*समलैंगिकता: एक प्रसव-हीन 'सुप्रीम' बुद्धि विलास*
*वैदिक एवं अन्य धार्मिक वैवाहिक मान्यताएं*
आज हमारे देश में समलैंगिक सम्बन्धों को सामाजिक मान्यता देते देते, उन्हें विवाहित दंपति मानकर अधिकार सम्पन्न भी करने की एक दुर्भाग्यपूर्ण व्यग्रता दिखाई दे रही है। इस असंवैधानिक विषय पर सर्वोच्च न्यायालय तक की अप्रत्याशित रुचि, और इसको लगभग मान्यता देते हुए, मुख्य न्यायाधीश महोदय की व्यक्तिगत टिप्पणियां भी अत्यंत निराशाजनक व अशोभनीय प्रतीत हो रही हैं।
आइये, हम सभी, भारतीय वैदिक संस्कृति में विवाह संस्कार से जुड़ी शास्त्र सम्मत मान्यताओं एवम् व्यवस्थाओं का अवलोकन करें।
हमारी संस्कृति में, परम्परा से, वेद और स्मृतिशास्त्र समर्थित संस्कार मनुष्य को सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत एवं भयमुक्त बनाते हैं। हिन्दू संस्कृति में गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि पर्यंत सोलह संस्कारों का विधान है।
इन सोलह संस्कारों में से पंद्रहवां संस्कार है 'विवाह संस्कार ।'
विवाह संस्कार मानव जीवन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्कार है। यह सिर्फ दो शरीरों का ही नहीं, अपितु दो आत्माओं का पवित्र मिलन है। विवाह के साथ ही गृहस्थ जीवन प्रारंभ होता है।
यह गृहस्थाश्रम, चारों आश्रमों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि-
(1) बाकी तीन आश्रम-'ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यासाश्रम' इसी गृहस्थाश्रम पर निर्भर हैं।
ये तीनों आश्रमवासी गृहस्थियों से ही भिक्षा मांगकर एवम् विविध प्रकार की सहायता प्राप्त कर जीवन यापन करते हैं।
(2) मनुष्य अपने तीन ऋणों- पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण से इसी गृहस्थाश्रम में रहता हुआ उर्ऋण, हो पाता है।
(3) इतना ही नहीं, गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि पर्यंत सभी संस्कार विवाह संस्कार के कारण ही संभव हो पाते हैं। कारण स्पष्ट है, विवाह नहीं तो संतानोत्पत्ति नहीं। जब संतान ही उत्पन्न नहीं हो तो कोई भी आश्रम व्यवस्था चलने वाली नहीं है।
(4) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से तीन पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, और काम की प्राप्ति का साधन भी विवाह ही है।
(5) हमारे शास्त्रों में पत्नी के बिना मनुष्य को यज्ञ तक करने का अधिकारी नहीं माना गया :
*अयज्ञो वा एषः योऽपत्नीकः* (तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.2.2.6)
(6) मनुष्य के मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए भी विवाह अत्यावश्यक है। विवाह से मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन होता है। उसमें सहनशीलता, त्याग, क्षमा, दान, उदारता जैसे गुणों का विकास भी हो पाता है।
इन्हीं सभी कारणों से वेदों, गृह्यसूत्रों, स्मृति-ग्रंथों, आदि में विवाह संस्कार का विस्तृत वर्णन किया गया है।
'वि' उपसर्ग पूर्वक वह्-प्रापणे धातु से 'घन्' प्रत्यय करने पर 'विवाह' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है-*विवाहःविशिष्टवहनम्* । विवाह को विशिष्ट वहन माना गया है क्योंकि विवाह के पश्चात् वर और वधू, दोनों की जिम्मेदारियां, उनके कर्तव्य बहुत ही बढ़ जाते हैं।
महर्षि दयानंद ने अपनी संस्कारविधि में 'विवाह' की परिभाषा इस प्रकार की है,
*सन्तानोत्पत्तये* *वर्णाश्रमानुकूलमुत्तमकार्यसिद्धये च स्त्रीपुरुषयोः सम्बन्धो विवाहः*, अर्थात्, संतान की उत्पत्ति के लिए, वर्णाश्रम के अनुकूल, उचित कार्य करने के लिए स्त्री और पुरुष का संबंध 'विवाह' कहा जाता है।
तैतरीयोपनिषद् (1.11.1) में भी *प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः* अर्थात् 'संतानोत्पत्ति रूपी वंश-परंपरा को विच्छिन्न मत करो'- यह कह कर विवाह की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इसे शारीरिक अथवा सामाजिक बंधन नहीं माना गया है, बल्कि इसे जीवन की निरन्तरता का रूप दिया गया है।
वर, वधू का पाणिग्रहण करते समय वधू से कहता है कि, सौभाग्य और आजीवन साथ रहने के लिए भग, अर्यमा, सविता, आदि देवताओं की कृपा से गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए मैंने तुम्हारा हाथ थामा है,
*गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।*
*भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः।*
(ऋग्वेद 10.85.36)
इसी कारण विवाह संस्कार को पाणिग्रहण संस्कार भी कहा जाता है।
वधू से आशा की जाती है कि पतिगृह जाकर वह संतान को जन्म देगी, पति-पत्नी दोनों के प्रेम में वृद्धि होगी, गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों को अच्छे से निभाएगी, पति के साथ एक प्राण, एक मन वाली होकर रहेगी तथा बच्चों को अच्छे संस्कार देगी। उन्हें भविष्य के उत्तम नागरिक बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी।
*इह प्रियं प्रजया समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि ।*
*एना पत्या तन्वं सं सृजस्वाऽधा जिव्री विदथमा विदाथः ।*
(ऋग्वेद 10.85.27)
यहां ध्यान देने योग्य बात है कि सात फेरे और सप्तपदी, दोनों अलग अलग रस्में हैं। सात फेरों में वर और वधू अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं। और हर फेरे के साथ एक एक वचन लेते हैं जबकि सप्तपदी सात फेरों के बाद होती है जिसमें वर वधू सात कदम साथ चलते हैं और परिवार को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि अब हम पति-पत्नी के साथ साथ मित्र भी बन गए हैं, और हम आजीवन साथ रहेंगे।
विवाह संस्कार में होने वाली फेरों और वचनों की परम्परा में यह पांचवां फेरा और वचन, अत्यंत प्रासंगिक है:
*इन्द्राग्नी द्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगो अश्विनोभा।*
*बृहस्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारीं प्रजया वर्धयन्तु ।*
(अथर्ववेद 14.1.54)
वर कहता है- इंद्र, अग्नि, द्यौ, पृथिवी, मातरिश्वा, मित्र, वरुण, भग, अश्विनी कुमार, बृहस्पति, मरुद्, वेद और सोम मेरी इस पत्नी के माध्यम से हमें हमारी संतान प्रदान करने की कृपा करें।
वधू भी यही वचन देती है कि वह भी अपने पति के प्रति प्रेमभाव रखेगी और संतानों को जन्म देकर, परिवार और समाज की भावी पीढ़ी के निर्माण में सहायक होगी ।
इन फेरों के बाद वर वधू सात कदम एक साथ चलते हैं और अन्न, बल, धन, सुख, संतान, और ऋतु के अनुसार व्यवहार करने की तथा परस्पर मित्रता की प्रार्थना करते हैं-
*ओं ईषे एकपदी भव, ओं ऊर्जे द्विपदी भव, ओं रायस्पोषाय त्रिपदी भव, ऊं मायोभव्याय चतुष्पदी भव, ओं प्रजाभ्यः पञ्चपदी भव, ओं ऋतुभ्यः षट्पदी भव, ओं सखे सप्तपदी भव ।* (आ. गृ. सू. 1.7.19)
यह सप्तपदी कहलाती है और इसके उपरांत ईश्वर, समाज और परिवार को साक्षी मानकर, उस दिन से दो अनजान युवक- युवती के बीच, पति-पत्नी के रुप में, मानों अटूट मित्रता हो जाती है *'मैत्री सप्तपदीनमुच्यते।'*
इस प्रकार वेदों के अनुसार विवाह एक आदर्श और सम्मानित सामाजिक प्रक्रिया है, एक मधुर बंधन है। गृहस्थ जैसे पवित्र आश्रम का आधार है जिसका लक्ष्य मात्र शारीरिक भोग विलास नहीं है अपितु यम, नियम, संयम से चलाने वाला यह एक मजबूत और अटूट रिश्ता है जो उत्तरदायित्वों से भरा होने पर भी अभीष्ट है।
स्पष्ट है कि सदियों से, विधर्मियों के सारे कुत्सित प्रयासों के वावजूद भी आज हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान यदि जीवित रह पाई है तो सिर्फ हमारी वैदिक संस्कृति में इसी वैवाहिक संबंध की पवित्रता, शालीनता और निरन्तरता के कारण ही रह पाई है।
यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि संसार के अन्य प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, मुस्लिम, यहूदी और अन्य सभी मतावलंबियों में भी इन प्रसव-हीन, अनुत्पादक (non productive) संबंधों की कोई मान्यता नहीं है। सभी धर्म और मत, पवित्र विवाह संबंधों के द्वारा मनुष्य जाति की निरन्तरता सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को ही स्वीकार करते हैं। प्रकृति भी पशु पक्षियों में नर-मादा के माध्यम से उन योनियों की निरंतरता को सुनिश्चित करती है।
इसीलिए प्रकृति और संस्कृति, दोनों की सभ्य, शिष्ट और शालीन मूल अवधारणाओं को अनावश्यक रूप से तोड़ने पर आमादा कुछ मुट्ठी भर बुद्धि-विलासियों के धूर्त प्रयासों से विचलित नहीं होते हुए, हमें और भी सजग होने, सक्रिय चेतना जगाने और पूरी शक्ति से इस निंदनीय प्रयास का प्रतिकार करने की आवश्यकता है ।
आज यही हम सभी का दायित्व है और यही आज का राष्ट्रधर्म है।
- विपिन मित्र गुप्ता, (सदस्य- Political Sub-committee) हिंद पुनरुत्थान संघ ट्रस्ट
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*समलैंगिकता: एक प्रसव-हीन 'सुप्रीम' बुद्धि विलास*
*वैदिक एवं अन्य धार्मिक वैवाहिक मान्यताएं*
आज हमारे देश में समलैंगिक सम्बन्धों को सामाजिक मान्यता देते देते, उन्हें विवाहित दंपति मानकर अधिकार सम्पन्न भी करने की एक दुर्भाग्यपूर्ण व्यग्रता दिखाई दे रही है। इस असंवैधानिक विषय पर सर्वोच्च न्यायालय तक की अप्रत्याशित रुचि, और इसको लगभग मान्यता देते हुए, मुख्य न्यायाधीश महोदय की व्यक्तिगत टिप्पणियां भी अत्यंत निराशाजनक व अशोभनीय प्रतीत हो रही हैं।
आइये, हम सभी, भारतीय वैदिक संस्कृति में विवाह संस्कार से जुड़ी शास्त्र सम्मत मान्यताओं एवम् व्यवस्थाओं का अवलोकन करें।
हमारी संस्कृति में, परम्परा से, वेद और स्मृतिशास्त्र समर्थित संस्कार मनुष्य को सभ्य, शिष्ट, सुसंस्कृत एवं भयमुक्त बनाते हैं। हिन्दू संस्कृति में गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि पर्यंत सोलह संस्कारों का विधान है।
इन सोलह संस्कारों में से पंद्रहवां संस्कार है 'विवाह संस्कार ।'
विवाह संस्कार मानव जीवन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण संस्कार है। यह सिर्फ दो शरीरों का ही नहीं, अपितु दो आत्माओं का पवित्र मिलन है। विवाह के साथ ही गृहस्थ जीवन प्रारंभ होता है।
यह गृहस्थाश्रम, चारों आश्रमों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि-
(1) बाकी तीन आश्रम-'ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यासाश्रम' इसी गृहस्थाश्रम पर निर्भर हैं।
ये तीनों आश्रमवासी गृहस्थियों से ही भिक्षा मांगकर एवम् विविध प्रकार की सहायता प्राप्त कर जीवन यापन करते हैं।
(2) मनुष्य अपने तीन ऋणों- पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण से इसी गृहस्थाश्रम में रहता हुआ उर्ऋण, हो पाता है।
(3) इतना ही नहीं, गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि पर्यंत सभी संस्कार विवाह संस्कार के कारण ही संभव हो पाते हैं। कारण स्पष्ट है, विवाह नहीं तो संतानोत्पत्ति नहीं। जब संतान ही उत्पन्न नहीं हो तो कोई भी आश्रम व्यवस्था चलने वाली नहीं है।
(4) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से तीन पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, और काम की प्राप्ति का साधन भी विवाह ही है।
(5) हमारे शास्त्रों में पत्नी के बिना मनुष्य को यज्ञ तक करने का अधिकारी नहीं माना गया :
*अयज्ञो वा एषः योऽपत्नीकः* (तैत्तिरीय ब्राह्मण 2.2.2.6)
(6) मनुष्य के मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए भी विवाह अत्यावश्यक है। विवाह से मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन होता है। उसमें सहनशीलता, त्याग, क्षमा, दान, उदारता जैसे गुणों का विकास भी हो पाता है।
इन्हीं सभी कारणों से वेदों, गृह्यसूत्रों, स्मृति-ग्रंथों, आदि में विवाह संस्कार का विस्तृत वर्णन किया गया है।
'वि' उपसर्ग पूर्वक वह्-प्रापणे धातु से 'घन्' प्रत्यय करने पर 'विवाह' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है-*विवाहःविशिष्टवहनम्* । विवाह को विशिष्ट वहन माना गया है क्योंकि विवाह के पश्चात् वर और वधू, दोनों की जिम्मेदारियां, उनके कर्तव्य बहुत ही बढ़ जाते हैं।
महर्षि दयानंद ने अपनी संस्कारविधि में 'विवाह' की परिभाषा इस प्रकार की है,
*सन्तानोत्पत्तये* *वर्णाश्रमानुकूलमुत्तमकार्यसिद्धये च स्त्रीपुरुषयोः सम्बन्धो विवाहः*, अर्थात्, संतान की उत्पत्ति के लिए, वर्णाश्रम के अनुकूल, उचित कार्य करने के लिए स्त्री और पुरुष का संबंध 'विवाह' कहा जाता है।
तैतरीयोपनिषद् (1.11.1) में भी *प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः* अर्थात् 'संतानोत्पत्ति रूपी वंश-परंपरा को विच्छिन्न मत करो'- यह कह कर विवाह की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इसे शारीरिक अथवा सामाजिक बंधन नहीं माना गया है, बल्कि इसे जीवन की निरन्तरता का रूप दिया गया है।
वर, वधू का पाणिग्रहण करते समय वधू से कहता है कि, सौभाग्य और आजीवन साथ रहने के लिए भग, अर्यमा, सविता, आदि देवताओं की कृपा से गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए मैंने तुम्हारा हाथ थामा है,
*गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।*
*भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः।*
(ऋग्वेद 10.85.36)
इसी कारण विवाह संस्कार को पाणिग्रहण संस्कार भी कहा जाता है।
वधू से आशा की जाती है कि पतिगृह जाकर वह संतान को जन्म देगी, पति-पत्नी दोनों के प्रेम में वृद्धि होगी, गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों को अच्छे से निभाएगी, पति के साथ एक प्राण, एक मन वाली होकर रहेगी तथा बच्चों को अच्छे संस्कार देगी। उन्हें भविष्य के उत्तम नागरिक बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी।
*इह प्रियं प्रजया समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि ।*
*एना पत्या तन्वं सं सृजस्वाऽधा जिव्री विदथमा विदाथः ।*
(ऋग्वेद 10.85.27)
यहां ध्यान देने योग्य बात है कि सात फेरे और सप्तपदी, दोनों अलग अलग रस्में हैं। सात फेरों में वर और वधू अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं। और हर फेरे के साथ एक एक वचन लेते हैं जबकि सप्तपदी सात फेरों के बाद होती है जिसमें वर वधू सात कदम साथ चलते हैं और परिवार को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि अब हम पति-पत्नी के साथ साथ मित्र भी बन गए हैं, और हम आजीवन साथ रहेंगे।
विवाह संस्कार में होने वाली फेरों और वचनों की परम्परा में यह पांचवां फेरा और वचन, अत्यंत प्रासंगिक है:
*इन्द्राग्नी द्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगो अश्विनोभा।*
*बृहस्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारीं प्रजया वर्धयन्तु ।*
(अथर्ववेद 14.1.54)
वर कहता है- इंद्र, अग्नि, द्यौ, पृथिवी, मातरिश्वा, मित्र, वरुण, भग, अश्विनी कुमार, बृहस्पति, मरुद्, वेद और सोम मेरी इस पत्नी के माध्यम से हमें हमारी संतान प्रदान करने की कृपा करें।
वधू भी यही वचन देती है कि वह भी अपने पति के प्रति प्रेमभाव रखेगी और संतानों को जन्म देकर, परिवार और समाज की भावी पीढ़ी के निर्माण में सहायक होगी ।
इन फेरों के बाद वर वधू सात कदम एक साथ चलते हैं और अन्न, बल, धन, सुख, संतान, और ऋतु के अनुसार व्यवहार करने की तथा परस्पर मित्रता की प्रार्थना करते हैं-
*ओं ईषे एकपदी भव, ओं ऊर्जे द्विपदी भव, ओं रायस्पोषाय त्रिपदी भव, ऊं मायोभव्याय चतुष्पदी भव, ओं प्रजाभ्यः पञ्चपदी भव, ओं ऋतुभ्यः षट्पदी भव, ओं सखे सप्तपदी भव ।* (आ. गृ. सू. 1.7.19)
यह सप्तपदी कहलाती है और इसके उपरांत ईश्वर, समाज और परिवार को साक्षी मानकर, उस दिन से दो अनजान युवक- युवती के बीच, पति-पत्नी के रुप में, मानों अटूट मित्रता हो जाती है *'मैत्री सप्तपदीनमुच्यते।'*
इस प्रकार वेदों के अनुसार विवाह एक आदर्श और सम्मानित सामाजिक प्रक्रिया है, एक मधुर बंधन है। गृहस्थ जैसे पवित्र आश्रम का आधार है जिसका लक्ष्य मात्र शारीरिक भोग विलास नहीं है अपितु यम, नियम, संयम से चलाने वाला यह एक मजबूत और अटूट रिश्ता है जो उत्तरदायित्वों से भरा होने पर भी अभीष्ट है।
स्पष्ट है कि सदियों से, विधर्मियों के सारे कुत्सित प्रयासों के वावजूद भी आज हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान यदि जीवित रह पाई है तो सिर्फ हमारी वैदिक संस्कृति में इसी वैवाहिक संबंध की पवित्रता, शालीनता और निरन्तरता के कारण ही रह पाई है।
यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि संसार के अन्य प्रमुख धर्मों जैसे ईसाई, मुस्लिम, यहूदी और अन्य सभी मतावलंबियों में भी इन प्रसव-हीन, अनुत्पादक (non productive) संबंधों की कोई मान्यता नहीं है। सभी धर्म और मत, पवित्र विवाह संबंधों के द्वारा मनुष्य जाति की निरन्तरता सुनिश्चित करने की प्रक्रिया को ही स्वीकार करते हैं। प्रकृति भी पशु पक्षियों में नर-मादा के माध्यम से उन योनियों की निरंतरता को सुनिश्चित करती है।
इसीलिए प्रकृति और संस्कृति, दोनों की सभ्य, शिष्ट और शालीन मूल अवधारणाओं को अनावश्यक रूप से तोड़ने पर आमादा कुछ मुट्ठी भर बुद्धि-विलासियों के धूर्त प्रयासों से विचलित नहीं होते हुए, हमें और भी सजग होने, सक्रिय चेतना जगाने और पूरी शक्ति से इस निंदनीय प्रयास का प्रतिकार करने की आवश्यकता है ।
आज यही हम सभी का दायित्व है और यही आज का राष्ट्रधर्म है।
- विपिन मित्र गुप्ता