Saturday, September 15, 2018

सिख पंथ हिन्दू समाज का अंग क्यों है?




सिख पंथ हिन्दू समाज का अंग क्यों है?
(सिख पंथ में अलगाववाद का विचार सन 1920 के दशक में अंग्रेजों द्वारा पोषित किया गया। आज इसे पाकिस्तान बढ़ावा दे रहा हैं। उससे पहले के सिख विचारक अलगाववाद के विपरीत हिन्दू समाज एक अंग के रूप में सिख पंथ मानते थे। श्री आनन्दपुर साहिब के तत्कालीन गद्दीनशीन टिक्का साहिब सोढी नारायण सिंह की रचना ख़ालसा धर्मशास्त्र पूर्वमीमांसा, श्री गुरमत प्रेस, अमृतसर, १९७० विक्रमी ,१९१३ ईसवी के प्रमुख अंश का हिन्दी अनुवाद यहाँ दिया जा रहा हैं। इसके अनुवादक स्वर्गीय श्री राजेन्द्र सिंह जी हैं।)
सारे हिन्दू-सम्प्रदायों की एकता की प्रतीक 
गोमाता और उसकी रक्षा
साधारण रूप से ऐसे लोगों को ही हिन्दू कहा जाता है जो वेदों को इष्ट मानते हुए देवी, देवताओं और अव-तारों की मूर्तियां पूजते हैं, यज्ञोपवीत धारण करते और तिलक लगाते हैं तथा ब्राह्मणों के कर्मकाण्डों के प्रभाव-अधीन आए हुए लोग हैं। परन्तु वास्तव में केवल इन को ही हिन्दू मान लेना ठीक नहीं है क्योंकि चारों वर्ण और चारों आश्रमों के सारे लोग यज्ञोपवीत धारण करने वाले नहीं हैं, इस पर भी सारे ही हिन्दू हैं।
आर्यसमाजी लोग वेदों को तो इष्ट मानते हैं परन्तु ब्राह्मणों के प्रभावाधीन नहीं हैं। वे न तो ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड को मानते हैं और न ही पुराणों, अवतारों, देवी-देवताओं और तीर्थों-पितरों को मानते है, फिर भी वे हिन्दू हैं।
उसी प्रकार जैनमतावलम्बी और बौद्धमतावलम्बी, जो वेदों का खण्डन करते हैं, भी हिन्दू ही हैं। इसी प्रकार चारवाकी और आज के देवसमाजी इत्यादि भी, जो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते और न ही परलोक को मानते हैं, हिन्दू ही हैं।
ब्रह्मसमाजी, जो वेदों को अन्य मज़हबों की मान्य पुस्तकों से विशिष्ट नहीं मानते, भी हिन्दू कहलाने के ही दावेदार हैं।
इसी प्रकार अन्यान्य मत-मतान्तरों के सारे लोग, जो ब्राह्मणों के मत से मतभिन्नता रखते हैं, भी हिन्दू ही कहलाते हैं।
इससे सिद्ध है कि केवल ब्राह्मणों के पीछे चलने वाले लोगों को, जो अपने-आपको सनातनधर्मी कहलवाते हैं, हिन्दू मानना भूल है। हां, इनका समुदाय हिन्दुओं की एक बड़ी शाखा होने से प्रमुख है।
वास्तव में हिन्दू कोई मज़हब, पन्थ अथवा सम्प्रदाय नहीं है। हिन्दू एक क़ौम है जिसमें हिन्दुस्तान देश के सारे स्वदेशी पन्थों, सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों के जत्थे सम्मिलित हैं।
हिन्दू पद वैदिक नहीं वरन् लौकिक पद है। लौकिक भाषा में कई बोलियों के पद मिले होते हैं। हिंसा से दूर रहने वालों का नाम हिन्दू है। हिंसा पद से "हिं" और दूर पद से "दू" अक्षर लेकर "हिन्दू" पद बना है। इस स्थान पर हिंसा पद से गोहिंसा का प्रयोजन है। तात्पर्य यह है कि गो-हिंसा से दूर रहने वालों का नाम हिन्दू प्रसिद्घ हुआ है।
गो-हिंसा से दूर रहने के साथ दो गुण और भी हिन्दू होने के लिए आवश्यक हैं। 
पहला यह कि परम्परा से हिन्दुस्तान की स्वदेशी सन्तान होना, चाहे उच्च से उच्च और नीच से नीच ब्राह्मणों से लेकर चाण्डालों तक हों, वर्ण-आश्रम अथवा वर्ण-आश्रम-विहीन हों तथा जातों, जमातों, गोत्रों के जितने भी जत्थों के लोग देसी सन्तान के हों। 
और दूसरा गुण यह कि वे मूसाई, ईसाई, मुहम्मदी इत्यादी विदेशी मज़हबों की धारणा वाले न हों, स्वदेशी पन्थ ही की धारणा वाले हों; भले ही वैदिक, अवैदिक, आस्तिक, नास्तिक किसी प्रदेशीय मत-मतान्तर की धारणा वाले हों।
तात्पर्य यह है कि जितने लोग गो-हिंसा से दूर रहने वाले अर्थात् परहेज़ करने वाले स्वदेशी सन्तान के और स्वदेशी पन्थ रखने वाले हैं, इन सब की एक हिन्दू क़ौम है। जातों, जमातों और पन्थों के सम्प्रदायों को सन्मुख रखकर हिन्दू क़ौम अनगिनत जत्थों में बिखरी हुई है। परन्तु सबको एक क़ौमियत का विचार ही एक सूत्र में बांधने वाला है जिसका नाम हिन्दू क़ौम है और जिस देश के ये हिन्दू हैं, उस देश का नाम हिन्दुस्तान है और अहिंसक होने से यह हिन्दू पद पवित्र शब्द है।
अतः इस अर्थ में सिक्ख भी हिन्दू हैं, वे भी गो-हिंसा से दूर रहने वाले और स्वदेशी सन्तान के लोग हैं तथा सिक्ख-पन्थ भी स्वदेशी है अर्थात् इसी हिन्दुस्तान में ही प्रकट हुआ है। हिन्दू होने के ये तीन लक्षण सिक्खों में में बराबर पाये जाते हैं।
इससे भी बढ़ कर सिक्खों का हिन्दुओं के बीच होने का यह प्रमाण भी है कि हिन्दुओं की ऐतिहासिक और पौराणिक साखियां सिक्ख साहित्य में प्रयोग की जाती हैं। और भी अनेक गुण-कर्म-स्वभाव, खान-पान तथा पहनावे इत्यादि, आवागमन इत्यादि मान्यताएं, दिन- रात-महीने इत्यादि, हिन्दुओं के राष्ट्रीय त्यौहार तथा गो-हिंसकों से खान-पान में छुआछूत रखने के नियम इत्यादि हिन्दुओं वाली अनगिनत बातें सिक्खों के पन्थ में हैं, जो ईसाइओं और मुसलमानों में नहीं। 
यह मानो हिन्दुओं की क़ौमियत रूपी सराय के आंगन की सांझ है। यदि ईसाइयों और मुसलमानों की भांति श्रीगुरु जी ने सिक्खों की क़ौम अलग बनाई होती तो सारी ही बातें पृथक् रूप से नयी बनतीं, परन्तु श्रीगुरु जी ने हिन्दुओं का सुधार किया है। सुधार में सभी बातों का उलट-पलट नहीं हुआ करता, जो-जो बातें बिगड़ी-तिगड़ी हों उन्हीं का सुधार होता है, शेष बातें यथावत् ही रहती हैं। ०

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