अतीत के अवलोकन
में पानीपत में
आर्यसमाज
हरियाणा प्रान्त में आर्यसमाज
का सबसे अधिक
प्रचार हुआ। शहरी
से लेकर ग्रामीण
क्षेत्रों तक वैदिक
विचारधारा का प्रचार
हुआ जिसमें आर्य
सन्यासियों, आर्य प्रचारकों,
भजन उपदेशकों, गुरुकुलों
आदि का अभिन्न
योगदान रहा। पानीपत
आर्यसमाज आज आर्यसमाज
का मजबूत स्तंभ
है। इसका इतिहास
भी उतना ही
रोमांचक है।
स्वामी दयानन्द के जीवनी
के अनुसार स्वामी
जी अपने जीवन
काल में अम्बाला
और रिवाड़ी में
प्रचार के लिए
पधारे थे। दिल्ली
से लाहौर जाते
समय पानीपत में
वो बहुत अल्प
समय के लिए डाक
गाड़ी से जाते
हुए रुके थे।
उस समय पानीपत
के राय बहादुर
ने उनकी आकर्षक
छवि से प्रभावित
होकर उन्हें पानीपत
आगमन का निवेदन
किया तो आपने
उत्तर दिया था
कि बस्ती छोटी
है, कार्य अधिक
हैं। इतना
अवकाश नहीं हैं। जून
1883 में स्वामी ईश्वरानन्द
सरस्वती का पानीपत
आगमन हुआ। आपका
स्वामी दयानन्द के साथ
पत्र व्यवहार था।
आपने स्वामी जी
से सत्यार्थ प्रकाश,
संध्या हवन आदि
पुस्तकें भी मंगवाई।
आपके प्रचार से
कुछ जन वैदिक
धर्मी बन गए
और आर्यसमाज पानीपत
की स्थापना 26 सितम्बर
1883 को हुई थी।
आर्यसमाज की स्थापना
का सनातन धर्मियों
विशेष रूप से
ब्राह्मणों ने कट्टर
विरोध किया था।
आर्यसमाज ने जनजागरण
अभियान के अंतर्गत
जातिभेद को अमान्य
बताते हुए सभी
को यज्ञोपवीत धारण
करने, गायत्री मंत्र
पढ़ने, यज्ञ करने
का अधिकार दिया
तो पौराणिक खेमे
में खलबली मच
गई। लाला योगध्यान
ने जनेऊ धारण
किया तो उनके
बड़े भाई रायजादा
लाला शहजाद राय
ने पुलिस में
शिकायत कर दी।
बिरादरी की पंचायत
कर आर्यों के
विवाह और अन्य
सामाजिक रस्मों में सम्मिलित
होने से लोगों
को रोका गया।
पंडित वर्ग सत्य
को जानते हुए
भी मुहूर्त, श्राद्ध
व्रत-पूजा आदि
के नाम पर
जो आमदनी करता
था। उसे उसके
रुकने का खतरा
था। अपने बीमार
पिता का मृत्यु
उपरांत वैदिक रीति से
दाह संस्कार करने
का संकल्प लेने
पर लाला हरगुलाम
सिंह को पंचायत
ने बिरादरी से
निकाल का डर
दिखाया गया। मृत्यु
पश्चात यह उड़ा
दिया गया कि
आर्य अपने परिवार
जनों की लाश
को तेल में
भून कर खाते
हैं। आखिर में
पुलिस और भारी
भीड़ की उपस्थिति
में दाह संस्कार
हुआ तो उसका
अच्छा प्रभाव जनमानस
पर पड़ा। अन्य
सभासद लाला कांशीराम
के भतीजे के
विवाह के अवसर
पर विघ्न डालने
का प्रयास क्या
गया। पं रतिराम
जी और उनकी
पत्नी का अकस्मात्
देहांत प्लेग से हो
गया। उन्होंने मृत्यु
से पहले अपनी
संपत्ति आर्यसमाज को उनके
सेवा कार्य देखकर
दान कर दी
थी। उनके रिश्तेदारों
ने कोर्ट में
केस कर दिया
जो लाहौर कोर्ट
में गया। आर्यसमाजी
वकील चौ रामभजदत्त
अधिवक्ता ने बिना
कोई शुल्क लिए
मुकदमा लड़कर आर्यों
को विजय दिलाई।
1907 में लाला लाजपतराय
के देश निष्कासन
के समय पानीपत
आर्यसमाज के साप्ताहिक
सत्संग पर पुलिस
के गुप्तचरों की
निगरानी रही। 1909 के पटियाला
अभियोग के समय
भी यही स्थिति
बनी रही। लाला जीताराम
जी लोहे वाले
का जन्मपत्री आदि
पर बड़ा विश्वास
था। उनके पुत्र
हुआ जिसका नाम
उन्होंने जगदीश रखा। अकस्मात उनके प्रिय
पुत्र की मृत्यु
हो गई। उनका
बड़े बड़े दावे
करने वाली जन्मपत्री
रूपी अन्धविश्वास से
विश्वास उठ गया
और वे आर्य
बन गए। पानीपत
के विशाल देवी
मंदिर को पौराणिक
साधुओं ने चिलम
के धुंए से
प्रदूषित कर रखा
था। आर्यों ने
इसकी शिकायत मंदिर
चलाने वाले वैश्यों
से की तो
उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
आर्यों ने रतिराम
आर्य वाटिका के
नाम से एक
उद्यान का निर्माण
किया जिसमें प्रतिदिन
शुद्ध वायु ग्रहण
करने, यज्ञ, हवन,
संध्या , उपासना करने सैकड़ों
लोग आते। एक
अखाड़ा भी शारीरिक
निर्माण के लिए
स्थापित किया गया
जिसमें बिना जातिभेद
के कुश्ती सिखाई
जाती। आरम्भिक हिचकीचाहट
के बाद अछूतों
के बच्चों को
सवर्णों के साथ
कुश्ती और स्नान
आरम्भ हो गया
और जातिवाद को
अखाड़े की मिट्टी
में दफन कर
दिया गया। 19 जनवरी
1914 में विधवा हरदई का
विवाह लाला रंजीतराय
से दोनों की
सहमति से हुआ।
विधवा छोटू पुत्री
घसीटा अग्रवाल का
विवाह संग्राम पुत्र
शादी अग्रवाल से
हुआ। इस प्रकार
से अनेक रूढ़िवादी
अवरोधों का सामना
करते हुए अनेक
विधवाओं के जीवन
का उद्धार करने
का सौभाग्य आर्यसमाज
को प्राप्त हुआ।
पानीपत में धनिक
लोग होली आदि
के नर्तक, गायक,
वेश्या आदि को
बुलाकर नाच, गाना,
मदिरापान आदि कुकर्म
करते थे। आर्यसमाज
ने इस कुमार्ग
को छोड़ने के
लिए प्रेरित किया
और सफलता प्राप्त
की। इसी प्रकार
से किसी की
मृत्यु पर भोज
के नाम पर
भोग ग्रहण करने
रूपी कुरीति का
भी आर्यसमाज ने
विरोध किया उसका
व्यापक प्रभाव हुआ। पानीपत
और उसके आसपास
के जिलों में
आर्यसमाज के प्रचार
से यज्ञोपवीत धारण
करने का प्रचार
हुआ। ब्राह्मण समाज
के अतिरिक्त अग्रवाल
वैश्य, जाट जमींदार,
जेलदार, कृषक, श्रमिक, शिल्पी
समाज आदि ने
बड़ी संख्या में
जनेऊ आर्यसमाज के
प्रचार से प्रभावित
होकर धारण किये।
उनकी यह सामाजिक
उन्नति रूढ़िवादी ब्राह्मणों को
अप्रिय लगी। एक
ब्राह्मण जिसका नाम कूड़ा
ब्रह्मचारी ने यह
प्रतिज्ञा की कि
जब तक इस
क्षेत्र से आर्य
समाज की जड़
न उखाड़ डालूं
और जिन व्यक्तियों
ने यज्ञोपवीत धारण
किये हैं, उनके
यज्ञोपवीत न उतार
डालूँ। तब तक
चैन से न
बैठूंगा। इस सम्बन्ध
में गांव खाण्डा
में पौराणिकों ने
2,3 दिसम्बर 1906 में सम्मेलन
बुलाया जिसमें पंडित शिवकुमार
शास्त्री, पंडित श्रीधर, पंडित
गरुड़ध्वज , पंडित जवालाप्रसाद मुरादाबादी,
पंडित भीमसेन इटावा
आदि शामिल हुए।
आर्यसमाज ने उसके
मुकाबले में एक
महोत्सव का आयोजन
किया जिसमें पंडित
गणपति शर्मा, पंडित
मुरारीलाल शर्मा, पंडित शम्भूदत्त
शर्मा, पंडित श्रीराम, पंडित
बालमुकुंद, पंडित रामरत्न, पंडित
रामस्वरूप , दो भजन
मंडली तथा मुज्जफरनगर
की जाट सभा
की ओर से
बहुत से लोग
सम्मिलित हुए। आर्यों
की ओर से
अनेक पत्र शास्त्रार्थ
की चुनौती के
लिए भेजे गए
पर किसी का
साहस शास्त्रार्थ करने
का नहीं हुआ।
आर्यसमाज का महोत्सव
सात दिन चला।
63 बड़े बड़े सरदारों
ने यज्ञोपवीत धारण
किये। कई आर्यसमाजें
ग्रामीण क्षेत्र में स्थापित
हुई।
शुद्धि के रण
में उतरते हुए
आर्यसमाज पानीपत ने अनेक
जन्मजात ईसाई और
मुसलमानों की शुद्धि
कर उन्हें वैदिकधर्मी
बनाया जिनके पूर्वजों ने कभी
भूलवश अन्य मत
स्वीकार कर लिया
था। अनेकों शुद्ध
हुओं के विवाह
भी वैदिक रीति
अनुसार आर्यसमाज ने करवाए।
आर्यसमाज पौराणिक
ही नहीं मुसलमानों
की आँखों में
भी सदा शूल
की भांति चुभता
रहा। उसका मूल
कारण मतान्धता था।
लाला शादी राम
जी माननीय अर्जी
नवीस थे। आपके
पुत्र लाला दीनबंधु
गुप्ता जिनके नाम पर
दिल्ली में करोल
बाग़ में सड़क
है, स्वामी श्रद्धानन्द
जी के शिष्य
थे। आप लेखनी
से वैदिक सिद्धांतों का प्रचार
करते थे। आपके
कई लेख आर्य
मुसाफिर, इन्द्र, आर्य जन्त्री
आदि पत्रिकाओं एवं
दैनिक तेज में
प्रकाशित हुए थे।
आपके पुत्र ने
अपनी लेखनी और
वार्तालाप कला से
ईसाईयों के पादरी
ज्वाला सिंह और
मुसलमान ख्वाजा गुलाम हुसैन
कादयानी को निरुत्तर
कर दिया था।
आपकी प्रसिद्द उर्दू
पुस्तक थी 'इल्म
हिंसा का मम्बा
वेद है' आपने
ख्वाजा हसन निजामी
की पुस्तक दाइये
इस्लाम का प्रतिउत्तर
' इस्लाम से रंडियों
की फरियाद' लिखकर
दिया था। जो
बहुत से अख़बारों
में प्रकाशित हुआ
था। पानीपत मुस्लिम
बहुत क्षेत्र था।
वहां की मस्जिदों
में हिन्दुओं के
प्रति भड़काऊ भाषण
दिए जाते थे।
आर्यसमाज के श्री
आशाराम जी मुस्लिम
वेश में मुसलमानों
की मस्जिद में
नमाज पढ़ने के
बहाने घुस जाते
और उनकी भाषण
की गतिविधियों को
आर्यसमाज के प्रधान
को आकर बता
देते थे। मुसलमानों
ने एक लघु
पुस्तिका
' खुनी आर्यों की खुनी
दास्तान' के नाम
से प्रकाशित की
थी। इसमें हिन्दुओं
और आर्यसमाज के
विरुद्ध विष वमन
था। आर्यसमाज ने
उत्तेजित न होते
हुए उसके विरुद्ध
पुलिस में जब्त
करने और प्रकाशक
पर मुकदमा चलाने
का आवेदन किया
था।
मुसलमानों ने शरारत
करते हुए 'मोहरेस्कूट',
अटल मोहरेस्कूट और
उनीसवीं सदी का
महर्षि पुस्तकें प्रकाशित की।
उसका प्रति उत्तर
श्री अनूपचंद जी
आफताब ने 1934 में
'मगर के आंसू',
'सदाकत का बोलबाला',
ऋषि का बोलबाला'
पुस्तकें लिख
कर दिया। आर्यसमाज का
इससे सिक्का जैम
गया। 1947
से पहले
पानीपत मुस्लिम बहुल शहर
था। इसलिए अनेक
मस्जिदें सारे शहर
में थी। हिन्दू
बहुल कुछ ही
क्षेत्र थे। महात्मा
गाँधी ने खिलाफत
के नाम पर
देशहितों को ताक
पर रखते हुए
देश के स्वतंत्रता
आंदोलन को मुसलमानों
के विदेशी मजहबी
आंदोलन के साथ
जबरन नत्थी कर
दिया। उनका यह
स्वप्न स्वप्न ही रहा
पर इसका परिणाम
अवांछनीय था। 1920 के दशक
में सम्पूर्ण देश
में खिलाफत आंदोलन
के असफल होने
की खीज को
मुसलमानों ने हिन्दू
मुस्लिम दंगों के रूप
में निकालने का
प्रयास किया। पानीपत भी
उससे अछूता न
रहा। ईद के
अवसर पर गोकशी
करने और हिन्दू
त्यौहार पर मस्जिद
के सामने से
जुलूस निकालने पर
दंगा तो पुरे
देश में सुनाई
दिए। अंग्रेज भी
आँख बंदकर मुसलमानों
की शरारत पर
उन्हें कुछ नहीं
कहते उलटा हिन्दुओं
को जुलूस निकालने
पर रोक लगा
देते थे। पानीपत
में विवाद का
कारण ऐतिहासिक रहा।
1923 में आर्यसमाज की वाटिका
के समीप भक्तजन
श्री जगन्नाथ मंदिर
में आरती उतार
रहे थे। अचानक
बराबर वाली मस्जिद
से कुछ मुसलमान
हाथों में लाठियां
लिए हुए शोर
मचाते हुए आए
'आरती बंद करो,
अजान में खलल
होता है। ' मंदिर
में घुसकर भक्तजनों
पर लाठियों से
प्रहार करना आरम्भ
कर दिया। भक्तजनों
ने भी मुकाबला
किया। दोनों ओर
से संघर्ष हुआ।
पूरे शहर में
समाचार फैल गया
कि हिन्दू मुस्लिम
दंगा हो गया।
आर्यसमाज पानीपत ने सनातन
धर्मियों को इस
मुद्दे पर पूरा
सहयोग देने का
वचन दिया। एक जिसमें
सनातन धर्म सभा,
आर्यसमाज , जैन समाज
आदि के प्रमुख
प्रतिनिधि थे। यह
मामला कानूनी रूप
धारण कर गया।
मिस्टर कोनार स्पेशल मजिस्ट्रेट
ने इस मामले
की सुनवाई की।
मुसलमानों का कहना
था कि हिन्दू
अपनी आरती अजान
के बाद किया करे।
हिन्दुओं का कहना
था कि उनकी
आरती का समय
शास्त्रानुसार निश्चित है। अत:
वे कोई परिवर्तन
नहीं कर सकते।
मजिस्ट्रेट ने दोनों
पक्षों को अपने
पक्ष में सबूत
पेश करने का
आदेश दिया। सनातन
धर्मी पंडित और
काशी के प्रकांड
पंडित आरती का
सही समय पुराणों
से सिद्ध न
कर सके। तब
आर्यसमाज के प्रधान
लाला खेमचंद लाहौर
गए और पंडित
रामगोपाल जी शास्त्री
वैद्य से मिले।
उस समय उत्तर
भारत का सबसे
बड़ा पुस्तकालय डी.ए.वी
लाहौर में था।
सभी धर्मों की
पुस्तकें वहां पर
उपलब्ध थी। शास्त्री
जी के सहयोग
से पं भगवत्तदत्त
रिसर्च स्कॉलर ने शास्त्रों
में से आरती
के समय के
प्रमाण खोजे और
उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत
किया। पुस्तकें लाहौर
से पानीपत लाई
गई। साथ में
कुछ पुस्तकें स्वामी
श्रद्धानन्द जी के
सहयोग से भी
प्राप्त हुई। इस
प्रकार से आरती
के समय को
संध्या के समय
सायंकाल में सिद्ध
किया गया। मुसलमानों
ने भी अपनी
अजान के निश्चित
समय के सम्बंधित
प्रमाण न्यायालय में प्रस्तुत
किये। न्यायाधीश ने
दोनों पक्षों को
सुनकर यह कहा
कि अजान और
आरती दोनों का
समय इस्लामी पुस्तकों
और हिन्दू धार्मिक
पुस्तकों के अनुसार
निश्चित हैं। इसलिए
सरकार कोई पाबंदी
नहीं लगा सकती।
इस निर्णय का
पानीपत ही नहीं
पुरे देश में
प्रभाव हुआ। हिन्दुओं
की इस विजय
का यश आर्यसमाज
को मिला। आर्यसमाज
ने एक बार
फिर से अपने
को हिन्दुओं ढाल
के रूप में
रक्षक सिद्ध किया।
इस विवाद के
बाद एक अन्य
विवाद हुआ। श्रावण मास में
यमुना तट पर स्नान
के लिए भारी
मेला लगता था।
मेले में ग्रामीण
और नगर के
हिन्दू आते थे।
नगर में पहले
से तनाव था।
दंगा होने की
आशंका थी। इसलिए
आर्यसमाजी चौधरी जोतराम जी
बिझौल निवासी और
लाला खेमचंद के
भाषणों से जनता
में उत्तेजना फैलने
से बच गई
और मेला शांति
से संपन्न हुआ।
1925 में पानीपत में श्रावण
मास में यमुना
स्नान और मुहर्रम
का एक ही
दिन था। मुसलमानों
का ताजियों का
जुलूस और हिन्दू
ग्रमीणों का टोला
कलंदर चौक में
भीड़ गया। सांप्रदायिक
दंगा हो गया।
अनेकों हिन्दुओं को चोट
आई। अनेक हिन्दुओं
को गिरफ्तार कर
लिया गया। पुलिस
के विरोध में
हिन्दुओं ने बाजार
बंद रखा। वस्तुत यह दंगा
पानीपत के तहसीलदार
चौधरी सुलतान अहमद ने
करवाया था जो
हिन्दुओं का कट्टर
विरोधी था। इस
दंगे में 300 ले
लगभग हिन्दू जख्मी
हुए और 300 गिरफ्तार।
लाला देशबंधु गुप्ता
ने दिल्ली से
आकर दंगा पीड़ितों
की सेवा आरम्भ
कर दी। स्वामी
श्रद्धानन्द, डॉ गोकुलचंद
नारंग एवं अन्य
आर्य नेता पानीपत
पधारे ताकि लोगों
का मनोबल बढ़े
और भय दूर
हो। महात्मा हंसराज
ने लाहौर से
मरहमपट्टी के लिए
डॉ नानचन्द, डॉ
गिरधारीलाल और डी.ए.वी.
लाहौर के विद्यार्थीयों
को पानीपत भेजा।
मुक़दमे लड़े गए।
सभी सज्जन अदालत
से ससम्मान मुक्त
हुए। शिवरात्रि,
कभी होली आदि
पर हिन्दुओं और
मुसलमानों में दंगे
1947 तक होते रहे। आर्यसमाज
हिन्दुओं के रक्षक
के समान खड़ा
रहा।
शास्त्रार्थ
के रण में
भी आर्यसमाज ने
ईसाईयों-मुसलमानों को अनेक
बार परास्त किया।
सबसे प्रसिद्ध शास्त्रार्थ
बेनुक्त क़ुरान को लेकर
था। एक कादियानी
मौलवी ने आक्षेप
किया कि स्वामी
दयानन्द जी ने
सत्यार्थ प्रकाश के 14वें
समुल्लास में लिखा
है कि अकबर नौ
रत्नों में से
एक मुल्ला फैजी
ने 'बेनुक्त क़ुरान'
बनाया और उनके
चेले पं लेखराम
ने अपनी पुस्तक
'कुल्यात आर्य मुसाफिर'
में बेनुक्त क़ुरान
के अस्तित्व से
इंकार किया है।
यह बताये कि
गुरु सच्चा है
अथवा चेला? आर्यसमाज
के पं रामचंद्र
दहेलवी जी ने
उत्तर दिया कि
-स्वामी दयानन्द ने क़ुरान
में यह प्रश्न
किया है कि
'लाओ इस किस्म
की कोई और
किताब'। उसके
उत्तर में बतलाया
है कि मुल्ला
फैजी ने अकबर
के समय में
बेनुक्त क़ुरान बना दिया
था। इसलिए क़ुरान
में उठाया हुआ
प्रश्न गलत है
और कुल्यात
आर्य मुसाफिर में
पं लेखराम जी
ने वेदों की
हस्ती को सिद्ध
करते हुए लिखा
कि उपनिषदों और
ब्राह्मण ग्रंथों को वेद
मानना ऐसा ही
बेबुनियाद है जैसा
कि फैजी के
बेनुक्त क़ुरान को क़ुरान
मानना। यह हर
दो स्थानों पर
दो विषयों के
मजमून और मंशा
भिन्न भिन्न हैं।
परन्तु अहमदी जिद पर
अड़ गए। पं
जी ने बेनुक्त
क़ुरान को दिखाने
के लिए चार
माह का समय
निश्चित करवाया। लाहौर आर्यसमाज
के पुस्तकालय में
यह क़ुरान उपलब्ध
था। आर्यसमाज के
प्रेमी भक्त श्री
राम उसे लाहौर
से मांग कर
ले आये। नगर
में मुनादी करवा
दी गई। विशाल
जनसमूह ने रात्रि
में धर्मशाला में
एकत्र होकर उसे
देखा। इसमें कहीं
भी नुक्ता नहीं
था और इसका
असली नाम 'स्वातह
इल्हाम' था। बाद
में इसका नाम
बेनुक़्ता क़ुरान था। इस
प्रकार से स्वामी
दयानन्द और पंडित
लेखराम दोनों का मत
सही सिद्ध हुआ।
मौलवी लज्जित हुए।
आर्यसमाज की विजय
हुई। हमारे पूर्वज
आर्यों के पुरुषार्थ
और तप की
झांकी इस प्रसंग
से हमें देखने
को मिलती है।
पानीपत आर्यसमाज के महान
इतिहास से हमें
प्रेरणा मिलती है। महान
आर्यों को नमन।
डॉ विवेक आर्य
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