सच्चे शिव के प्राप्त होने पर ही मनुष्य को आनंद की प्राप्ति होती है। आज बोध दिवस शिवरात्रि का पावन पर्व ज्ञान, भक्ति और उपासना का दिवस है। महर्षि दयानंद सरस्वती का बोध दिवस 27 फरवरी को शिवरात्रि के दिन मनाया जाएगा। माना जाता है कि 176 साल पहले शिवरात्रि के तीसरे प्रहर में 14 वर्षीय बालक मूलशंकर के हृदय में सच्चे शिव को पाने की अभिलाषा जगी थी। शिव’ विद्या और विज्ञान का प्रदाता स्वरूप है परमात्मा का। इसी दिन मूलशंकर को बोद्ध-ज्ञान प्राप्त हुआ था और वह महर्षि दयानन्द सरस्वती बन सके।इस दिन को याद करते हुए दयानंद बोध दिवस के रूप में हर साल मनाया जाता है। शिवरात्रि का अर्थ है वह कल्याणकारी रात्रि जो विश्व को सुख, शांति और आनंद की प्राप्ति कराने वाली है। मनुष्य के जीवन में न जाने कितनी शिवरात्रियां आती हैं किन्तु उसे न ज्ञान होता है और न परमात्मा का साक्षात्कार, न उनके मन में सच्चिदानंद परमात्मा के दर्शन की जिज्ञासा ही उत्पन्न होती है। बालक मूलशंकर ने अपने जीवन की प्रथम शिवरात्रि को शिव मंदिर में रात्रि जागरण किया। सभी पुजारिओं और पिता जी के सो जाने पर भी उन्हें नींद नहीं आई और वह सारी रात जागते रहे। अर्ध रात्री के बाद उन्होंने शिव की मूर्ति पर नन्हे चूहे की उछल कूद करते व मल त्याग करते देखकर उनके मन में जिज्ञासा हुई की यह तो सच्चा शिव नहीं हो सकता … । जो शिव अपनी रक्षा खुद ना कर सके वो दुनिया की क्या करेगा और उन्होंने इसका जबाब अपने पिता व पुजारिओं से जानना चाहा लेकिन संतोषजनक उत्तर न मिल पाने के कारण उन्होंने व्रत तोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने 21 वर्ष की युवा अवस्था में घर छोड़ कर सच्चे शिव की खोज में सन्यास लेकर दयानंद बने व मथुरा में डंडी स्वामी विरजानंद के शिष्य बनने हेतु पहुचे । गुरू का द्वार खटखटाया तो गुरू ने पूछा कौन? स्वामी जी का उत्तर था कि यही तो जानने आया हूं। शिष्य को गुरू और गुरू को चिरअभिलाषित शिष्य मिल गया। तीन वर्ष तक कठोर श्रम करके वेद, वेदांग दर्शनों का अंगों उपांगों सहित अध्ययन किया और गुरु दक्षिणा के रूप में स्वयं को देश के लिए समर्पित कर दिया । इसके बाद आर्य समाज की स्थापना की। आज विश्व भर में अनेकों आर्यसमाज हैं जो महर्षि के सिद्धांतों, गौरक्षा और राष्ट्र रक्षा आदि के कार्यो में संलग्न है। महर्षि की जिंदगी का हर पहलु संतुलित और प्रेरक था। एक श्रेष्ठ इंसान की जिंदगी कैसी होनी चाहिए वे उसके प्रतीक थे। उनकी जिंदगी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। इस लिए उनके संपर्क में जो भी आता था, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। वे रोजाना कम से कम तीन-चार घंटे आत्म-कल्याण के लिए ईश्वर का ध्यान करते थे। इसका ही परिणाम था कि बड़े से बड़े संकट के वक्त वे न तो कभी घबराए और न तो कभी सत्य के रास्ते से पीछे ही हटे। उनका साफ मानना था, सच का पालन करने वाले व्यक्ति का कोई दोस्त हो या न हो, लेकिन ईश्वर उसका हर वक्त साथ निभाता है। पूरे भारतीय समाज को वे इसी लिए सच का रास्ता दिखा सके, क्योंकि उन्हें ईश्वर पर अटल विश्वास था और वे हर हाल में सत्य का पालन करते थे। वे कहते थे, इंसान द्वारा बनाई गयी पत्थर की मूर्ति के आगे सिर न झुकाकर भगवान की बनाई मूर्ति के आगे ही सिर झुकाना चाहिए। हम जैसा विचार करते हैं हमारी बुद्धि वैसे ही होती जाती है। पत्थर की पूजा करके कभी जीवंत नहीं बना जा सकता है। वे स्त्रियों को मातृ-शक्ति कहकर सम्मान करते थे। दयानंद जी ने लोगों को समझाया कि तीर्थों की यात्रा किए बिना भी हम अपने हृदय में सच्चे ईश्वर को उतार सकते हैं। उन्होंने जाति-पाति का घोर विरोध किया तथा समाज में व्याप्त पाखण्डों पर भी डटकर कटाक्ष किए। जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ करार दिया और कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण ऊँच या नीच नहीं होता। व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊँच या नीच बनाते हैं । समाज को हर बुराई, कुरीति, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए डट कर सत्य बातों का का प्रचार-प्रसार किया, उनकी तप, साधना व सच्चे ज्ञान ने समाज को एक नई दिशा दी और उनके आदर्शों एवं शिक्षाओं का मानने वालों का बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया। महर्षि दयानंद जी की बातें आज भी उतनी ही कारगर और महत्वपूर्ण हैं, जितनी की उस काल में थीं । यदि मानव को सच्चे ईश्वर की प्राप्ति चाहिए तो उसे महर्षि दयानंद जी के मार्ग पर चलते हुए उनकी शिक्षाओं एवं ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना ही होगा। महर्षि दयानंद जी के चरणों में सहस्त्रों बार साष्टांग नमन।।
डॉ विवेक आर्य
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