Wednesday, May 10, 2023

जाति और वर्ण

 



जाति और वर्ण

वर्णव्यवस्था जन्मना है या कर्मणा। यदि उसे जन्मना माना जाय तो वह जातिगत भेदभाव को निर्माण करने का एक महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द कर्मणा वर्णव्यवस्था के पक्षधर हैं। उनकी यह धारणा थी कि जन्मना वर्णव्यवस्था तो पाँच-सात पीढ़ियों से शुरु हुई है, अतः उसे पुरातन या सनातन नहीं कहा जा सकता। अपने तार्किक प्रमाणों द्वारा उन्होंने जन्मना वर्णव्यवस्था का सशक्त खंड़न किया है। उनकी दृष्टि में जन्म से सब मनुष्य समान हैं, जो जैसे कर्तव्य-कर्म करता है, वह वैसे वर्ण का अधिकारी होता है।

अस्पृश्य अछूत-दलित शब्द का विवेचन प्रस्तुत करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि दलितोद्धार से पूर्व दलितों के लिए सार्वजनिक सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य और अछूत शब्द प्रचलित थे ,लेकिन जब समाज-सुधार के बाद समाज में यह धारणा बनने लगी कि कोई भी अस्पृश्य और अछूत नहीं है, तो धीरे-धीरे अस्पृश्य के स्थान पर दलित शब्द रुढ़ हो गया। स्वाभाविक रूप से अस्पृश्योद्धार वा अछूतोद्धार का स्थान भी दलितोद्धार ने ले लिया। मानसिक परिवर्तन ने पारिभाषिक संज्ञा को भी परिवर्तित कर दिया।

प्रदीर्घ समय तक सामाजिक, आर्थिक आदि दृष्टि से जिनका दलन किया गया, कालान्तर में उन्हें ही दलित कहा गया। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार जब यह महसूस किया जाने लगा कि शुद्धि और दलितोद्धार दोनों चीजें एक सी नहीं हैं, दलितों की हीन दशा के लिए सवर्ण समझे जाने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने जाति के करोड़ों व्यक्तियों को अछूत बना रखा है। उन्हें मानवता का अधिकार देना सवर्णों का कर्तव्य है। इस विचार को सामने रखकर आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने अछूतों के लिए दलित और अछूतों के उद्धार कार्य के लिए दलितोद्धार की संज्ञा दे दी। तभी से अछूतों की शुद्धि के संदर्भ में दलितोद्धार संज्ञा प्रचलित हो गयी।

यह बात अविस्मरणीय है कि आर्य समाज के समाज सुधार आंदोलन ने ही दलित-आन्दोलन को दलित और दलितोद्धार जैसे सक्षम शब्द प्रदान किये हैं।
महर्षि दयानन्द अपने ही नहीं सबके मोक्ष की चिंता करने वाले थे। किसी जाति-सम्प्रदाय वर्ग विशेष के लिए नहीं, अपितु सारे संसार के उपकार के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी।

सन् 1880 में काशी में एक दिन एक मनुष्य ने वर्ण व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का निम्न श्लोक प्रस्तुत किया-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारकम्।
विद्या तपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः।। 4/1/48।।

अर्थात् ब्राह्मणत्व के तीन कारक हैं –1) विद्या, 2) तप और 3) योनि। जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या (जन्मना) ब्राह्मण तो है ही।

ऋषि दयानन्द ने प्रति खंडन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया-

यथा काष्ठमयो हस्ती, यश्चा चर्ममयो मृगः।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।
मनु०(2,157)

अर्थात् जैसे काष्ठ का कटपुतला हाथी और चमड़े का बनाया मृग होता है, वैसे ही बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण होता है। उक्त हाथी, मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं

ऋषि दयानन्द से पूर्व और विशेष रूप से मध्यकाल से ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी वर्णस्थ व्यक्तियों को शूद्र समझा गया था, अतः क्रमशः मुगल और आंग्ल काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी महाराज, बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज को उपनयन आदि वेदोक्त संस्कार कराने हेतु आनाकानी करने वाले ब्राह्मणों के कारण मानसिक यातनाओं के बीहड़ जंगल से गुजरना पड़ा था।

ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः अर्थात् ज्ञानी हुए बिना इनसान की मुक्ति संभव नहीं है। अतः ऋषि दयानन्द का दलितोद्धार की दृष्टि से भी सब से महान् कार्य यह था कि उन्होंने सबके साथ दलितों के लिए भी वेद-विद्या के दरवाजे खोल दिए। मध्यकाल में स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे, आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने मेधावी क्रांतिकारी चिंतन और व्यक्तित्व से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दिया। ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के इस प्रधान साधन और उपाय में ही उनके द्वारा अपनाये गए अन्य सभी उपायों का समावेश हो जाता है, जैसे-

1) दलित स्त्री-शूद्रों को गायत्री मंत्र का उपदेश देना। 2) उनका उपनयन संस्कार करना। 3) उन्हें होम-हवन करने का अधिकार प्रदान करना। 4) उनके साथ सहभोज करना। 5) शैक्षिक संस्थाओं में शिक्षा वस्त्र और खान पान हेतु उन्हें समान अधिकार प्रदान करना। 6) गृहस्थ जीवन में पदार्पण हेतु युवक-युवतियों के अनुसार (अंतरजातीय) विवाह करने की प्रेरणा देना आदि।

डा. आंबेडकर ने भी स्वीकार किया है कि-‘‘स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वर्णव्यवस्था बुद्धि गम्य और निरूपद्रवी है।”
डा. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के उपकुलपति, महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध वक्ता प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने अपने एक लेख में लिखा है,‘राजपथ से सुदूर दुर्गम गांव में दलित पुत्र को गोदी में बिठाकर सामने बैठी हुई सुकन्या को गायत्री मंत्र पढ़ाता हुआ एकाध नागरिक आपको दिखाई देगा तो समझ लेना वह ऋषि दयानन्द प्रणीत का अनुयायी होगा।’

आर्यसमाजी न होते हुए भी ऋषि दयानन्द की जीवनी के अध्ययन और अनुसंधान में 15 से भी अधिक वर्ष समर्पित करने वाले बंगाली बाबू देवेंद्रनाथ ने दयानन्द की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है,‘ वेदों के अनधिकार के प्रश्न ने तो स्त्री जाति और शूद्रों को सदा के लिए विद्या से वंचित किया था और इसी ने धर्म के महंतों और ठेकेदारों की गद्दियां स्थापित की थीं, जिन्होंने जनता के मस्तिष्क पर ताले लगाकर देश को रसातल में पहुंचा दिया था। दयानन्द तो आया ही इसलिए था कि वह इन तालों को तोड़कर मनुष्यों को मानसिक दासता से छुड़ाए।’ ऋषि दयानन्द के काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित पं. सत्यव्रत सामश्रमी ने भी स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखा है,‘‘शूद्रस्य वेदाधिकारे साक्षात् वेदवचनमपि प्रदर्शितं स्वामि दयानन्देन यथेमां वाचं ….. इति।”

डा. चन्द्रभानु सोनवणे ने लिखा है,‘ मध्यकाल में पौराणिकों ने वेदाध्ययन का अधिकार ब्राह्मण पुरुष तक ही सीमित कर दिया था, स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद के (26/2) मंत्र के आधार पर मानव मात्र को वेद की कल्याणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया। स्वामीजी इस यजुर्वेद मंत्र के सत्यार्थ द्रष्टा ऋषि हैं।’

ऋषि दयानन्द के बलिदान के ठीक 10 वर्ष बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापर्डे ने लिखा था,‘ स्वामीजी ने मंदिरों में दबा छिपाकर रखे गए वेद भंडार समस्त मानव मात्र के लिए खुले कर दिये। उन्होंने हिंदू धर्म के वृक्ष को महद् योग्यता से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया।’

‘वेद भाष्य पद्धति को दयानन्द सरस्वती की देन’ नामक शोध प्रबंध के लेखक डा. सुधीर कुमार गुप्त के अनुसार ‘स्वामी जी ने अपने वेद भाष्य का हिंदी अनुवाद करवाकर वेदज्ञान को सार्वजनिक संपत्ति बना दिया।’

पं. चमूपति जी के शब्दों में ‘दयानन्द की दृष्टि में कोई अछूत न था।उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उन्हें अस्पृश्यता की गहरी गुहा से उठाया और आर्यत्व के पुण्य शिखर पर बैठाया था।’

हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है ‘‘देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पाति के भेदभाव को मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्य समाज को है।’

महाराष्ट्र राज्य संस्कृति संवर्धन मंडल के अध्यक्ष मराठी विश्व कोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ऋषि दयानन्द की महत्ता लिखते हुए कहते हैं, ‘सैकड़ों वर्षों से हिंदुत्व के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार पराधीन हुआ। इसका प्रत्यक्ष अनुभव महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया। इसलिए उन्होंने जन्मना जातिभेद और मूर्तिपूजा जैसी हानिकारक रूढ़ियों का निर्मूलन करने वाले विश्वव्यापी महत्वाकांक्षा युक्त आर्य धर्म का उपदेश किया। इस श्रेणी के दयानन्द यदि हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए होते, तो इस देश को पराधीनता के दिन न देखने पड़ते। इतना ही नहीं, प्रत्युत विश्व के एक महान् राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष देदीप्यमान होता।’

-रमेश आर्य

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