Saturday, June 23, 2018

स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन का एक विस्मृत पृष्ठ



स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन का एक विस्मृत पृष्ठ

डॉ विवेक आर्य

1919 का वर्ष भारतीय राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अंग्रेजों द्वारा ‘रौलेट एक्ट’ लागू किया गया, जिसे काला कानून भी कहा जाता है। उनका मानना था कि प्रथम विश्व-युद्ध के समय कुछ भारतीयों ने सरकार के विरुद्ध गतिविधियों में भाग लिया था। यह कानून ऐसी गतिविधियों में भाग लेने वालों पर अंकुश लगाने के लिए बनाया गया था। इसके तहत किसी को गिरफ्तार कर जेल भेजने की खुली छूट, दो वर्ष तक बिना सुनवाई के भी जेल में रखने, प्रेस पर भी कठोरता से नियंत्रण का प्रावद्दान था। प्रेस आरोपी को जेल में रखे जाने की कोई समय सीमा नहीं थी। बिना वारंट गिरफ्तारी व आरोपी के कैमरा ट्रायल का विधान था। जेल से रिहाई पर आरोपी द्वारा जमानत राशि जमा कराने और यह शपथ पत्र दाखिल करने की बाध्यता थी कि वह किसी भी राजनीतिक, शैक्षिक अथवा धार्मिक गतिविधि में भाग नहीं लेगा। संक्षेप में कहें तो यह कानून ‘न दलील, न वकील, न अपील का काला कानून’ था।
महात्मा गाँधी उस समय राष्ट्रीय फलक पर उभरता हुआ व्यक्तित्त्व थे। उन्होंने इस कानून के विरोध में आंदोलन आरम्भ कर दिया। उनके आंदोलन से डाॅ0 सत्यपाल, डाॅ0 सैफुद्दीन किचलू, डाॅ0 अंसारी और हमारे चरित्र नायक स्वमी श्रद्धानन्द जैसे अनेक प्रबुद्ध चिंतक जुड़ गए। पंजाब क्षेत्र में इस कानून के विरोध में विशेष आक्रोश था। वहाँ पर दौरा कर रहे डाॅ0 सत्यपाल और डाॅ0 सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर धर्मशाला ले जाकर नजरबंद कर दिया गया। सेना तैनात कर दी गई और कठोर धाराएं विशेषाज्ञा के रूप में लागू कर दी गईं। इसी दौरान अप्रैल 13, 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में बैसाखी के अवसर पर इकट्ठा हुए निरपराध लोगों पर जनरल डायर ने अंधाधुंध गोलीबारी कर रक्तरंजित कांड को अंजाम दिया था।
इस एक्ट के विरुद्ध हुए आन्दोलन में आर्यसमाज के नेता और गुरुकुलीय शिक्षा के पुनरुद्धारक स्वामी श्रद्धानन्द जी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर धुमकेतु की तरह चमके थे। स्वामीजी के जीवन की इस महत्त्वपूर्ण घटना का हम यहाँ पर विस्तृत वर्णन देना चाहेंगे।
स्वामी श्रद्धानन्द का 4 मार्च को अकस्मात् ही इस आंदोलन से जुड़ना हुआ। उनका महात्मा गाँधी से रौलेट कानून को लेकर संवाद हुआ।
7 मार्च को स्वामीजी ने कांग्रेस के मंच से प्रथम बार सार्वजनिक भाषण दिया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अगर रौलेट कानून लागू हो गया तो जनता ब्प्क् के रहमो करम पर आश्रित हो जायेगी। तब स्वराज एक कल्पना भर रह जायेगा। 10 से 21 मार्च एक स्वामीजी बम्बई, सूरत, भरूच, अहमदाबाद और सूरत में रौलेट कानून के विरोध में जनसभाओं को सम्बोधित करते मिलते हैं। 22 मार्च को स्वामीजी दिल्ली लौटते हैं तो देखते है कि आंदोलन ठंडा पड़ रहा है।
24 मार्च को कुछ उत्तेजना के साथ स्वामीजी का भाषण हुआ। स्वामी जी ने एक काल्पनिक चित्रण करते हुए अपने भाषण में कहा- सोचिये, भारत के प्रधानमंत्री को इस काले कानून के अंतर्गत निरपराध होते हुए केवल शक की बिनाह पर गिरफ्तार कर लिया जाये और न उन्हें वकील की सहायता मिले, न अपील करने का अधिकार मिले! क्या आप ऐसा कानून चाहेंगे?
27 मार्च को अपने भाषण में स्वामीजी ने कहा कि अगर रौलेट कानून लागू हो गया तो कोई भी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्था कार्य नहीं कर पायेगी।
29 मार्च को उन्होंने अपने भाषण में हड़ताल का समर्थन करते हुए कहा- अगर हड़ताल में ट्राम भाग न लें तो उनका सार्वजनिक बहिष्कार कर दिया जाये। अगर सिनेमा आदि खुले तो कोई उसे देखने न जाये। अगर सरकारी सिपाही सत्याग्रह को रोकने का प्रयास करें तो कोई उनकी आज्ञा का पालन न करे। सभी अपने जीवन को कठोरता से जीना आरम्भ कर दें- जैसा जेल के कैदियों का होता है क्योंकि कभी भी जेल जाना पड़ सकता है।
30 मार्च 1919 स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन का अविस्मरणीय दिन था। स्वामीजी का कद इस दिन एक समाज सुधारक से एक प्रभावशाली राष्ट्रवादी नेता के रूप में स्थापित हुआ। उस दिन सार्वजनिक हड़ताल थी। एक मिठाईवाले और सत्याग्रहियों के मध्य दुकान खुलने को लेकर विवाद हो गया। उस समय गोलीबारी में कुछ लोग घायल भी हो गए। भागती हुई भीड़ चांदनी चैक के घंटाघर की ओर बढ़ने लगी। घंटाघर पर फिर से दंगा हुआ। पुलिस की गोलीबारी में 5 लोगों की मृत्यु हुई और अनेक घायल हुए। स्वामी श्रद्धानन्द इस समूह को पीपल पार्क में ले गए और सम्बोद्दित किया। वहाँ से लौटते हुए क्या हुआ- स्वामी जी के शब्दों में जानिए- (स्वामीजी द्वारा स्वलिखित यह घटना मराठा अखबार, 6 अप्रैल, 1919, में छपी थी।)
‘मैंने विशाल जनसमूह को शांत रहकर घर लौटते हुए मेरे पीछे चलने का आग्रह किया। हम सभी शांत रूप में जा रहे थे। जब हम घंटाघर के निकट पहुंचे तब देखा कि गुरखे सिपाही सड़क के बीचो-बीच दोनों ओर मुख कर खड़े हुए थे। हमें देखकर वे कुछ दाएं सरक गए। हमने सोचा कि उन्होंने हमारे जाने के लिए बाएं से रास्ता छोड़ा है। पर जब हम उनके निकट पहुंचे तो उन्होंने भीड़ पर एक गोली चलाई। इससे भीड़ में उत्तेजना फैल गई और समूह तीतर बितर हो गया। पर मैंने भीड़ को शांत होने का इशारा किया। मैं अपने संन्यासी के भेष में अकेला गोरखा सिपाहियों के समीप गया और मैंने उनसे पूछा कि आप क्यों निर्दोष और शांतिप्रिय भीड़ पर गोलीबारी कर रहे हैं? तभी बंदूकें मेरे ऊपर तान कर सिपाही बोले- तुम को छेदेंगे। मैं शांत रहा और मैंने कहा- मैं खड़ा हूँ। गोली चलाओ। उसी समय मेरी छाती के ऊपर 8 से 10 बंदूकें तन गईं। यह देखकर भीड़ आपे से बाहर हो गई। तभी मैंने उन्हें हाथ दिखाकर और बोलकर शांत किया। पर भीड़ चिल्लाये जा रही थी। हमें मरने दीजिये, पर आपको कुछ नहीं होने देंगे। मेरी छाती पर बन्दूक ताने कुछ 3 मिनट हुए थे कि तभी एक गोरा अफसर घोड़े पर बैठ कर वहाँ आया। मैंने उसे इस हरकत को अंकित करने के लिये कहा। सभी बंदूकें एकदम से नीचे झुक गईं। मेरे सामने उस गोरे अफसर ने पुलिस वाले से पूछा कि क्या तुमने गोली चलाने का आदेश दिया था? पुलिस वाले ने इंकार किया। मैंने आगे बढ़कर गोरे अफसर से पूछा कि क्या आपने गोली चलने की आवाज सुनी है? उसने कहा कि वह यही तहकीकात करने आया था। मैं तब भीड़ के साथ वहाँ से प्रस्थान करने लगा। तभी एक गोरखा सिपाही आया और अपनी खुखरी को दो बार मेरे सामने हवा में घुमाया, पर कोई प्रतिक्रिया न होते देख वह खिसक गया। उस समय गाड़ी पर मशीनगन लेकर एक सिपाही भीड़ के लगातार चक्कर लगा रहा था और उस सिपाही की अंगुली हर समय बन्दूक पर थी। भीड़ न तो उत्तेजित हुई और न ही झुकी।’
ध्यान दीजिये- तत्कालीन ब्प्क् रिपोर्ट में गोरखा सिपाहियों के व्यवहार के विषय में कुछ भी आलोचनात्मक नहीं रिपोर्ट किया गया था। कुछ दिन बाद जब स्वामीजी का यह लेख मराठा अखबार में छपा तब एक तहकीकात समिति इस घटना के लिए नियुक्त हुई। अंग्रेज अफसरों ने आंतरिक जाँच में पूछा कि ब्प्क् द्वारा इतनी बड़ी घटना की विस्तार से रिपोर्ट क्यों नहीं भेजी गई।
जाँच समिति ने अपनी टिप्पणी के रूप में यह लिखा- ‘स्वामी श्रद्धानन्द का कथन है कि उनके निर्देशन में 40000 लोग जमा थे। जो लोग जमा थे, वे सत्याग्रह के सिद्धांतों का पालन करने वाले थे, इसलिए दंगा-फसाद नहीं हुआ और अंत तक शांति कायम रही। ये एक सच्चे संन्यासी के शब्द हैं, जो सरकार और जनता दोनों का समान रूप से हित देखता है; इसलिए उनके कथन में अविश्वास करने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता।’
अंत में तहकीकात समिति ने इस घटना का निष्कर्ष यह निकाला कि सिपाहियों का रवैया एक हथोड़े से एक मक्खी को कुचलने के जैसा था।
31 मार्च को स्वामीजी ने सत्याग्रह में शहीद हुए मृतकों की शव यात्रा में भाग लिया। 1 अप्रैल को स्वामीजी ने हड़ताल खोलने का आह्वान किया एवं घंटाघर के नजदीक एकत्र हुए लोगों को घर जाने का निर्देश दिया। 3 अप्रैल को सत्याग्रह में घायल एक मृतक की शवयात्रा निकली। स्वामीजी इस शवयात्रा में शामिल हुए। जब यह शवयात्रा गुरुद्वारा शीशगंज पहुंची तो इसे रोका गया। स्वामीजी ने भीड़ को सम्बोधित किया। उन्होंने शहीद मृतक की तुलना गुरु तेगबहादुर द्वारा दिए गए बलिदान से करते हुए कहा कि स्वराज प्राप्त करने के लिए ऐसे बलिदानों की आज अत्यंत आवश्यकता है। शव यात्रा में अर्थी को हिन्दू और मुसलमान दोनों ने कन्धा दिया था। स्वामीजी ने इस मेलमिलाप पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए सरकारी ट्राम और सामान का बहिष्कार करने का आह्नान किया।
4 अप्रैल को फिर से एक ऐतिहासिक दिन आया। अब्दुल मजीद के नाम से एक राष्ट्रवादी मुसलमान ने स्वामीजी को जामा मस्जिद में सम्बोधन के लिए आमंत्रित किया। श्रोताओं में अधिकतर मुसलमान थे। स्वामीजी ने मुकाबर पर खड़े होकर अपना सम्बोधन वेद मंत्र से प्रारम्भ किया। उन्होंने विदेशियों द्वारा बच्चों और युवाओं पर अत्याचार का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि अगर दिल्ली की आद्दी जनसँख्या को भी 40-45 लोगों के स्थान पर अपना बलिदान देना पड़े तो भी मृत्यु का कोई भय नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा- कई बलिदानियों के खून ने हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य हुए मेल मिलाप को स्थिरता प्रदान की है। यह भाषण भारत के इतिहास का एक अविस्मरणीय भाषण था। एक भगवा कपड़ों में सुशोभित संन्यासी द्वारा दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद से हिन्दू मुस्लिम एकता का आह्नान करना निश्चित रूप से नए दौर का आगमन था।
5 अप्रैल को स्वामीजी द्वारा सत्याग्रह के नेताओं से भेंट कर चर्चा करने का विवरण मिलता है। 6 अप्रैल को स्वामीजी को प्रातः फतेहपुरी मस्जिद और दोपहर को किंग एडवर्ड पार्क में आमंत्रित किया गया। फतेहपुरी मस्जिद के भाषण में स्वामी जी बोलते हैं- ‘यह गुलामी हमारे हृदय में शूल के समान है। यह गुलामी हमारे कानों में सदा गूंजती रहती है। हे हिन्दू और मुसलमानों के परम पिता! निरपराध हिन्दू और मुसलमानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। हे सृष्टि के निर्माणकर्ता ईश्वर! हम सब आपके ऊपर निर्भर हैं। आज हम यहाँ पर आपसे मानसिक शांति की प्रार्थना हेतु एकत्र हुए हैं जो अपने ही निरपराध भाइयों की हत्या हो जाने से व्यथित हैं। हमारे हृदयों को सांत्वना दीजिये और हमारे मध्य एकता स्थापित कीजिये। हमें धीरज दीजिये, हमारी रक्षा कीजिये, ताकि हम अपनों का खून देखकर विचलित न हों। हम आपको धन्यवाद दें कि आपने निरपराद्दों को अपना बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने बलिदान से दुनिया को बचा लिया। जो कुछ वहाँ हुआ, छुपा नहीं है। हमें शक्ति दीजिये कि हम सांसारिक भोगों से बचे रहें। हम सरकारी शक्तियों से आतंकित न हों और बलिदानियों के प्रति संवेदनशील रहें। हम देश की प्रगति और स्वतंत्रता के लिए अपनी आहुति देने के लिए तत्पर रहें। हमें यह शक्ति दीजिये। हम 32 करोड़ भारतवासियों को 64 करोड़ के बराबर शक्ति दीजिये ताकि हम सांसारिक दुःखों को झेल सकें और शांति व अभय का साम्राज्य स्थापित हो।’
एडवर्ड पार्क और दरियागंज में भाषण देते हुए स्वामीजी ने कहा कि दिल्ली में भारी मशीनगन और भारी संख्या में तैनात सेना अशांति फैलाने वाली है। उन्होंने आपसी विवादों को सुलझाने के लिए कोर्ट जाने के स्थान पर स्थानीय पंचायत में ही विवाद सुलझाने का आग्रह किया।
7 अप्रैल को स्वामीजी एक हिन्दू सत्याग्रही की शवयात्रा में शामिल हुए। उन्होंने बलिदान का गुणगान करते हुए कहा कि जो युद्ध में अपने कत्र्तव्य का निर्वहन नहीं करते, वे अधम हैं। उन्होंने बलिदानी की प्रशंसा करते हुए कहा कि वीरगति को प्राप्त हुआ युवक प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने के लिए दो बार अपने घर से भाग गया था। युवक ने अपने प्राण जिस सरकार के लिए प्रस्तुत कर दिए थे। उसी सरकार ने उसके प्राण गोली मारकर हर लिए।
9 अप्रैल को स्वामीजी को गुप्त सूचना मिली कि महात्मा गाँद्दी रेल से दिल्ली आ रहे हैं। वे 40 साथियों के साथ स्वामीजी को लेने रेलवे स्टेशन गए, परन्तु स्वामी जी नहीं पहुंचे। महात्मा गाँधी को पलवल में गुप्त रूप से गिरफ्तार कर दिल्ली प्रवेश से रोक दिया गया। सत्याग्रह की कमान स्वामी जी के हाथों में थी।
10 अप्रैल को स्वामीजी ने सार्वजनिक सभा में महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी का विरोध किया। उन्होंने महात्मा गाँधी का सार्वजानिक सन्देश पढ़ा और लोगों को जेल भरने का आह्नान किया। शाम को उन्होंने गाँधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में एकत्र हुई भीड़ को सम्बोधित किया और यह आह्नान किया कि जब तक रौलेट कानून निरस्त नहीं होता सभी गाँधी जी के बताये मार्ग पर चलें।
11 अप्रैल को स्वामीजी ने पटौदी हाउस में सभा को सम्बोधित किया। उन्होंने ब्प्क् पर हमला करते हुए कहा कि उन्हें झूठी खबरें प्रचारित कर हड़ताल को और अधिक नहीं खींचना चाहिए।
13 अप्रैल को घंटाघर में एक बड़ी संख्या को सम्बोद्दित करते हुए दुकानें खोलने का प्रस्ताव दिया। वे पुलिस के अद्दिकारियों से भी मिले और गश्ती सेना हटाने का प्रस्ताव किया। उस दिन उन्होंने दो सभाओं को सम्बोधित किया।
14 अप्रैल को भीड़ ने ब्प्क् के अधिकारी की पिटाई कर दी। सरकार ने स्वामी जी के भाषणों को इसके लिए जिम्मेदार बताया। 15 अप्रैल को स्वामीजी ने डाॅ0 अंसारी के घर पर सभा को सम्बोधित किया।
16 अप्रैल को स्वामीजी ने दुकानें खुलवाने का प्रयास किया मगर वातावरण बहुत तनावपूर्ण और जटिल था। 18 अप्रैल को भी हड़ताल नहीं खुली। स्वामीजी ने एक युवा के अंत्येष्टि संस्कार में भाग लिया।
2 मई को स्वामीजी ने सत्याग्रह समिति से त्यागपत्र दे दिया। स्वामीजी के लिए यह सत्याग्रह एक धर्मयुद्ध था। स्वामीजी ने महात्मा गाँधी को सलाह भी दी थी कि सभी सत्याग्रही इस दौरान रोजाना आधा घंटा ध्यान और ईश्वर वंदन करे। एक समय तो ऐसा लगता था कि दिल्ली में रामराज की स्थापना हो गई है। हिन्दू और मुसलमान आपसी प्रेम और भाईचारे का व्यवहार कर रहे हैं। गुंडागर्दी काबू। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे की माताओं और बहनों को अपनी माता और बहन का सत्कार दे रहे थे, पर धीरे धीरे हालात काबू से बाहर होते गए। सत्याग्रह के अनेक नेता सँभालने का प्रयास करते मगर स्थिति तनावपूर्ण बनी रही।
ब्प्क् अधिकारियों के अनुसार स्वामीजी के भाषण बहुत अंश तक इस गंभीर स्थिति के लिए जिम्मेदार थे। उनका यह भी कहना था कि स्वामीजी दिल्ली और उसके समीप रोहतक आदि के आर्यों के प्रभावशाली नेता हैं। पर सरकार इस विवाद से उनका कोई भी सीधा सम्बन्ध स्थापित करने में नाकाम रही।
स्वामीजी के पुत्र इंद्र विद्यावाचस्पति पर भी शक किया गया। स्वामीजी और डाॅ0 अंसारी को नजरबन्द कर पंजाब या उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रान्त) भेजने पर विचार किया गया। पंजाब और उत्तर प्रदेश के अद्दिकारियों ने स्वामीजी को वहाँ रखने से मना कर दिया। उनका कहना था कि दोनों राज्यों में स्वामीजी का व्यापक प्रभाव है, इसलिए गड़बड़ी बनी रहेगी। एक विचार मध्य प्रान्त के बैतूल में नजरबन्द करने का भी बना, पर बिना साक्ष्य के स्वामीजी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका। केवल ब्प्क् की आंतरिक चर्चा से हमें यह जानकारी मिलती है।
स्वामीजी ने अपना त्यागपत्र गाँधी जी को भेजा। उनकी असंतुष्टि के कुछ कारण थे। जब स्वामीजी ने हर सत्याग्रही को ध्यान करने का नियम बनाने और अन्य सुझाव दिए तब गाँधीजी का उत्तर था- ‘भाई साहिब! आपको ज्ञात होगा कि मैं सत्याग्रह चलाने में माहिर हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ।’ स्वामीजी को न चाहते हुए भी गाँद्दीजी का विचार मौन रहकर स्वीकार करना पड़ा।
गाँधीजी को लिखे पत्र में स्वामीजी के असंतुष्ट होने के दो कारण मिलते हैं। पहला कारण था- दिल्ली के अधिकारियों का उत्तेजित होने देना और पंजाब में उन द्वारा व्यापक स्तर पर सरकारी नियम और अनुशासन के नाम पर अत्याचार करना। उन्हें लगा कि महात्मा गाँधी दिल्ली में हुई हिंसा का दोष दिल्ली के सत्याग्रहियों को देना चाहते हैं, जिनके स्वामीजी नेता हैं।
दूसरा कारण भविष्य की रणनीति को लेकर था। स्वामीजी का कहना था कि भविष्य में कोई भी सविनय अवज्ञा आंदोलन जनसाद्दारण में बिना उथल-पुथल के संभव नहीं है। इसलिए यह समझना गलत होगा कि कोई भी आंदोलन बिना खून खराबे के संभव है।
इन दोनों कारणों को लेकर गाँधीजी का मौन धारण करना स्वामीजी को अखरा। स्वामीजी ने 2 जुलाई, 1920 के ‘श्रद्धा’ के अंक में लिखा था कि महात्माजी आप पर हजारों लोग अंधभक्त के समान विश्वास करते हैं। उन्होंने अपने भविष्य की परवाह किये बिना अपने को आपके लिए समर्पित कर दिया है। मुझे उनसे हमदर्दी है क्योंकि आप उनसे संवाद किये बिना अपनी घोषणाएं कर देते हैं।
सत्याग्रह कमेटी से त्याग-पत्र के बाद भी स्वामीजी कांग्रेस से जुड़े रहे। पंजाब में जलियांवाला कांड के कारण जनता पीड़ित थी। 1919 का कांग्रेस अधिवेशन अमृतसर में हुआ। स्वागत कमेटी का अध्यक्ष स्वामीजी को बनाया गया। स्वामीजी ने अध्यक्षीय भाषण हिंदी में दिया जो उस काल में अपने आप में एक कीर्तिमान था। अध्यक्ष बनने का कारण भी उन्होंने अपने भाषण में बताया- ‘मैं आज इस मंच पर कोई राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के लिए नहीं बोल रहा, अपितु कत्र्तव्य निर्वहन के लिए बोल रहा हूँ। पहला कारण मुझे उन पंजाबी नेताओं की तरफ से बोलना है जिन्हें जेलों में ठूंस दिया गया है। उन नेताओं की पत्नियों ने भी मुझे ऐसा करने की विनती की है। दूसरा कारण मेरे संन्यास आश्रम की मर्यादा है। अभी तक कांग्रेस राजनैतिक कारणों के लिए कार्य करती थी, पर आज उसे धार्मिक कारणों को भी शामिल करना पड़ेगा।’
स्वामीजी को अध्यक्ष बनने के लिए गाँधीजी ने पत्र लिखकर आग्रह किया था। गाँधीजी ने स्वामीजी को लिखा था कि आप इससे कांग्रेस में धार्मिक भावनाओं का समावेश करेंगे। इतिहास साक्षी है कि गाँधीजी ने धार्मिक भावनाओं का कांग्रेस में प्रवेश अवश्य किया, पर ये भावनाएं स्वामीजी के मतानुसार नहीं थीं, अपितु उनका उद्देश्य तुर्की के खलीफा के समर्थन में चलाये गए खिलाफत आंदोलन को (जो मुसलमानों का विशुद्ध मजहबी मामला था) कांग्रेस के राजनैतिक आंदोलन के साथ जबरदस्ती नत्थी करना था।

(यह लेख राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली से प्राप्त अभिलेखों के आधार पर लिखित है। यह प्रसंग इतने विस्तार से स्वामी श्रद्धानंद जी की किसी भी जीवन चरित में नहीं मिलता। यह लेख शांतिधर्मी मासिक हिंदी पत्रिका के मई 2018 के अंक में प्रकाशित हुआ है।)

No comments:

Post a Comment