आर्यसमाज के विस्मृत भजनोपदेशक
ठाकुर उदय सिंह 'ठाकुर कवि'
लेखक - डॉ. भवानीलाल भारतीय जी
प्रस्तुति - अमित सिवाहा
सहयोगी - प्रियांशु सेठ
आर्यसमाज के मूर्धाभिषिक्त भजनोपदेशक भ्रातातुल्य पं० ओमप्रकाश वर्मा के मुख से अनेक बार ठाकुर कवि के पद्य तथा सुन्दर सूक्ति - सुमनों को सुनने का अवसर मिला तो इस कवि के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। अवसर आया आर्यसमाज बडाबाजार सोनीपत के वार्षिकोत्सव के अवसर पर जब मैं और वर्माजी साथ ही आमंत्रित थे । उसके बाद जो जानकारी उनसे मिली और कवि ठाकुर की सरस काव्य रचना के कुछ नमूने उनके स्मृतिकोश से प्राप्त किये उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । कवि ठाकुर का वास्तविक नाम ठाकुर उदय सिंह था और वे अलीगढ़ के प्रेमपुर ग्राम के निवासी थे । उनका जन्म १८९२ में हुआ और ९० वर्ष की आयु प्राप्त कर १९८२ मे दिवंगत हुए । उनका अध्ययन तो शायद दसवीं श्रेणी तक हुआ था किंतु हिन्दी , उर्दू , तथा अंग्रेजी का उनका ज्ञान पर्याप्त था ।
आर्यसमाज के प्रारंभिक काल में अधिकांश भजनोपदेशक उत्तरप्रदेश के मेरठ , अलीगढ , सहारनपुर , मुजफ्फरनगर तथा बुलन्दशहर आदि जिलो में ही हुए हैं । उन्होने मध्यकालीन इतिहास की अमरकथाओं को काव्य का रूप दिया । इनमें कुछ थी - महाराणाप्रताप , चन्द्रहास , रणसिंह और कुंवरदेवी आदि । लगभग पचास वर्ष तक वे आर्यप्रतिनिधिसभा पंजाब के अंतर्गत वैदिकधर्म का प्रचार करते रहे । यहां उनकी कुछ काव्य रचनाओं को उद्धृत किया जा रहा है । इससे उनके काव्य रचना कौशल का अच्छा परिचय मिल सकेगा । ऋषि दयानन्द की महिमा में लिखी गई उनकी उर्दू गजल का मुलाहिजा फरमाये -
बताए हम तुम्हे दयानन्द क्या था,वो दस्ते कुदरत का एक मौजिजा था ।
( प्रकृति के हाथ का एक आश्चर्य था )
सुनाता था अहकाम वो आसमानी , इसी वास्ते वो रसूले खुदा था।
( ईश्वरीय सदेश सुनाने के कारण उसे ईश्वर का दूत कहा जा सकता है )
लुटाता था वैदिकधर्म का खजाना!
महादानी दानी करण से सवा ( सवाया उत्कृष्ट ) था।
आदित्य ब्रह्मचारी बन कर रहा वो
कलियुग का वो मिस्ले ( तुल्य ) भीष्म पिता था ।
उसे याद करते हैं सब दोस्त दुश्मन ।
कहो क्यो न ' ठाकुर ' कि वह औलिया ( उच्च कोटि का साधु ) था ।
भारत के कतिपय देशभक्तो तथा प्रतिभावान् पुरुषों में दयानन्द की आत्मा का प्रकाश दिखाई देता है । उस भाव को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है -
कोकिला न कूके काहू देश मे सरोजिनी सी ,
कोविद कवीन्द्र में रवीन्द्र ही सितारो है ।
काहू देश कोश मे मिले न जगदीश बोस ,
गामा ( पहलवान ) जगजीत को जीत न अखारो है।.
मोती अक जवाहर ( नेहरू ) मिले न रत्नाकर में ,
साधु न मिलेगा जैसा ये लगोटी वालो ( गाँधी ) है ।
कहे कवि ठाकुर मानो चाहे मत मानो
सबकी आत्मा में दयानन्द को उजारो है ।
यदि स्वामी दयानन्द का धराधाम पर अवतरण पर नहीं होता तो कैसी स्थिति हो जाती इसे कवि ने निम्न सवैया मे बताया है । कवि भूषण ने शिवाजी महाराज की प्रशसा ऐसे ही भाव व्यक्त किये हैं जो शिवाजी न होतो तो सुनत होती सबकी ' जैसे वाक्यो मे व्यक्त हुए हैं । दयानन्द महिमा का ठाकुरकृत पद्य में -
वेद के भेद कहा खुलते अरु पुरानन की प्रति मोटी होती तुलती ही गप्पो की तोल घडाघड,सोटे सरे की कसौटी न होती।
हिन्दू न हिन्दी न हिन्द रहे थे , अग में फाटी लगोटी न होती ।
'ठाकुर' राम के वंशज कर गो बोटी तो होती,पर चोटी न होती।।
भौतिकता को प्रधानता देने वाले वर्तमान युग की विडम्बना को कवि ने निम्न कवित्त में चमत्कारपूर्ण शैली में व्यक्त किया है -
सोचो ले जाया जाय पार किस तरह धर्म की नैया को ।
जब लगा पूजने जग सारा ईश्वर की जगह रुपैया को।
वेदो की कथा को सुनने को आये तो आये चार जना ।
लाखो की जनता टूट पड़ी सुनने ताता थैया(विश्या-नृत्य)को।
बाबू साहब के कुत्ते भी यहा दूध सूध कर हट जाते हैं ।
ख़ल(गो का साथ) का टुकड़ा दिया नहीं भारत की गैया मैया को।
हो एक बात तो बतलाऊ ' ठाकुर ' इस पागलखाने की ।
जब राष्ट्रपति को दस हजार मिलता दस लाख सुरैया ( अभिनेत्री ) को ।।
सृष्टि रचयिता की रचना तो बुद्धिपूर्वक ही हुई है , चाहे हम अल्पज्ञो को उसका रहस्य समझ में न आये , यह भाव इस कविता में देखें -
दुनिया बनानेवाले दुनिया बनाई , रचना समझ मे मेरे न आई ।
निर्जन वन मे फूल खिलाये सोने मे क्यो न सुगध समाई ।
गन्ने में फल भी लगाया तो होता,चदन में क्यो न कलिया खिलाई।
काबुल में किशमिश ब्रज में है टैंटी ( करील के फल ) ।
पशुओं में कैसी कस्तूरी जमाई। यदि कोई और होता ठाकुर कविजी , उसे मूरख बनाती सारी खुदाई ।
सांसारिक विषयों में तल्लीन जीव को प्रबोधन देता कवि कहता है -
विषयों में फसकर ए मूरख , भगवान् भजन क्यो छोड़ दिया ।
है शोक ऋषि और मुनियों के सब चाल - चलन को छोड़ दिया ।
यहां बडे - बडे मतिवाते भी माया मे हुए मतवाले ,
पापन के कटीले काटो मे गुलजार चमन(प्रफुल्लित उद्यान)को छोड़ दिया ।
स्वार्थ के इन टुकडो पर तू कुत्तो की तरह दर - दर भटका ,
दो रोटी के बदते हमने सध्या हवन को छोड़ दिया ।
तेरे प्रेम का चस्का लगते ही देखा राजा महाराजों को देही पर भस्म रमा बैठे और तख्ते वतन को छोड़ दिया ।
तेरे अनुराग के दीपक पर मेरा मन जब पलग बना ,
तब फर हुआ भवसागर से आवागमन को छोड़ दिया ।
' ठाकुर ' जिस पर तूने तन मन धन सब वारा या
उसने श्मशान में जाकर के चार हाथ कफन को छोड़ दिया ।
जिस दीपवली के दिन महावीर स्वामी रामतीर्थ तथा ऋषि दयानन्द ने महाप्रस्थान किया उसे उलाहना देते हुए कवि ने लिखा -
जैन अचारी ( आचार्य ) गुणधारी तपी ब्रह्मचारी महावीर स्वामी की जोत बुझाई है ।
भक्ति रससना मस्ताना ' स्वामी रामतीर्थ उसकी छटा तूने गंगा में डुबोई है ।
जगहितकारी वेद धर्म के प्रचारी दयानन्द ब्रह्मचारी को अनन्त में विलाई है ।
कहे कवि ' ठाकुर ' ऐते अधम अमन ( पाप ) कर कारे मुखवारी तू दिवाली फिर आई है ।
यहां इस प्रतिभाशाली कवि ठाकुर के रससिक्त काव्य की एक झलक ही दी जासकी है । हमारा प्रयत्न होना चाहिये कि आर्यसमाज से जुड़े इन दिवंगत कवियों , गायकों और भजनोपदेशकों के जीवन और कृतित्व का लेखा - जोखा एक बार पुन लिया जाये.
-८/४२३ नन्दन वन जोधपुर ।
नोट :- सन् १९७६ मे सुदर्शनदेव आचार्य के द्वारा ठाकुर उदय सिंह प्रेमपुरी की हस्तलिखित पुस्तक " ठाकुर सर्वस्व मेरे पास प्रेस में छपने के लिए आई थी । विगत २६ वर्षों के अन्तराल में इसके लेखक और प्रकाशक भी दिवंगत होचुके हैं । यदि कोई सज्जन इस पुस्तक के प्रकाशन का व्यय वहन करना चाहे तो उसका परिचय भी चित्रसहित इस पुस्तक के साथ प्रकाशित कर दिया जायेगा । कवि की १ उदयप्रकाश , २ चन्द्रहास ३ छत्रपति शिवाजी ४ महाराणा प्रताप , ५ योद्धा छत्रसाल , ६ ठाकुर तरग , ७ ठाकुर विलास , ८ वेद और कुर्बान के दो - दो हाथ आदि अन्य रचनाये भी हैं ।
उपदेशकों की दशा का वर्णन ठाकुर कवि ने इस प्रकार किया है -
शीष पर बिस्तर और बगल मे छतरी लगी ,
एक हाथ बैग दूजे बालटी संभाली है ।
दिन गया धक - धक में रात गई बक बक में ,
कभी है अपच और कभी पेट खाली है ।
जंगल में सलूना और सड़क पे दशहरा मना ,
मोटर में होली और रेल में दिवाली है ।
पुत्र मरा सावन मे और पत्र मिला फागुन मे ,
' ठाकुर ' इन उपदेशकों की दशा भी निराली है ।।
-वेदव्रत शास्त्री
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