Friday, September 12, 2025

अल्लामा इकबाल

 



'अल्लामा इकबाल'

जिसके पूर्वज कश्मीर के मोह्याल ब्राह्मण थे। उन पर जब मजहबी रंग चढ़ा तो क्या-क्या परिवर्तन हुए- उसके बारे में आर्य विद्वान पण्डित प्रकाशवीर शास्त्री (संसद सदस्य) का एक भूमिकापरक उद्धरण यथावत् प्रस्तुत है -

👉 शौकत-अली और मुहम्मद अली को गांधी जी ने बरसों अपने साथ रखा, खिलाफत आन्दोलन में लाखों रुपया बाहर गया पर क्या परिणाम निकला ? उन्हीं रामपुर के अलीबन्धुओं में से एक ने यह भी कहा-
"एक गिरे से गिरा मुसलमान भी गांधी से लाख दर्जे बेहतर है क्योंकि वह कुरान पर यकीन रखता है।" मुसलमान जब यह समझने लगा स्वराज्य तेरे ही कारण मिल या रुक सकता है उसने कभी गौकशी, कभी ताजियेदारी और कभी मस्जिद के आगे बाजे और कभी मन्दिरों के शंखों पर झगड़े आरम्भ कर दिये। जो समस्यायें इतने दिनों से कभी नहीं उठी थीं वह भी उन दिनों उठने लगीं। उठती भी क्यों न, हमारे लीडरों का आवश्यकता से अधिक महत्व देना और अंग्रेज का शाबाश कहकर बजता हुआ डमरू देखकर शैतान खुलकर खेलने लगा। चौदह प्रतिशत लोगों को तैंतीस प्रतिशत अधिकार मिल गये, इतने पर भी वे शान्त कहां? आधा देश बांटने की तैयारी करने लगा। अंग्रेज के अतिरिक्त भोपाल, रामपुर, हैदराबाद और जूनागढ़ से भी पीठें ठोकी ही जा रही थीं, इधर कांग्रेस के अन्दर रहकर जिन्ना हरेक को यह जान ही चुका था कौन कितने पानी में है और किसमें कहां तक खड़े रहने का दम है ? उसने इसका पूरा लाभ उठाया और मुसलमानों का नेतृत्व आरम्भ कर दिया गया । स्वामी श्रद्धानन्द जैसे वीर नेता जिसने देहली के घण्टाघर पर खड़े होकर गोरों की संगीनों को अपनी छाती खोलकर चुनौती दी थी, उनके वध का शोक समाचार गोहाटी कांग्रेस में रखते हुए हमारे नेताओं के हाथ कांपने लगे क्योंकि मुहम्मद अली जो वहां पर उपस्थित थे, परन्तु जनता के बढ़ते हुए रोष और मालवीय जी क्योंकि उस अधिवेशन के सभापति थे वह प्रस्ताव रखा गया और एक दिन का अधिवेशन भी स्थगित हुआ । उसी अब्दुल रशीद की पैरवी जिसने स्वामी जी को मारा था कचहरी में खुले आम करने वाले आज भी हमारे गवर्नर और राजदूत बन रहे हैं। इसी हिन्दू- मुस्लिम ऐक्य की बढ़ती हुई आंधी और पान इस्लामी स्टेट की कल्पना से सर अल्लामा इकबाल जैसे राष्ट्रीय शायर भी विचलित हो उठे । जिन्होंने कभी देशभक्ति के वह तराने गाये थे-
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ।
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमार। ।।
उन्हीं इकबाल ने मुस्लिम रंग में रंगकर यह कहना आरम्भ किया-
👉 चीनो अरब हमारा हिन्दोस्तां हमारा ।
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा।।
इकबाल जैसे राष्ट्रीय और देशभक्ति का अलाप लेने वाले शायर में इतना गहरा मजहबी रंग देखकर पंजाबी शायर श्री त्रिलोकचन्द ने उत्तर दिया-
इकबाल ने जब छोड़ी राहे वतन परस्ती ।
गा-गा के यह तराना सारा जहां हमारा ॥
हमने भी एक फिक्रे में बस बात खत्म कर दी।
सारा जहां तुम्हारा हिन्दोस्तां हमारा ॥
अन्त में आकर इन्हीं इकबाल ने अपने गीतों और बयानों में पाकिस्तान की भूमिका तैयार की। सन् १९३० के मुस्लिम लीग के इलाहाबाद वाले अधिवेशन में सभापति पद से भाषण करते हुए डा० इकबाल ने पहले पहल स्वतन्त्र मुस्लिम राष्ट्र की मांग की। उन्होंने कहा- जिस राष्ट्रीयता में मुसलमानों को इस्लाम के सिद्धान्त को हत्या करनी पड़े उस पर तो उन्हें विचार तक भी नहीं करना चाहिए। परिणामस्वरुप अन्ततः संसार का सबसे रक्त- रंजित और वीभत्स राष्ट्र-विभाजन घटित हुआ। निस्संदेह डॉ. अल्लामा इकबाल भारत-विभाजन के मुख्य सूत्रधारों में से एक हैं।
(स्रोत- 'मेरे सपनों का भारत', लेखक - पण्डित प्रकाशवीर शास्त्री)
प्रस्तुतकर्ता - रामयतन

ऋषि दयानन्द की खरी-खरी

 


💥 ऋषि दयानन्द की खरी-खरी 💥
*रावल ने कहा- गद्दी ले लो! राजा ने कहा- गद्दी ले लो!*
👉 उत्तराखण्ड परिभ्रमण में एक दिन ऊखीमठ के महन्त ने दयानन्द को विरक्ति,तितिक्षा,अध्यवसाय तथा साधना के लिए उपयुक्त दृढ़ता आदि गुणों से सम्पन्न देखकर उसे अपना शिष्य बना लेने,तथा कालान्तर में मठाधीश पद प्राप्त करने का प्रलोभन दिया। दयानन्द भला इस विभूति एवं सम्पत्ति से क्यों आकर्षित होने लगे ? जिसने अपने अशेष वैभव-सम्पन्न गृह का परित्याग कर स्वेच्छा से निस्पृह जीवन अपनाया, उस दयानन्द का ऐसे प्रलोभनों में फंसना असम्भव ही था। दयानन्द ने निर्लोभ भाव से कहा- "यदि मुझे धन की लालसा होती तो मैं अपने पिता की सम्पत्ति को, जो तुम्हारे इस स्थल, धनधान्य से कहीं बढ़ कर थी, न छोड़ता। किंच मैंने यह भी कहा कि जिस उद्देश्य के लिये मैंने घर छोड़ा और सांसारिक ऐश्वर्य से मुंह मोड़ा, न तो मैं उसके लिये तुम्हें यत्न करते देखता हूं और न तुम्हें उसका ज्ञान ही प्रतीत होता है। पुनः तुम्हारे पास मेरा रहना कैसे हो सकता है?"
दयानन्द की इस निर्भीक तथा अनासक्त भाव को व्यक्त करने वाली उक्ति को सुन कर सांसारिक वैभव को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाले मठाधीश का स्तम्भित एवं चकित हो जाना स्वाभाविक ही था। अपने थोथे ऐश्वर्य और वैभव का निरर्थक प्रदर्शन कर भक्त समुदाय को आश्चर्यान्वित एवं आतंकित करने वाले इस महन्त के जीवन में यह प्रथम अवसर था जब किसी सच्चे विरक्त एवं जिज्ञासु पुरुष का उससे सम्पर्क हुआ । अतः महन्त ने
जिज्ञासावश पूछा कि वह कौनसा उद्देश्य है जिसकी प्राप्ति के लिये वे इतना परिश्रम कर रहे हैं ? दयानन्द का सहज उत्तर था- "मैं सत्य योग विद्या और मोक्ष (जो बिना अपनी आत्मा की पवित्रता और सत्य, न्याय आचरणों के नहीं प्राप्त हो सकता) चाहता हूँ और जब तक यह अर्थ सिद्ध नहीं होगा तब तक बराबर अपने देश वालों का उपकार, जो मनुष्य पर कर्तव्य है, करता रहूंगा।" लोककल्याण और जनसेवा ही दयानन्द की दृष्टि में मोक्ष-प्राप्ति के साधन थे ।(नवजागरण के पुरोधा पृष्ठ 30)
💥इस राज्य को मैं एक दौड़ में पार कर जाऊंगा पर..💥
👉 महाराणा उदयपुर ने एक दिन एकान्त में अत्यन्त विनम्र भाव से निवेदन किया कि राजनीति के सिद्धान्त के अनुसार आपको मूर्तिपूजा का खण्डन न करना चाहिए। यह तो आप जानते हैं कि यह राज्य एकलिंग महादेव के अधीन है। आप एकलिंग के मन्दिर में महन्त बन जावें। कई लाख रुपये पर आपका अधिकार हो जावेगा और एक अर्थ में यह राज्य भी आपके अधीन रहेगा। महाराज बड़े शान्त प्रकृति के थे और उन्हें क्रोध बहुत कम आता था। परन्तु महाराणा के इस प्रस्ताव को सुनकर उन्हें आवेश आ गया और कड़क कर बोले कि आप लोभ देकर मुझसे सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की आज्ञा भङ्ग कराना चाहते हैं। यह छोटा सा राज्य और उसके मन्दिर जिससे मैं एक दौड़ में बाहर हो सकता हूँ मुझे कभी भी वेद और ईश्वर की आज्ञा भङ्ग करने पर उतारू नहीं कर सकते। मैं कदापि सत्य को छोड़ वा छिपा नहीं सकता। आगे से आप विचार कर बात कहा करें। महाराणा महाराज के वचनों को सुनकर एक दम स्तम्भित हो गये, उन्हें कदापि ऐसे वचनों की आशा न थी। अन्त को महाराणा को यही कहते बना कि मैंने यह सब देखने के लिये कहा था कि आप इसके खण्डन पर कितने दृढ़ हैं। मुझे ज्ञात न था कि आप अपने विचारों पर इतने दृढ़ हैं। अब मुझे आपके दृढ़ विश्वास का पूर्व की अपेक्षा अधिक निश्चय हो गया।
👉"स्वामी जी के विषय में मेरा विचार है कि ऐसा साहस वाला मैंने आज तक कोई मनुष्य नहीं देखा। मैंने कई बार राजनीति के नियम के अनुसार काम करने को कहा परंतु उन्होंने मेरी ऐसी किसी बात को भी माना।"- कविराज श्यामलदास महामहोपाध्याय
. 💥 वीर्य का नाश आयु का नाश है💥
वीर्य के विषय में कहा करते थे कि वीर्य का नाश आयु का नाश है, यह वीर्य बड़ा रत्न है। यदि मार्ग में कोई स्त्री आ जाती तो महाराज उसकी ओर पीठ कर लिया करते थे। स्वामी गणेशपुरी एक साधु थे जो स्त्रियों को पढ़ाया और रागरङ्ग कराया करते थे। उसके विषय में महाराज ने कहा था कि यह उसका ढोंग और व्यभिचार है। साधु को चाहिये कि स्त्री को आँख से भी न देखे क्योंकि यह ब्रह्मचारी की आँख में घुस जाती है।
[बाबू देवेंद्र नाथ मुखोपाध्याय]
💥 काम तो तुम्हारे मोक्ष के नहीं हैं💥
राजा कर्नल प्रताप सिंह अथवा उनके अग्रज महाराजा जसवन्तसिह मांस मदिरा सेवन, आखेट क्रीड़ा आदि उन दुर्व्यसनों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके, जो क्षत्रिय समुदाय में सामान्यतया प्रचलित थी। इसे उनकी चारित्रिक दुर्बलता ही समझना चाहिये कि औपचारिक रूप से अपने आप को आर्यसमाजी घोषित करके भी वे अपने वैयक्तिक जीवन में आर्योचित मर्यादायों तथा भक्ष्या-भक्ष्य विषयक नियमों का पालन नहीं कर सके थे। तभी तो एक दिन कर्नल प्रताप के यह पूछने पर कि हमें कोई ऐसा काम बतलायें जिससे कि हमारा मोक्ष हो, स्वामीजी ने स्पष्टतया कहा-"काम तो तुम्हारे मोक्ष के नहीं है। परन्तु एक न्याय तुम्हारे हाथ में है यदि न्यायपूर्वक प्रजा-पालन करोगे तो तुम्हारा मोक्ष हो सकता है।"
(नवजागरण के पुरोधा पृष्ठ ५०३)
💥 यदि मुस्लिम राज्य होता तो .....!💥
एक दिन वार्तालाप के प्रसंग में जोधपुर राज्य के मुसाहिब(मन्त्री) मियां फैजुल्ला खाँ ने स्वामी जी से कहा - " यदि आज मुसलमानों का शासन होता,तो आपके इस्लाम खण्डन को कदापि सहन नहीं किया जाता और आपका इस प्रकार भाषण करना कठिन हो जाता।" निर्भीकमना दयानन्द का उत्तर था - " मैं यदि मुसलमान शासनकाल में होता,तब भी इसी प्रकार की बात कहता और यदि औरंगज़ेब की परम्परा का कोई शासक मेरा अनिष्ट चिन्तन करता तो मैं भी किसी शिवा, दुर्गादास अथवा राजसिंह जैसे क्षत्रिय को आगे कर देता,जो उसे मजा चखा देता।"(नवजागरण के पुरोधा पृष्ठ ५०५)
स्रोत- (बाबू देवेन्द्रनाथ एवं प्रो.भवानीलाल भारतीय लिखित जीवनचरित् से)
प्रस्तुतकर्ता -रामयतन

ऋषि दयानन्द ने बार-बार रजवाड़ों को झकझोरा


 


ऋषि दयानन्द ने बार-बार रजवाड़ों को झकझोरा

💥 राजा के सुधार से सम्पूर्ण राज्य का सुधार सम्भव💥
. 💥 महर्षि द्वारा महाराणा की दिनचर्या का उपदेश 💥
"नवजागरण के पुरोधा : दयानन्द सरस्वती" के लेखक प्रो.भवानीलाल भारतीय बहुत मार्मिक शब्दों में लिखते हैं - "महर्षि दयानन्द ने राजस्थान प्रवास की योजना को एक विशिष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए क्रियान्वित करना चाहा था। उनके जीवन का संध्याकाल उपस्थित होने वाला है। वैदिक ज्योति को अशेष धरातल पर विकीर्ण करनेवाला यह ज्योतिष्मान् मार्त्तण्ड अपने सम्पूर्ण ताप और ऊष्मा से वसुन्धरा को सुपुष्ट कर मानो अब काल रात्रि का ग्रास बनने ही जा रहा है। जीवन-नाटक के इस अन्तिम अंक के लिए दयानन्द ने राजस्थान के रंगमंच को ही क्यों चुना ? स्वामीजी की यह धारणा थी कि जिन क्षत्रिय नरेशों की धमनियों में महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, वीर जयमल और पत्ता तथा वीर दुर्गादास जैसे रणबांकुरों का ऊष्ण रक्त प्रवाहित हो रहा है, वे आज के इस गये गुजरे जमाने में भी यदि चाहें तो अपनी प्रजा का सही मार्गदर्शन कर सकते हैं। यों तो सम्पूर्ण भारत ही उस समय विदेशी शासकों के अधिकार में था, किन्तु यदि स्वराज्य की कोई क्षीण झलक यत्र तत्र दिखाई दे जाती थी तो इन्हीं देशी राज्यों में ही। स्वामीजी यह भी जानते थे कि इन देशी रजवाड़ों के अधिकांश नरेश विषय-लोलुप, इन्द्रियारामी, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश बन गये हैं। किन्तु उनकी यह धारणा थी कि यदि 'इन लोगों में स्वाभिमान, एवं आत्मगौरव का संचार कर प्रजारञ्जन तथा कर्त्तव्य-भावना को उद्बुद्ध किया जा सके तो निश्चय ही राजस्थान ब्रिटिश भारत का नेतृत्व करने में समर्थ हो जायगा। कुछ इसी आशा और विश्वास को लेकर स्वामीजी ने राजस्थान में अपना अवशिष्ट जीवन लगाया। उन्होंने राजन्यवर्ग की समस्याओं का अध्ययन किया, उनकी जीवनचर्या को सुधारा तथा उन्हें प्रजाहित तथा देशहित का पाठ पढ़ाया ।"
👉उदयपुर के तत्कालीन महाराजा सज्जनसिंह नवयुवक ही थे। एक बड़े राज्य के अधिपति होने तथा युवकोचित चापल्य के कारण उनमें धीरे धीरे वे सभी दोष आने लगे थे जो उन दिनों प्रायः सभी राजा और सामन्त वर्ग के युवकों में पाये जाते थे। यद्यपि महाराणा पर्याप्त विचारशील तथा अध्ययन में रुचि रखने वाले थे, किन्तु स्वेच्छाचारी क्षत्रिय शासकों में संसर्ग दोष के कारण जिस प्रकार के नाना व्यसन सहज उत्पन्न हो जाते हैं, वे युवक महाराणा में भी आ ही गये थे। महाराणा के इन चरित्रगत स्खलनों तथा नास्तिकता की ओर उनके विशेष झुकाव को देखकर मेवाड़ के दरबारी वर्ग को विशेष दुःख होता था। मेवाड़ राज्य के उच्च पदाधिकारी कविराजा श्यामलदास एवं मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या जैसों की हार्दिक अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार से महाराजा को सन्मार्ग पर लाया जाय। परन्तु यह तब तक सम्भव नहीं था जब तक कि कोई लोकोत्तर गुणसम्पन्न महापुरुष महाराणा का गुरु एवं पथ प्रदर्शक बनकर उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित नहीं करता। स्वामी दयानन्द की लोक-विश्रुत कीर्ति तथा उनके द्वारा धर्म और समाज के सार्वत्रिक सुधार एवं संशोधन की चर्चा उन दिनों देश में सर्वत्र प्रसरित हो रही थी। समाचार पत्रों में भी स्वामीजी के सुधार कार्य, उनके लोकहित चिन्तन तथा इसी ध्येय की पूर्ति हेतु उनके देशव्यापी भ्रमण का वृत्तान्त भी प्रायः प्रकाशित होता रहता था। पण्ड्याजी तथा कविराजाजी इन समाचारों को महाराणा के दृष्टिगोचर कराने का प्रयत्न करते। इस प्रकार धीरे धीरे स्वामीजी के कार्य तथा उनकी सार्वजनिक प्रवृत्तियों का परिचय महाराणा को मिलने लगा तथा देशोन्नति के कार्य में तत्पर इस अद्भुत संन्यासी के दर्शन की इच्छा उनके मन में जागृत हुई। इसी आधार पर पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या ने स्वामीजी से पत्र द्वारा सम्पर्क स्थापित किया और उनसे निवेदन किया कि निकट भविष्य में जब उनका राजस्थान में आगमन हो, तो उन्हें अवश्य सूचित किया जाय ।
👉स्वामीजी का चित्तौड़गढ़ जाने का कार्यक्रम अनायास ही बन गया और स्वामी जी ने अपने चित्तौड़ पहुंचने की सूचना कविराजा श्यामलदास को दी। यद्यपि उन दिनों कविराजा जी रुग्ण थे किन्तु राज्य की ओर से सब प्रबन्ध उत्तमता से हो गया।
कविराजा जी की प्रेरणा से मेवाड़ राज्य के बड़े-बड़े जागीरदार,सरदार तथा राजपुरुष भी स्वामी जी का सत्संग लाभ करने लगे। स्वामी जी 15 नवंबर सन् 1881 को जब प्रथम बार महाराणा जी से मिले तो वहीं धर्म के साथ राजधर्म का उपदेश दिया और कहा कि- "आप राजा सिंह तुल्य हैं। पासवान स्त्रियों को कदापि राजभवनों में नहीं डालना चाहिए। दरबार ने उस दिन जान लिया कि केवल यही व्यक्ति है जो बिना लागलपेट के सत्योपदेश करता है। हृदय से ऋषि के उपदेश को पसन्द किया। स्वामी जी ने महाराणा की प्रशंसा करते हुए आशा व्यक्त की कि उनके कुशल नेतृत्व में मेवाड़ राज्य की सर्वतोन्मुखी उन्नति होगी। वस्तुत: स्वामी जी की यह हार्दिक इच्छा थी कि राजस्थान के क्षत्रिय राजा आलस्य, प्रमाद, विषय-वासना,मद्यपान जैसे दुर्गुणों और दुर्व्यसन को त्याग कर निष्ठापूर्वक प्रजापालन को ही स्वकर्तव्य समझें। अतः राजन्य वर्ग के सुधार की महत्वाकांक्षा को लेकर ही स्वामी दयानन्द ने राजस्थान के इन रजवाड़े में भ्रमण का व्यापक कार्यक्रम बनाया था। दो माह से कुछ कम समय तक चित्तौड़ में निवास कर स्वामी जी ने मुंबई जाने का विचार किया।
मुंबई का यह प्रवास दीर्घ अवधि का था। स्वामी जी लगभग ६ माह के बाद ११ अगस्त १८८२ शुक्रवार को पुनः मेवाड़ राज्य की राजधानी उदयपुर पहुंचे। उदयपुर में स्वामी जी का प्रवास ६ माह से कुछ अधिक काल का रहा। मेवाड़ के महाराणा स्वामी दयानन्द के चरित्र, व्यक्तित्व एवं उनकी विचारधारा से तो प्रभावित थे ही, अतः इस बार उदयपुर आने पर उन्होंने स्वामीजी से दीर्घकाल पर्यन्त मेवाड़ की राजधानी में रहने का अनुरोध किया ।
👉 महर्षि द्वारा महाराणा जी को शिक्षा तथा उसका प्रभाव - "अच्छे-अच्छे सिद्धान्तों से थोड़े काल में राणाजी को परिचित करा दिया। शरीर के रोगादि की शिक्षा, दिनचर्या की शिक्षा लिखकर राणा जी को दी। प्रातःकाल का भ्रमण, राजनीति, घर का प्रबन्ध, नमस्ते का प्रयोग, हवन का आरम्भ आदि बहुत-सी श्रेष्ठ बातें प्रचलित कराये। स्वामीजी के उपदेश से महाराणा ने अपने जीवन में तीव्र सुधार की तत्परता दिखाई ।
👉महाराज ने यह भी प्रस्ताव किया था कि राज्य के सरदारों के पुत्रों की शिक्षा के लिये एक पाठशाला होनी चाहिये जिसमें शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी जावे। यह प्रस्ताव महाराणा ने स्वीकार भी कर लिया था और पाठशाला के भवन का चित्र भी बन गया था, परन्तु पश्चात् महाराणा के रोगग्रस्त हो जाने के कारण आगे कुछ कार्य न हुआ।
👉महाराज ने सरकारी पाठशालाओं के लिये श्रेणीवार पाठ्यक्रम भी बनाया था और उसे महाराणा ने प्रचलित कर दिया था।
👉महाराज का यह भी प्रस्ताव था कि राज्य के न्यायालयों में सब कार्य देवनागरी लिपि में हो और जिससे इसमें सुगमता हो। उन्होंने अरबी भाषा के शब्दों के, जो न्यायालयों में प्रचलिय थे, संस्कृत के पर्यायवाची शब्द बतला दिये थे।
💥 महाराणा के लिये दिनचर्या -
महाराज ने महाराणा को निम्न प्रकार दिनचर्या का उपदेश
किया था : -
👉शय्यात्याग, शौचादि, रात्रि के ३ बजे। शौच से निवृत्त होकर एक प्याला ठण्डे जल का पीना वा रात्रि को चित्रक की छाल जल में भिगोकर प्रातःकाल उस जल को पीना। 👉फिर एक घड़ी तक परमेश्वर की उपासना करना ।
👉तत्पश्चात् पैदल वा घोड़े पर भ्रमण करना। पैदल भ्रमण करना अधिक अच्छा है। मार्ग में सब वस्तुओं को ध्यानपूर्वक देखना। हर वस्तु को ध्यानपूर्वक देखने की वान सारी आयु भर रखना अच्छा।
👉भ्रमण से लौटकर दिन को जिस राजप्रासाद में रहें उसमें घृत का हवन कराना।
👉हवन से न केवल वायु ही शुद्ध होती है प्रत्युत् वृष्टि भी। हवन से वहाँ की ही शुद्धि नहीं होती जहाँ हवन होता है, उससे सब नगर को लाभ पहुँचता है और महान् उपकार होता है।
👉९ बजे तक राज्य का आवश्यक कार्य करना ।
👉११ बजे तक भोजन और मनोविनोद ।
👉१२ बजे तक विश्राम यदि इच्छा हो।
👉४ बजे तक न्यायकार्य ।
👉तत्पश्चात् शौचादि से निवृत्त होकर अश्वादि पर सवार होकर सेना, उद्यान, प्रासाद, नगर, सड़क आदि का निरीक्षण सूर्यास्त तक ।
👉सूर्यास्त पर महल में आकर ग्रन्थादि पढ़ना, ईश्वराराधन वा विद्या-विज्ञान की बातें सुनना, विद्वानों से सत्सङ्ग वा वार्तालाप करना, इतिहास का सुनना।
👉तत्पश्चात् भोजन करके आध घण्टे तक टहलना और फिर टहलते हुए गाना सुनना परन्तु इस ओर अधिक न झुकना चाहिये। कविता सुनना भी अच्छा है, परन्तु वह ऋङ्गार रस की न हो।
👉फिर निश्चिन्त होकर पूरे छः घण्टे सोना। स्त्रियों के साथ न सोना। रति के लिये भी सप्ताह वा पक्ष का नियम रखना ।
👉दिनचर्या का उपदेश देकर महाराज ने महाराणा से पूछा कि आप इसके अनुकूल कार्य करेंगे वा नहीं तो उन्होंने कहा कि अवश्य करूँगा और अगले दिन से उन्होंने तदनुकूल आचरण करना आरम्भ कर दिया।
महाराज के उपदेश से महाराणा ने वेश्यागमन का कुव्यसन त्याग दिया था। बहु विवाह से भी उन्हें घृणा हो गई थी। उन्हीं दिनों एक स्थान से विवाह का प्रस्ताव हुआ था, परन्तु महाराणा ने उसे तुरन्त अस्वीकार कर दिया।
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स्रोत- पंडित लेखराम जी द्वारा संकलित, बाबू देवेंद्र नाथ मुखोपाध्याय द्वारा संकलित, पंडित लक्ष्मण जी लिखित-महर्षि दयानन्द का जीवन चरित् और प्रो. भवानीलाल भारतीय लिखित 'नवजागरण के पुरोधा दयानन्द सरस्वती'
प्रस्तुतकर्ता- रामयतन
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