दयानन्द की इस निर्भीक तथा अनासक्त भाव को व्यक्त करने वाली उक्ति को सुन कर सांसारिक वैभव को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाले मठाधीश का स्तम्भित एवं चकित हो जाना स्वाभाविक ही था। अपने थोथे ऐश्वर्य और वैभव का निरर्थक प्रदर्शन कर भक्त समुदाय को आश्चर्यान्वित एवं आतंकित करने वाले इस महन्त के जीवन में यह प्रथम अवसर था जब किसी सच्चे विरक्त एवं जिज्ञासु पुरुष का उससे सम्पर्क हुआ । अतः महन्त ने
जिज्ञासावश पूछा कि वह कौनसा उद्देश्य है जिसकी प्राप्ति के लिये वे इतना परिश्रम कर रहे हैं ? दयानन्द का सहज उत्तर था- "मैं सत्य योग विद्या और मोक्ष (जो बिना अपनी आत्मा की पवित्रता और सत्य, न्याय आचरणों के नहीं प्राप्त हो सकता) चाहता हूँ और जब तक यह अर्थ सिद्ध नहीं होगा तब तक बराबर अपने देश वालों का उपकार, जो मनुष्य पर कर्तव्य है, करता रहूंगा।" लोककल्याण और जनसेवा ही दयानन्द की दृष्टि में मोक्ष-प्राप्ति के साधन थे ।(नवजागरण के पुरोधा पृष्ठ 30)
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वीर्य का नाश आयु का नाश है
वीर्य के विषय में कहा करते थे कि वीर्य का नाश आयु का नाश है, यह वीर्य बड़ा रत्न है। यदि मार्ग में कोई स्त्री आ जाती तो महाराज उसकी ओर पीठ कर लिया करते थे। स्वामी गणेशपुरी एक साधु थे जो स्त्रियों को पढ़ाया और रागरङ्ग कराया करते थे। उसके विषय में महाराज ने कहा था कि यह उसका ढोंग और व्यभिचार है। साधु को चाहिये कि स्त्री को आँख से भी न देखे क्योंकि यह ब्रह्मचारी की आँख में घुस जाती है।
[बाबू देवेंद्र नाथ मुखोपाध्याय]
राजा कर्नल प्रताप सिंह अथवा उनके अग्रज महाराजा जसवन्तसिह मांस मदिरा सेवन, आखेट क्रीड़ा आदि उन दुर्व्यसनों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके, जो क्षत्रिय समुदाय में सामान्यतया प्रचलित थी। इसे उनकी चारित्रिक दुर्बलता ही समझना चाहिये कि औपचारिक रूप से अपने आप को आर्यसमाजी घोषित करके भी वे अपने वैयक्तिक जीवन में आर्योचित मर्यादायों तथा भक्ष्या-भक्ष्य विषयक नियमों का पालन नहीं कर सके थे। तभी तो एक दिन कर्नल प्रताप के यह पूछने पर कि हमें कोई ऐसा काम बतलायें जिससे कि हमारा मोक्ष हो, स्वामीजी ने स्पष्टतया कहा-"काम तो तुम्हारे मोक्ष के नहीं है। परन्तु एक न्याय तुम्हारे हाथ में है यदि न्यायपूर्वक प्रजा-पालन करोगे तो तुम्हारा मोक्ष हो सकता है।"
(नवजागरण के पुरोधा पृष्ठ ५०३)
एक दिन वार्तालाप के प्रसंग में जोधपुर राज्य के मुसाहिब(मन्त्री) मियां फैजुल्ला खाँ ने स्वामी जी से कहा - " यदि आज मुसलमानों का शासन होता,तो आपके इस्लाम खण्डन को कदापि सहन नहीं किया जाता और आपका इस प्रकार भाषण करना कठिन हो जाता।" निर्भीकमना दयानन्द का उत्तर था - " मैं यदि मुसलमान शासनकाल में होता,तब भी इसी प्रकार की बात कहता और यदि औरंगज़ेब की परम्परा का कोई शासक मेरा अनिष्ट चिन्तन करता तो मैं भी किसी शिवा, दुर्गादास अथवा राजसिंह जैसे क्षत्रिय को आगे कर देता,जो उसे मजा चखा देता।"(नवजागरण के पुरोधा पृष्ठ ५०५)
स्रोत- (बाबू देवेन्द्रनाथ एवं प्रो.भवानीलाल भारतीय लिखित जीवनचरित् से)
प्रस्तुतकर्ता -रामयतन

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