गुरु गोविन्द सिंह की कृतियों का परिचय • भगवती दुर्गा-तत्त्व के सन्दर्भ में
(यह एक शोध पत्र है जिस पर विचार करने के लिए सिख विद्वानों का स्वागत है।)
शास्त्र और शस्त्र को विवेकपूर्वक धारण करने में समर्थ गुरु गोविन्द सिंह (१७१८-१७६५ विक्रमी) द्वारा रचित विशाल साहित्य में भगवती तत्त्व के सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहां भगवती दुर्गा के विविध रूपों से सम्बन्धित श्रीगुरु जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है :
श्री दसम-ग्रन्थ साहिब में संकलित वाणियां
गुरु गोविन्द सिंह की इस विशालकाय रचना में जापु साहिब, अकाल उसतति, बचित्र नाटक, चण्डी चरित्र (उकति बिलास), चण्डी चरित्र-२, वार दुरगा की, गिआन प्रबोध, चौबीस अवतार ( इन्हीं में से रामावतार ८६४ छन्दों में और कृष्णावतार २४९२ छन्दों में प्राप्त होती हैं ), शबद, सवैये, शसत्र नाम माला, चरित्रोपा-खिआन (४०४ स्त्रियों के चरित्र), ज़फ़रनामह, और हिकाइतां संकलित हैं। इनमें से "वार दुरगा की" पंजाबी में, ज़फ़रनामह और हिकाइतां फ़ारसी में तथा शेष सभी रचनाएं ब्रज भाषा में रची गई हैं।
१• चण्डी चरित्र (उकति बिलास)
इस रचना में कुल २३३ छन्द हैं। इसमें पहले भगवती दुर्गा द्वारा मधु-कैटभ और महिषासुर नामक आसुरी शक्तियों के वध का वर्णन किया गया है। उसके बाद शुम्भ-निशुम्भ और धूम्रलोचन के वध का उल्लेख प्राप्त होता है। अन्त में देवी दुर्गा द्वारा चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज के वध का उल्लेख किया गया है।
२• चण्डी चरित्र - २
कुल २६२ छन्दों वाली इस रचना में भगवती दुर्गा द्वारा पहले दैत्य-दानव-राज महिषासुर के वध का और फिर शुम्भ-निशुम्भ तथा चण्ड-मुण्ड के मारे जाने का उल्लेख मिलता है। इसके बाद इस रचना में धूम्रनैन और रक्तबीज नामक आसुरी शक्तियों के वध का वर्णन किया गया है।
३• वार दुरगा की
गुरु गोविन्द सिंह की इस एक मात्र पंजाबी रचना में कुल ५५ पउड़ियां हैं। इसकी पहली पउड़ी सिक्खों की प्रातः सायं होने वाली दैनिक "अरदास" में सम्मिलित है। यह पउड़ी इस प्रकार पठित है :
प्रथमि भगउती सिमरकै गुरू नानक लई धिआइ।
फिर अंगद गुर ते अमरदास रामदासै होई सहाइ।
अरजन हरिगोबिन्द नो सिमरो स्री हरिराइ।
स्री हरि क्रिसनि धिआइऐ जिसु डिठे सबु दुखु जाइ।
तेग बहादुर सिमरीऐ घरि नौ निध आवै धाइ।
सभ थाई होइ सहाइ।१।
यहां यह स्पष्ट कर देना बड़ा आवश्यक जान पड़ता है कि अलगाववादी मानसिकता वाले सिक्खों ने इस पहली पउड़ी का भावार्थ अत्याधिक बिगाड़ कर रक्ख दिया है। प्रसिद्ध टीकाकार गिआनी नरैण सिंह ने इसका भावार्थ इस प्रकार किया है :
"सबसे पहले मैं भगवती शक्ति को स्मरण करके फिर अपने सत्गुरु श्रीगुरु नानकदेव जी को ध्याता हूं। इसके बाद मैं सत्गुरु श्री अंगददेव जी, श्रीगुरु अमर दास जी और श्रीगुरु रामदास को स्मरण करता हूं, जो मेरे सहायी होंगे। फिर मैं श्रीगुरु अर्जुनदेव जी, श्रीगुरु हरिगोविन्द जी और श्रीगुरु हरिराय जी को स्मरण करता हूं। फिर मैं श्रीगुरु हरिकृष्ण जी को ध्याता हूं, जिनके दर्शन करने से सब दुःख दूर हो जाते हैं। मैं इसके बाद श्रीगुरु तेग बहादुर जी को स्मरण करता हूं जिनका स्मरण करने से मनुष्य को नौ निधियां अर्थात् सब सांसारिक सुख और धन-दौलत प्राप्त हो जाते हैं। सर्व शक्तिमान् अकाल पुरख और सब सत्गुरु साहिबान के चरणों में मेरी अरदास है कि मेरी सहायता करें ताकि मैं इस वार श्री भगउती जी की निर्विघ्न समाप्ति कर सकूं"(श्री दसम-ग्रन्थ साहिब जी, सटीक, भाग-१, भाई चतरसिंह-जीवनसिंह, अमृतसर, छठा संस्करण, जून २००९, पृष्ठ ४१५)।
ऐसा ही भ्रष्ट भावार्थ डा• रतन सिंह जग्गी और डा• गुरशरन कौर जग्गी ने भी किया है :
"सबसे पहले भगवती को स्मरण करता हूं। फिर गुरु नानकदेव जी को याद करता हूं। फिर गुरु अंगद, गुरु अमरदास और गुरु रामदास को सिमरता हूं कि मेरे सहायी हों। गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरिगोविन्द और गुरु श्री हरिराय को सिमरता हूं। फिर गुरु श्री हरिकृष्ण को आराधता हूं जिनके दर्शन करने से सारे दुःख दूर हो जाते हैं। गुरु तेग़ बहादुर के सिमरन से नौ निधियां (ख़ज़ाने) घर में दौड़ी चली आती हैं।सारे गुरु मुझे सब स्थानों पर सहायक हों" (श्री दसम-ग्रन्थ साहिब, भाग-१, गोबिन्द सदन, महरौली, नई दिल्ली-३०, दूसरा संस्करण, जून २००७, पृष्ठ ३१५)।
वस्तुतः उपरोक्त दोनों ही भावार्थ कविवर गुरु गोविन्द सिंह के मूल आशय के सर्वथा विपरीत हैं। यहां पहली पउड़ी का भावार्थ समझने के लिए अन्तिम ५५ वीं पउड़ी को उद्धृत किया जाता है। उसमें लिखा है :
सुंभ निसुंभ पठाइआ जम दे धाम नो।
इंद्र सदि बुलाइआ राज अभिखेख नो।
सिर पर छत्र फिराइआ राजे इंद्र दे।
चउदी लोकी छाइआ जसु जगमात दा।
दुरगा पाठ बणाइआ सभे पउड़ीआ।
फेरि न जूनी आइआ जिनि इह गाइआ।५५।
[ देवी दुर्गा ने शुम्भ और निशुम्भ को यम के धाम पठा दिया। फिर इन्द्र को राज्याभिषेक के लिए अपने पास बुलाया। राजा इन्द्र के सिर पर छत्र फिरा दिया। इस प्रकार १४ लोकों में जगमाता का यश छा गया। यह दुर्गा पाठ सभी पउड़ियों में बनाया है। फिर किसी योनि में वह नहीं आ पाएगा जिसने इसे श्रद्धा से गाया है ]।
पहली पउड़ी का वास्तविक भावार्थ
यहां पर श्रीगुरु जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यह दुर्गा पाठ सभी पउड़ियों में बनाया है। इससे यह बात भली-भांति साफ़ हो जाती है कि पहली पउड़ी में भी भगवती दुर्गा का ही यशोगान किया गया है, नौ गुरुओं का नहीं। इसलिए उपरोक्त दोनों टीकाकारों के भावार्थ गुरु गोविन्द सिंह के आशय के अनुरूप नहीं हैं। अतः अब इस पहली पउड़ी का वास्तविक भावार्थ नीचे दिया जा रहा है :
"सबसे पहले भगवती दुर्गा सिमर कर गुरु नानकदेव ने ध्या ली थी। फिर गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास और गुरु रामदास के प्रति वह देवी सहायी हुई थी। गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरिगोविन्द और गुरु हरिराय ने भी वह श्री देवी सिमरी थी। श्री हरिकृष्ण ने भी वह देवी सिमरी है, जिसके दर्शन मात्र से सब दुःख दूर हो जाते हैं। गुरु तेग़ बहादुर ने भी वह देवी सिमरी है जिसके सिमरन से घर में नौ निधियां आ विराजती हैं। वह देवी सब स्थानों पर सहायी होती है।"
दुर्गा देवी का आध्यात्मिक-दार्शनिक स्वरूप
गुरु गोविन्द सिंह ने भगवती दुर्गा-तत्त्व के आध्या-त्मिक और दार्शनिक स्वरूप का भी चिन्तन किया है। अपनी रचना "चौबीस अवतार" १/२९-३० में श्रीगुरु जी लिखते हैं :
प्रथम काल सब जग को ताता। ता ते भयो तेज बिख्याता।
सोई भवानी नामु कहाई। जिनि सिगरी यह स्रिसटि उपाई।२९।
प्रिथमे ओअंकार तिनि कहा। सो धुनि पूर जगत मो रहा।
ता ते जगत भयो बिसथारा। पुरखु प्रक्रिति जब दुहू बिचारा।३०।
[ पहले-पहल काल सारे जगत् का पिता था। उससे तेज प्रकट हुआ। वही तेजो-शक्ति भवानी नाम से जानी गई जिसने यह सकल सृष्टि उपजाई। उसने सबसे पहले ओंकार का उच्चारण किया। वह ध्वनि सारे जगत् में पसर गई। उससे तब जगत् का विस्तार हुआ, जब पुरुष और प्रकृति ने मिलकर काम किया ]।
यहां पर गुरु गोविन्द सिंह ने सत्, चित्त और आनन्द स्वरूप सच्चिदानन्द = परमेश्वर की चिद् शक्ति प्राण के सक्रिय हो उठने से सत्त्व-रज-तम स्वरूप त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीन गुणों की साम्यावस्था भंग होने से सृष्टि उत्पन्न होने की बात कही है। ठीक ऐसी ही बात देवी-भागवतपुराण ५/१६/३५-३७ में भगवती दुर्गा दैत्य-दानव-राज महिषासुर से कहती हैं :
"मैं परमपुरुष के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष को नहीं चाहती। हे दैत्य ! मैं उनकी इच्छाशक्ति हूं, मैं ही सकल जगत् की सृष्टि करती हूं। वे विश्वात्मा मुझे देख रहे हैं, मैं उनकी शिवा=कल्याणमयी प्रकृति हूं। उनके निरन्तर सान्निध्य के कारण ही मुझमें शाश्वत चैतन्य है। वैसे तो मैं जड़ हूं, किन्तु उन्हीं के संयोग से मैं चेतनायुक्त हो उठती हूं।"
इससे यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि गुरु गोविन्द सिंह का कथन शास्त्र के सर्वथा अनुरूप है।
श्रीगुरु जी की उपरोक्त रचना "वार दुरगा की" का एक नाम " चण्डी दी वार" भी है। इसे "वार श्री भगउती जी की" भी कहते हैं। कुल ५५ पउड़ियों वाली इस रचना में दुर्गा शब्द २३ बार, दुर्गशाह ६, देवी ५, भवानी ३, भगवती २, चण्डी २ तथा राणी, महामाई, जगमात, रणचण्डी, कालिका और काली शब्द एक-एक बार प्रयुक्त हुआ है। दुर्गा शब्द के सर्वाधिक प्रयुक्त होने से इस रचना का नाम "वार दुरगा की" बड़ा सार्थक और विषय के अनुरूप है।
गुरु गोविन्द सिंह की रचनाओं के संग्रह के रूप में प्रसिद्धि-प्राप्त "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" का पहले सिक्खों में बड़ा सम्मान था। श्री आदि ग्रन्थ के साथ ही इसका भी समान रूप से आदर-सत्कार और नित्य ही पाठ किया जाता था। अंग्रेज़ फ़ौजी अफ़्सर लैफ़्टिनेंट कर्नल जाॅन मैल्कम ने १८१२ ईसवी में रचित अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है :
"जब सिक्खों के चीफ़ और प्रमुख लीडर एकत्र होकर बैठते थे तो श्री आदिग्रन्थ और श्री दसम पादशाह का ग्रन्थ का उनके सामने प्रकाश किया जाता था। वे सभी इन ग्रन्थों के सामने शीश झुकाते थे और वाहे गुरू जी का ख़ालसा वाहे गुरू जी की फ़तह का उच्चारण करते थे। फिर गेहूं के आटे, घी और मीठे से बना हुआ कड़ाह-प्रसाद कपड़े के ढककर इन दोनों पवित्र ग्रन्थों के सामने रक्खा जाता था। उसके बाद रागियों द्वारा कीर्त्तन और पाठ के अन्त में कपड़े को हटा कर प्रसाद को सिक्खों के सभी वर्गों में बांट दिया जाता था।•••पहला गुरु-मता गुरु गोविन्द सिंह ने आयोजित किया था और अन्तिम गुरु-मता १८०५ में आयोजित किया गया था" ( स्केच आॅफ़ दि सिक्ख्स, १८१२ ईसवी, विनय पब्लिकेशन्स, चण्डीगढ़, रिप्रिंट १९८१ ईसवी, पृष्ठ ९६-९७,९८)।
जाॅन मेैल्कम के उपरोक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सन् १८१२ तक सिक्खों के मन में श्री दसम-ग्रन्थ साहिब के प्रति श्री आदि ग्रन्थ जैसा ही सम्मान और आदर-सत्कार था।
महाराजा रणजीत सिंह के देहान्त के बाद
२७ जून सन् १८३९ को हुए शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के देहान्त के बाद केवल १० वर्ष के भीतर ही अंग्रेज़ों ने षड्यन्त्र रचकर उनका विस्तृत राज्य २९ मार्च १८४९ ईसवी को अपने अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिया था। इस षड्यन्त्रपूर्ण विलय के तुरन्त बाद लार्ड डल्हौज़ी और उसके सहयोगी अंग्रेज़ों ने मुसलमानों का सहयोग पाने के लिए १० अप्रैल १८४९ ईसवी को एक आदेश जारी करके बृहत्तर पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा गोवध पर लगाए पूर्ण प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया और हिन्दू-सिक्ख जनमानस की धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं को अनेकविध आहत करते हुए अमृतसर के सुप्रसिद्ध स्वर्णमन्दिर के बिल्कुल समीप ही एक बूचड़ख़ाना स्थापित करने की अनुमति प्रदान कर दी। अंग्रेज़ों की शह से प्रोत्साहित होकर मुसलमान क़साइयों ने बृहत्तर पंजाब के अन्यान्य स्थानों पर भी बहुत सारे बूचड़ख़ानों की पुनर्स्थापना की जहां अन्य पशुओं के साथ-साथ गायों का भी व्यापक स्तर पर वध किया जाने लगा था।
कूकाओं का गोवध विरोधी आन्दोलन
ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण राष्ट्रघाती संकट के पुनः पनपाए जाने के कारण हिन्दू-सिक्ख जनमानस में खलबली मच गई। तब इससे पार पाने का सटीक उपाय सोचा जाने लगा। आगे चलकर नामधारी बाबा राम सिंह कूका के कुशल नेतृत्व में १९१४ विक्रमी = १८५७ ईसवी के वैशाखी-पर्व पर एक ऐसे राष्ट्रभक्त संगठन का उदय हुआ जिसने गोघात का दोष मिटाने के लिए बूचड़ख़ानों को समूल उखाड़ फैंकने का बीड़ा उठाते हुए सन् १८६०-१८७० के दशक में बड़े व्यापक स्तर पर गोभक्तिपूर्ण आन्दोलन चलाया और सफलता अर्जित की।
सिक्खों में अलगाववादी मानसिकता का पनपना
इन्हीं दिनों सिक्खों में ऐसे लोग भी प्रकट होने लगे जिन के मन में अलगाववादी मानसिकता पनपने लगी थी। अंग्रेजों की शह से इस अलगाववादी मानसिकता का पहला अंकुर श्री गुरू सिंघ सभा,अमृतसर के रूप में सन् १८७३ ईसवी में फूट निकला था। इस अंकुरित सभा से प्रेरणा लेकर २ नवम्बर १८७९ ईसवी को सिंघ सभा, लाहौर अस्तित्व में आ गई। इन नवगठित सिंघ सभाओं के विशेष नियमों और मुख्य आशय में ये बातें भी जुड़ी हुई थीं :
७ • बड़े मर्तबे वाले अंग्रेज़ बहादुर विद्या-शाखा के मेम्बर बन सकते हैं।
९ • श्री गुरू सिंघ सभा में कोई बात सरकार के मुता- ल्लिक़ नहीं की जाएगी।
१०• ख़ैर-ख़्वाही क़ौम, फ़रमाबरदारी सरकार।
अमृतसर तथा लाहौर में गठित हुई सिंघ सभाओं के प्रमुखों में अग्रणी अंग्रेज़-भक्त सिक्ख प्रोफ़ेसर गुरमुख सिंह और गिआनी दित्त सिंह इत्यादि विद्वानों ने श्री दसम-ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता पर शंका करना प्रारम्भ कर दिया।
फिर सिंघ सभा, लाहौर को ११ अपैल १८८० ईसवी से सिंघ सभा, अमृतसर में मिला दिया गया और दोंनों का संयुक्त नाम "श्री गुरू सिंघ सभा जनरल" रक्ख दिया गया। उसके बाद प्रो• गुरमुख सिंह के प्रयत्नों से स्थान-स्थान पर घूम-फिरकर अनेकानेक सिंघ सभाओं का बनाया जाना प्रारम्भ हुआ। इसी समय एक केन्द्रीय जत्थेबन्दी की आवश्यकता समझी जाने लगी। इसकी पूर्ति हेतु सन् १८८३ में "ख़ालसा दीवान" की स्थापना की गई जो बहुत-सी सिंघ सभाओं के गठजोड़ का परिणाम था।
इसके बाद तो सिंघ सभाओं की संख्या के साथ ही "ख़ालसा दीवान" का घेरा भी बढ़ता चला गया। तब वैशाखी और दीपावली जैसे त्यौहारों पर इस दीवान द्वारा ऐसे मेले आयोजित किए जाने लगे जिनमें हिन्दुओं जैसी रीतियों, ठाकुरों=देवमूर्तियों और विशेष कर श्री हरिमन्दिर के प्रमुख पूजास्थल और परिक्रमा-मार्ग में पहले से सुप्रतिष्ठित देवमूर्तियों की पूजा इत्यादि विषयों की निषेधपरक आलोचना की जाती थी।
इस प्रकार की आलोचना द्वारा सिक्ख-पन्थ को एक ऐसी दिशा की ओर ले जाने का कुप्रयास किया जा रहा था जो भारतवर्ष की मुख्य सांस्कृतिक धारा से किसी-न-किसी अंश में दूर ले जाने वाला था। वस्तुतः अंग्रेज़ विचारकों के सम्पर्क और प्रभाव में आए सिक्ख-विद्वानों के मानस से इसी समय से अलगाववाद की वह धारा फूट निकली थी जिसके फलस्वरूप आगे चल कर सन् १९८० के दशक में इसने सारे पंजाब में बड़ा ही उग्र रूप धारण कर लिया था।
भाई काहन सिंह नाभा का अलगाववाद
उधर आयरलैंड निवासी मैक्स आर्थर मैकालिफ़ (१८३७-१९१३ ईसवी) ने भाई काहन सिंह नाभा ( १८६१-१९३८ ईसवी) से सम्पर्क स्थापित कर लिया था। वस्तुतः मैकालिफ़ पहले ही ओरिएण्टल कालेज, लाहौर के प्रो• गुरमुख सिंह के सम्पर्क में आ चुका था।
फिर सन् १८८३ में उसने नाभानरेश महाराजा हीरा सिंह को आदेश दिया कि भाई काहन सिंह उसे श्री आदि ग्रन्थ पढ़ाया करे। इस प्रकार भाई काहन सिंह नाभा और मैकालिफ़ यथावसर एक-दूसरे के घर रहने लगे।
सन् १८९३ में मैकालिफ़ ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और सारा समय सिक्ख विद्वानों को अलगाववाद के मार्ग पर डालने में व्यतीत करने लगा। इसके परिणामस्वरूप सन् १८९८ में भाई काहन सिंह नाभा की वह अलगाववादी रचना "हम हिन्दू नहीं" प्रकाशित हुई जो अलगाववादी सिक्खों का आज भी मूल प्रेरणा-स्रोत बनी हुई है। इसी अलगाववादी सोच से ओत-प्रोत शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की धर्म प्रचार कमेटी, श्री अमृतसर ने "हम हिन्दू नहीं" नामक उपरोक्त रचना को सन् १९८१ में ५००० की संख्या में पुनः प्रकाशित किया है।
इधर सन् १८९३ में नौकरी छोड़ने के १६ वर्ष बाद मैकालिफ़ की पुस्तक "दि सिक्ख रिलीजन" सन् १९०९ में प्रकाशित हुई। भाई काहन सिंह नाभा ने अपनी रचना "महान कोश" में स्वयं ही बताया है कि "मैकालिफ़ साहिब ने कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अपने इस ग्रन्थ का कापीराइट अपनी वसीयत में मुझे दे दिया है"
(महान कोश, भाषा विभाग पंजाब, पटियाला, छठा संस्करण, १९९९ ईसवी, पृष्ठ ९३९)।
वस्तुतः "हम हिन्दू नहीं" और "दि सिक्ख रिलीजन" दोनों ही पुस्तकें अलगाववादी सिक्खों का मूल प्रेरणा स्रोत हैं। इनमें गुरुवाणी की भ्रष्ट व्याख्या करने के विविध तरीक़े सुझाये गए हैं। इन्हीं पुस्तकों के आधार पर सिक्ख लोग स्वयं को एक अलग क़ौम मानकर अलगाववादी मार्ग पर चलने लगे हैं और अपने ही प्रिय गुरु श्री गोविन्द सिंह की रचना श्री दसम-ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता पर सन्देह करने लगे हैं। उनके लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और भला क्या हो सकता है !!!
भाई काहन सिंह नाभा की अलगाववादी सरगर्मियां "हम हिन्दू नहीं" की रचना तक ही सीमित नहीं रहीं। वे आगे बढ़ती रहीं। "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" के प्रति शंका रखने वाले प्रो• गुरमुख सिंह का सन् १८९८ में तथा "ख़ालसा अख़बार" के सम्पादक गिआनी दित्त सिंह का सन् १९०१ में देहान्त हो चुका था। "भाई काहन सिंह जी दा जीवन-वृत्तान्त" शीर्षक के अन्तर्गत श्री शमशेर सिंह अशोक, जो स्वयं सन् १९३२ में भाई काहन सिंह नाभा के सम्पर्क में आ चुके थे, बताते हैं :
"साहित्यिक सेवा के साथ ही बारी आती है कुछ धार्मिक सुधारों की जो भाई काहन सिंह ने सिंघ सभा के प्रचार से प्रभावित होकर किए। सन् १९०५ में श्री दरबार साहिब, अमृतसर के परिक्रमा-मार्ग में बुत-परस्ती दूर करने का प्रश्न उठा जिसमें बड़ी कठिनाई यह आई कि सिंघ सभाई तो बुत-परस्ती हटाना चाहते थे और सनातनी विचारों के सिक्ख उनके इस विचार के उलट थे।
अन्ततः यह प्रश्न मिस्टर किंग, डिप्टी कमिशनर, अमृतसर के पास गया। उसकी ओर से इस बारे खोज की नुक़्ता-निगाह से भाई काहन सिंह जी की राय पूछी गई। भाई साहिब ने अपनी राय बुत-परस्ती के विरुद्ध दी, जिस करके श्री
दरबार साहिब के परिक्रमा-मार्ग में से सब बुत हुक्मन उठाए गए।
इस प्रकार बुत-परस्ती बन्द हुई देखकर अमृतसर और लाहौर के कुछ प्रसिद्ध सज्जन पहले मिस्टर किंग, डीसी अमृतसर के पास और फिर भाई भाई काहन सिंह के विरुद्ध शिकायत लेकर महाराजा हीरा सिंह के पास पहुंचे और उन्होंने उस चिट्ठी का भी हवाला दिया जो भाई साहिब ने बुत-परस्ती के विरुद्ध मिस्टर किंग को लिखी थी। महाराजा साहिब ने समय की नज़ाकत को देखकर भाई साहिब को कुछ समय के लिए ख़ाना नशीन कर दिया" (महान कोश, भाषा विभाग, पंजाब, छठा संस्करण, १९९९ ईसवी, पृष्ठ क)।
देवमूर्तियों की दुर्गियाना मन्दिर में स्थापना
जिन देवमूर्तियों को भाई काहन सिंह नाभा की अलगाववादी मानसिकता की प्रेरणा से सन् १९०५ में श्री दरबार साहिब, अमृतसर के परिक्रमा-मार्ग से हुक्मन और बलपूर्वक हटाया गया था, उन्हें कालान्तर में श्री दरबार साहिब से लगभग अढाई किलो मीटर की दूरी पर स्थित श्री दुर्गियाना मन्दिर में विधिपूर्वक स्थापित कर दिया गया था।
श्री भागमल-भागसिंह का मत
फिर सिंघ सभा भसौड़ ने भी "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" का कुतर्कपूर्ण विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था। इसके बाद अम्बाला के श्री भागमल ने सन् १९३९ में "गुरमति दर्शन" नामक पुस्तक में श्रीगुरु जी की रचना का विरोध करने का काम किया। सन् १९४१ में ये महानुभाव भागमल से भागसिंह बन गए। फिर इन्होंने "दसम ग्रन्थ निरणै" नामक ग्रन्थ सन् १९७६ में चण्डीगढ़ से स्वयं प्रकाशित किया।
डा• रतन सिंह जग्गी का गुरु-विरोधी मत
इन्होंने "दसम ग्रन्थ दा पौराणिक अध्ययन" और "दसम ग्रन्थ दा कर्तृत्व" नामक दो पुस्तकें हिन्दी और पंजाबी मेम लिखी हैं जिनमें "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" का कुतर्कपूर्ण खण्डन किया है। ऐसा ही उन्होंने अब गिआनी भाग सिंह की उपरोक्त पुस्तक में "दो शब्द" लिखते समय २१/१२/१९७४ को किया है। आप लिखते हैं :
"सनातनी गिआनी वर्ग परम्परा से दसम-ग्रन्थ को गुरु गोविन्द सिंह की रचना मानता आया है, परन्तु गम्भीर अध्ययन से इसके भीतरी तथ्य गुरमत और गुरु गोविन्द सिंह जी के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाते और न ही ऐतिहासिक और।साहित्यिक मर्यादा को अंगीकार करते हैं। फलस्वरूप इस ग्रन्थ की भीतरी सारी सामग्री को गुरु गोविन्द सिंह की रची हुई मान लेना किसी कसौटी पर भी प्रमाणित नहीं होता। केवल जापु, अकाल उसतति आदि कुछ एक भक्ति पूरक रचनाओं को ही गुरु साहिब का रचा हुआ माना जा सकता है।
वस्तुतः गुरु जी के दरबारी कवियों की रचनाओं को गुरु जी के ज्योति-ज्योत समाने के बहुत बाद भाई मनी सिंह, भाई दीप सिंह, भाई सुक्खा सिंह आदि सिक्ख अग्रणियों ने श्री गुरू ग्रन्थ साहिब की तर्ज़ पर एक ग्रन्थ में इकट्ठा कर दिया, जो पहले 'बचित्र नाटक दा ग्रन्थ' आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ, परन्तु बाद में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब से अलग रखने के लिए उसे 'आदि ग्रन्थ' और इसको 'दसम ग्रन्थ कहा जाने लगा। 'दसम ग्रन्थ' नाम से भ्रमित होकर अन्ध-श्रद्धालु इसको दशम गुरु जी की रचना मान कर प्रचार करने लग पड़े। इस भ्रम को दूर करने के लिए गिआनी भाग सिंह का वर्तमान पुस्तक के रूप में किया गया उद्यम बड़ा श्लाघा योग्य है" (दसम ग्रन्थ निरणै, गिआनी भाग सिंह अम्बाला, २७९६, सैक्टर ३७-सी, चण्डीगढ़, १९७६ ईसवी, पृष्ठ १४-१५)।
इस प्रकार डा• रतन सिंह जग्गी "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" की प्रामाणिकता पर प्रारम्भ से ही सन्देह करते चले आए हैं। किन्तु अब "ख़ालसा तीसरी जन्म शताब्दी" के शुभावसर पर १३ अपैल १९९९ को गोविन्द सदन, महरौली, नई दिल्ली से जो "श्री दसम ग्रन्थ साहिब" ५ भागों में प्रकाशित हुआ है, उसके पाठ-सम्पादक और व्याख्याकार के रूप में डा• रतन सिंह जग्गी ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है जिससे यह पता चल सके कि उन्होंने पहले दौर में श्री दसम-ग्रन्थ साहिब का खण्डन किया था। इससे तो यही ज्ञात होता है कि अब उन्होंने अपने पहले मत को त्यागकर श्री दसम ग्रन्थ की प्रामाणिकता को स्वीकार कर लिया है।
श्री दसम-ग्रन्थ के विरुद्ध विचार-गोष्ठी
६-७ अक्तूबर १९७३ को साप्ताहिक अख़बार "मान- सरोवर" के मालिक स• मान सिंह, भगत सिंह मार्किट, नई दिल्ली ने "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" के पक्ष-विपक्ष विषय को लेकर भाई अरदमन सिंह बागड़ीआं की अध्यक्षता में एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया जिसमें लगभग ४१ सिक्ख विद्वानों ने भाग लिया था।
श्री दसम-ग्रन्थ साहिब के सन्दर्भ में विभिन्न विचार प्रकट हो जाने के उपरान्त सर्व सम्मति से यह निर्णय लिया गया कि किसी भी गुरुद्वारे में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के साथ "दसम-ग्रन्थ" का प्रकाश न किया जाए। दूसरा निर्णय यह लिया गया कि दशमेश गुरु जी की वाणी और कवियों की वाणियां दसम-ग्रन्थ में से अलग कर दी जाएं।
दूसरी बार ९ मार्च १९७४ को उन्हीं लोगों द्वारा आयोजित की गई विचार-गोष्ठी में भी पहले वाले निर्णय को दोहरा दिया गया था।
जैसा कि गुरु गोविन्द सिंह की कृतियों का परिचय • २ में यह बताया जा चुका है कि सन् १८१२ तक सिक्खों में श्री आदि ग्रन्थ साहिब के साथ ही श्री दसम-ग्रन्थ साहिब को भी समान रूप से आदर दिया जाता था। किन्तु उसके बाद अंग्रेज़ों की शह पाकर सिक्खों में एक वर्ग ऐसा पनप गया जो अपने ही गुरु की रचना "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" की प्रामाणिकता पर सन्देह करने लगा था। फिर सन् १९७३-१९७४ में इस वर्ग में उपरोक्त प्रकार से विस्तार हो गया। अब इन बातों का हमारे फ़रीदाबाद में भी दुष्प्रभाव पड़ने लग गया है। एनआइटी फ़रीदाबाद में एनएच दो स्थित "भाई भगत जोधा राम सिंह गुरुद्वारे" में शुक्रवार १० नवम्बर २००६ से सन्त समागम चल रहा था जिसमें शनिवार को अमृतसर से श्री अकाल तख़्त के जत्थेदार श्री जोगेन्द्र सिंह वेदान्ती शामिल होने आए हुए थे।
ऐसे समय में "दसम-ग्रन्थ विचार इंटरनेशनल" के संयोजक स• उपकार सिंह के आह्वान पर सिक्खों के एक वर्ग ने रविवार १२ नवम्बर २००६ को एनएच ५ स्थित पार्क में सभा कर "काला दिवस" मनाया। स• उपकार सिंह के अनुसार यह "काला दिवस" इसलिए मनाया गया था क्योंकि ज्ञानी जोगेन्द्र सिंह वेदान्ती सिक्ख समुदाय के "दसम-ग्रन्थ" को "श्री गुरू ग्रन्थ साहिब" के बराबर का दर्जा देने के पक्ष में हैं, जबकि दसम ग्रन्थ के पेज नम्बर ८०९ से लेकर १३८८ तक जो भी लिखा है उसकी भाषा असभ्य है जो कि गुरु गोविन्द सिंह महाराज के चरित्र से मेल नहीं खाती है
(दैनिक जागरण, नई दिल्ली, जागरण सिटी, फ़रीदाबाद, सोमवार दिनांक १३ नवम्बर २००६, पृष्ठ १५)।
यहां पर यह बात ध्यान देते योग्य है कि अपनी बात बताने के लिए स• उपकार सिंह ने उन्हीं कुतर्कों का आश्रय लिया है जिनका प्रयोग अंग्रेजों से प्रभावित अलगाववादी मानसिकता वाले सिक्ख उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध से यथावसर करते चले आ रहे थे।
वस्तुतः व्यर्थ का विवाद खड़ा करने वाले इन सभी सिक्खों को यह बात समझ में नहीं आती कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, वामन, राम, कृष्ण, भगवती इत्यादि पौराणिक पात्रों की भक्तिपूर्ण बातें जहां श्री आदि ग्रन्थ में संक्षेप में मिलती हैं वहां श्री दसम-ग्रन्थ साहिब में विस्तार से प्राप्त होती हैं। यदि श्री आदि ग्रन्थ में से पौराणिक पात्रों की भक्तिपूर्ण बातें निकाल दी जाएं तो फिर उसमें भला बचता ही क्या है !!
गुरु गोविन्द सिंह के साथ होने वाले युद्धों में अपनी बार-बार पराजय होती देखकर औरंगज़ेब तिलमिला उठा। तब उसने अपनी भारी इस्लामी फ़ौज और अपने सहयोगी पहाड़ी राजाओं की सेनाओं के सम्मिलित प्रयास से आनन्दपुर को घेरने का दृढ़ निश्चय किया। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश अपनी रचना "गुरू कीआं साखीआं" (१८४७ विक्रमी) में लिखते हैं कि अपने निश्चय के अनुसार औरंगज़ेब ने सम्वत् १७६२ विक्रमी के ज्येष्ठ ५ को चारों ओर से आनन्दपुर को घेर लिया।
इस घेरे को पड़े ६ मास से अधिक समय बीत गया था।
फिर १७६२ विक्रमी पौष ५ के दिन दक्षिण दिशा से शाही क़ाज़ी बादशाह औरंगज़ेब का एक परवाना लेकर आया जो क़ुरान शरीफ़ की जिल्द पर लगा हुआ था। उस परवाने में लिखा था कि "पीर जी ! आप माखोवाल गांव को छोड़ कर क़स्बा कांगड़ में आ जाएं, वहां परस्पर मुलाक़ात होगी।"
अगले दिन ६ पौष १७६२ विक्रमी को पिछले पहर गुप्तचर ने आकर सूचना दी कि सरहिन्द नगरी से राजा अजमेर चन्द की बुलाई हुई फ़ौज आ रही है जिसका आज रोपड़ में मुक़ाम है।
ऐसी भयानक विपदा के समय गुरु गोविन्द सिंह ने सभी प्रमुख दीवानों और अन्य लोगों से विचार-विमर्श करके आधी रात को क़िला आनन्दगढ़ त्यागने का निर्णय कर लिया। फिर उन्होंने सबसे पहले माता गुजरी जी और दोनों छोटे साहिबज़ादों (ज़ोरावर सिंह और फ़तह सिंह) को एक दास और एक दासी के साथ कीरतपुर की ओर भेज दिया (गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, सम्पादक : प्यारा सिंह पदम, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, पांचवां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ७८, पृष्ठ १५२-१५३)।
ये दास-दासी वास्तव में "कथा गुरू जी के सुतन की" नामक समकालीन रचना के लेखक भाई दुन्ना सिंह हण्डूरी और उनकी धर्मपत्नी सुभिक्खी थे।
सामान्यतः यही माना जाता है कि उस समय माता गुजरी जी के साथ गंगू रसोइया नामक ब्राह्मण भेजा गया था। वस्तुतः गंगू रसोइये नामक ब्राह्मण का कोई ऐतिहासिक अस्तित्व ही किसी भी समकालीन रचना से सिद्ध नहीं होता। यह एक विशुद्ध कपोल-कल्पित पात्र है, ऐतिहासिक कदापि नहीं।
श्रीगुरु जी ने आनन्दगढ़ छोड़ा
माता गुजरी जी इत्यादि को भेजने के बाद गुरु गोविन्द सिंह ने भाई मोहकम सिंह से कहकर औरंग-ज़ेब की आई चिट्ठी को सम्भाला। फिर भाई उदय सिंह आदि प्रमुख सिक्खों के साथ क़िला आनन्दगढ़ छोड़ दिया।
श्री दसम-ग्रन्थ साहिब का तितर-बितर होना
बस ! इसी उधेड़-बुन और उथल-पुथल में गुरु गोविन्द सिंह की रचना "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" कहीं तितर-बितर हो गई। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश ने श्रीगुरु जी की रचनाओं के सन्दर्भ में दो-तीन बातें बड़ी ही महत्त्वपूर्ण कही हैं।
१७४१ विक्रमी की घटनाएं का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं :
"इसी साल सत्गुरु (गोविन्द सिंह) ने श्री कृष्ण अष्टमी से श्री कृष्ण अवतार का प्रारम्भ किया।•• जिस की समाप्ति पांवटे नगर १७४५ विक्रमी को श्रावण सुदी सप्तमी मंगलवार के दिवस यमुना नदी के किनारे पर हुई" ( गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, साखी ३८, पृष्ठ ९३)।
१७५३ विक्रमी की एक घटना का उल्लेख करते हुए भट्ट स्वरूप सिंह लिखते हैं :"सत्गुरु (गोविन्द सिंह) ने इस समय सम्वत् १७४८ से प्रारम्भ किया ग्रन्थ 'चरित्रोपाख्यान' १७५३ विक्रमी भाद्रपद सुदी अष्टमी के दिन सम्पूर्ण किया" (वही, साखी ५५, पृष्ठ ११५)।
इसी प्रकार १७५५ विक्रमी की घटना के सन्दर्भ में वह आगे लिखते हैं :
" इसी वर्ष साल १७३९ से प्रारम्भ हुआ ग्रन्थ 'बचित्र नाटक' सम्वत् १७५५ आषाढ़ वदी एकम् के दिन सम्पूर्ण हुआ। समाप्ति पर सत्गुरु ने उच्चारण किया :
संमत सतरह सहस पचावन। हाड़ बदी, प्रिथमै सुख दावन।
तव प्रसादि कर ग्रंथ सुधारा। भूल परी कवि लेहु सुधारा।
इस तरह आगे से इस ग्रन्थ की समाप्ति से धर्मयुद्ध की तैयारियां प्रारम्भ हुईं" (गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, पांचवां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ६३, पृष्ठ १२८)।
भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश द्वारा दिए गए प्रमाणों से यह बात पूर्णतः सिद्ध हो जाती है कि श्री कृष्णावतार, चरित्रोपाख्यान और बचित्र नाटक इत्यादि रचनाएं गुरु गोविन्द सिंह द्वारा ही रची गई हैं। अतः इनका श्रेय किसी दूसरे अथवा दरबारी कवियों को देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि १७५५ विक्रमी तक गुरु गोविन्द सिंह की सभी प्रमुख रचनाएं रची जा चुकी थीं। ये सभी रचनाएं क़िला आनन्दगढ़ छोड़ते समय तितर-बितर हो गईं जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है।
भाई मनी राम (सिंह) का गुरुघर से जुड़ना
श्री गुरु तेग़ बहादुर ने १७१३ विक्रमी में अपनी तीर्थ यात्रा प्रारम्भ की थी। इस सन्दर्भ में भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश बताते हैं :
"श्री तेग़ बहादुर जी पैंतीस सालों की आयु में सम्वत् १७१३ विक्रमी आषाढ़ सुदी एकम् के दिन कोट गुरु हरिराय से तीर्थयात्रा करने चले आए थे। श्री गुरु हरिराय के ज्योति-ज्योत समाने के समय ये परिवार सहित पटना नगरी में विराजमान थे। यहीं पर सम्वत् १७१८ विक्रमी को पौष सुदी सप्तमी बुधवार के दिवस श्री गोविन्द दास जी ने अवतार लिया" (गुरू कीआं साखीआं, साखी १४, पृष्ठ ५८-५९)।
इस पूरे तीर्थयात्रा-काल में भाई मनी राम, जो आगे चलकर १७५४ विक्रमी में भाई मनी सिंह बने, श्री तेग़ बहादुर के साथ रहे। वे पटना से ८-९ वर्षीय गुरु गोविन्द दास और उनकी माता गुजरी जी इत्यादि के साथ अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के दर्शन करते हुए पजांब लौटे थे। भट्ट वही मुल्तानी सिन्धी के अनुसार ये लोग १७२७ विक्रमी की आश्विन शुक्ला नवमी के दिन लखनौर, अम्बाला पहुंचे थे जहां पर श्री गोविन्द दास के मामा कृपाल चन्द का घर था।
वहां से भाई मनी राम अपने परिवार से मिलने गांव अलीपुर (ज़िला मुज़फ़्फ़रगढ़) आ गए थे। फिर वहां से परिवार के साथ चैत्र १७२९ विक्रमी में गुरु तेग़ बहादुर की सेवा में लौट आए थे। १७४८ विक्रमी को वैशाख प्रतिपदा के दिन श्री दशम गुरु ने रवालसर के मुक़ाम पर भाई मनी राम को अपना दीवान बना लिया था।
भाई मनी सिंह स्वर्णमन्दिर की सेवा में
छठे गुरु श्री हरिगोविन्द ने अपने ताऊ बाबा पृथी चन्द के पुत्र और अपने पिता गुरु अर्जुनदेव के भतीजे और शिष्य सोढी मनोहरदास मेहरबान की विद्वता से प्रभावित होकर १६७७ विक्रमी की माघ प्रविष्टे पहली को श्री हरिमन्दिर साहिब जी में दीया-बाती करने का काम श्री मेहरबान को सौंप दिया (भट्ट वही तलउंडा, परगना जींद)। इस प्रकार सोढी मनोहरदास मेहरबान श्री स्वर्णमन्दिर के प्रमुख ग्रन्थी-पुजारी-सेवादार अपने देहान्तकाल १६९६ विक्रमी माघ शुक्ला पंचमी तक बने रहे।
इनके बाद यह पद इनके योग्य पुत्र सोढी हरि जी को सौंप दिया गया। श्री हरिमन्दिर में बड़े मनोयोग से सेवाकार्य करते हुए सोढी हरि जी १७५३ विक्रमी की वैशाख कृष्णा एकादशी के दिन परलोक सिधार गए।
सोढी हरि जी के कमल नयन, हरि गोपाल और निरंजन राय नामक तीन पुत्र थे। उनके देहान्त के बाद श्री दरबार साहिब का सेवाकार्य तीनों पुत्र सम्भालने लगे किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपनी अयोग्ता सिद्ध कर दी। भाई दरबारी दास कृत "गुरू प्रिथीचन्द गुर बंसा-वली" से ज्ञात होता है कि सोढी हरिजी के देहान्त के बाद उनकी संगत घर की फूट के कारण किसी एक व्यक्ति को गद्दी पर न टिका सकी। तीनों ने अमृतसर की संगत को तीन भागों में विभाजित कर दिया था। अन्ततः उसी फूट के कारण वे लोग श्री दरबार साहिब की सेवा का कार्य छोड़कर मालवा में घरांचो-ढिलवां नगर को चले गए।
श्री हरिमन्दिर जी में कोई उत्तरदायी प्रबन्धक न रहने के कारण अमृतसर की सिक्ख संगत १७५५ विक्रमी के वैशाख मास में श्री दशम गुरु गोविन्द सिंह की सेवा में आनन्दपुर आ उपस्थित हुई। भट्ट सेवा सिंह कोशिश अपनी कृति "शहीद बिलास भाई मनीसिंह"(१८६० विक्रमी) के छन्द ८०-८२ में बताते हैं कि गुरु-भक्त
संगत ने श्री दशम गुरुजी से निवेदन किया :
"हे जगदीश ! हमारा निवेदन सुनें। आपके चाचा श्री हरि जी परलोक सिधार गए हैं। हरि जी के पीछे निरंजन राय गद्दी पर बैठा था। इसका बल क्षीण हो गया है और सिक्ख संगत इसके साथ नहीं। अतः अकाल बूंगे और श्री हरिमन्दिर जी के लिए कोई सेवा-दार भेजें। श्री पृथीचन्द के वंशज तो श्री दरबार साहिब छोड़कर जा चुके हैं।"
इस घटना से कुछ दिन पहले भाई मनी राम "मनी सिंह" बन चुके थे। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश बताते हैं :
"गुरु जी ने अमृतसरी सिक्खों की बेनती मानकर दीवान मनी सिंह से कहा : आप श्री हरिमन्दिर साहिब में श्री रामदासपुरे (अमृतसर) इनके साथ जाएं।
बचन पाकर भाई मनी सिंह ने तैयारी की, इनके साथ पांच सिक्ख भाई भूपत सिंह, गुलज़ार सिंह, कोइर सिंह चन्द्रा, दान सिंह और कीरत सिंह भेजे। इन्हें जाते समय एक श्री ग्रन्थ साहिब की प्रति और सुरमई पोशाक वाला निशान देकर विदा किया। भाई मनीसिंह सत्गुरु की आज्ञा पाकर पांच सिक्खों के साथ श्री अमृतसर की ओर आए। (१७५५ विक्रमी) की ज्येष्ठ सुदी चतुर्थी से एक दिन पहले गुरु की नगरी में भाई देसा सिंह तखणेटा सिक्ख के गृह में जा निवास किया। अगले दिवस श्री हरिमन्दिर जी के दर्शन पाकर निशान साहिब झुलाकर भाई जी ने श्री ग्रन्थ जी का प्रकाश किया।••
उधर श्री आनन्दपुर में दीवान मनी सिंह के चले जाने के बाद भाई साहिब सिंह छिब्बर को दरबारी दीवान नियत किया। घरबारी दीवान पहले से ही धर्म चन्द छिब्बर थे। दोनों मिलकर गुरुघर का काम चलाने लगे" ( गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, प्रो• प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, ५ वां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ६१, पृष्ठ १२६)।
इस प्रकार भाई मनी सिंह श्री स्वर्णमन्दिर के प्रमुख ग्रन्थी-पुजारी-सेवादार के पद पर आजीवन (१७९१ विक्रमी तक) कार्य करते रहे।
इसी पद पर रहते हुए भाई मनी सिंह को तितर-बितर हो चुके "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" को ढूंढकर एकत्र करने का काम गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी माता सुन्दरी ने सौंप दिया क्योंकि भाई जी जीवन भर गुरु जी के साथ रहने के कारण उनकी रचनाओं को भली-भांति जानते और पहचानते थे। ०
१७६२ विक्रमी पौष ५ को आनन्दगढ़ का क़िला छोड़ते समय जो उथल-पुथल मची उसमें गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएं तितर-बितर हो गई थीं। श्रीगुरु जी के १७६५ विक्रमी की कार्त्तिक शुक्ला पंचमी के दिन परलोक सिधारने के बाद समय पाकर उनकी धर्मपत्नी माता सुन्दर स्वरूप कौर (माता सुन्दरी) ने भाई मनी सिंह को श्री गुरु जी की रचनाएं ढूंढने का काम सौंप दिया। उन दिनों माता सुन्दरी दिल्ली आकर रहने लगी थीं।
इतिहासकार ज्ञानी ज्ञानसिंह अपनी रचना "शमशेर ख़ालसा (तवारीख़ ख़ालसा, भाग-२) में बताते हैं कि औरंगज़ेब की १७६४ विक्रमी (१७०७ ईसवी) में हुई
मृत्यु के बाद बादशाह बने बहादुरशाह के समय में "मुसलमानों ने जगह-जगह हिन्दुओं पर ज़ुल्म करने शुरू कर दिए। कुंओं-तालाबों में गायों की हड्डियां फेंकवा दीं। जिन हिन्दुओं ने बन्दा बहादुर की किसी तरह भी मदद की वे सब पकड़-पकड़ कर क़त्ल कर दिए गए। इस ज़ुल्म की ख़बर जब लौहगढ़ वाले सिक्खों ने बाबा बन्दे को दी तो भाद्रपद सम्वत् १७६७ विक्रमी को बन्दा बहादुर पहाड़ों में सिक्खों को इकट्ठा करके सरहिन्द की तरफ़ बेधड़क चला आया।••बन्दे ने फिर वहीं तक सिक्खों का क़ब्ज़ा मुल्क पर करा दिया जहां तक पहले था" (शमशेर ख़ालसा, तवारीख़ गुरू ख़ालसा, भाग-२, गुरु गोविन्द सिंह प्रेस, बेर बाबा नानक, सियालकोट, १९४९ विक्रमी, पृष्ठ ३८१)।
फिर मार्गशीर्ष १७६७ विक्रमी में वीर बन्दा बहादुर की लड़ाई बहादुरशाह की इस्लामी फ़ौज से हुई। रसद इत्यादि की कमी के कारण सिक्ख कई दिन तक लड़ते रहे। अन्ततः बन्दे ने अपनी जैसी शक्ल वाले भाग सिंहको अपना लिबास पहना दिया और फिर वह कुछ सिक्खों के साथ मुसलमानों के घेरे में से निकलने में सफल हो गया।
श्री दसम-ग्रन्थ साहिब के अंश प्राप्त हुए
इसी दौरान भाई मनी सिंह को "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" के कुछ अंश प्राप्त होने में सफलता मिल गई।
उन्होंने अमृतसर से दिल्ली में विराजमान माता सुन्दरी को २२ वैशाख १७६८ विक्रमी को लिखे अपने पत्र में ये सूचनाएं दीं :
"पूज्य माता जी के चरणों पर मनी सिंह की दण्डवत् वन्दना। आगे समाचार वाचना कि एक यहां आने से हमारा शरीर वायु का अधिक विकारी हो गया। ताप की कथा दो बार सुनी। पर मन्दिर (श्री हरिमन्दिर साहिब) की सेवा में कोई आलस नहीं।
देश में ख़ालसे का बल छूट गया है। सिंह पर्वतों-वनों में जा बसे हैं। म्लेच्छों की देश में दुहाई है। बस्ती में बालक-युवा-स्त्रियां सलामत नहीं। टुकड़े-टुकड़े करके मारते हैं। गुरु-द्रोही भी उनके संग मिल गए हैं। हंदा- लिए मिलकर मुख़बरी करते हैं। सभी चक्क छोड़ गए हैं। मुत्सद्दी भाग गए हैं। हम पर अभी तो अकाल की रक्षा है। कल की ख़बर नहीं। साहिबों के हुक्म अटल हैं। विनोद सिंह के पालित पुत्र का हुक्म सच हो गया है।
पोथियां जो झण्डा सिंह के हाथ भेजी थीं, उनमें साहिबों (गुरु गोविन्द सिंह) के ३०३ चरित्रोपाख्यान की जो पोथी है वह सींहां सिंह के घर में देना जी। नाम- माला की पोथी की ख़बर अभी मिली नहीं। कृष्णाव-तार पूर्वाद्ध तो मिला, उत्तरार्द्ध नहीं। यदि मिला तो हम भेज देंगे।
देश में अफ़वाह है कि बन्दा (बहादुर) बन्धन-मुक्त होकर भाग गया है। साहिब भली करेंगे।••
मुत्सद्दियों ने हिसाब नहीं दिया। यदि दे देते तो बड़े शहर से हुण्डी करवाकर भेज देते।हमारे शरीर की रक्षा रही तो कुआर (आश्विन) के महीने में आएंगे।
मिती वैशाख २२, दस्तख़त मनी सिंह। गुरु चक्क बूंगा।"
इस पत्रिका का ब्लाॅक पहले डा• ट्रम्प (Dr. Trumpp) की पुस्तक "ट्रांसलेशन आॅफ़ श्री गुरू ग्रन्थ साहिब" में छपा था। उसके बाद यह प्रो• प्यारा सिंह पदम कृत "दसम ग्रन्थ दरशन" (कलम मन्दिर, लोइर माल पटियाला, १९६८ ईसवी) में भी छपा है। इसको इस लेख के अन्त में दिया जा रहा है।
भाई मनी सिंह गुरु गोविन्द सिंह की रचनाओं को ढूंढने के प्रयास में अन्ततः सफल हो गए। इतिहासकार प्रो• गण्डा सिंह अपनी कृति "अफ़ग़ानी सफ़रनामा" में बताते हैं कि भाई मनी सिंह द्वारा सम्पादित और भाई सींहां सिंह के प्रयास से १७६९ विक्रमी में तैयार की गई "श्री दसम ग्रन्थ साहिब" की एक प्रति उन्होंने अफ़ग़ा- निस्तान के प्रसिद्ध शहर काबुल में "गुरुद्वारा भाई गुर- दास" में सुरक्षित देखी थी जिसके कुल ५७८ पत्रे हैं ( अफ़ग़ानी सफ़रनामा, पटियाला, ऐतिहासिक पत्र १९५२-१९५३, पृष्ठ ५१)।
श्री दसम-ग्रन्थ साहिब की दूसरी प्रति
इस दूसरी प्रति के सम्पादन का कार्य माघ १७६८ विक्रमी में प्रारम्भ हुआ था और इसकी समाप्ति १७७० विक्रमी में हुई थी जैसा कि इसमें लिखा है। यह प्रति पहले भाई गगन सिंह ग्रन्थी तख़्त श्री हज़ूर साहिब, नांदेड़ के पास सुरक्षित थी। वहां से राजा गुलाब सिंह सेठी लाहौर वाले ले आए थे। फिर वहां से यही राजा साहिब इसे ४७ हनुमान रोड, नई दिल्ली (रिवोली सिनेमा के पीछे वाली गली) में ले आए थे। अब यह उनके परिवार के पास सुरक्षित है। प्रो• प्यारा सिंह पदम ने इस प्रति के २ अगस्त १९६५ में दर्शन किए थे।
यह प्रति श्री आदि ग्रन्थ और श्री दसम-ग्रन्थ का एक ही जिल्द में एकत्रित रूप है। इसमें श्री आदि ग्रन्थ की वाणी को रागों के स्थान पर गुरुओं के क्रम से बांटा गया है और महला-१ इत्यादि प्रचलित क्रम को छोड़ कर पातशाही-१ इत्यादि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इसमें कुल १०९६ पत्रे हैं। श्री दसम-ग्रन्थ वाला भाग ५३७ पत्रे से १०२८ पत्रे तक मिलता है। इस भाग को "दसवें पात-शाह का ग्रन्थ" कहा गया है। इसमें श्री दशम गुरु की वाणी इस क्रम से संकलित है :
१• जापु ५४६ पत्रा
२• बचित्र नाटक (चण्डी चरित्र दोनों, चौबीस
अवतार, ब्रह्मावतार, रुद्रावतार, ३२ सवैये
और ९ शबद रागों के) ५४९ पत्रा
३• शस्त्रनाममाला ७८६ पत्रा
४• गिआन प्रबोध ८२१ पत्रा
५• अकाल उसतति ८३० पत्रा
६• वार दुरगा की ८३८ पत्रा
७• चरित्रोपाख्यान ८४६-१०८८ पत्रा
८• ज़फ़रनामा(गुरमुखी-फ़ारसी) १०९०-१०९५ पत्रा
९ • सद्द (लक्खी जंगल वाली) अन्त में
असफ़ोटक कबित्त और ख़ालसा महिमा वाले छन्द इसमें संकलित नहीं हैं।
इस प्रकार भाई मनी सिंह द्वारा १७७० विक्रमी में सम्पादित यह एक प्रामाणिक प्रति है।
लेखक- श्री रजिंदर सिंह जी
भाई मनी सिंह ने जो पत्र २२ वैशाख १७६८ विक्रमी को अमृतसर से माता सुन्दरी को दिल्ली लिख भेजा था वह नीचे दिया जा रहा है :
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