Saturday, November 5, 2016

वेदाधारित हैं महर्षि दयानन्द के दार्शनिक सिद्धान्त



वेदाधारित हैं महर्षि दयानन्द के दार्शनिक सिद्धान्त


कृष्ण कान्त वैदिक, देहरादून

महर्षि दयानन्द सरस्वती की यह एक बड़ी देन है कि उन्होंने भूले हुए वेदों का फिर से परिचय कराया।

वेदज्ञान को महर्षि ने समस्त विद्याओं का मूल बताया है। हम वेद की मान्यताओं के अनुसार प्रतिपादित वैदिक धर्म का अध्ययन करते हुए यह विचार करेंगे कि क्या दयानन्द के दार्शनिक सिद्धान्त वेदों में प्रतिपादित
मान्यताओं पर आधारित हैं-

1-वेद की आवश्यकता-

महर्षि ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते हैं कि हम जीव लोगों के लिए ईश्वर ने जो वेदों का प्रकाश किया है सो उसकी हम पर कृपा है। महर्षि वेदोत्पत्ति का प्रयोजन बताते हुए कहते हें कि परमेश्वर हम लोगों का माता-पिता के समान है। जैसे सन्तानों के ऊपर पिता ओर माता सदैव करुणा को धारण करते हैं कि सब प्रकार से हमारे पुत्र सुख पावें, वैसे ही ईश्वर सब मनुष्यादि सृष्टि पर कृपा दृष्टि सदैव रखता है, इससे ही वेदों का उपदेश हम लोगों के लिए किया है। जो परमेश्वर वेदविद्या का उपदेश मनुष्यों के लिए नहीं करता तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि किसी को यथावत् प्राप्त न होती, उसके विना परम आनन्द भी किसी को न होता। जैसे परम कृपालु ईश्वर ने प्रजा के सुख के लिए कन्द, मूल, फल और घास आदि छोटे-छोटे भी पदार्थ रचे हैं सो ही ईश्वर सब सुखों के प्रकाश करने वाली, सब सत्य विद्याओं से युक्त वेद विद्या का उपदेश भी प्रजा के सुख के लिए क्यों न करता? क्योंकि ये जितने ब्रह्माण्ड में उत्तमपदार्थ हैं उनकी प्राप्ति से जितना सुख होता है सो सुख विद्या प्राप्ति से होने वाले सुख से हजारवें अंश के भी समतुल्य नहीं हो सकता। ऐसा सर्वोत्तमविद्या पदार्थ जो वेद है उसका उपदेश परमेश्वर क्यों न करता? इससे निश्चय करके यह जानना चाहिए कि वेद ईश्वर के ही बनाये हैं। जिस परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद प्रकाशित हुए हैं, वह कौन है?

2-ईश्वर एक है और उसका निज नाम ओ३म् है-

महर्षि सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में कहते हैं कि वेदों में ऐसे प्रकरण हैं जिनमें ‘ओम्’ आदि परमेश्वर के नाम हैं।8 सातवें सम्मुलास में लिखते हैं कि चारों वेदों में कहीं नहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों, कितु यह लिखा है कि ईश्वर एक है। वह, यह भी लिखते हैं कि दिव्यगुणों से युक्त होने के कारण देवता कहे जाते हैं। जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है। परमेश्वर देवों का देव होने से महादेव इसीलिए कहाता है कि वह सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्त्ता, न्यायाधीश और अधिष्ठाता है। जो ‘त्रयस्त्ति्रंशता0’ 2 इत्यादि वेदों में प्रमाण है, इसकी व्याख्या शतपथ में की है कि तेंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य ओर नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धन×जय और जीवात्मा ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर छोड़ते हैं तब रोदन करने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने आदित्य इसलिए कहाते हैं कि ये सब की आयु लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु से है कि जो परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिसमें वायु, वृष्टि, जल, ओषधि की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना ण्प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं। इनका स्वामी और सबसे बड़ा होने से परमात्मा चौंतीसवां उपास्यदेव शतपथ ब्राह्मण के चौदहवें काण्ड में स्पष्ट रूप स वर्णित है।

ईश्वर का निज व सर्वोत्तम नाम ओ३म् है-‘ओ३म’ओंङ्कार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं। जैसे- अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य ओर प्रज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर के ही हैं।

3-तीन अनादि पदार्थ- ईश्वर जीव और जगत् ये तीन पदार्थ अनादि हैं।

महर्षि सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में प्रमाण देते हैं कि जो ब्रह्म और जीव दोनों चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश व्याप्य व्यापकभाव से संयुक्त परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और वैसा ही अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं।3 इन जीव और ब्रह्म में से एक जीव है, वह वृक्षरूप संसार में पापपुण्य फलों को अच्छे प्रकार भोगता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप तीनों अनादि है। महर्षि ऋग्वेद और यजुर्वेद के मन्त्रों के प्रमाणों के साथ कहते हैं कि ब्रह्म और जीव चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश व्याप्य व्यापकभाव से संयुक्त परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं ओर वैसा ही अनादि मूलरूप कारण ओर शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल हो कर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है वह तीसरा अनादि पदार्थ इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। इन जीव ओर ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव ओर दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप, तीनों अनादि हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि अनादि सनातनरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है।

4-ईश्वर पूजा का वैदिक स्वरूप-

महर्षि के अनुसार ‘‘जो ज्ञानादि गुणवाले का यथायोग्य सत्कार करना है उसको पूजा कहते हैं।’ परमेश्वर की पूजा की क्या विधि हो सकती है? वेद कहता है कि परमात्मा आत्मिक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक आदि बलों का देने वाला है। इसी कारण से सकल देव एवं समस्त विश्व उसकी उपासना-पूजा- सेवा सत्कार, सम्मान करता है। पूजा का प्रकार क्या हो? उसकी आज्ञा के अनुसार चलना ही उसकी पूजा है क्योंकि इसमें पूजक का भी कल्याण है। ईश्वर की आज्ञाओं के अनुकूल चलने में ईश्वर की पूजा है। ईश्वर पूजा का वैदिक स्वरूप परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना ओर उपासना करना है।

(१) स्तुति- महर्षि के अनुसार ‘‘जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है वह स्तुति कहाती है।’ यथार्थ में जैसा ईश्वर है गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूपतः उसे वैसा ही जानना, सुनना-कहना और सुनना-सुनाना तथा सत्यभाषण करना ही स्तुति कहाती है। महर्षि सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि-
गुणेषु गुणारोपणं दोषेषु दोषारोपणमिति स्तुतिः।
गुणों में गुणों का आरोपण करना तथा दोषों में दोषों का अर्थात् जो जैसा है उसे वैसा ही जानना, सुनना, कहना ही स्तुति है।

(२) प्रार्थना- महर्षि के अनुसार ‘‘अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं। जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करें, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करें अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है।

(३) उपासना-महर्षि के अनुसार ‘‘जिससे ईश्वर ही के आनन्द में अपने आत्मा को ना होता है उसको उपासना कहते हैं।’’ उपासना शब्द दो शब्दों का संग्रह है-उप$आसन = उपासना। उप=समीप, आसन=स्थिति, बैठना, ठहरना, स्थित होना अथवा पास में होना। आध्यात्मिक जगत् में यह अर्थ ईश्वर के आनन्दस्वरूप में आत्मा को मग्न करने के अर्थ में रूढ हो गया है। महर्षि ने उपस्थान का अर्थ किया है-‘‘ मैं परमात्मा के निकट और मेरे सन्निकट परमात्मा हैं। उपासना करने वाले का नाम उपासक और जिसकी उपासना की जाये वह उपास्य तथा जो की जाये उस प्रक्रिया का नाम उपासना है।

(४) मूर्ति-पूजा आदि उपासना के अवैदिक रूप-मन्दिरो में जाकर या घर पर देंवी-देवताओं की जड़ मूर्ति स्थापित करना उनके ऊपर पुष्प, फल, नैवेद्य आदि अर्पित करते हुए उनकी पूजा करना अवैदिक है। यह वेदानुकूल कदापि नहीं कहा जा सकता है। मूर्ति-पूजा, जागरण पीपल आदि वृक्षों की पूजा करना भी ईश्वर की वास्तविक उपासना से दूर अज्ञान के मार्ग पर भटकना है। अतः जड़ वस्तुओं की पूजा कभी भी नहीं करनी चाहिए। महर्षि पे सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए यजुर्वेद के एक मंत्रा का उदाहरण प्रस्तुत किया है कि उस परमरत्मा की कोई मूर्ति नहीं है।

5-वैदिक दर्शन का आधार ऋत और सत्य-प्राचीन महर्षियों ने सृष्टि के रहस्यों को समझने की अटूट जिज्ञासा और अपनी अनुभूति के बल पर सृष्टि के मूल में विद्यमान ‘ऋत-तत्त्वा’का अन्वेषण किया था। वैदिक भाषा में यही ऋत कहलाता है। जड़ या चेतन सब में ‘ऋत’ का एक तन्तु ओत-प्रोत है। चन्द्र, सूर्य, ग्रह-उपग्रह सभी ऋत पन्थ के अनुयायी हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र 11 में कहा गया है कि द्युलोक और पृथिवी, लोकान्तरों ओर दिशाओं में सर्वत्र ऋत के तन्तु को फैला हुआ देखा। ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि ‘ऋत’ ओर ‘सत्य’ को उत्पन्नकरने के लिए ईश्वर ने भी तप किया। प्राकृतिक जगत् के अन्दर काम करने वाले अटल व्यापक नियमोंं को ‘ऋत’ और आध्यत्मिक जगत् के अन्दर कार्य करने वाले नियमों को प्रायः‘सत्य’ के नाम से बताया गया है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है- ‘विवेकशील पुरुष के सामने सत्य और असत्य वचन दोनों आते रहते हैं। उनमें जो सत्य होता है वह उसकी रक्षा करता है और जो असत्य होता है उसका वह नाश कर देता है।’

५-मानव निर्माण - इस संसार में मनुष्य ही को कर्म-योनि मिली है और वह चिन्तनशक्ति से युक्त है। निरुक्त में कहा गया है-‘‘मत्वा कर्माणि सीव्यति। अतः वेदप्रतिपादित समस्त ज्ञान, कर्मकाण्ड और उपासना-मार्ग मनुष्य के लिए ही है। वही ब्रह्म-साक्षात्कार का अधिकारी भी है। अन्य प्राणि समूह तो ‘भोग-योनि’ में जन्म लेने के कारण स्वतन्त्र ज्ञान क्रिया से रहित, भय-शोक आदि प्रवृत्तियों से विवश होकर विभिन्न कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। सभी प्रकार के निर्माणों के लिए उत्तम विधि अपनायी जाती है परन्तु मनुष्य के निर्माण के लिए कोई भी विधि नहीं अपनायी जाती है। प्राचीन वैदिक कालीन ऋषियों ने मनुष्य को उत्कृष्ट बनाने हेतु संस्कारों का प्राविधान किया है। उत्तम संस्कारों को प्राप्त करके ही श्रीराम, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, धर्मात्मा युधिष्ठिर, स्वामी दयानन्द आदि महापुरुषों का निर्माण हुआ था। ऋग्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि संसार का ताना-बाना तनता हुआ प्रकाश के पीछे जा। बुद्धि से बनाये, परिष्कृत किये हुए ज्योतिर्मय, प्रकाशयुक्त रक्ष मार्गां की रक्षा कर, निरन्तर ज्ञान और कर्म का अनुष्ठान करने वालों के उलझन रहित कर्मों को विस्तृत कर। मनुष्य बन, देवों के हितकारी जन को, सन्तान को उत्पन्न कर।

तन्तुं तन्वन् भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान्।
अनुल्वणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।।6

धार्मिक, सुसभ्य और दयालु मनुष्यों के निर्माण के लिए संस्कार करने वाले विद्वानों की आवश्यकता है। संस्कारों के द्वारा ही वास्तव में मानव कहलाने योग्य व्यक्तियों का निर्माण सम्भव है।

7-वैदिक कर्म फल सिद्धान्त-जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है फल ईश्वराधीन है।

सुख और दुःख का कारण कर्म ही हैं। योग दर्शन में कहा गया है - ‘‘सति मूले तद्विपाकोजात्यायुर्भोगाः” इसका अर्थ है- अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश ये पांच क्लेश कर्माशयों के कारण हैं। क्लेश के मूल कर्माशयों = कर्म की वासनाओं के विपाक (फल) ही जाति, आयु और भोग के रूप में प्राप्त होता है। जाति का अर्थ है जन्म, आयु जीवन काल के लिए प्रसिद्ध है और भोग सुख-दुःख, मोह रूप हैं, जो देहाश्रित होते हैं। अर्जित कर्मों का फलोपभोग के बिना संक्षय नहीं होता। यही कारण है कि जीवन्मुक्त पुरुष का शरीर तब तक बना रहता है, जब तक कि पुरातन कर्माशय विपाक का अन्त नहीं हो जाता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। फल ईश्वराधीन है अर्थात् कर्ता को उसके कर्मों के अनुरूप ईश्वर फल देता है।

8.-षड्दर्शनों में समन्वय-भारतीय दर्शन वैदिक ओर अवैदिक दो भागों में विभक्त माना जाता है।

अवैदिक दर्शनों में चार्वाक, जैन ओर बौद्ध दर्शन हैं। वैदिक दर्शन छः है।- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। इनके यथा क्रम दो-दो के युगल हैं जो प्रतिपाद्य विषय की समानता अथवा सहयोगिता पर आधारित हैं। विद्वानों में यह धारणा रही है कि भारतीय वैदिक षड्दर्शन परस्पर एक दूसरे का विरोध करते हैं। मूल शास्त्रकारों गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि, जैमिनि और वेदव्यास की कभी यह भावना नहीं रही है कि वे अन्य दर्शनकारों का विरोध करें। महर्षि दयानन्द सरस्वती के शब्दों में -‘‘छह शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है मीमांसा में ऐसा कोई कार्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्म चेष्टा न की जाये। वैशेषिक में समय न लगे विना बने ही नहीं। न्याय में उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता। सांख्य में तत्त्वों का का मेल न होने से बन नहीं सकता और वेदान्त में बनाने वालान बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सके, इसलिए सृष्टि छः कारणों से बनती है। उन छः कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। इसलिए उसमें विरोध कुछ भी नहीं। सृष्टि रूप कार्य की व्याख्या छः शास्त्रों ने मिलकर पूरी की है।‘(स0 प्र0 तृतीय सम्मुलास)

9-अष्टांग योग-योगदर्शन में ब्रह्म साक्षात्कार का उपाय अष्टांग योग बताया गया है।

ये आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। ये आठ अंग वेद से ही ग्रहण किये गये हें। सामवेद का एक मन्त्र है-
जज्ञानः सप्तमातृभिर्मेधामाशासत श्रिये। अर्थात् जब मनुष्य सात मंजिलों को पार कर वहाँ पहंच जाता है। यम, नियम, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा - ये छः मंजिलें हैं। सातवीं मंजिल है ध्यान। इस ध्यान की मंजिल में पहुंच कर मनुष्य ईश्वर को देखता है।

10.-जीवात्मा-

जीवात्मा- महर्षि के अनुसार जो चेतन, अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष ,प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान गुणवाला है, वह जीव कहलाता है। महर्षि ने आत्मा को चेतन गुण वाला वणित किया है। जीवात्मा स्वरूपतः अनादि, ज्ञानऔर प्रयत्नगुणों वाला तथा प्रवाह से संयोग-वियोग के कारण, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, सांयोगिक है अर्थात् ये चारों गुण संयोग से पैदा होते हैं, अतः वियोग से नष्ट हो जाते हैं। इसी का नाम प्रवाह है। साथ ही जीव आत्मा के कर्म भी प्रवाह से अनादि हैं क्योंकि वह नये-नये शरीर धारण करता और छोड़ता रहता है।

श्वेताश्वरोपनिषद् में जीवात्मा के बारे में कहा गया है-
बलाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च भागो जीवः सीविज्ञेयः।

अर्थात् बाल के अग्रभाग का सौवाँ भाग, पुनः उसका भी सौवाँ भाग जितना हो, उसके जितना अणु बताया है।

अथर्ववेद में कहा गया है-

बृहस्पतिर्मे आत्मा नृमणा नाम हृद्यः।

अर्थात् आत्मा अणु है, अतः इसका निवास हृदय में है, यह बात अथर्ववेद ने स्पष्ट की है।

11- पुनर्जन्म-

पुनर्जन्म की अवधारणा कर्मफल के सिद्धान्त पर आधारित है। हमारा यह जन्म पिछले जन्म में किये गये शुभाशुभ कर्मों का विपाक है। अगले जन्म का अधार इस जन्म में किये गये शुभाशुभ कर्म। होंगे। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मानने पर इस लोक के में प्राप्त होने वाले फलों को समझना सम्भव नहीं होता कि ये फल मनमाने या दण्डस्वरूप तो नहीं हैं। पूर्वजन्म न मानने पर ईश्वर में वैषम्य और नृर्घृण्य दोष मानने पड़ेंगे। जो जीव जैसे कर्म करता है, वैसे ही फल प्राप्त करता है। अतः ईश्वर वैषम्य और नृर्घृण्य दोष से युक्त नहीं है। संस्कार के बिना समृति नहीं होती है और मृत्यु के स्मरण के बिना मृत्यु से भय भी नहीं लगता। अतः प्राणिमात्र को जो मृत्यु भय लगता है, उससे पूर्वजन्म का अनुमान किया जा सकता है। पूर्वजन्म के अनुसार दुःख सुख देने से परमेश्वर न्यायकारी सिद्ध होता है। महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पुनर्जन्म के सम्बन्ध में ऋग्वेद का एक मंत्र उल्लिखित किया है जिसमें यह प्रार्थना की गई है कि वह परमेश्वर कृपा करके पुनर्जन्म में हमें उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां दे।

12.- वैदिक आचारशास्त्र-

वेदों में विशुद्ध मानवतावाद का संदेश है। इसमें मनुष्य के विकास के लिए, उसके आत्मिक बल के लिए बहुत उच्चकोटि के आचारशास़्त्र का संकलन किया गया है। वैदिक संस्कृति सदाचार को अन्य उपादानों से अत्यधिक महत्त्व प्रदान करती है। वैदिक आचारशास्त्र , सत्पुरुषों का आचरण है। जिस कार्य को करने से अंतरात्मा आनंदित हो ओर उसमें उत्साह की अनुभूति हो वह पवित्र व नैतिक कार्य सदाचार है। सदाचार और नैतिकता अंतरंग सम्बनध है। वेद कहता है ‘‘ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः’ अर्थात् दुराचारी व्यक्ति ऋत के पथ को पार नहीं कर सकता है। यह भी कहा गया है ‘‘स्वर्गः पन्थाः सुकृते देवयानः अर्थात् स्वर्ग या ज्योति की ओर ले-जानेवाला देवयान-मार्ग सुकृति अर्थात् सदाचारी व्यकित के लिए ही हैं।

महर्षि दयानन्द के अनुसार आचार शास्त्र- महर्षि ने आचार शास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों के सम्बन्ध में महर्षि मनु का अनुसरण किया है। मनु ने प्रत्येक विषय की चर्चा समाज को दृष्टि में रखकर की है किन्तु ये सिद्धान्त व्यक्ति की दृष्टि से भी समान रूप से मूल्यवान् हैं। इनमें कुछ का वर्णन महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में पाखण्डियों के लक्षण बताते हुए किया है। धर्म कुछ न करे। धर्म के नाम से लोगों को ठगे, संसारी मनुष्यों के सामने अपने बड़ाई के गपोड़े मारा करे, प्राणियों का घातक, अन्य से वैरबुद्धि रखने वाला, सब अच्छे और बुरों से भी मेल रखे, उसको वैडालव्रतिक अर्थात् विडाले के समान धूर्त्त, नीच समझो आदि...।

महर्षि दयानन्द के अनुसार पांच महान् गुण- महर्षि दयानन्द ने विद्यार्थियों के और वस्तुतः सबके लिए पांच गुण बताए हैं-

1- ऋत, 2-सत्य, 3- तप, 4- दम (इन्द्रिय दमन), 5- शम (मनोनिग्रह)

महर्षि दयानन्द के अनुसार नौ तप- महर्षि दयानन्द ने नौ तप बताए है।-

1- ऋत और सम्यग। ज्ञान, 2- सत्य अर्थात् सत्य भाषण, 3- श्रुत अर्थात् शास़्श्रवण, 4- शान्त अर्थात् शान्ति, 5- दमः अर्थात् इन्द्रिय संयम, 6- शमः अर्थात् मन पर संयम, 7- दान अर्थात् धनादि दान करना, 8- यज्ञ अर्थात् कर्त्तव्य कर्म पालन और 9- ईश्वर भक्ति।

महर्षि दयानन्द के अनुसार सत्य सर्वोच्च गुण- महर्षि के अनुसार सत्य भाषण और सत्य आचरण से उत्तम धर्म का कोई भी लक्षण नहीं है।

13.- मोक्ष या मुक्ति का महत्त्व-विवेकी पुरुषों के लिए सांसारिक सुख भी परिणाम में नीरस होने के कारण दुःखरूप ही है। अतः सांसारिक सुख के अनुभव के समय मनुष्य को जो-जो भी वस्तु सुखरूप प्रतीत होती है, सूक्ष्म विचार करने पर वह सब वास्तव में दुःखरूप की है। महर्षि पतंजलि ने इस विषय में कितना सुन्दर कहा है-
परिणाम-ताप-संस्कार-दुःखैर्गुणवृत्ति-
विरोद्धाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः।

(योग सूत्र 2/5)

अर्थात् विषय सुख नित्य सुख नहीं है। क्षणिक और दुःख से मिश्रित है क्योंकि इसे प्राप्त करने में पहले बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है और फिर उसके अनुभव के समय में भी प्रायः कोई न कोई दुःख वहां रहता ही है। संसारी पुरुष को ऐसे सुख का अनुभव कभी भी नहीं होता, जिसके अनुभव के समय बाह्य या आन्तरिक कोई एक भी दुःख , मन्दरूप से भी न रहे। इसके साथ ही सांसारिक सुख परिणाम में विनाशी हैं। विषय-सुख का नाश अवश्यम्भवी है और उसका नाश होते समय फिर बड़ा भारी दुःख होता है। अतएव यह सुख भविष्य में दुःख का हेतु है और वर्तमान समय में भी उसके विनाश की सम्भावना का भय लगा ही रहता है। इस प्रकार विषयों से प्राप्त होने वाला सुख, दुःखों से ओत-प्रोत (सना हुआ) है। अतः ऐसे सुखपरिणाम में शोक रूप में ही परिणित हो जाता है।

हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे।

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में कहते हैं कि मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीव के साथ नहीं रहते, किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध के लिए घ्राण, संकल्प-विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिए बुद्धि, स्मरण करने के लिए चित्त और अहंकार करने में अहंकार रूपी अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और संकल्प मात्र शरीर होता है। जैसे शरीर के आधार रह कर इन्द्रियों के गोलक द्वारा जीव स्वीकार्य करता है, वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मर्हिर्ष दयानन्द सरस्वती ने न केवल वेदों के यथार्थ स्वरूप को सामान्य लोगों के लिए प्रस्तुत किया अपितु विद्वद्जनों के लाभार्थ भी वेदों के ज्ञान का प्रकाश किया है। महर्षि के द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धान्त वेद के आधार पर उचित परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किये गये हैं।

- कृष्ण कान्त वैदिक, देहरादून

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