आशीष सिंह चौहान
महर्षि दयानन्द अपने समकालीन सभी व्यक्तियों की अपेक्षा शारीरिक, बौद्धिक एवं अध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर थे| वे शारीरिक एवं बौद्धिक दोनों दृष्टियों से विशालकाय थे और अपने समकालीन लोगों में सर्वश्रेष्ठ थे| भारत में रहने वाले सभी बुद्धिजीवी एवं विद्वान उनके सामने हर प्रकार से बौने थे| कारण की सुदृढ़ माता-पिता के घर जन्म लेकर वे जीवनभर ब्रह्मचारी रहे| वे पारिवारिक एवं सांसारिक चिंताओं से सदा मुक्त रहे| उनके ब्रम्हचर्य का प्रभाव ही था कि हिमालय की भयंकर ठण्ड हो अथवा राजस्थान की तपती रेत उनके शरीर पर बहुत कम वस्त्र होते थे पर उन्हें कभी कोई कठिनाई नही हुई |
6 फीट 9 इंच लम्बे, लोहे जैसा सुदृढ़ शरीर, हेरक्यूलिस जैसी शक्ति के स्वामी, चट्टान जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति वाले, केवल एक लंगोटधारी पहनने वाले स्वामीजी ने क्रोधित भीड़, किराये के गुण्डों, मतान्ध लोगों तथा कातिलों का सामना किया और कभी विचलित नही हुए|
महर्षि दयानन्द की शारीरिक क्षमता से सम्बंधित कुछ घटनाये:-
१- आगरा में 1863-1865 दो वर्ष की अवधी में प्रायः आगरा से मथुरा की 39 मील की दूरी मात्र ३ घंटे में पैदल तय कर लिया करते थे|
२- १८६७ में चासी बुलंदशहर के नामी पहलवान ओंकारनाथ बोहरा ने स्वामीजी के पैर दबाने की प्रार्थना की| उसने पाया कि स्वामीजी के पैर लोहे की तरह मजबूत थे|
३- १८६९ में कुछ पहलवान फर्रुखाबाद में स्वामीजी के पास आये और बोले कि यदि आप व्यायाम करें तो बहुत शक्तिशाली हो जायेंगे| स्वामीजी ने अपनी भीगी लंगोटी उनको देकर एक बूँद पानी निकाल देने को बोला पर उनमें से कोई सफल न हुआ, फिर स्वामीजी ने उसी लंगोटी को निचोड़ा तो पानी टपकने लगा|
४- १८७७ जालंधर में सरदार विक्रम सिंघ ने स्वामीजी सेकहा कि हमने शास्त्रों में पढ़ा है कि ब्रहमचर्य से महान शक्ति प्राप्त होती है, हम एक ब्रह्मचारी की शक्ति देखना चाहते हैं| स्वामीजी तब कुछ नही बोले| विक्रम सिंघजी उठ खड़े हुए और बग्घी में बैठ गए जिसे दो शक्तिशाली घोड़े खींच रहे थे| साईस ने लगाम खींचा, घोड़ों को चाबुक मारे पर वे हिले तक नही| वो चाबुक मारता रहा, लगाम खींचता रहा पर कोई प्रभाव न हुआ| विक्रम सिंघ ने पीछे देखा तो आश्चर्यचकित हो गए, चार पहियों की बग्घी का एक पहिया स्वामीजी ने पकड़ा हुआ था| स्वामीजी मुस्कुराये और विक्रम सिंघ ने पूछा कि क्या अब आप एक ब्रह्मचारी की शक्ति से आश्वस्त हैं?
५- स्वामीजी के जीवनी लेखक समाज सुधारक दीवान हरविलासजी सारदा ने भी स्वामीजी के बल की एक घटना अपनी आँखों से स्वयं देखी थी| अजमेर में सेठ गजमल के नोहरे में स्वामीजी के प्रवचनों हो रहे थे| एक दिन प्रवचन के बाद २०-२५ व्यक्तियों को छोड़कर सभी श्रोता चले गए| स्वामीजी भी उठे| जब सभी मुख्य द्वार पर पहुंचे तो देखा कि भारी-भरकम मुख्य द्वार बंद है| कुछ लोग आगे बढ़े और स्वामीजी को निकालने के लिए द्वार खोलने लगे| लगभग १२-१५ व्यक्तियों ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी पर दरवाजा हिला तक नही| दीवानजी के पिताजी(दीवानजी सदैव पिता के साथ प्रवचन सुनने जाया करते थे) व अन्य ४-५ लोग स्वामीजी के पास खड़े होकर अन्य लोगों के प्रयास को देख रहे थे| जब द्वार ने खुलने से मना कर दिया तब स्वामीजी ने उनको हटने के लिए बोला और एक पैर लकड़ी के उस द्वार पर जमाया और एक ही झटके में द्वार खोल दिया| उनकी शक्ति देखकर सभी आश्चर्य और श्रद्धा से भर गए|
महर्षि का अतभुत साहस और निर्भयता:-
१- १८६७ फर्रुखाबाद में ठाकुरदास व अन्य लोगों ने कुछ गुण्डों को स्वामीजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा| सेठ जगन्नाथप्रसाद ने स्वामीजी से किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाने का निवेदन किया| स्वामीजी ने कहा कि मेरे जीवन पर कितने प्राणघातक आक्रमण हुए हैं पर मैं यहाँ से वहां निशस्त्र घूमता हूँ, आप मेरी रक्षा कब तक करेंगे?
२- १८६९ कानपुर में कुछ लोगों ने स्वामीजी पर आक्रमण किया, स्वामीजी ने एक व्यक्ति की लाठी छीन ली और उसे गंगा में धक्का दे दिया और पास के पेड़ से शाखा तोड़कर कुछ व्यक्तियों को धूल चटा दी, और बोले “तुम लोग मुझे निरा साधु ही मत समझना|”
३- फर्रुखाबाद में २३ मई १८७६ को रेवेरेन्ड लूक्स ने स्वामीजी से कहा कि यदि आपको तोप के मुंह पर बांधकर यह कहा जाये कि आप मूर्ति के सामने नतमस्तक हो जाएँ, अन्यथा आपको उड़ा दिया जायेगा तो आपका उत्तर क्या होगा? स्वामीजी ने एकदम कहा कि मैं कहूँगा “उड़ा दो|”
महर्षि की क्षमाशीलता:-
१- जब भी स्वामीजी को शारीरिक या आर्थिक हानि पहुँचाने का प्रयास किया गया तो उन्होंने अपराधी को सदैव क्षमा कर दिया| जैसे उन्हें कई बार विष देकर प्राणघातक प्रहार किये गए| १८७० में अनूपशहर की घटना है, एक ब्राह्मण ने उन्हें पान में विष दे दिया| अपराधी पकड़ा गया पर स्वामीजी ने यह कहते हुए उसे छुड़ा दिया कि मैं संसार को बंधनमुक्त कराने आया हूँ, बंधवाने नही|
२- १८७७ में अमृतसर में अपने अध्यापक के कहने पर मिठाई के लालच में बच्चों ने स्वामीजी ने पत्थर फेंके| पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया| स्वामीजी ने अध्यापक को क्षमा कर दिया और बच्चों में मिठाई बाँट दी|
३- ठाकुर कर्ण सिंह ने उनपर तलवार से वार किया, स्वामीजी ने उसकी तलवार को पकड़कर तोड़ डाली, लोगों ने स्वामीजी पर दबाव बनाया कि वे कर्ण सिंह के विरुद्ध पुलिस में शिकायत करें पर स्वामीजी ने ऐसा करने साफ़ मना कर दिया|
महर्षि की वाकपटुता व हास्य प्रवृति:-
१- स्वामीजी तुरन्तबुद्धि थे, उनमें हास्य की प्रवृति भी बहुत थी और वे अपनी इस शैली द्वारा भी समाज में सुधार का ही प्रयास करते थे| एक बार स्वामीजी अन्य व्यक्तियों के साथ फर्श पर बैठे थे, एक पण्डित आया और ऊँचे चबूतरे पर बैठ गया| स्वामीजी से वार्तालाप करते हुए भी नीचे नही उतरा तो बाकी लोगों उसके इस व्यव्हार पर आपत्ति जताई| तो स्वामीजी ने कहा “उसे वहीँ बैठने दो| यदि उच्चासन विद्वता का प्रतीक है तो पेड़ पर बैठा कौवा पण्डित से अधिक विद्वान माना जायेगा|
२- नवम्बर १८७९ में दानापुर में एक ठाकुरप्रसाद सुनार ने एक पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी करली, और एक दिन स्वामीजी से योग सीखाने की प्रार्थना करने लगा| स्वामीजी ने कहा “तुम एक विवाह और करलो तुम्हारा योग पूरा हो जायेगा|”
३- १८७९ में कुम्भss के मेले के अवसर पर वकार अली बेग नमक डिप्टी कलेक्टर ने स्वामीजी से पूछा कि हरिद्वार के पण्डों ने हरि की पैड़ी घाट को अन्य गंगा घाटों की अपेक्षा पवित्र घोषित कैसे कर दिया? स्वामीजी ने उत्तर दिया “जैसे अजमेर में ख्वाजा की दरगाह को खादिम ने अन्य दरगाहों से अधिक बड़ा घोषित कर दिया|” ये दोनों पण्डों और खादिम की चाल है|
महर्षि की निष्कामता (selflessness):- स्वामीजी पूर्णता निष्काम और निस्वार्थ व्यक्ति वाले थे| निष्कामता उनके चरित्र की एक बड़ी विशेषता थी| उन्होंने हर उस बात को लात मार दी जिससे उनका महत्व बढ़े| १८७७ में लाहौर में आर्यसमाज का संविधान बनाते समय लोगों ने उनसे आर्यसमाज का ‘गुरु’ पद स्वीकारने का निवेदन किया तो स्वामीजी ने कहा कि वे तो संसार को गुरुडम से मुक्ति दिलाना चाहते हैं | बाद में लोगों ने ‘परम सहायक’ का पद देना चाहा तो स्वामीजी ने कहा कि ‘परम सहायक तो केवल परमात्मा है|’
महर्षि का मानवता के प्रति आगाध प्रेम:- स्वामी दयानन्द एक दलायु ह्रदय के स्वामी थे| उनका ह्रदय उनके आस-पास रहने वाले, अभागे एवं विपत्तिग्रस्त लोगों के लिए करुणा से भरा हुआ रहता था| लोगों के कष्ट, उनकी अत्यंत गरीबी और असहायता जो अंग्रेजी राज और पाखंडियों के कारण थी के प्रति स्वामीजी में अतीव पीड़ा थी|
१- सितम्बर १८७८ में जब स्वामीजी मेरठ में थे तो एक सज्जन उनके पास आये और उनसे पूछा कि क्या स्वामीजी ठीक-ठाक हैं? स्वामीजी ने कहा कि इससे बड़ी परेशानी क्या होगी कि ये ब्राह्मण(उन ब्राह्मणों की ओर संकेत करते हुए जो वहां बैठे थे) अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नही करते| देशसुधार, धर्मप्रचार के लिए किंचित् भी ध्यान नहीं देते हैं| इस देश के निर्धन एवं विपत्तिग्रस्त लोगों के लिए इनके मन में तनिक भी दया के भाव नही हैं|
२- १८७९ में हरिद्वार के कुम्भ मेले के अवसर पर जब कि स्वामीजी कुछ लोगों के मध्य बैठे हुए थे, अचानक ही लेट गए और फिर थोड़ी देर में उठकर घूमने लगे| एक सज्जन ने पूछा कि क्या आपको कहीं दर्द हो रहा है? स्वामीजी ने गहरा साँस लेकर बोले “भाई, इससे ह्रदयविदारक दर्द क्या होगा कि यह देश विधवाओं की आहों, अनाथों की भयंकर चीखों एवं गोहत्या के कलंक के कारण बर्बाद हो रहा है|”
३- १८८२ में उदयपुर में राजकवि कविराजा शयामलदास ने सुझाव दिया कि देश को स्वामीजी स्मृतिचिन्ह बनाना चाहिए तो स्वामीजी ने कहा “ऐसा कभी मत करना| बल्कि मेरी राख किसी खेत में फ़ेंक देना जहाँ वह कुछ लाभदायक हो सके|” न सिर्फ जिवित रहते हुए ही लोगों के हित के लिए कार्य किया परन्तु मरने के बाद भी अपनी भस्म को देश के काम में लाने की इच्छा व्यक्त की|
उपसंहार:- मित्रों, सुकरात की गिनती मानसिक एवं साहसिक विचारों वाले व्यक्ति के रूप में होती है, जहर के प्याले को वो शांति और साहस के साथ पी गया था| उसने ईसा मसीह की तरह जरा भी कमजोरी व निराशा प्रकट नही की, जो सूली पर चढ़ाने के लिए ले जाये गए तो असहाय होकर आँखों में आंसू भरकर बोले “इलोई इलोई लामा सबाच थानी” अर्थात हे मेरे पिता, तूने मुझे क्यूँ त्याग दिया? महर्षि दयानन्द ने भी जोधपुर में जहर दिए जाने के कारण बहुत वीरता के साथ अथाह पीड़ा को सहन किया एवं एक भी शब्द दुःख भरा या कमजोरी प्रकट नही की| और अंत समय तक परमात्मा पर अपने अटूट विश्वास को अडिग रखते हुए “ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो” कहकर अंतिम श्वास लिया| यदि महर्षि महाभारत काल बाद उत्पन्न ५ सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों में रखा जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी|
सन्दर्भ ग्रन्थ:- “विश्वगुरु स्वामी दयानन्द का जीवनचरित एवं उनकी शिक्षाएं” (लेखक दीवान बहादुर हरबिलास सारदा)
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