Friday, August 30, 2019

बिहार के विद्यासागर - आचार्य रामानन्द शास्त्री



*◼️बिहार के विद्यासागर - आचार्य रामानन्द शास्त्री◼️*
✍🏻 लेखक - सर्वेन्द्र शास्त्री, भूतपूर्व प्राचार्य
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*
स्वामी दयानन्द सरस्वती के पदार्पण तथा प्रचलन से ऐतिहासिक भूमि को तीन बार उपकृत होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था अतः बिहार में उनके भक्तों तथा विचार समर्थकों की संख्या उत्तरोत्तर वृद्धि पर थी। फलस्वरुप बम्बई तथा लाहौर में आर्य समाज की स्थापना के पश्चात् १८७८ ई० में स्वामीजी की प्रेरणा से आर्यसमाज दानापुर की स्थापना हुई। दानापुर का आर्य समाज विश्व का तीसरा स्थापित आर्य समाज है। आज भी उत्तर प्रदेश को छोड़कर बिहार में ही आर्य समाजों की संख्या सबसे अधिक है। बिहार के आर्य समाजों को गौरव है कि उसकी गोद में श्री पं० शिव शंकर शर्मा काव्य तीर्थ, पं० अयोध्या प्रसाद वैदिक अनुसन्धान कर्ता, पं० रामावतार शर्मा षटतीर्थ तथा आचार्य रामानन्द शास्त्री ऐसे वैदिक वाङ्मय के विख्यात विद्वान उत्पन्न हुए । सौभाग्य वश आज उक्त चारों विद्वानों में आचार्य जी ही जीवित हैं।
आदरणीय आचार्यजी का जन्म भाद्रपद पूर्णिमा १९७१ संवत् तदनुसार सितम्बर १९१४ ई० में गोपालगंज जिला के बलथरी ग्राम में हुआ था। आपके पूज्य पिता का नाम पं० अलखनारायण पाठक था। पाठकजी का पौराणिक परिवार पूर्व से ही पाण्डित्य तथा प्रतिष्ठा के लिए प्रख्यात था । उपनयन संस्कार के पश्चात् प्राथमिक विद्यालय में आपको प्रविष्ट कराया गया । अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के कारण प्राथमिक स्तर पर आपको छात्रवृत्ति मिलती रही । मिडिल तक की शिक्षा पूर्ण करते ही आपके समक्ष एक नयी ज्योति का उदय हुआ। प्राच्य विविध विद्या में पारंगत स्वामी विज्ञानानन्द जी ने बलथरी में लोक मान्य ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना की । स्वामी जी की अप्रतिम प्रतिभा से परिचित अभिभावकों ने अपने बच्चों को वहाँ भेजने में होड़ लगा दी। आचार्य जी भी उसी आश्रम में प्रविष्ट हुए जहाँ उन्हें आवासीय बनकर विद्याध्ययन करना पड़ा । स्वामीजी आर्ष ग्रन्थों के समर्थक थे । अतः उसी के माध्यम से शिक्षा देते थे । इस प्रकार आपने अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य के अतिरिक्त दर्शन आदि विषयों का गहन अध्ययन किया । पूर्वार्जित संस्कार से आचार्य जी उनके शिष्यों में सर्वाधिक वर्चस्वी सिद्ध हुए। पीछे चलकर आपने कलकत्ता से काव्य तीर्थ तथा बिहार से आचार्य की परीक्षा में भी सफलता प्राप्त की ।
आर्ष ग्रन्थों तथा स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन से आचार्य जी आर्य समाज की ओर आकृष्ट थे । सहसा बिहार के मिशनरी प्रचारक स्वामी ईश्वरानन्द की दृष्टि इनके ऊपर पड़ी । उनकी प्रेरणा से ये १९३६ ई० में गुरुकुल गोरखपुर के आचार्य बने । ये वहाँ भी वैदिक वाङ्मय के सतत् स्वाध्याय तथा अंग्रेजी के अध्ययन में दत्तचित्त रहे। आपके आचार्य काल में गुरुकुल की ख्याति सुदूर तक फैली, जिससे कि वहाँ बिहार, बंगाल तथा नेपाल के छात्र भी आने लगे । लेखक को भी वहीं पर आपके श्री चरणों में बैठकर विद्या-लाभ का सुअवसर मिला था।
सर्वप्रथम आर्यसमाज, गोरखपुर के विशाल वार्षिकोत्सव पर जनता को आपकी विद्वता तथा संस्कृत वाग्मिता से परिचित होने का अवसर मिला । वहाँ आपने एक जिज्ञासु के रूप में धाराप्रवाह संस्कृत में बौद्धों के स्याद्वाद के सम्बन्ध में वक्तृता देकर उपस्थित की । उस समय मंच पर राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री, पं० विद्यानन्द शर्मा मन्तकी आदि अनेक धुरन्धर विद्वान् उपस्थित थे । उत्तर देने के लिए सभी एक दूसरे की ओर देखने लगे । अन्त में पं० विद्यानन्द शर्मा ने उत्तर दिया। परन्तु जनता जान गयी कि आचार्य जी की विद्वता अगाध है। कुछ दिनों के बाद ही कप्तान गंज (गोरखपुर)) के सनातन धर्म महोत्सव पर श्री पं० अखिलानन्द शर्मा तथा पं० कालूराम शास्त्री ने आर्य समाज को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा । चुनौती स्वीकार करते हुए आर्य समाज की ओर से आचार्य जी को गुरुकुल से बुलाया गया। दोनों पक्षों के पण्डित आमने-सामने मंच पर उपस्थित थे । प्रथम पं० अखिलानन्द शर्मा ने ललित संस्कृत में अवतारवाद का प्रश्न प्रस्तुत किया । परन्तु उनको क्या पता था कि मेरे सामने एक अजेय योद्धा भी उपस्थित है। जब आचार्य जी खड़े हुए तो इनकी युवावस्था देखकर शर्मा जी विजय की आशा में मुस्कुराने लगे। परन्तु जब आचार्य जी सारगर्भित धारा प्रवाह संस्कृत में वेद मंत्रों का उद्धरण देकर व्याख्या करने लगे तो ईश्वर का निराकार स्वरूप स्वतः सिद्ध हो गया । अब शर्मा जी के पैर से भूमि खसकने लगी। जनता ने आर्य समाज की जय के नारों से आर्य समाज के पक्ष में अपना निर्णय दिया।
आचार्य जी की विद्वता तथा भाषण कला से परिचित होने पर आर्य प्रतिनिधि सभा बिहार के पदाधिकारियों की दृष्टि आप पर पड़ी। फलस्वरूप आप १९४० ई० में पटना आये और उसी समय से अनवरत आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं । ७१ वर्ष की आयु में भी गत ४६ वर्षों से अभी भी सोत्साह प्रचार कार्य में सजग है । प्रचार क्षेत्र में आने पर आपके वैदुष्य तथा सारगर्भित भाषण की ख्याति सर्वत्र फैली हुई है । बिहार के अतिरिक्त आपने देश के कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, लखनऊ, दार्जिलिंग, ग्वालियर, राऊरकेला आदि प्रधान नगरों में अपने भाषणों की अमिट छाप डाली है । सार्वदेशिक सभा ने आपको मौरीशस के आर्य महासम्मेलन में अपनी ओर से भेजा था । वहाँ आपके विद्वता पूर्ण भाषण से जनता जागृत हो उठी । एक स्थान पर जब आपने भोजपुरी में अपना भाषण दिया तो प्रेम विह्वल वहाँ के लोगों ने आप को गले लगा लिया । बिहार के प्रसिद्ध विभिन्न सम्मेलनों में आपने अध्यक्ष का पद ग्रहण करके स्मरणीय भाषण दिये हैं । जब आचार्य जी गुरुकुल गोरखपुर में थे तब नेपाल के अमर शहीद पं० शुक्रराज शास्त्री वहाँ आया करते थे । उन्होंने गुरुकुल में प्रयागराज जोशी तथा विद्याभानु अपने दो भतीजों को वहाँ प्रविष्ट कराया था । अतः सभा में महोपदेशक बनने पर सर्वप्रथम श्री वैद्यनाथ प्रसाद (दाढ़ी-बाबा) सिवान के साथ जाकर आठ दिनों तक आपने वहाँ प्रचार किया था। अब भी वर्ष में कम से कम एक बार वहाँ जाकर प्रचार करते तथा महायज्ञों में आचार्य का पद स्वीकार करते हैं । अब तो नेपाल के आर्य समाज की स्थापना भी हो चुकी है।
प्रचार कार्य की लम्बी अवधि में कई बार आपको विपक्षियों से शास्त्रार्थ भी करना पड़ा है । यहाँ कुछ प्रमुख शास्त्रार्थों की चर्चा की जा रही है । आर्य समाज तेथड़ा (बेगू सराय) के उत्सव पर सनातन धर्म के महारथी पं० माधवाचार्य तथा पं० गंगा विष्णु शास्त्री ने मृतक श्राद्ध पर शास्त्रार्थ करने के लिए आर्य समाज को चुनौती दी । उत्सव पर आचार्य जी तथा स्वामी ईश्वरानन्द उपस्थित थे । आचार्य जी ने अपने सारगर्भित भाषण में बताया कि पितर जीवितों को ही कहा जाता है । उनकी सेवा ही श्राद्ध है । मृतकों का श्राद्ध होता ही नहीं । आप चारों वेदों में कहीं भी श्राद्ध शब्द दिखला दें । माधवाचार्य की हेकड़ी बन्द हो गयी । जनता सच्चाई को समझ गयी । तत्पश्चात् आर्य समाज का पण्डाल खचाखच भर गया और अनेक विद्वानों ने मृतक श्राद्ध के विपक्ष में भाषण दिया इसी प्रकार सराय (वैशाली) में आपके साथ माधवाचार्य का दूसरा शास्त्रार्थ पुराणों की वैदिकता पर हुआ था । माधवाचार्य के पक्ष-पोषण के पश्चात् जब आचार्य जी ने पुराणों की परस्पर विरोधी आस्थायें तथा ऋषि मुनियों के चरित्र को कलंकित करने वाले उद्धरणों से उसकी पोल खोल दी तो माधवाचार्य फिर सिर ऊपर नहीं उठा सके। आर्य समाज मुजफ्फरपुर के वार्षिकोत्सव पर भी माधवाचार्य के साथ आपका शास्त्रार्थ हआ था । जिसमें विजय श्री आपको मिली थी। इस शास्त्रार्थ के बाद मुजफ्फरपुर में आर्य समाज की धाक जम गयी । आचार्य जी जहाँ सर्वसाधारण जनता में वैदिक गूढ़ से गूढ़ विचारों को सरल एवं सरस भाषण द्वारा हृदयंगम कराने में प्रवीण हैं वहाँ बुद्धि जीवियों को सारगर्भित विचारों से उनको अपनी ओर आकृष्ट करने में दक्ष हैं।
आचार्य जी जहाँ वाणी के जादूगर हैं वहाँ लेखनी के धनी भी हैं। आर्य संसार के प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में आपके वैदिक गवेषणात्मक लेख प्रकाशित होते रहते हैं । आपके गहन अध्ययन का परिणाम हैं कि अब तक हिन्दी की निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं -
१. नये युग के नये विचार, २. भारतीय विचार धारा ३. भारतीय संस्कृति ४. आर्यत्व का स्वरूप ५. हिन्दुत्व की विजय ६. वैदिक लोक व्यवहार । इनके अतिरिक्त संस्कृत छन्दोबद्ध ऋषिव्रत कथा तथा सत्यदेव कथा है । इन पुस्तकों की लोकप्रियता का परिचय इसी से मिलता है कि इनके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । बिहार में तो कथा के रूप में दोनों संस्कृत पुस्तकों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया है।
आर्य समाजों के संगठन को सुदृढ़ बनाने तथा अनेक आर्य शिक्षण संस्थाओं के सम्यक् संचालन तथा मार्ग दर्शन में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका भुलायी नहीं जा सकती । सभा के महोपदेशक रहते हुए भी आपकी अमूल्य सेवाओं को ध्यान में रखा । १९५३ से ५६ ई० तक छोड़कर १९४५ से अब तक सर्वसम्मति से उप-प्रधान पद को अलंकृत कर रहे हैं । १९५३ से ५६ ई० तक आप आर्य प्रतिनिधि सभा बिहार के प्रधान मंत्री रहे । अपने मन्त्रित्व काल में आपने सभा का पर्याप्त यश विस्तार किया और समाजों को जागरूक बनाया। कुछ वर्ष पूर्व आप सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के उप मंत्री भी रहे और अभी गत १५ वर्षों से उसके अन्तरंग सदस्य हैं । सार्वदेशिक सभा के आप धर्माधिकारी भी बने और अभी भी कई वर्षों से धर्मार्य सभा के सदस्य हैं । बंगाल बिहार के प्रमुख गुरुकुल महाविद्यालय वैद्यनाथ धाम (देवघर) के संचालन तथा पथ प्रदर्शन में आपका योग दान स्मरणीय रहेगा । कुछ वर्ष पूर्व आप गुरुकुल के कार्यकर्ता प्रधान थे। कुछ वर्षों से आप अभी तक उसके उप प्रधान के रूप में गुरुकुल की अमूल्य सेवा कर रहे हैं । गोपाल गंज का दयानन्द उच्च विद्यालय वर्षों से आपके प्रधान काल में जिला में विद्या-दान के क्षेत्र में कीर्तिमान उपस्थित कर रहा है।
बिहार राज्य को यह गौरव प्राप्त है कि उसने पद्मभूषण डॉ० दूखन राय ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेता, राय बहादुर ब्रजनन्दन सिंह ऐसा सच्चरित्र तथा निष्ठावान् पुण्य पुरुष, श्री पं० वासुदेव शर्मा ऐसा कर्मठ तथा सेवावृत्ति पदाधिकारी तथा आचार्य रामानन्द शास्त्री ऐसा वैदिक वाङ्मय का विशिष्ट विद्वान आर्य संसार की गरिमा को उजागर करने के लिए समर्पित किया। (आर्य संसार - १९८६ से संकलित)
✍🏻 लेखक - सर्वेन्द्र शास्त्री, भूतपूर्व प्राचार्य
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*
॥ओ३म्॥

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