दयामय दयानन्द
लेखक- प्रो० ताराचन्द डेऊमल गाजरा
प्रस्तुतकर्ता- प्रियांशु सेठ
भगवान् दयानन्द के जीवन चरित्र के एक लेखक महोदय कहते हैं- एक अत्यन्त माधुर्य्यता की लहर उनके जीवन में प्रवाहित होती थी। जिस समय वे प्रेममय बैठे होते थे, उस समय उनके मित्र जीवन की कठिनाइयों की समस्या हल करते थे। उस समय उनकी आकृति से एक ज्ञानमय आभा प्रज्वलित होती थी। वे एक वृद्धमय विचार रूप में पशुवत कार्य प्रणाली का निदान अपनी विद्वत्ता से दमन करते थे। और उनके भिन्न प्रकार के अनुचित कृत्यों के उत्तरदायत्व का भर उन पर आरोपण करते थे। वे अपने अमूल्य विचारों द्वारा उन अंधकारमय समस्याओं को जिन में जनता लिप्त थी, भी प्रकाश भी करते थे। उनका विशाल हृदय दीन, अनाथों की दशा तथा निसहाय निधनों की अधःपतन रूपी दशा को देखकर सदैव अश्रुपात किया करता था। वे नित्य उन ही के प्रति जीवित रहे और उन्हीं के लिए कार्य करते रहे। उनके हृदय की विशालता तथा दयालुता का परिचय भली प्रकार मिलता है।
निसंदेह यह सत्य है कि वीरवर दयानंद ने लगातार अनाथ तथा निसहाय-अबलाओं के लिए अनन्य कार्य किए। वे अनुभव करते थे कि भारत की देवियों ने अपने प्राचीन गौरव को भुला दिया है। वह सामान्य अधिकार जो एक पत्नी को पति के प्रति आवश्यक थे, भुला बैठी हैं। मध्य काल में पुरुष स्त्रियों को अपवित्र और पापमय समझते थे। उस समय के धर्मावलम्बी उनको अपने सत्संग में मिलाने के लिए भी कंपित होते थे। ऐसे समय में वीरवर दयानंद ने मनुष्यों को पुनः उनके प्राचीन सिद्धान्तों को वेद और स्मृति द्वारा जागृत किया और बतलाया कि सुख सम्पति तथा उन्नति केवल उसी जगह निवास करती है जहां स्त्रियों की पूजा और सम्मान होता है।
पौराणिक जहां स्त्रियों को विद्या, पठन-पाठन का अनाधिकारी कहते थे, वहां वीरवर दयानंद ने सर्वप्रथम शिक्षा पाने का अधिकार स्त्रियों को ही प्राप्त कराना सिद्ध किया है। ऐसे समय में जबकि देवियां किसी प्रकार का भाग जन-समुदाय की सेवा में न लेती थीं, केवल उन्हीं के प्रताप से माता भगवती देवी अपने जीवन को देश की देवियों के सम्मान उद्धार के कर्तव्य क्षेत्र में आ गई।
उनके हृदय में विधवाओं के प्रति इतना अनुराग था कि वे प्रायः दु:खित होकर नीरस भाव से कहा करते थे कि भारत के दुःखों का एक कारण निसहाय अबलाओं के मार्मिक हृदयों की वेदनाओं का शाप है।
निस्सहाय अनाथों के प्रति उनके हृदय में सदैव स्थान था। उन्हीं के हेतु उन्होंने अपने स्वीकार पत्र में निसहाय अनाथ बच्चों के लिए एक अनाथालय के लिए स्वीकृति दी। उनकी इच्छानुसार फिरोजपुर में उसी समय एक अनाथालय की स्थापना की गई और उसकी सहायतार्थ उन्होंने वेदभाष्य द्वारा तथा इन महाराणा सज्जनसिंह से द्रव्य की याचना की।
वे केवल इन निस्सहाय पीड़ित अनाथों के ही प्रेमी नहीं थे, वरन वे पापात्माओं तथा अपराधियों के भी प्रिय थे। वीरवर के हाथों में उनको विष देने वाली षड्यंत्रता के प्रमाण थे। किंतु वे अपराधी के विरुद्ध कोई कार्य करना अपनी भीरूता समझते थे। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से वह पत्र नष्ट भ्रष्ट कर डाला। इसी प्रकार एक सिपाही ने जो स्वामी जी के प्रति मुग्ध था, एक व्यक्ति को पकड़कर उसे दंड दिया था। किंतु जब यह सूचना उनके पास पहुंची, वे दु:खित हुए। काशी में भी ऐसे ही वीरवर दयानंद को एक दुष्ट ब्राह्मण विष मिला हुआ भोजन लाया किंतु भोजन करने के प्रथम ही उन्होंने अपने योगाभ्यास से ब्राह्मण की छलता का अनुभव कर लिया कि भोजन में विष मिला हुआ है। उन्होंने ब्राह्मण से प्रथम भोजन के लिए कहा किंतु वह ऐसा करने को सहमत न हुआ। वीरवर की रोष तथा तामस मय आभा को देखकर वह बहुत भयभीत होकर पृथ्वी पर मृत समान गिर पड़ा। उसका सारा शरीर कुम्हलाकर पीला पड़ गया। उनके एक मित्र ने उसे पुलिस द्वारा दंड दिलाने की आयोजना की किंतु वीरवर जो संसार को बंधन से मुक्त कराने तथा अज्ञान अंधकार के दूर करने के हेतु आया था, अपने मित्र के प्रस्ताव को स्वीकार करने में असमर्थ थे और उन्होंने सहर्ष अपराधी को बिना किसी प्रकार का दंड दिए विदा कर दिया।
ये केवल मनुष्यमात्र ही के प्रेमी न थे। वे प्राणी मात्र से प्रेम करते थे। वास्तव में उनका यह कार्य एक विचित्र कार्य है। किंचितजन ही उस कार्य को समझ सके जो वीर दयानन्द ने कर दिखाया। वे भगवान् बुद्ध की तरह अहिंसा के प्रेमी थे, जैसा कि उनके एक पूना के व्याख्यान द्वारा विदित होता है। जहां कि उन्होंने पशु यज्ञ का घोर विरोध करते हुए कहा कि यह किसी प्रकार उचित नहीं है।
पशु यज्ञ करते हुए उनके प्राणों की बलि देना केवल पाखंडी ब्राह्मणों का षड्यंत्र है। मांस खाना सर्वदा वर्जित है। महाराणा सज्जन सिंह उदयपुर नरेश को उन्होंने उन के राज्य से पशु हत्या बंद करने के लिए बड़ी दृढ़ता से प्रेरणा की और महारानी विक्टोरिया को भी अपना मंतव्य पशु हत्या के बंद करने के लिए तथा उन की रक्षार्थ गौरक्षणी सभाओं की स्थापना तथा कृषि विभाग की रक्षा की प्रार्थना की। वीरवर की रची हुई गोकरुणानिधि पूर्णरूप से शाकाहारी जीवन की बहुमूल्यता का प्रमाण है। धन्य है! उनके घोर परिश्रम से आज भारत के पंडित और वेदज्ञाताओं के समाजों की गहरी निद्रा भंग हुई है। बड़े विद्वान पंडितों ने वीरवर की वेदयुक्ति तथा उनके प्रमाणों द्वारा यह घोषित कर दिया है कि वेद में धार्मिक समयों पर किसी भी प्रकार की पशुहत्या सर्वथा निन्दनीय तथा घोर दुष्कर्म है।
इस परिवर्तन के होने से जन-समुदाय ने भली प्रकार से वीर की भूरि भूरि प्रशंसा इस जघन्य कर्म को रोकने में की है। वह मनुष्य जो अन्धकार और अज्ञान में लिप्त होकर पशुहत्या, नरहत्या करने को उन रक्त के प्यासे देवताओं की पिपासा शान्त करने के लिए निरपराध जीवों की बलि देते थे; जिन्होंने आज से प्रथम का इतिहास मनन किया है, वहां कोई भी ऐसी पुस्तक दृष्टिगोचर नहीं होती जहां कि ऋषि के विचार सम्मिलित न किए गए हों। भारत में आज कोई भी ऐसा कृतघ्न प्रतीत नहीं होता जो आज वीर की महान वीरता की प्रशंसा न करता हो।
आइये आज हम सब मिल कर इस पवित्र अवसर पर उस वीर और दयालु का स्मृति दिवस मनायें। इति।
No comments:
Post a Comment