्वं पुनः अत्र यजुषि नव नवत्यक्षराणि एको व्यूहः ततः शताक्षराभिः कृतिश्छन्दः । चित्याग्नेरभिमर्शने विनियोगः । पञ्च संवत्सरमयं युगाध्यक्ष प्रजापतिरिति(ज्यो० १।१ ) ज्योतिः शास्त्रोक्तमिहोच्यते। हे अग्ने त्वं संवत्सरोऽसि, परिवत्सरोऽसि, इदावत्सरोऽसि, इद्वत्सरोऽसि, वत्सरोऽसि, निर्विशेषेण पञ्च संवत्सरात्मकयुगरूपोऽसीत्यर्थः युगं भवेद्वत्सरपञ्चकेनेति ज्योति:शास्त्रोक्तेः।
यह भी विनियोग करते हैं और कुछ नहीं, महर्षि दयानन्द जी इस मन्त्र के अर्थ इस प्रकार लिखते हैं, हे विद्वान् पुरुष जिससे तू संवत्सर के तुल्य नियम से वर्तमान है (परिवत्सर) त्याज्य वर्ष के समान दुराचार का त्यागी। (इदावत्सर) निश्चय से अच्छे प्रकार वर्तमान वर्ष के तुल्य है। इद्वत्सर=निश्चित संवत्सर के सदृश है। वत्सर=वर्ष के समान है।
इसमें भी नियम पूर्वक रहने, दुराचार का त्याग करने आदि का उपदेश है। काल के विषय में अन्य कुछ नहीं है।
यही शब्द अध्याय ३० के मन्त्र १५ में भी आए हैं। इसलिए वह भी लिखता हूँ।
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यही शब्द अध्याय ३० के मन्त्र १५ में भी आए हैं। इसलिए वह भी लिखता हूँ।
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संवत्सराय पर्यायिण, परिवत्सराय अविजाताम् इदावत्स रायातीत्वरीम्, इद्वत्सरायातिष्कद्वरीम्, वत्सराय विजर्जराम्, संवत्सराय पलिक्नीम्। ३०, १५
इसमें संवत्सर दो बार है।
षष्ठ यूप के साथ बाँधने का प्रकरण है।
इसमें संवत्सर दो बार है।
षष्ठ यूप के साथ बाँधने का प्रकरण है।
🔥 संवत्सराय, पर्यायिणीम् पर्यायोऽनुक्रमस्तद्वतीमनुक्रमज्ञाम्।
आगे सातवें यूप के बाँधे जानेवाले
🔥 परिवत्सराय, अविजाताम् अप्रसूताम् इदावत्सराय, अती त्वरीमत्यन्तकुलटाम् पुंश्चलीं कुलटेवरीम् इद्वत्सराय अति स्कद्वरीम् अतिस्कन्दति स्रवति इत्यतिस्कद्वरी। वत्सराय, विजर्जराम् शिथिलशरीराम संवत्सराय पलिक्नीं श्वेतकेशाम्।
यह अध्याय पुरुषमेध का है। ११ यूप हैं, चालीस दिन में पूरी होता है।
महर्षि दयानन्द जी अपने भाष्य में लिखते है-
हे जगदीश्वर वा राजन् आप.......। संवत्सराय, प्रथम संवत्सर के अर्थ पर्यायिणीम् सब ओर से काल के क्रम को जाननेवाली को।
परिवत्सराय-दूसरे वर्ष के निर्णय के लिए, अविजाताम्-ब्रह्मचारिणी कुमारी को इदावत्सराय=तीसरे इदावत्सर के कार्य साधने अर्थ । अतीत्वरीम्=अत्यन्त चलनेवाली को इवत्सराय=पाँचवें इद्वत्सर के ज्ञान के अर्थ अतिस्कद्वरीम्=अतिशय कर जाननेवाली को वत्सराय सामान्य संवत्सर के लिए विजर्जराम्=वृद्ध स्त्री को।
परिवत्सराय-दूसरे वर्ष के निर्णय के लिए, अविजाताम्-ब्रह्मचारिणी कुमारी को इदावत्सराय=तीसरे इदावत्सर के कार्य साधने अर्थ । अतीत्वरीम्=अत्यन्त चलनेवाली को इवत्सराय=पाँचवें इद्वत्सर के ज्ञान के अर्थ अतिस्कद्वरीम्=अतिशय कर जाननेवाली को वत्सराय सामान्य संवत्सर के लिए विजर्जराम्=वृद्ध स्त्री को।
संवत्सराय चौथे अनुवत्सर के लिए। पलिक्नीम्=श्वेत केशोंवाली को .....। उत्पन्न कीजिये।
इस नामवाले वर्षों के लिए इनको कैसे उत्पन्न किया जाय, यह बात विचारणीय है।
इस अध्याय पर पण्डित श्री दा० सातवलेकर जी ने भी लिखा है। उनका साधारण रूप में भाव यह है, कि इस अध्याय में भिन्न-भिन्न कामों के लिए भिन्न-भिन्न स्वभाव के लोगों को नियत करने का आदेश है, उनका लेख इस प्रकार है।
वत्सराय= पाँच वर्षों के एक युग के लिए, विजर्जरा=वृद्ध स्त्री को रखो । संवत्सराय=प्रथम वर्ष के लिए, पर्यायिणी=कालक्रम जाननेवाली स्त्री को रखो। परिवत्सराय=द्वितीय वर्ष के लिए, अविजाताम्= ब्रह्मचारिणी कुमारी विदुषी को रखो।
इदावत्सराय=तीसरे वर्ष के लिए, अतीत्वरीम्=शीघ्र उन्नति करनेवाली विदुषी को रखो।
संवत्सराय, अनुवत्सराय=चतुर्थ वर्ष के लिए, पलिक्नीम्, सफ़ेद बालोंवाली वृद्धा स्त्री को रखो।
इद्वत्सराय=पञ्च वर्ष के लिए, अतिस्कद्वरीम्=अत्यन्त ज्ञानी स्त्री को रखो।
इदावत्सराय=तीसरे वर्ष के लिए, अतीत्वरीम्=शीघ्र उन्नति करनेवाली विदुषी को रखो।
संवत्सराय, अनुवत्सराय=चतुर्थ वर्ष के लिए, पलिक्नीम्, सफ़ेद बालोंवाली वृद्धा स्त्री को रखो।
इद्वत्सराय=पञ्च वर्ष के लिए, अतिस्कद्वरीम्=अत्यन्त ज्ञानी स्त्री को रखो।
पाँच-पाँच वर्षों का एक युग होता है। स्त्रियों की उन्नति को ही सोचना चाहिए। इसलिए पाँच वर्षों के एक युग के लिए एक ज्ञानी कर्तव्याकर्त्तव्य जाननेवाली स्त्री को अध्यक्ष निश्चित करके, उसके अधीन कार्य करने के लिए प्रति वर्ष अलग-अलग स्त्री को रखना चाहिए। पहले वर्ष पूर्वक्रम को जाननेवाली, दूसरे वर्ष विदुषी कुमारिका, तीसरे वर्ष शीघ्र उन्नतिवाली, चौथे वर्ष वृद्धा, पाँचवें वर्ष अत्यन्त ज्ञानी स्त्री को रखना।
महर्षि दयानन्द जी और पण्डित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी के अर्थ पाँच वर्ष और भिन्न-भिन्न स्वभावयुक्त स्त्री में के समान ही हैं। पाँच वर्ष के युग की कल्पना ब्राह्मण ग्रन्थों में भी मिलती है। जैसे
🔥 अग्निः संवत्सरः सूर्यः परिवत्सरः चन्द्रमा इदावत्सरः, वायुः अनुवत्सरः । ताण्ड्य ब्राह्मण १७, १३, १७
🔥 तथा चोक्तं चान्द्रायणैः। प्रभवादीनां पञ्चकं पञ्चक सम्परीदनूदेत्येतच्छब्दपूर्वास्तु वत्सर इति।
अर्थात् वत्सर के आगे से परि, इदा, अनु, इद शब्द लगाकर पाँच वर्ष का युग माना गया है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण का पाठ भी ऐसा ही है।
🔥 अग्निर्वाव संवत्सरः। आदित्यः परिवत्सरः । चन्द्रमा इदावत्सरः। वायुरनुवत्सरः। तै० ब्रा० १।४।१०
टीका में यह पाठ है।
🔥 प्रभवविभवादीनां षष्ठिसंवत्सराणां मध्य एकैकसंवत्सर पञ्चकमेकैकं युगम् । तस्मिन् युगे वर्तमानानां पञ्चानां संवत् सराणां क्रमेण संवत्सरः, परिवत्सरः इदावत्सरोऽनुवत्सर इद्वत्सर इत्येतानि नामधेयानि। तथा चोक्तम्-
🔥 चन्द्राणां प्रभवादीनां पञ्चके पञ्चके युगे। सम्परीदान्वि दित्येतच्छब्दपूर्वास्तु वत्सरः॥
चातुर्मास यज्ञों में इनका उल्लेख है, क्योंकि आरम्भ में ही टीकाकार ने लिखा है।
🔥 नवमे चातुर्मास्यानि विहितानि। अत्र दशमे तत्र विशेष विधातुं प्रस्तौति।।
दोनों ब्राह्मणों में चातुर्मास्य यज्ञों का आगे वर्णन है, परन्तु सब पाठों के पढ़ने से यह पता नहीं लगता कि संवत्सर, परिवत्सर आदि का नियम क्या है। इन में क्या भेद है? वह भेद भी है अथवा सामान्य वर्ष के वाचक हैं।
इस विषय को पं० प्रियरत्न जी आर्ष ने वैदिक ज्योतिष शास्त्र में स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनका भाव है--
संवत्सर सावन वर्ष है। परिवत्सर सौर वर्ष है, इदावत्सर चान्द्र वर्ष है। इद्वत्सर दिव्य वर्ष है, वत्सर नक्षत्र वर्ष है।
आगे ब्राह्मणपाठ की संगति की है।
अग्नि पृथिवी का देवता होने से अग्नि सावन वर्ष है। आदित्य सौर वर्ष है। इदावत्सर चान्द्र वर्ष है। इद्वत्सर का देवता वाराही संहिता में महादेव है, अत: वह दिव्य वर्ष है। अनुवत्सर नाक्षत्र वर्ष है। इस प्रकार पाँचों वर्षों की व्यवस्था की है। और इससे कुछ समझ में भी आ जाता है कि भिन्न नामों का कोई कारण है।
परन्तु इसमें आक्षेप यह होता है। चार वर्ष तो मनुष्य गणना के हैं। इनमें एक इद्वत्सर दिव्य वर्ष क्यों आ गया?, क्योंकि दिव्य वर्ष तो देवताओं का वर्ष है। उसमें तो एक वर्ष का एक दिन होता है। वैसा मानने से ब्राह्मणों में लिखित यज्ञों की व्यवस्था कैसे होगी। इस का का आर्ष जी ने कोई समाधान नहीं किया है। सम्भव है, उनको उस समय यह शंका उत्पन्न ही न हुई हो। इसलिए इस घर और विचार करने की आवश्यकता है।
ज्योतिष के सूर्यसिद्धान्त नामक ग्रन्थ में भी वर्षों पर विचार किया है। इसलिए आगे उसका पाठ लिखता हूँ। वह वर्षों के भेद पाँच से अधिक मानता है।
🔥 ब्राह्म दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं च गौरवम् सौरं च सावनं चान्द्रमाक्षैमानानि वै नव ॥ सूर्यसि० अध्याय १४
ब्राह्म, दिव्य, पित्र्य, प्राजापत्य, बृहस्पति, सौर, सावन, चान्द्र, नाक्षत्र, ये नौ काल के मान हैं।
🔥 चतुर्भिर्व्यवहारोऽत्र सौरचान्द्रार्धसावनैः।बार्हस्पत्येन सृष्ट्यब्दं ज्ञेयं नान्यैस्तु नित्यशः।२।
व्यवहार चार वर्षों का ही होता है सौर, चान्द्र, नाक्षत्र, सावन । पाँचवाँ बार्हस्पत्य वर्ष है। जो ६० वर्ष का विजयादि भेद से होता है। उसमें साठ वर्षों को किस प्रकार गिना जाता है। वह भी सूर्यसिद्धान्त में लिखा है। व्यवहार के लिए सूर्यसिद्धान्त चार वर्ष मानता है। और इसकी गणना में दिव्य वर्ष भी था, किन्तु उसे सूर्यसिद्धान्त मनुष्य व्यवहार में नहीं मानता है। इस प्रकार पं० प्रियरत्न जी आर्ष का दिव्य वर्ष मानना ठीक प्रतीत नहीं होता है।
अब भी यह प्रश्न है। ये जो वर्ष हैं, इन का अन्तर क्या है ? इसलिए वह अन्तर लिखता हूँ।
🔥 अब्दो माधवमते पञ्चधा, सावनः सौरश्चान्द्रो नाक्षत्रो बार्हस्पत्य इति । (निर्णयसिन्धु) । ।
अर्थात् वर्ष पाँच प्रकार का होता है। सावन, सौर, चान्द्र, नक्षत्र, बार्हस्पत्य । आगे इसके विषय में विस्तार से लिखा है। वत्सर: पञ्चधा-- चान्द्रः, सौरः, सावनो, नाक्षत्रः, बार्हस्पत्य इति । (धर्मसिन्धु)
इसमें अन्तर इस प्रकार है।
🔥 चान्द्रवर्ष-चतुःपञ्चाशदधिकशतत्रयदिनैः।
अर्थात् ३५४ दिन का चान्द्र वर्ष होता है।
🔥 सौरवर्ष-पञ्चषष्ट्यधिकशतत्रयदिनैः सौरो वत्सरः।
अर्थात् ३६५ दिन सौर वर्ष होता है।
🔥 सावनवर्षः-षष्ट्युत्तरशतत्रयदिनैः सावनः।
३६० दिन का सौर वर्ष होता है।
🔥 नाक्षत्रवर्षः–स च चतुर्विंशत्यधिकशतत्रयदिनैः स्यात्।
३२४ दिन का नाक्षत्र वर्ष होता है।
🔥 बार्हस्पत्यवर्षः स च एकषष्ट्यधिकशतत्रय-संख्या दिनैर्भवति।
३६१ दिन का बार्हस्पत्य वर्ष होता है।
यही बात धर्मसिन्धु में विस्तार से लिखी है, विशेष जानने की इच्छावाले निर्णयसिन्धु धर्मसिन्धु में देख सकते हैं अथवा ज्योतिष के ग्रन्थ देखें।
अब संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर, वत्सर जो शब्द वेद में आए हैं, उन को इनके साथ मिलाना चाहिए।
संवत्सर, सावन वर्ष है जो ३६० दिन का होता है। परिवत्सर, सौर वर्ष है, जो ३६५ दिन का होता है। इदावत्सर, चान्द्र वर्ष है, जो ३५४ दिन का होता है । इद्वत्सर, बार्हस्पस्त्य वर्ष है, जो ३६१ दिन का होता है। वत्सर नाक्षत्र वर्ष है, जो ३२४ दिन का होता है। वत्सर का नाम अनुवत्सर भी लिखा है।
इद्वत्सर को यदि दिव्य वर्ष मानें तो वह देवताओं का वर्ष होने से बहुत बड़ा होगा और सूर्यसिद्धान्त ब्राह्मण, दिव्य, पित्र्य, प्राजापत्य वर्षों को व्यवहार में नहीं मानता है। इसी कारण उसे बार्हस्पत्य मानना ठीक है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में अग्नि, संवत्सर, आदित्य, परिवत्सर, चन्द्रमा, इदावत्सर, वायु अनुवत्सर लिखा है। इन में अग्नि से सावन वर्ष, आदित्य से सौर वर्ष, चन्द्रमा से चान्द्र वर्ष, वायु से नाक्षत्र वर्ष लेना चाहिए।
शेष बार्हस्पत्य वर्ष है। चातुर्मास्य यज्ञों में उसकी आवश्यकता नहीं, इसलिए इन्होंने उसे छोड़ दिया है। मैंने अपनी समझ के अनुसार संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर और वत्सर शब्दों को कालवाचक मानकर वर्ष भेद से समझाने का यत्न किया है। यदि कोई विद्वान् उसे किसी अन्य रीति से बताने की कृपा करेगा तो मैं उसे विचार के पश्चात् मानने को उद्यत हूँ और उसका आभार मानूंगा।('वेदवाणी' से साभार)
✍🏻 लेखक - स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी
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