ईश्वर भक्ति कब करे?
*(महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती)*
भारतवर्ष में एक बहुत धनाढ्य बनिया रहता था। दिन रात उसे अधिक-से-अधिक धन संग्रह करने की इच्छा रहती थी। इस धन को इकट्ठा करने में वह इतना बुद्धिमान था कि एक कौड़ी भी कहीं इधर-उधर न जाने देता था।क्या शक्ति कोई साधु, संन्यासी, निर्धन इसके घर से कुछ ले-जाए।
एक बार बड़ा कौतुक हुआ। एक कंगाल, लूला-लंगड़ा और बूढ़ा बनिये की स्त्री से जो धर्मात्मा और ईश्वर-भक्त थी, थोड़े से चावल ले गया। बनिये को किसी प्रकार पता चल गया। वह दौड़ा-दौड़ा घर से बाहर निकला।बूढ़ा आगे निकल गया था। बनिया इसके पीछे लपका और अन्ततः उसे जा ही पकड़ा। पकड़ते ही उसे गालियाँ दी और कहा―"अरे ! तू मेरे घर से यह क्या लिये जाता है। ला, कहीं का उचक्का स्त्री को ठग कर चला है।" यह कहकर चावल वापस ले लिये और घर में पहुँचकर अपनी स्त्री को भी दो-चार सुनाई और चावल भण्डार में डाल दिये।
ऐसी ही मनोरञ्जक घटनाएँ प्रायः हो जाती थीं। बनिये की स्त्री उसे बार-बार समझाती थी कि देखिए स्वामिन् ! यह धन साथ जाने वाला नहीं है। इसका अच्छा प्रयोग करो, जिससे परलोक में काम आये। कभी भूले से मुँह से 'ओम्' का नाम ही ले लिया करो, परन्तु बनिये पर इसका कुछ प्रभाव नहीं होता था और दिन-रात पैसे पर पैसा, रुपये पर रुपया जोड़ने में व्यस्त था।
स्त्री ने फिर समझाना आरम्भ किया―'स्वामिन्! यह मनुष्य-शरीर विषय-भोग के लिए नहीं है, अपितु ईश्वरभक्ति करने के लिए है। आप यदि दान न करते तो दो घड़ी भक्ति ही किया करें।' यह सुनकर [क्योंकि इसमें पैसा खर्च नहीं होता था] बनिये ने कहा―"हाँ ! हाँ !! अच्छी बात है, परन्तु अभी जल्दी क्या है? ईश्वर जप भी कर लिया जाएगा।"
समय इसी प्रकार व्यतीत होता गया।बनिये को कभी ईश्वरभक्ति का समय नहीं मिला। मुकदमाबाजी में, धन-प्राप्त करने में और लोगों से लड़ने-झगड़ने में ही समय व्यतीत होता रहा। अचानक यह सेठ बीमार हो गया। बनिये ने अपनी स्त्री से कहा―"कोई वैद्य बुलाना चाहिए।" बस, वैद्य बुलाया गया। उसने नुस्खा लिखा। स्त्री ने दवाई मँगवाई और आले में रख दी। बनिया प्रतिक्षा करता रहा कि अभी दवाई दी जाती है। प्रातः से सायंकाल हो गया, परन्तु बनिये को दवाई नहीं पिलाई गई। अन्ततः बनिये ने स्त्री को आवाज लगाई कि दवाई अभी तक क्यों नहीं पिलाई? स्त्री ने कहा―"दवा मँगवाकर रक्खी हुई है।"
*बनिया―*"तो फिर देती क्यों नहीं? क्या सोचती है?"
*स्त्री―*"सोचती कुछ नहीं।केवल यही विचार है कि जल्दी क्या पड़ी है।दवाई तो है ही पिला दी जाएगी। आज न पिलाई तो कल पिला दी जाएगी। कल न पिलाई तो परसों दे दी जाएगी। कभी-न-कभी तो दी ही जाएगी।
*बनिया―*"और यदि मैं मर गया तो दवाई क्या काम देगी?
*स्त्री―*"हाँ, अब मौत याद आई है। जब आपको ईश्वरभक्ति करने के लिए कहती थी तब तो आप कहते थे कि जल्दी क्या पड़ी है, फिर हो जाएगी। यदि आपको मरना याद होता तो ऐसा कभी न कहते। जिस ओषधि के लिए प्रतिदिन कहती थी, उसे आपने कभी भी पीने की आवश्यकता नहीं समझी। जो सबसे बड़ी दवाई है, जिससे आत्मा शुद्ध और बलवान् होता है, जिसका पान करने से मनुष्य को पशुओं के शरीरों में जाने की आवश्यकता नहीं रहती, उस दवाई के पीने की तो इस जन्म में अत्यन्त आवश्यकता थी। क्या पता अगला जन्म किसी पशुयोनि में हो तो फिर वह महौषधि कैसे पी जा सकती है?"
*बनिया―*इस दवा से शरीर की रक्षा होती है।
*स्त्री―*इस दवाई से आत्मा बचता है।
*बनिया―*इस दवाई से शरीर शक्तिशाली होता है और काम करने की शक्ति आती है।
*स्त्री―*उस ओषधि से शरीर और आत्मा दोनों शक्तिशाली बनते हैं और सब प्रकार के कार्य सिद्ध होते हैं। जिसका आत्मा शुद्ध नहीं, उसका मुख गधों जैसा बन जाता है। जो ईश्वरभक्ति नहीं करता उसके आत्मा को पशुओं के शरीरों में रख दिया जाता है।क्या यह कम दुर्भाग्य है? क्या उन योनियों में आप संसार का कोई काम कर सकते हैं, कुछ सोच सकते हैं, धन-संग्रह कर सकते हैं।
*बनिया―*"मैं जान गया हूँ प्रिय ! आज से ही ईश्वरभक्ति आरम्भ करता हूँ।"
कितने ही मनुष्य हैं, जो इस धनिक बनिया की भाँति आत्मा से अधिक शरीर का ध्यान रखते हैं, उनका आत्मा चाहे निर्बल और भीरु हो, परन्तु वह उसकी और ध्यान नहीं देते। हाँ, निर्बल शरीर के लिए टॉनिक-शक्ति देने वाली ओषधियों का प्रयोग करते हैं। क्या आत्मा की और से असावधान होकर वे सदा रहने वाला सुख प्राप्त कर सकेंगे? कदापि नहीं।
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