Sunday, October 4, 2020

उपनिषद् ज्ञान गङ्गा



उपनिषद् ज्ञान गङ्गा

प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

• प्रजापति का उपदेश

प्रजापति की तीन प्रकार की सन्तान- देवों, मनुष्यों और असुरों- ने अपने पिता प्रजापति के पास जा कर ब्रह्मचर्य्य का सेवन किया। जब वे ब्रह्मचर्य्य का सेवन कर चुके, तो देवों ने प्रजापति से कहा, "हमें उपदेश दीजिये"। प्रजापति ने कहा, "द", और पूछा, "तुमने समझा?" देवों ने कहा, "हां! समझ लिया है। आपने कहा है, अपने आप पर दमन करो।" प्रजापति ने कहा, "ठीक! तुमने समझ लिया है"।

तब मनुष्यों ने उससे कहा, "महाराज! हमें उपदेश दीजिये"। प्रजापति ने कहा, "द", और पूछा, "तुमने समझा?" मनुष्यों ने उत्तर दिया, "हां! समझ लिया है। आपने कहा है, दान में कमाई व्यय करो।" प्रजापति ने कहा, "ठीक! तुमने समझ लिया है"।

तब असुरों ने उससे विनय की, "महाराज हमें उपदेश दें"। प्रजापति ने कहा, "द", और पूछा, "तुमने समझा?" असुरों ने जवाब दिया, "हां! समझ लिया है। आपने कहा है, दयावान बनो।" प्रजापति ने कहा, "ठीक! तुमने समझ लिया है"।

जब बिजली कड़कती है, तब उसकी कड़क से आवाज आती है- "द, द, द"। यह प्रजापति का उपदेश होता है, दम्यता (अपने मन को वश में रखो), दत्ता (दान दो), दयाध्व (निर्बलों पर दया करो)। अतएव इन तीनों- दमन, दान और दया- का प्रचार करना चाहिए। [बृहदारण्यक० ५/२]

[मनुष्यों में कुछ ऐसे होते हैं, जिनका मुख्य चिह्न उनका ज्ञान होता है। ये लोग समाज के मस्तिष्क हैं। इनका काम दूसरों को ज्ञान देना है। उनके लिए यह बात परम आवश्यक है कि उनका जीवन पवित्र हो। जो गुरु अथवा उपदेशक अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकता, वह दूसरे के जीवन पर क्या प्रभाव डाल सकता है?
मनुष्यों में असुर वे हैं, जिनका विशेष चिह्न उनका 'बल' है। उनके लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि वे अपने बल का उपयोग निर्बलों की रक्षा के लिए करें। जिस तरह अध्यापक और उपदेशक का सबसे बड़ा दोष यह है कि 'वह विषयों का दास हो'; इसी प्रकार बलवान का सबसे बड़ा दोष यह है कि 'वह निर्बलों पर अत्याचार करे'। इन दोनों श्रेणियों को छोड़ कर शेष लोगों को साधारण कोटि का मनुष्य कहते हैं। इनसे यही आशा करनी चाहिए कि वे जो कुछ अपने परिश्रम से कमाते हैं, उसका एक भाग वे समाज-सेवा और परोपकार के लिए व्यय करें। प्रजापति ने अपनी तीन प्रकार की सन्तान को दमन, दान और दया की शिक्षा इन शब्दों का पहला अक्षर 'द' कह कर दे दी।]

• जीवन क्या है?

उक्थम् (बढ़ना)- जीवन बढ़ने का नाम है। जीवन के कारण ही सब कुछ बढ़ता है। जो व्यक्ति ऐसा जानता है, उसकी सन्तान बढ़ने वाली और बलवान होती है। जो व्यक्ति ऐसा जानता है, वह उक्थ (बढ़ने) के स्वभाव और उसके स्थान को प्राप्त कर लेता है (उक्थ-रूप बन जाता है)।

यजु: (सङ्गठन)- जीवन सङ्गठन का नाम है। जहां जीवन है, वहां सङ्गठन है। जो ऐसा जानता है, उसकी बड़ाई के लिए सारे प्राणी उससे मिल जाते हैं। जो ऐसा जानता है वह यजु (सङ्गठन) के स्वभाव और उसके स्थान को प्राप्त कर लेता है (सङ्गठन-रूप ही बन जाता है)।

साम (अपने समान बना लेना, अपने आप में लय कर लेना)- जीवन अपने आप में विलीन कर लेने का नाम है। जहां जीवन है, वहां भिन्न-भिन्न पदार्थ एक ही बन जाते हैं। जो व्यक्ति ऐसा जानता है, उसकी बड़ाई के लिए सारे प्राणी एक रूप ही हो जाते हैं। जो व्यक्ति ऐसा जानता है, वह साम के स्वभाव और स्थान को प्राप्त कर लेता है (साम-रूप ही हो जाता है)।

क्षत्र (अपनी रक्षा करना)- जीवन अपनी रक्षा करने का नाम है। जहां जीवन है, वहां बाहरी आक्रमणों से अपनी रक्षा की ही जाती है। जो ऐसा जानता है, वह अपनी रक्षा आप करता है। कोई दूसरा उसके लिए नहीं कर सकता। वह क्षत्र के स्वभाव और स्थान को प्राप्त कर लेता है (क्षत्र-रूप ही बन जाता है)। [बृहदारण्यक० ५/१३]

[जीवन के चार चिह्नों का यहां वर्णन किया गया है। हर एक जीवित पदार्थ बढ़ता है। वह सम्पूर्णतः एक पदार्थ की भांति काम करता है। वह जीवित रहने के लिए अपने आस-पास से भोजन लेता और उसे अपना अङ्ग बना लेता है। वह अपनी रक्षा के लिए जितना यत्न कर सकता है, करता है।
इसे समझने के लिए मनुष्य शरीर को देखें। मनुष्य जीवन का आरम्भ एक घटक (सेल 'cell') से होता है। इसका एक भाग पिता के शरीर से आता है, दूसरा माता के शरीर से। यह घटक बहुत छोटा होता है। यह एक से दो होता है, दो से चार और चार से आठ। इसी प्रकार ये घटक बढ़ते जाते हैं। माता के गर्भ से जिस समय बच्चा बाहर आता है, उस समय उसका वजन साढ़े चार सेर के लगभग होता है। इस काल में उस एक घटक ने अपने आपको अनेक घटकों में परिवर्तित कर लिया है। बीस वर्ष का युवक होने तक वह तीन-साढ़े तीन सेर प्रति वर्ष के हिसाब से बढ़ता है। यह सब भी घटकों के विभाजन से होता है। युवक पुरूष के शरीर में ६० लाख करोड़ घटक होते हैं। अगर उन्हें आर्य्यावर्त्त के छोटे-बड़े पुरुषों और स्त्रियों में बांटें, तो प्रत्येक के हिस्से में डेढ़ लाख घटक आयेंगे। प्रारम्भ के एक घटक ने ही बढ़ते-बढ़ते यह रूप धारण कर लिया है।
शरीर के विभिन्न अङ्ग अपना-अपना काम करते हैं। परन्तु इन सब कार्य्यों का एकमात्र लक्ष्य शरीर का जीवन स्थिर रखना और बढ़ाना होता है। और यथार्थ तो यह है कि मेरी आँखें नहीं देखती, मैं आँखों से देखता हूं; मेरा आमाशय भोजन नहीं पचाता, मैं भोजन पचाता हूं। मनुष्य का शरीर सङ्गठन का एक बहुत अच्छा उदाहरण है।
जीवन के सम्बन्ध में यह बात बड़ी आश्चर्यजनक है कि जीवित पदार्थ दूसरी वस्तुओं को अपने में लय कर लेता है और अपना अङ्ग बना लेता है। मैं फल और चावल खाता हूं; कुछ घण्टों के उपरान्त न चावलों का पता मेरे शरीर में लगता है न फल का। वे मेरे मांस, मेरे रुधिर और मेरी हड्डियों के रूप में बदल जाते हैं। बच्चा पीता दूध है परन्तु उससे अपना मांस और रुधिर बनाता है। नीम का वृक्ष खेती की खाद और मिट्टी को नीम बना लेता है और आम का वृक्ष आम बना लेता है।

जहां जीवन है, वहां आत्मरक्षा भी उपस्थित है। बाहर की गर्मी ६० अंश हो या ११५ अंश, परन्तु मेरा शरीर अपना तापमान ९८.४ अंश स्थिर बनाये रखता है। छोटी से छोटी जीवित वस्तु अपने जीवन को स्थिर बनाये रखने के लिए यत्न करती है।
जीवन के ये चिह्न जातियों की अवस्था में भी देखे जाते हैं। इनके आधार पर हम बलवान और निर्बल जातियों में भेद कर सकते हैं।]

• अन्तिम उपदेश

याज्ञवल्क्य की दो स्त्रियां थीं, मैत्रेयी और कात्यायनी। मैत्रेयी को ब्रह्म सम्बन्धी विचार में रुचि थी; कात्यायनी घर के काम काज में चतुर थी। याज्ञवल्क्य की इच्छा हुई कि वे गृहस्थ को छोड़कर अगले आश्रम में प्रवेश करें।

याज्ञवल्क्य ने कहा, "मैत्रेयी! देखो, मैं चाहता हूं कि वर्तमान आश्रम को छोड़कर संन्यास ले लूं। अतएव मैं चाहता हूं कि अपनी सम्पत्ति तुम दोनों में बांट दूं।"
मैत्रेयी ने कहा, "यदि सारा संसार समस्त सम्पत्ति समेत मेरा हो, तो क्या मैं अमर हो जाऊंगी?"
याज्ञवल्क्य ने कहा, "नहीं, तुम्हारी अवस्था एक धनवान पुरुष की अवस्था हो जावेगी, परन्तु धन से कोई अमर तो नहीं हो सकता।"
मैत्रेयी ने कहा, "यदि मैं धन से अमर नहीं हो सकती, तो धन मेरे किस काम का? मुझे तो ऐसा ज्ञान दीजिये, जो मुझे अमर बना दे।"
याज्ञवल्क्य ने कहा, "तुम मुझे पहले से ही प्रिय थी, इस प्रश्न से तुमने मेरे प्रेम को और भी बढ़ा दिया है। आओ बैठो; मैं तुम्हें अमर होने के साधनों के सम्बन्ध में बताऊंगा। उसे समझने का यत्न करो।"

"पति की कामना के लिए पत्नी पति को प्यार नहीं करती, आत्मा की कामना के लिए उसे पति प्यारा होता है। पत्नी की कामना के लिए पति को पत्नी प्यारी नहीं होती, किन्तु आत्मा की कामना के लिए उसे पत्नी प्यारी होती है। पुत्रों की कामना के लिए पुत्र प्यारे नहीं होते, किन्तु आत्मा की कामना के लिए पुत्र प्यारे होते हैं। धन धन के अर्थ प्यारा नहीं होता, किन्तु आत्मा की कामना के लिए यह प्यारा होता है। ब्राह्मणत्व (ब्राह्मणपन) ब्राह्मणपन के लिए प्यारा नहीं, किन्तु आत्मा की कामना के लिए प्यारा होता है। क्षात्रत्व (शासन) क्षात्रत्व के लिए प्यारा नहीं होता, किन्तु आत्मा की कामना के लिए प्यारा होता है। परलोक (वर्तमान जीवन के उपरान्त प्राप्त होने वाली अच्छी अवस्थाएं) लोकों की कामना से प्यारे नहीं होते, किन्तु आत्मा की कामना से लोक प्यारे होते हैं। देवत्व की कामना से देव प्यारे नहीं होते, किन्तु आत्मा की कामना से देव प्यारे होते हैं। समस्त प्राणियों से प्रेम उनकी कामना से नहीं किया जाता, किन्तु आत्मा की कामना से किया जाता है। अखिल ब्रह्माण्ड ब्रह्माण्ड की कामना से प्यारा नहीं होता है, किन्तु आत्मा की कामना से प्यारा होता है।
ऐसे आत्मा को ही देखना, सुनना तथा मनन करना चाहिए। देखने, सुनने, मनन करने से जब इस आत्मा का ज्ञान होता है, तो सब कुछ समझ में आ जाता है।" [बृहदारण्यक० ४/५/१-६]

"जहां द्वैत का भाव होता है, वहां एक दूसरे को देखता है; वहां एक दूसरे को सूंघता है; वहां स्वाद लेने वाला दूसरे पदार्थ का स्वाद लेता है; वहां बोलने वाला दूसरे से बातचीत करता है; वहां सुनने वाला दूसरी वस्तु का शब्द सुनता है; वहां मनन करने वाला दूसरे पदार्थ का मनन करता है; वहां छूने वाला दूसरे पदार्थ को छूता है; वहां (उनमें किसी प्रकार से) जानने वाला किसी दूसरे पदार्थ को जानता है। परन्तु जिस पुरुष के लिये सबकुछ उसका आत्मा ही बन गया है, वह कैसे किसी वस्तु को देख सकता है? सूंघ सकता है? स्वाद ले सकता है? कुछ बोल सकता है? कुछ सुन सकता है? किसी वस्तु का मनन कर सकता है? किसी वस्तु को छू सकता है? कुछ जान सकता है?"
"मनुष्य जिस आत्मा से सब कुछ जानता है, उस आत्मा को किससे जानें? यह आत्मा 'न यह है, न वह'। (कोई विशेष पदार्थ जिसे देख, छू सकते ही नहीं हैं।) उसे पकड़ा नहीं जा सकता; उसे छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता; उसे छुआ नहीं जा सकता है; उसका कोई अंग नहीं; उसे पीड़ा नहीं हो सकती; उसका नाश नहीं होता।" [बृहदारण्यक० ४/५/१५]

[एक और अर्थ में इस उपदेश को लिया जा सकता है। सम्भव है कि 'आत्मा' शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ हो। इस दशा में इस उपदेश का अभिप्राय यह है कि संसार में जहां कहीं सौन्दर्य है, वह परमात्मा का प्रकाश है। जब कोई वस्तु मुझे अपनी ओर खींचती है, तो वास्तव में परमात्मा उस वस्तु के द्वारा मुझे अपनी ओर खींचता है। जितना भी क्लेश हम अनुभव करते हैं, वह परमात्मा से बिछुड़ने के कारण होता है। हमारा आत्मा इस वियोग का अन्त करना चाहता है। सुन्दर वस्तुओं का प्रेम इसका एक साधन है। जब हम किसी पदार्थ से प्रेम करते हैं, तो उस समय के लिए अपने आपको और अपनी विभिन्नता को भूल जाते हैं। अपने प्रियतम में अपने आपको तन्मय कर देते हैं। यदि समस्त पदार्थों को परमात्मा का प्रकाश समझ लिया जावे, तो समस्त प्रेम वास्तव में आत्मा का प्रेम ही हो जाता है।

याज्ञवल्क्य के उपदेश के दूसरे भाग में इसी प्रकार के परिणाम की ओर संकेत किया गया है। दुःखों का कारण यह है कि एक मनुष्य अपने आपको दूसरे पदार्थों से पृथक समझता है। उनको देखने, सुनने, छूने, जानने का यत्न करता है। जब द्वैतभाव मिट जाता है, तो इस प्रकार के ज्ञान के लिए कोई स्थान नहीं रहता; और जहां तक आत्मज्ञान का सम्बन्ध है, यह तो इन्द्रियों और मन का विषय नहीं। आत्मा जानने वाला है। इसे ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता। आँख सब वस्तुओं को देखती है, परन्तु अपने आपको नहीं देख सकती; जिह्वा सब वस्तुओं का स्वाद लेती है, परन्तु अपना स्वाद नहीं ले सकती; इसी प्रकार आत्मा जिन साधनों से दूसरे पदार्थों को जानता है, उन साधनों से अपने आपको नहीं जान सकता। यह कहा जा सकता है कि सांसारिक पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों से होता है, दूसरे आत्माओं का ज्ञान अनुमान से होता है, अपने आत्मा का ज्ञान स्वयं सिद्ध (Intuitive) है।]

• ब्रह्म-ज्ञान

ब्रह्म मन से ही जानने के योग्य है। उसमें अनेकता बिल्कुल नहीं। जो मनुष्य उसमें अनेकता देखता है, वह जन्म-मरण के चक्कर में फंसा रहता है।
एक प्रकार से इस 'ब्रह्म' को देखना चाहिए। जिसके अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं हो सकता, जिसका कोई मुख्य स्थान नहीं, जो आकाश से अधिक सूक्ष्म है, जो अजन्मा है, महान है, एक रस रहता है, उस ब्रह्म को जानकर बुद्धिमान ब्राह्मण अपनी धारणा को निश्चित करे। बहुत नामों का ध्यान न करे, क्योंकि बहुत नाम बुद्धि को विकृत ही करते हैं। [बृहदारण्यक० ४/५/१९-२१]

[पाद टिप्पणी-
किसी प्रतिज्ञा के सिद्ध करने का प्रयोजन यह होता है कि किसी दूसरी प्रतिज्ञा के साथ - जिसकी सच्चाई को हम मानते हैं - उस प्रतिज्ञा की समानता प्रकट की जाय। यदि उस दूसरी प्रतिज्ञा को प्रमाणित करना हो, तो उसकी समानता (Agreement) की तीसरी प्रतिज्ञा से प्रकट करना चाहिए जिसे हम ठीक मानते हैं। यही क्रम चलता रहता है और अन्त में हम किसी ऐसी प्रतिज्ञा पर पहुंचते हैं जो प्रमाणित नहीं हो सकती, क्योंकि कोई बात उससे अधिक स्पष्ट नहीं है। उपनिषत् का अभिप्राय यहां यह प्रतीत होता है कि ब्रह्म सब का मूल है। प्रत्येक वस्तु का आधार उसी पर है। इसे किसी दूसरे पदार्थ से सिद्ध नहीं कर सकते।]

• सच्चा ब्राह्मण

ब्रह्म की अनादि महत्ता कर्मों से घटती बढ़ती नहीं। मनुष्य को चाहिए कि उसकी महत्ता को जाने। इसे जान लेने पर बुरे कर्म उसे मलिन नहीं करते। इसलिए मनुष्य- जिसने यह ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो शान्त है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, जो वासनाओं से स्वतन्त्र है, जो सहनशील और संयमी हो कर आत्मा में ही आत्मा को देखता है, और सर्वात्मा को देखता है, पाप उस पर विजय नहीं पाता, वरन वह पाप पर विजय पाता है, पाप उसे नहीं जलाता, वह पाप को भस्म कर देता है। वह पाप और संशय से मुक्त हो जाता है, वह पवित्र है, वही सच्चा ब्राह्मण है। [बृहदारण्यक० ४/४/२३]

• आत्मा ही ज्ञान का स्वरूप और प्यार करने योग्य है

आत्मा शरीर में प्रविष्ट हुआ है। जैसे छुरे के कोप में छुरा होता है, अथवा जैसे गर्म पदार्थ में अग्नि होती है, वैसे ही आत्मा सारे शरीर में नस से शिखा तक है। उसे लोग देखते नहीं। वह विभिन्न रंगों में अधूरा प्रकट होता है। सांस लेता हुआ वह प्राण कहलाता है, बोलता हुआ वाणी कहलाता है, देखता हुआ आंख, सुनता हुआ कान और मनन करता हुआ मन कहलाता है। यह आत्मा के कर्मों के नाम हैं। जो मनुष्य इनमें से एक शक्ति की - इन सबके मूल से भिन्न - उपासना करता है वह आत्मा को नहीं जानता, क्योंकि किसी एक शक्ति के रूप में तो वह आत्मा असम्पूर्ण (अधूरा) है। इस विशेष शक्ति से तो किसी विशेष कर्म का ही प्रकाश होता है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए; यह समझकर कि सारा भेद उसमें मिट जाता है। इसी आत्मा से सब पदार्थों का ज्ञान होता है, जैसे पैरों के चिह्नों से चलने वाले के सम्बन्ध में ज्ञान होता है।

यह आत्मा पुत्र से अधिक प्यारा है, धन सम्पत्ति से अधिक प्यारा है; शेष सब वस्तुओं से अधिक प्यारा है; क्योंकि यह सबसे अधिक निकट है। यदि कोई कहे कि वह आत्मा की अपेक्षा किसी दूसरी वस्तु से अधिक प्रेम करता है, तो उससे कहो कि यह दूसरे पदार्थ तो विनाशी हैं (उनका सम्बन्ध टूट जाएगा, कब तक उनसे प्रीति कर सकोगे?), आत्मा ही ऐश्वर्य्यवान है, उससे ही प्रेम करने वाला ऐश्वर्य्यवान होता है। जो पुरूष आत्मा से ही प्रेम रखता है, उसका प्रेम नाशवान पदार्थों से नहीं होता। [बृहदारण्यक० १/४/७-८]

• मनुष्य जीवन और उसकी चेष्टाएँ

पहले आत्मा अकेला था। उसने इच्छा की, 'मेरे लिए पत्नी हो'। फिर इच्छा की, 'इससे सन्तान उत्पन्न हो'। फिर इच्छा की कि 'धन प्राप्त हो जिससे कर्म कर सकूं'। "मनुष्य की कामनाएं इसी सीमा तक पहुंचती हैं। यदि वह इनसे अधिक की कामना भी करे, तो भी कुछ अधिक नहीं पाता। अब भी मनुष्यों की इच्छाएं यही हैं। मुझे पत्नी मिले, मेरे सन्तान हो, मुझे धन मिले, मैं कुछ काम कर सकूं"। जब तक यह वस्तुएं या इनमें से कोई उसे प्राप्त नहीं होती, मनुष्य अपने को अपूर्ण समझता है। यही आत्मा की पूर्णता है। [बृहदारण्यक० १/४/१७]

[साधारण मनुष्य का जीवन जिस परिधि में घूमता रहता है, उसका चित्र यहां साधारण शब्दों में खींचा गया है। 'मनुष्य समाज' जातियों का समूह है। हर जाति छोटे समूहों से बनती है। सबसे छोटा समूह एक परिवार है। परिवार का आधार एक पुरुष और स्त्री के एकत्र होने पर है। सन्तान की उत्पत्ति जीवन की प्रकृत चेष्टा है। अपने आपको स्थिर रखने के लिए जीवन प्रत्येक पुरुष और स्त्री को साधन रूप में बरतता है। जीवन स्थिर रखने के लिए हर एक को धन सम्पत्ति की आवश्यकता पड़ती है। यह तीनों - पत्नी, सन्तान और सम्पत्ति - मिल भी जाय, तो भी आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। उसकी आन्तरिक आवश्यकता यह होती है कि वह कुछ करे, सामाजिक जीवन की सफलता और उन्नति के लिए अपने यत्न से कुछ योग दे। यह कामना जीवन पर्यन्त बनी रहती है। मनुष्य को काम करते हुए ही जीने की इच्छा करनी चाहिए।]

• तीन लोक और सम्पत्ति

तीन ही लोक है- मनुष्य-लोक, पितृ-लोक और देव-लोक। मनुष्य-लोक सन्तान से जीता जाता है और किसी तरह नहीं, पितृ-लोक शुभ कर्म करने से जीता जाता है, देव-लोक विद्या से जीता जाता है। इन लोकों में देव-लोक दूसरे लोकों से उत्तम है, इसलिए लोग विद्या की प्रशंसा करते हैं।

अब सम्पत्ति (मरते समय जो कुछ पिता पुत्र को सौंपता है) का वर्णन करते हैं।
जब कोई पुरुष समझता है कि उसकी मृत्यु का समय आ पहुंचा तो वह अपने पुत्र से कहता है, "तू ब्रह्म (वेद ज्ञान) है, तू यज्ञ (परोपकार) है, तू लोक (सांसारिक ऐश्वर्य) है"। पुत्र उत्तर देता है, "मैं ब्रह्म हूं, मैं यज्ञ हूं, मैं लोक हूं"।

जो कुछ भी सीखा गया है, उस सबको 'ब्रह्म' कहा गया है, जो कुछ परोपकार का काम या कर्मकाण्ड किया गया है, उसे 'यज्ञ' कहा गया है, जो कुछ संसार में है, उस सबको लोक कहा गया है।
यह सब कुछ इतना महान है। पिता विचार करता है, "इस सब कुछ की यह अवस्था है, मेरा पुत्र मुझे इस संसार से जाने में सहायता दे"। इसीलिए कहते हैं कि 'उचित शिक्षा पाया हुआ पुत्र पिता के लिए उत्तम अवस्था प्राप्त कराने का साधन होता है'। इसीलिये उसे शिक्षा दी जाती है।

जब ऐसा ज्ञान रखने वाला पिता संसार से जाता है, तब अपनी शक्तियों के साथ पुत्र के शरीर में प्रवेश करता है। जो कुछ वह आप नहीं कर पाया, उसकी कमी उसका पुत्र पूरी कर देता है। इसीलिए उसे पुत्र (तारने वाला) कहते हैं। पुत्र से ही पिता इस लोक में स्थिर रहता है। अमृतमय प्राण अर्थात् दैवी शक्तियां भी पुत्र में प्रवेश करती हैं। [बृहदारण्यक० १/५/१६-१७]

[जीवन की तीन अवस्थायें हैं। उनका नाम मनुष्य-लोक, पितृलोक और देवलोक कहा गया है। जिस मनुष्य के पुत्र पैदा हो जाता है, वह शारीरिक दृष्टिकोण से मरने पर भी उस पुत्र के शरीर में जीवित रहता है। जब तक यह क्रम चलता रहेगा तब तक वह जीवित रहेगा। भले कर्मों से मनुष्य को ऊंची पदवी मिलती है। वह बड़ों में गिना जाता है। सबसे ऊंची अवस्था वह है जो ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसे देवलोक कहा गया है।
इस उपदेश के दूसरे भाग में अति उत्तम शिक्षा दी गई है। साधारण मनुष्य अपने जीवन का बहुत-सा भाग अपने परिवार के लिए व्यय करता है। वास्तव में हमारी सबसे मूल्यवान सम्पत्ति हमारी सन्तान है। उसके सम्बन्ध में हम क्या करते हैं? उसके लिए हम बहुत कुछ सञ्चय करते हैं। परन्तु स्वयं सन्तान को क्या बनाते हैं? प्रत्येक पिता की बड़ी आकांक्षा यह होनी चाहिए कि उसका पुत्र सांसारिक ऐश्वर्य्य, परोपकार और विद्या में उसका स्थान ले सके। यही तीन वस्तुयें शेष सर्वस्व से अधिक मूल्यवान है। केवल यही नहीं कि पुत्र पिता का स्थान ले सके, वरन् जो कुछ कमी पिता के जीवन में इन तीनों बातों के सम्बन्ध में रह गई है उसे पूरी कर दे। इस प्रकार पुत्र का काम केवल यही नहीं कि पिता के काम और नाम को प्रचलित रक्खे, वरन् यह भी कि उसे आगे बढ़ाये। जिस पिता को ऐसा पुत्र मिल जावे, वह भाग्यवान है। जिस पिता को ऐसा पुत्र मिल जावे वह मरने पर भी जीवित रहता है। जिसका काम चलता रहता है और फलता फूलता है, वह अमर है।]

• सनत्कुमार और नारद का संवाद

सनत्कुमार ने कहा, "प्राण (शक्ति) आशा से बढ़ कर है। जैसे रथ की नाभि के साथ अरे जकड़े होते हैं, वैसे ही प्राण के साथ सब कुछ जकड़ा हुआ है। प्राण, प्राण के साथ जाता है। प्राण जीवनदाता है। जीवन के लिए ही प्राण यह देता है। प्राण ही पिता है, माता है, भाई है, बहिन है, आचार्य्य है, ब्राह्मण है।
जब कोई पुरुष पिता, माता, भाई, बहिन, गुरु या ब्राह्मण से कठोर शब्द बोलता है, तो लोग उससे कहते हैं, 'तुम्हारे लिए डूब मरने का स्थान है, तुम अपने पिता, माता, भाई, बहिन, गुरु या ब्राह्मण की हत्या करते हो।' परन्तु जब उनके शरीर से प्राण निकल जाता है तो वही मनुष्य उन्हें अग्नि में जला देता है, बांसों से उनके शरीर को ठोकरें लगाता है, और कोई उसे बुरा नहीं कहता, कोई उसे घातक का नाम नहीं देता, वास्तव में प्राण ही यह सब कुछ है। जो मनुष्य इस रहस्य को समझता है, इस पर विचार करता है, इसे भलीभांति जानता है, वही अति वादी (यथार्थ वक्ता) है।"
परन्तु ऐसा कथन वही कर सकता है जो सत्य के साथ बोलता है।

नारद- "भगवन्! मैं सत्य को जानना चाहता हूं?"
सनत्कुमार- "जिस मनुष्य ने विज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह सत्य कह सकता है। जो पुरूष जानता ही नहीं वह सत्य नहीं कह सकता। जानता हुआ मनुष्य ही सत्य कहता है। इसलिये विज्ञान के स्वरूप को समझना चाहिए।"

नारद- "मैं विज्ञान के स्वरूप को समझना चाहता हूं।"
सनत्कुमार- "जब कोई पुरुष सत्य का मनन (उसके सम्बन्ध में दार्शनिक रूप से विचार) करता है, तभी वह उसे जान सकता है। इसलिये मनन करने के स्वरूप को जानना चाहिए।"

नारद- "मैं उसके स्वरूप को जानना चाहता हूं।"
सनत्०- "श्रद्धा हो तो मनुष्य मनन कर सकता है। श्रद्धा के बिना मनन नहीं हो सकता। श्रद्धावान पुरुष ही मनन करता है। इसलिए श्रद्धा के स्वरूप को समझना चाहिए।"

नारद- "मैं श्रद्धा के स्वरूप को समझना चाहता हूं।"
सनत्०- "जब मनुष्य सत्य में स्थिर निश्चय करता है, तब उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है। इसके बिना श्रद्धा नहीं हो सकती। इस निष्ठावाला ही श्रद्धावान् होता है। इस निष्ठा को समझना चाहिए।"

नारद- "मैं इस निष्ठा को जानना चाहता हूं।"
सनत्०- "कर्तव्य पालन करने से निष्ठा प्राप्त होती है। कर्तव्य पालन के बिना यह मिल नहीं सकती। कर्तव्य पालन करने से मनुष्य निष्ठा प्राप्त करता है। कर्तव्य के सम्बन्ध में जानना चाहिए।"

नारद- "मैं कर्तव्य के सम्बन्ध में जानना चाहता हूं।"
सनत्०- "मनुष्य जो कुछ करता है, सुख या कल्याण के लिए करता है। सुख या कल्याण की आशा न हो तो कुछ नहीं करता। सुख की इच्छा से ही करता है। सुख या कल्याण के स्वरूप को जानना चाहिए।"

नारद- "मैं सुख या कल्याण के स्वरूप को जानना चाहता हूं।"
सनत्०- "जो भूमा (सम्पूर्णता) है वही वास्तव में सुख है। अल्प (अंश, टुकड़े) में सुख नहीं। भूमा में ही सुख है। भूमा को समझना चाहिए।"

नारद- "मैं भूमा को समझना चाहता हूं।"
सनत्०- "जिस अवस्था में आत्मा अपने से भिन्न किसी दूसरी वस्तु को देखता नहीं, किसी दूसरे के शब्द को सुनता नहीं, किसी अन्य पदार्थ को जानता नहीं, वह अवस्था भूमा है। जिस अवस्था में आत्मा अपने से पृथक दूसरी वस्तुओं को देखता है, दूसरे के शब्दों को सुनता है, दूसरी वस्तुओं को जानता है, वह अल्प (सीमित) है। जो भूमा है, वह अमर है; जो अल्प है, वह नाशवान है।"

नारद- "वह भूमा किस वस्तु के आधार पर स्थित है?"
सनत्०- "वह भूमा अपनी ही महत्ता पर स्थिर है। किसी दूसरे पदार्थ के महत्त्व पर उसकी महत्ता निर्भर नहीं। अथवा यों कहो कि वह किसी बड़ाई के आधार पर स्थिर नहीं। उसके सम्बन्ध में आधार का प्रश्न नहीं उठता। लोग गायों, हाथियों, घोड़ों, दासों, धन, स्त्रियों, जमीन और मकान को बड़ाई की सामग्री समझते हैं। मेरा विचार यह नहीं। यह सब पदार्थ तो दूसरों पर निर्भर हैं।" [छान्दोग्य० ७/१५-२४]

[इस संवाद के अन्तिम भाग में बताया गया है कि जब मनुष्य अपने आपको ब्रह्माण्ड के अन्य भागों से पृथक कर लेता है, तो वह अपने लिए दुःख की सामग्री इकट्ठी करता है। सच्चा सुख या कल्याण इसमें है कि वह अपने आपको ब्रह्माण्ड में लय कर दे। द्वैत का भाव बिल्कुल नष्ट कर दे। यह अनुभव करे कि सारे पदार्थों में एक ब्रह्म व्याप्त है, और सारे पदार्थ उस एक ब्रह्म में हैं। इस अनुभव के पश्चात् उसे कोई दूसरा अपने से अलग प्रतीत नहीं होता। पागल आदमी कई बार अपने आपको मुक्के मारता है और समझता है किसी दूसरे को मार रहा है, परन्तु कोई समझदार पुरुष तो ऐसा नहीं करता। इस प्रकार जिस मनुष्य ने दूसरों के सम्बन्ध में द्वैत भाव का ही परित्याग कर दिया है, वह किसी को दुःख क्यों देगा?
जो लोग कर्त्तव्य का आधार धर्म को नहीं मानते, वरन् उसे आदर्श सामाजिक व्यवहार ही समझते हैं, वह भी कहते हैं कि मनुष्य के लिए जीवन - मुक्त होने का साधन यही है - वह अपने आपको पूर्णतया समष्टि जीवन में मग्न कर दे। इस दशा में उसे अपने व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में कोई चिन्ता ही नहीं रहेगी। यही अमर होना है। जब तक वह अपने आपको पृथक रख कर अपना जीवन बिताता है, वह न पूर्ण हो सकता है, न वास्तव में सुखी हो सकता है।

पहाड़ की चोटी से पानी चलता है। चट्टानों में सर मारता, गढों में गिरता, रेत मिट्टी में लिपटता वह चलता ही जाता है। उसे शान्ति नहीं मिलती- जब तक वह समुद्र में नहीं पहुंच जाता। समुद्र में ही वह पहले भी था। उससे अलग हुआ। जितनी देर अलग रहा, व्याकुल रहा। जब फिर समुद्र में मिल गया, व्याकुलता दूर हो गई। यही दशा मनुष्य की है। जब वह अपने आपको समाज का अङ्ग बना लेता है, या अपने आपको परमात्मा की भक्ति में मग्न कर देता है, तब वह 'भूमा' बन जाता है, और सच्चे सुख को प्राप्त करता है।]

• मुख्य प्राण या जीवन शक्ति

प्रजापति की सन्तान देवों और असुरों में झगड़ा हो पड़ा। देवों ने 'उद्गीथ' को अपने साथ मिलाया, यह सोचकर कि उसकी सहायता से वह असुरों को जीत लेंगे।
तब उन्होंने 'गन्ध' (सूँघने की वायु) के रूप में 'उद्गीथ' की उपासना की। असुरों ने उस 'गन्ध' को पाप से बींध दिया। इसलिये मनुष्य अच्छी वस्तुएं सूँघता है और बुरी भी, क्योंकि गन्ध पाप से बिंधी हुई है।

इसके पीछे देवों ने 'वाणी' के रूप में 'उद्गीथ' की उपासना की। असुरों ने 'वाणी' को पाप से बींध दिया। इसलिये मनुष्य सत्य बोलता है और झूठ भी, क्योंकि 'वाणी' पाप से बिंधी हुई है।

तब देवों ने 'आँख' के रूप में 'उद्गीथ' की उपासना की। असुरों ने 'आँख' को पाप से बींध दिया। इसलिये मनुष्य देखने योग्य वस्तुयें भी देखता है और न देखने योग्य वस्तुयें भी, क्योंकि 'आँख' पाप से बिंधी हुई है।

तब देवों ने 'कान' के रूप में 'उद्गीथ' की उपासना की। 'कान' को असुरों ने पाप से बींध दिया। इसलिये मनुष्य भली बातें भी सुनता है और बुरी भी, क्योंकि 'कान' पाप से बिंधा हुआ है।

तब देवों ने 'मन' के रूप में 'उद्गीथ' की उपासना की। असुरों ने 'मन' को पाप से बींध दिया। इसलिये मनुष्य भले चिन्तन भी करता है और बुरे चिन्तन भी, क्योंकि 'मन' पाप से बिंधा हुआ है।

तब देवों ने 'मुख्यप्राण' (जीवन शक्ति) को 'उद्गीथ' समझकर उसकी उपासना की। जब असुरों ने उस 'प्राण' पर भी आक्रमण किया, तो वे आप टुकड़े-टुकड़े हो गए, जैसे मिट्टी का ढेला कड़े पत्थर पर लगने से चूर-चूर हो जाता है।

उस प्राण से मनुष्य सुगन्ध-दुर्गन्ध में भेद नहीं करता, क्योंकि यह प्राण पाप से मुक्त है। जो कुछ मनुष्य इस प्राण की सहायता से खाता-पीता है वह दूसरी शक्तियों को भी सहारा देता है। जब यह प्राण नहीं रहता तो मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाता है और उसका मुँह खुल जाता है (मृत्यु के समय मुँह बन्द करने की भी शक्ति नहीं रहती)। [छान्दोग्य० २/१-९]

[बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि प्राण अन्य सब शक्तियों से बड़ा और सबसे श्रेष्ठ (उत्तम) है। हम आँख और कान से देखते और सुनते हैं, परन्तु जीवन के लिए देखना और सुनना आवश्यक नहीं। बहुत-सी जीवित वस्तुएं हैं जो न देखती हैं न सुनती हैं। हम वाणी की सहायता से दूसरों पर अपने विचार प्रकट करते हैं- जीवन के लिए यह भी आवश्यक नहीं। साँस लेने के लिए हमारे शरीर में एक प्रबन्ध (System) है जिसका केन्द्र 'फेफड़ा' है। यह भी वैरी आवश्यक नहीं। मनुष्यों में मानसिक शक्ति मुख्य शक्ति है। यह भी जीवन के लिए आवश्यक नहीं। जीवन शक्ति इन सबसे पहले उपस्थित थी। वह सबसे अवस्था में बड़ी है। उन दूसरी शक्तियों का विकास पीछे हुआ। जीवन शक्ति अन्य शक्तियों से उत्तम भी है। शेष सब शक्तियों पर पाप का प्रभाव हो सकता है, परन्तु मुख्य प्राण पर पाप प्रभाव नहीं जमा सकता। मनुष्य आँख, कान, मन और वाणी से अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के काम करता है। सूरदास ने जब देखा कि उनकी आँखें उन्हें पाप मार्ग पर ले जाती है, तो उन्होंने आँखों को फोड़ दिया। उनकी दृष्टि में ऐसी आँखें रखने से अन्धा होना अच्छा था। इसी प्रकार दूसरी शक्तियों का भी दुरुपयोग होता है, तो वे हमें पाप के गढे में गिरा देती है। उपनिषद् की इस कथा में यह बताया गया है कि विशुद्ध जीवन शक्ति पर पाप का प्रभाव नहीं पड़ता। वह अपने आप में निर्दोष है और निर्दोष रहती है। वे दूसरी शक्तियां हैं जो मनुष्य को कीचड़ में खींच ले जाती हैं।

पाद टिप्पणी-
• उद्गीथ- सामवेद के विशेष मन्त्र जो एक यज्ञ में पढ़े जाते हैं, या 'ओ३म्'।]

• धर्म के स्कन्ध

धर्म के तीन भाग हैं-
यज्ञ, वेदपाठ और दान यह पहला भाग है। तप दूसरा भाग है। ब्रह्मचारी आचार्य्य कुल में रहता हुआ अत्यन्त क्लेश सहता हुआ तीसरा भाग है (ब्रह्मचर्य्य का पालन करना तीसरा भाग है)। [छान्दोग्य० २/२३/१]

[ब्रह्म प्राप्ति के लिए जो साधन बरते जाते हैं उनकी ओर संकेत करते हुए कठोपनिषद् में तीन साधनों का वर्णन किया गया है- वेदपाठ, तप और ब्रह्मचर्य्य। ब्रह्मचर्य्य का अर्थ केवल पहले आश्रम की तपस्या ही नहीं। इसे अधिक विस्तृत अर्थों में बरता गया है। इस ब्रह्मचर्य्य को सब आश्रमों में मनुष्य सेवन कर सकता है। इसके दो अङ्ग हैं- एक संयम, दूसरा ब्रह्म-जिज्ञासा (ब्रह्म की खोज)।

पाद टिप्पणी-
• आर्य्य सभ्यता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विज हैं। इन सब के कुछ कर्म भिन्न-भिन्न हैं और कुछ सब के सम्मिलित हैं। वेदपाठ, यज्ञ और दान देना यह सब के साझे के काम है। इनके अतिरिक्त ब्राह्मण का कर्त्तव्य वेद पढ़ाना, यज्ञ कराना और आवश्यकता पड़ने पर दान लेना भी है। क्षत्रिय का काम रक्षा करना और वैश्य का काम धन पैदा करना है। सब के साझे के कर्मों को यहां धर्म का पहला भाग कहा गया है।]

• आचार्य्य का अन्तिम उपदेश

जब आचार्य्य अपने शिष्य को पढ़ा चुके तो अन्तिम उपदेश यह दे-
१. सच बोलो, धर्म का आचरण करो।
स्वाध्याय में आलस न करो।
आचार्य्य की धन से सेवा करते रहो और गृहस्थ में प्रवेश करके संसार का क्रम प्रचलित रक्खो।
सत्य, धर्म, कौशल, स्वास्थ्य के नियम, ऐश्वर्य प्राप्ति के साधन करने और पढ़ने-पढ़ाने में आलस्य न करो।
धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक कर्मों के करने में आलस्य न करो।

२. माता की पूजा करो, पिता की पूजा करो, आचार्य्य की पूजा करो, अतिथि (अपिरिचित अभ्यागत) का सत्कार करो।
भले कर्म करो, बुरे कर्मों से बचो।
हमारे कर्मों में जो अच्छे हैं, उनका अनुकरण करो। दूसरे का नहीं।
दान श्रद्धा से देना चाहिए। श्रद्धा न हो तो भी देना चाहिए।
दान खुले हाथ देना चाहिए। अधिक न हो सके तो थोड़ा ही देना चाहिए।
भय (लोकलज्जा) से भी दान देना चाहिए और इस विचार से भी कि जिस काम के लिए दान मांगा जाता है, वह भला काम है।
यदि तुम्हें किसी काम के सम्बन्ध में सन्देह हो कि वह अच्छा है या बुरा, तो देखो कि कोई ऐसे ब्राह्मण हैं जो समझदार हैं, नेक हैं, कोमल स्वभाव वाले हैं, धर्म को प्यार करने वाले हैं। ऐसे अवसर पर जैसा इन पुरुषों का व्यवहार हो, वैसा ही तुम भी करो।
इसी प्रकार यदि दुष्ट पुरुषों के सम्बन्ध में सन्देह हो कि उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए तो सोचो, समझदार, नेक, कोमल स्वभाव वाले, धर्म को प्यार करने वाले ब्राह्मण उनसे जैसा व्यवहार करेंगे, वैसा ही तुम भी करो।

यही मेरा आदेश है, यह मेरा उपदेश है, यह वेद की शिक्षा का सार है, यह वेद शास्त्र की आज्ञा है। इसी प्रकार धर्म का पालन करना चाहिए। [तैत्तिरीय उपनिषद् १/२१-२४]

• आदर्श सामाजिक जीवन

ऋत (यथार्थ आचरण), स्वाध्याय (वेद और दूसरी धार्मिक पुस्तकों का पढ़ना), और प्रवचन (पढ़े हुए पर दूसरों से बातचीत करना और उसका प्रचार करना) आवश्यक है।
सत्य, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
तप, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
दम (इन्द्रियों को वश में रखना), स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
शम (मन की वृत्तियों को दोषों से हटाये रखना), स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
अग्नि (यज्ञ या विज्ञान), स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
अग्निहोत्र, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
अतिथिसेवा, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
उचित सामाजिक व्यवहार, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
प्रजा (राजव्यवहार), स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
स्वास्थ्यरक्षा, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है।
अपनी सन्तान की उन्नति, स्वाध्याय और प्रवचन आवश्यक है। [तैत्तिरीयोपनिषद् अनुवाक ९, प्रथम वल्ली]

[मनुष्य समाज की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति सभ्यता है। प्रत्येक पीढ़ी (Generation) का धर्म है कि वह इस सम्पत्ति को जो उसे पूर्वजों से प्राप्त हुई है- स्थिर रक्खे और बढ़ाये। यही मनुष्यों और पशुओं में मुख्य भेद है। यही सभ्य तथा असभ्य जातियों में भेद है। इस सभ्यता का आधार ज्ञान पर है। उपनिषदों में उपयोगी ज्ञान पर विशेष बल दिया गया है। इस ज्ञान को उज्ज्वल रखने का मुख्य साधन यह है कि इसे बरता जावे, इसकी चर्चा की जावे, इसे फैलाया जावे। तैत्तिरीयोपनिषत् के उपदेश में स्वाध्याय और प्रवचन को बार-बार दुहराया गया है। यही दोनों सभ्यता की जान हैं। परन्तु ये दोनों पर्याप्त नहीं हैं। नई सभ्यता का एक दोष यह बताया जाता है कि उसने बुद्धि को बहुत बढ़ा दिया है। बुद्धि आत्मिक जीवन का भूषण है, परन्तु यह सम्पूर्ण जीवन तो नहीं है। स्वाध्याय और प्रवचन के साथ और गुणों की भी आवश्यकता है। इस उपदेश में उनका ब्यौरा दिया गया है। इनमें कुछ मनुष्य के कर्मों से सम्बन्ध रखते हैं, कुछ उसके शील से। वे गुण ये हैं-

अ- व्यक्तिगत जीवन-
१. सदाचार।
२. सत्य (सच्चाई की खोज और उस पर आचरण करना)।
३. इन्द्रियों और मन को वश में रखना।
४. स्वास्थ्य की रक्षा करना।
५. यज्ञ करना।

ब- पारिवारिक जीवन-
६. सन्तान की रक्षा करना और उसे उन्नत करना।

स- समाजिक जीवन-
७. अतिथि सेवा।
८. दूसरों से उचित व्यवहार (नागरिक के कर्त्तव्यों का पालन करना)

द- राज कार्य्य करने वालों के लिए-
९. राजकार्य्य ठीक-ठीक करना।]

• श्रेयः और प्रेयः
(धर्म-मार्ग और भोग-मार्ग)

श्रेय: (धर्म का मार्ग) एक वस्तु है और प्रेय: (भोग का मार्ग) दूसरी वस्तु है। ये दोनों दो विभिन्न उद्देश्यों को रखते हुए मनुष्य को बाँधते हैं। जो मनुष्य श्रेय: को ग्रहण करता है, उसका कल्याण होता है; जो प्रेयः को ग्रहण करता है, वह अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं करता।
श्रेयः और प्रेयः दोनों मनुष्य के सामने आते हैं। बुद्धिमान पुरुष दोनों की जांच करता है और उनमें भेद करता है। बुद्धिमान श्रेयः को चुन लेता है, परन्तु मूर्ख लोभवश प्रेयः को पसन्द करता है।
अविद्या में फंसे हुए, अपने आपको धीर और पण्डित समझते हुए बेसमझ लोग भटकते, चक्कर लगाते रहते हैं, जैसे अन्धे जिनका मार्गप्रदर्शन अन्धे ही करते हों।
जो मूर्ख धन के मद में मस्त है, उसे परलोज दिखाई नहीं देता। वह समझता है कि वास्तव में इसी लोक का अस्तित्व है, इससे परे कुछ नहीं। ऐसा मानने वाला जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।

बहुत से लोगों को आत्मा के सम्बन्ध में सुनने का अवसर ही नहीं मिलता। बहुतेरे इसके सम्बन्ध में सुनते हैं, परन्तु उसके स्वरूप को समझते नहीं।
आत्मा के स्वरूप को समझाने वाला कहीं विरला ही मिलता है। ऐसे गुरु से शिक्षा पाकर समझने वाला भी विरला ही होता है।
जिस मनुष्य ने आप ही आत्मा को नहीं जाना, उसके समझाने से दूसरा समझ नहीं सकता, चाहे वह कितना ही विचार कर ले। किसी योग्य गुरु के समझाये बिना आत्मा का स्वरूप समझ में नहीं आता। यह बहुत सूक्ष्म है। शेष सब पदार्थों से अति-सूक्ष्म है। [कठ० २/१-२,५-८]

• यम का नचिकेता को उपदेश

चारों वेद जिस पद की व्याख्या करते हैं, सारे तप जिसका वर्णन करते हैं, जिस पद की इच्छा करते हुए मनुष्य ब्रह्मचर्य्य को धारण करता है, उस पद को मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूं- वह 'ओ३म्' है।
निश्चय रूप से यह अक्षर (नाश न होने वाला) ही 'ब्रह्म' है। यह अक्षर ही परम (सबसे श्रेष्ठ) है। इसी अक्षर को जानकर जो पुरुष जिस वस्तु की कामना करता है, वह उसे प्राप्त हो जाती है।
'ओ३म्' का यह सहारा सबसे उत्तम है, यह सहारा सबसे ऊँचा है; इस सहारे को जानकर ब्रह्म में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। [कठ० २/१५-१७]

• जीवात्मा और परमात्मा

दो पक्षी हैं, वे एक-दूसरे के मित्र और प्रेमी हैं। एक ही वृक्ष (प्रकृति की सृष्टि) पर बैठे हैं। उनमें से एक इस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है। दूसरा न खाता हुआ केवल देखता है।
उस वृक्ष पर पुरुष अर्थात् जीवात्मा फल चखने में मस्त मोह में अपनी दुर्बलता पर शोक करता है, किन्तु यदि वह इस दूसरे पक्षी अर्थात् परमात्मा को और उसकी महिमा को जान लेता है तो उसका शोक मिट जाता है। [मुण्डक० ३/१/१,२]

[ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों के अस्तित्व का यहां वर्णन हुआ है और उनके परस्पर सम्बन्ध पर प्रकाश डाला गया है। ईश्वर और जीव दोनों आत्मा हैं। इस विचार से दोनों एक श्रेणी में हैं और मित्र हैं। प्रकृति की सृष्टि को जीवात्मा भोगता है और इस भोग में इतना फँस जाता है कि भोग शोक का कारण बन जाता है। शराबी शराब सुख के लिए पीता है, परन्तु अनुभव उसे यह बताता है कि यह सौदा महँगा है। यही दशा जीव की है। जब उसे ठोकर लगती है, तब यह सीधे मार्ग पर चलता है और परमात्मा का चिन्तन करता है। इस चिन्तन और ज्ञान से उसका शोक नष्ट हो जाता है। मनुष्य का कल्याण इसी में है कि सांसारिक सुखों का दास न बन जाय, परमात्मा का ध्यान करे और अपने आत्मिक जीवन को उन्नत करे। परमात्मा ज्ञान स्वरूप है और ब्रह्माण्ड को देखता है। परन्तु विषयों से उत्पन्न होने वाले सुखों से उसे कोई सम्बन्ध नहीं।]

• ब्रह्म प्राप्ति के साधन

वह परमात्मा व्याख्यान से नहीं मिलता है, न यह बुद्धि से, न बहुत सुनने-पढ़ने से। जिसे वह चुन लेता है (जिसे अपनी कृपा का पात्र पाता है) उसी को प्राप्त होता है। उसी कृपा पात्र के सम्मुख वह अपने आपको प्रकट करता है। वह परमात्मा उन व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होता जो बलहीन हैं। न उनको जो प्रमाद (आलस्य) में फँसे हुए हैं, न उनको जिनका आधार तप और संन्यास के बाह्य चिह्नों पर हैं। हां, जो विद्वान उन त्याग आदि उपायों से लगातार यत्न करते रहते हैं उनको प्राप्त होता है और वे ब्रह्म धाम में प्रवेश करते हैं। [मुण्डक० ३/२/३,४]

निश्चय ही परमात्मा सत्य, तप, उचित ज्ञान और अखण्ड ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है। यह परमात्मा हमारे अन्दर ही उपस्थित है, यह ज्योतिर्मय है और पवित्र है, जिन संयमी पुरुषों के दोष नष्ट हो चुके हैं, उन्हें इसके दर्शन होते हैं। [मुण्डक० ३/१/५]

• ब्रह्म का स्वरूप

ब्रह्म के न तो हाथ हैं, न पाँव, परन्तु वह अत्यन्त तेज चलने वाला है, और सब कुछ को पकड़े हैं। उसके आँखें नहीं हैं, परन्तु सब को देखता है, कान नहीं हैं, परन्तु सब कुछ सुनता है। वह सब जानने योग्य वस्तुओं को जानता है, परन्तु कोई उसे पूर्णतया नहीं जानता। उसे सबसे उत्तम और महान् पुरुष कहा गया है। [श्वेताश्वतर० ३/१९]

वह सब स्वामियों का स्वामी है, समस्त देवताओं का देवता है। सारे ज्योतिर्मय पदार्थों को ज्योति देने वाला अथवा सब ज्ञानियों को ज्ञान देने वाला है। समग्र रक्षकों का रक्षक है, सब पवित्र पदार्थों से पवित्र है। सारे विश्व का स्वामी है। वह उपासना करने योग्य है। उसे ही हम जानें।
उस ब्रह्म का कोई कार्य्य नहीं। वह कोई रूप धारण नहीं करता। न कोई उसका रंग है, न कोई उसके समान है, न कोई उससे बड़ा है।
उसकी पवित्र शक्ति अनेक प्रकार की कही जाती है। उसका ज्ञान, बल और उसकी क्रिया सब स्वाभाविक है (किसी बाह्य विवशता अथवा प्रभाव का परिणाम नहीं)।
संसार में कोई उसका स्वामी नहीं, न कोई उसे वश में करने वाला है। न कोई उसका चिह्न है। वह जगत का कारण है, वह जीवात्माओं का शासक है। उसका उत्पन्न करने वाला तथा प्रभु कोई नहीं। वह एक देव सब प्राणियों में छिपा हुआ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी है। वह सब कार्य्यों को देखता है तथा समस्त पदार्थों में उपस्थित है। सब कुछ देखता है, जानता है, वह अकेला है और निर्गुण है।
वह अनेक निष्क्रिय (बेजान) पदार्थों पर शासन करता है, वह एक बीज से अनेक रूप वाले जगत को उत्पन्न करता है। जो बुद्धिमान पुरूष अपने आत्मा में स्थित ऐसे ब्रह्म को देखते हैं उन्हें सदा रहने वाला सुख मिलता है। और किसी को यह सुख नहीं मिल सकता।
जो कुछ स्थिर रहने वाला है, उससे अधिक स्थायी वह ब्रह्म है। वह चेतनों में सबसे अधिक चेतन (ज्ञान रखने वाला) है। वह एक सब जीवों की कामनाओं को पूर्ण करता है। उस जगत के कारण परमेश्वर को जो सांख्य और योग (ज्ञान और कर्म) से जानने योग्य है- जानकर मनुष्य सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
वहां (जहां ब्रह्म है) न सूर्य्य चमकता है, न चाँद, न सितारे, न बिजलियाँ। यह आग तो वहां कैसे चमकेगी? जब वह चमकता है तो उसके पीछे यह सब चमकते हैं। उसके प्रकाश से यह सारा जगत प्रकाशित है। [श्वेताश्वतर० ६/७/९,११,१४]

[ब्रह्म का जो स्वरूप यहां वर्णन किया गया है उसमें दो बातों पर विशेष बल दिया गया है। एक यह कि वह केवल आत्मा है, प्रकृति का उसमें लेश नहीं। न कोई उसकी मूर्ति बन सकती है। दूसरी यह कि संसार में जो शक्तियां दिखाई देती हैं, वह वास्तव में उसकी दी हुई है। सूर्य्य, चाँद, तारे अपनी चमक से नहीं चमकते, परन्तु परमात्मा की दी हुई शक्ति से चमकते हैं। यह विचार उपनिषदों में बहुत प्रधान हैं। श्वेताश्वतर० का ६/१२ ज्यों का त्यों कठोपनिषद् के ५/१२ में मिलता है। श्वेताश्वतर० ६/१३ का पहला भाग कठोपनिषद् के ५/१३ का पहला भाग है। कठ० के ५/१३ का दूसरा भाग उसके ५/१३ के दूसरे भाग से मिलता है। केवल 'सुख' के स्थान पर शब्द 'शान्ति' डाला गया है। श्वेताश्वतर० का ६/१४ कठ० तथा माण्डूक्य उपनिषदों में भी आया है। न केवल यह विचार ही प्रधान और सार्वजनीन था, वरन् जान पड़ता है कि यह श्लोक भी प्रचलित था और कई उपनिषदों में उसका प्रयोग हुआ।]

[सन्दर्भ ग्रन्थ- जीवन ज्योति]

1 comment:

  1. Aaj kuchh gayan hua, a very good attempt to give knowledge. Thank you

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