Sunday, August 5, 2018

निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्



निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

चिंतामणि वर्मा


महर्षि दयानंद गंगा नदी के तट पर एक कुटिया बना कर डेरा डाले हुए थे। उनकी कुटिया से थोड़ी ही दूर एक साधू की कुटिया थी। वह साधू महर्षि दयानंद को नास्तिक समझता था और इसी कारण उन्हें खूब गालियां देता था। उनकी कुटिया के सामने आकर उनका नाम ले लेकर गाली देना उसका नित्य नियम था। महर्षि दयानंद पर उसकी गालियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता था।

एक दिन किसी भक्त ने महर्षि दयानंद के लिए मिठाई और फल की टोकरी भेजी। महर्षि ने उसमें से थोड़ा सा अपने लिए रख लिया, कुछ भक्तों में बाँट दी और बहुत सी मिठाइयां तथा फल उस गाली देने वाले साधू के पास भिजवा दिया।

एक व्यक्ति मिठाइयों और फल की टोकरी लेकर उस गाली देने वाले साधू के पास गया। कहा – साधू जी ये फल और मिठाइयां ले लीजिए। स्वामी दयानंद ने आपके लिए भेजा है। वह साधू बोला – क्या कहा! दयानंद ने भिजवाया है। अरे उसे तो मैं रोज गाली दिया करता हूँ वह मेरे लिए फल और मिठाइयां क्यों भिजवाएगा? वापस ले जाओ। किसी दूसरे के लिए भिजवाया होगा।

वह व्यक्ति टोकरी लिए वापस महर्षि दयान्द के पास पहुंचा। सारी बातें बता दी।

महर्षि ने कहा – मैंने उसी के लिए भिजवाया है। उसी को देना है। आप उसे दे आइए।

वह व्यक्ति फिर उस साधू के पास गया। कहा कि - स्वामी दयानंद जी ने ये फल और मिठाइयां आप के लिए ही भिजवाई हैं। रख लीजिए।

वह साधू फिर बोला - अरे तुमसे गलती हो गई होगी। मैं जिस दयानंद को रोज गाली दिया करता हूँ वह मेरे लिए फल और मिठाइयां भिजवाया है यह मैं कैसे मान लूँ। जाओ-जाओ जिस के लिए भेजा है उसने, उसके पास ले कर जाओ।

वह व्यक्ति टोकरी लिए फिर स्वामी दयानंद के पास पहुंचा – बोला – स्वामी जी वह तो कहता है – मैं उन्हें रोज गालियाँ दिया करता हूँ वे मेरे लिए मिठाइयां और फल क्यों भिजवाएंगे। किसी दुसरे के लिए भिजवाया होगा।

स्वामी जी ने कहा - देखो उस झोपड़ी में रहने वाले साधू को देना है। यह ठीक है कि वे मुझे रोज गालियाँ देते हैं। परन्तु इससे क्या हुआ। जो गालियाँ देता है उसे भी तो भूख लगती है। वह भी तो भोजन करता है। उस गाली देने वाले साधू के लिए ही मैं यह फल और मिठाइयां भेज रहा हूँ। उनको अच्छी तरह बतलाना। मैं ने यह उन्ही के लिए भिजवाया है।

वे सज्जन टोकरी लिए फिर एक बार गए। कहा - साधू जी महाराज, स्वामी दयानंद ने कहा है - ठीक है उस गाली देने वाले साधू जी को ही यह टोकरी देनी है। कृपा करके आप यह फल और मिठाई स्वीकार कर लीजिए।

इतना सुनना था की वह साधू, जो रोज ही नियम से स्वामी दयानंद को गालियाँ देता रहता था, दौड़ा, आकर महर्षि दयानंद के पैरों पर गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा। बोला - महाराज आपका ह्रदय तो अत्यंत कोमल है। मैं आपको इतनी गालियाँ देते रहता हूँ। परन्तु आपने उस पर ध्यान नहीं दिया और मेरे लिए मिठाई और फल भिजवाया।

महर्षि दयानंद उसकी गालियों को सुनकर दुखी नहीं होते थे। और जब वह स्वामी दयानंद के पैरों पर गिर कर क्षमा माँगने लगा तब भी उनको कोई प्रसन्नता नहीं हुई। वे निंदा और स्तुति से ऊपर उठ चुके थे। स्थितप्रज्ञ, महान आत्मा थे। धीर पुरुष थे। इस प्रकार की निंदा और स्तुति की घटनाएं महर्षि दयानंद के जीवन में कई बार घटी। परन्तु वे सदा ही निंदा और स्तुति से ऊपर रहे।

निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

जितनी इच्छा हो उतना धन मिल जाए, अन्यथा अपने पास का धन भी हाथ से निकल जाए।

प्रलोभन, लोभ, लालच बहुत ही बुरा है। लोभ के कारण लोग धर्म पथ को छोड़ देते हैं। अन्याय का रास्ता पकड़ लेते हैं। धन पाने की चाह से सारे बुरे कर्म करने की तैयार हो जाते हैं। कोई व्यक्ति झूठी गवाही देने के लिए धन का लालच देता है। कोई व्यक्ति गलत कामों में सहायता के लिए धन का लोभ देता है। कभी कभी कुछ लोग अनैतिक कामों को करने के बदले में मनमाना धन देने की, मुंहमांगी कीमत देने की बात करते हैं। परन्तु यह नीति वाक्य कहता है जो धीर पुरुष होते हैं, विद्वान होते हैं, उत्तम पुरुष होते हैं, वे यथेष्ट धन पाने के लोभ में भी धर्म पथ, न्याय पथ से विचलित नहीं होते हैं।

इसी प्रकार कभी कोई कहता है की तुम मेरे लिए यह अनैतिक काम कर दो, गलत काम कर दो, नहीं तो तुम्हारा धन छीन लिया जाएगा। हमारे लिए झूठ बोलो नहीं तो तुम्हारे कारोबार को हानि पहुंचाई जाएगी। अपने धर्म से, अपनी जाति से, द्रोह करो, विशवासघात करो, नहीं तो तेरा सारा धन मार-पीट कर ले लेंगे। ऐसी परिस्थिति में भी धीर पुरुष, विद्वान पुरुष, धर्म की धुरी धारण करनेवाले लोग, न्याय-पथ से विचलित नहीं होते हैं। धर्म को नहीं छोड़ते हैं। झूठा व्यवहार नहीं करते हैं। धन के नाश हो जाने के डर से धर्म और जाति के प्रति द्रोह नहीं करते हैं।

महर्षि दयानन्द को धन का लोभ दिया गया और कहा गया कि आप वेद मार्ग को छोड़ दें। वैदिक धर्म को छोड़ दें। परन्तु उन्होने स्वीकर नही किया। धन पाने की आशा, धन पाने का लोभ, उन्हें वैदिक धर्म से विमुख नहीं कर पाया।

उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह ने महर्षि दयानंद को उदयपुर आने का निमंत्रण दिया। महर्षि दयानंद उदयपुर पधारे। छः महीनों तक उदयपुर में प्रवास रहा। महाराणा सज्जनसिंह महर्षि के भक्त थे। उन्होंने ऋषिवर से संस्कृत एवं मनुस्मृति तथा अन्य ग्रंथो का अध्ययन किया। उनके विलासी जीवन में भी महर्षि की कृपा से बहुत कुछ सुधार आया। महाराणा शंकाएं उपस्थित करते महर्षि उसका उचित उत्तर देते।

एक दिन महाराणा ने कहा - यदि आप व्यवहार नीति पर चलते हुए वैदिक धर्म पर जोर न दें, वेद के अनुसार धर्म पालन पर जोर न दें, तो आसानी से बहुत से लोग आपके शिष्य बन जाएंगें। आपको धन की कमी भी नहीं होगी।

उन्होंने आगे कहा यदि आप भगवान एकलिंग के मंदिर का महंत बन जाएं, तो आपको बहुत धन की प्राप्ति हो जाएगी। इस मंदिर की वार्षिक आय लाखों रुपये हैं। वह सब धन आपका हो जाएगा।

महर्षि ने शांत परन्तु ओजस्वी वाणी में कहा - महाराणा जी, आप मुझे धन का लोभ देकर बांधना चाहते हैं। मुझे वैदिक धर्म के प्रचार से रोकने का यत्न कर रहे हैं। मैं ईश्वर की वाणी वेद के प्रचार से कभी भी विमुख नहीं होऊंगा।

ऋषि की धीर गंभीर वाणी सुन कर, अडिग निर्णय सुन कर, महाराणा सज्जनसिंह अवाक् रह गए। उनसे कुछ कहते न बना। उन्होंने महर्षि दयानंद की दृढ़ निष्ठा को देखा। उन्होंने पहले नहीं समझा था की यह संन्यासी धन की चाह से बहुत दूर, आगे निकल चुका हैं।

महर्षि दयान्द जब काशी पहुंचे थे, तब काशी नरेश ने भी उन्हें वैदिक मार्ग छोड़ने के लिए निवेदन किया। वेदों के विद्वान दयानंद ने जब इसे स्वीकार नहीं किया, तब उन्होंने धन का लोभ देना चाहा। काशी नरेश ने कहा - यदि आप वेद मार्ग के प्रति इतना आग्रह न दिखाएं, तो मैं आप को जीवन भर १०० रुपये प्रति माह दिया करूँगा। यह ध्यान देने की बात हैं कि उन दिनों में, जब कि, एक मनुष्य की महीने भर की कमाई ४-५ रुपये होती थी, ऐसे युग में काशी नरेश ने १०० रुपये देने की बात कही थी। परन्तु तब महर्षि दयानंद ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया - यदि आप अपना संपूर्ण राज्य भी मुझे दे दें, तो भी मैं वैदिक धर्म को नहीं छोड़ सकता हूँ।

काशी नरेश को यह ज्ञात नहीं था कि यह व्यक्ति भरी जवानी में अपने जमींदार पिता के धन-वैभव को छोड़ कर संन्यासी बना है। यह धन का लोभी नहीं है। यह किसी भी सांसारिक चाहनाओं से दूर है। ईश्वर का सच्चा भक्त हैं। धन का लोभ इसे ईश्वर की आज्ञा पालन से नहीं छुड़ा सकेगा। धन का भक्त नहीं, यह ईश्वर का भक्त हैं।

२१ वर्ष का नवयुवक मूलशंकर, जब अन्य सभी लोग लौकिक धन के पीछे पागल बने रहते हैं वह अवस्था, जमींदार का बेटा मुलशंकर, अपने इलाके का कर उगाहने वाले अधिकारी का बेटा, धन दौलत से भरे पूरे परिवार का नवयुवक, पिता का बड़ा बेटा – मूलशंकर। परन्तु उसके मन में तो कोई और ही भावनाएं उठ रही थीं। जब ईश्वर का दर्शन करने की चाह अत्यंत तीव्र हो उठी, उसे यह समझ में आ गया कि ये धन दौलत ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में सहायक नहीं है, तो उसने अपने पिता के धन का त्याग करने में थोड़ी भी देर नहीं की। उसने अपने पिता के धन वैभव पर लात मार दिया।

नवयुवक मुलशंकर घर छोड़ कर निकल पड़ा। उसे सच्चे शिव को ढूंढाना था। मृत्यु के फन्दें से बचने का रास्ता ढूंढना था। मृत्यु से बचना था।

जब घर छोड़ कर आगे बढ़ा, उसकी इच्छा को कुछ तथाकथित साधुओं ने जाना। उन्होंने देखा कि इसके शरीर पर कीमती कपड़े हैं, सोने की गहने हैं। उन्होंने नवयुवक को ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने के लिए कहा, ब्रह्मचारियों का बाना धारण करने को कहा। उसके रेशमी कीमती कपड़े उतरवा दिए। नवयुवक मूलशंकर ईश्वर की खोज में निकल पड़ा था। उसे कपड़े और गहनों की क्या परवाह थी। उसने तुरंत उतार दिए। ब्रह्मचारियों के कपड़े पहन लिए। क्या आप जानते है वे कीमती कपड़े-गहने क्या हुए? उन लोभी साधुओं ने उसके कपड़े गहने तुरंत ले लिए। हड़प लिए। परन्तु मूलशंकर को उनका तनिक भी मोह न था।

ईश्वर की खोज में, मुक्ति की खोज में, मूलशंकर ने घर-परिजन का, माता-पिता भाई-बहनों का, त्याग तो किया ही, अपने पिता के धन वैभव को भी बड़ी सरलता पूर्वक त्याग दिया था। उसे दो चार कपड़े और कुछ सोने के गहनों का क्या मोह हो सकता था?

चाहे धन मिले, चाहे अपना धन भी हाथ से निकल जाए। इसकी उसे कुछ भी चिंता नहीं थी। वह धर्म पथ का पथिक बन गया था। वह वेद मार्ग का पथिक बन गया था। वह ईश्वर की खोज में निकल पड़ा था।

महर्षि दयानंद ने जगह जगह संस्कृत पाठशालाएं आरम्भ करवाई थी। इन पाठशालाओं को चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती थी। महर्षि दयानंद वेद भाष्य कर रहे थे। जिस को छपवाने के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः इन परोपकार के कार्यों के लिए महर्षि दयानंद धन दान स्वीकार करते थे। विशेष कर वेद भाष्य के लिए धन की अत्यंत आवश्यकता थी।

उन्ही दिनों की बात है, एक व्यक्ति ने जो किसी झंझट में फंसा था, महर्षि दयानंद के एक भक्त पं. कृष्णराम से कहा – आप स्वामी जी से कहें कि वे राज्य के अधिकारी से कह कर मेरा मामला हल करवा दें तो मैं वेद भाष्य के लिए स्वामी जी को बीस हजार रूपए की राशि भेंट करूँगा। जब स्वामी जी के कानों में यह बात पड़ी तब उन्होंने अत्यंत कठोर शब्दों में पं. कृष्णराम को मना कर दिया और कहा – इस प्रकार का लालच देकर अपना काम करवाने की बात करना भी बड़ा अन्याय है, अधर्म है। हाँ, यदि मेरे कहने से किसी व्यक्ति का धर्मानुसार कल्याण हो जाता है, तो मैं अवश्य ही कह दूंगा। परन्तु इस काम के लिए मैं पैसे लूँ यह तो उत्कोच है, अन्याय है।

महर्षि दयानंद के कहने से सर माधवराव ने उचित हस्तक्षेप किया और उस मामले का ठीक-ठीक समाधान हो गया। इसके लिए स्वामी दयानंद ने एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया। यद्यपि उन्हें संस्कृत पाठशालाओं और वेद भाष्य के प्रकाशन के लिए धन की आवश्यकता थी। वे धर्म पथ पर अडिग रहे।

किसी प्रकार की भी अनीति का, अन्याय का, वे तीव्र विरोध करते थे। धन के लोभ में अपने सिद्धांतों से, वैदिक मार्ग से, वे लेश मात्र भी विचलित होना स्वीकार नहीं करते थे। वैदिक सिद्धांतों की रक्षा के लिए वे सर्वस्व त्याग सकते थे।

एक बार महाराजा वेंकटगीरि ने महर्षि दयानंद से कहा - सर्वमान्य वैदिक सिद्धांतों को तो अपने भाषण में, अपने कार्यक्रम में प्रथम स्थान दें और उन वैदिक सिद्धांतों को जिन्हें जनता नहीं सुनना चाहती है पीछे रखें, गौण रूप में रखें, इस तरह छिपा कर रखें की जन साधारण उस पर दृष्टिपात न सके तो मैं वेद भाष्य के खर्चे के लिए पूरा धन अकेले ही एकत्र कर दूंगा। आपको इसके लिए इधर उधर भटकना नहीं पड़ेगा। महर्षि को यह बात कदापि सहन नहीं हुई। उन्होंने तुरंत कहा – क्या आपने मुझे दुकानदार समझ रखा है जो धन के लालच में पड़ कर मैं धर्म पथ को छोड़ दूँ।

ऐसे थे महर्षि दयानंद।



No comments:

Post a Comment