Friday, May 25, 2018

मूर्तिपूजा परिशिष्ट











मूर्तिपूजा परिशिष्ट







लेखक - पंडित बुद्धदेव मीरपुरी ( पुस्तक - मीरपुरी सर्वस्व )

प्रस्तुति - 📚 आर्य मिलन




▪️मूर्तिपूजा और स्वामी शंकर ▪️

स्वामी शंकराचार्य पौराणिकों में अवतार माने जाते हैं । उपनिषदों तथाशारीरक सूत्रों पर उन्होंने भाष्य भी किया है । वे भी मूर्तिपूजा समर्थक नहीं थे ।उन्होंने परापूजा या आत्मपूजा में लिखा है




🌻आनन्दे सच्चिदानन्दे निर्विकल्पैकरूपिणि ।

स्थितेऽद्वितीये भावे वै कथं पूजा विधीयते ।१।

जब वह परमात्मा सच्चिदानन्द है , तब उसकी कोई भी मूर्ति नहीं बनसकती । कारण यह है कि परमात्मा सत , चित तथा आनन्दस्वरूप है और मूर्ति नाशहोनेवाली , जड़ और आनन्दरहित है । जब मूर्ति नहीं बनती , पुन : उसकी पूजा कैसेहो सकती है ।




🌻पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।

स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धदस्याचमनं कुत : ।२।

भगवान् सर्वत्र परिपूर्ण हैं , पुन : उनका आह्वान क्यों करते हो ? जब वहसबका आधार है , उसको आसन पर कैसे बैठा सकते हैं ? मलरहित के पाँव कैसे धोसकते हो ? शुद्ध को आचमन कराना कैसे सङ्गत हो सकता है ?




🌻निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।

निरालम्बस्योपवीतं रम्यस्याभरणां कुतः ।३।

परमात्मा सर्वथा निर्मल है , फिर उसको रुनान आदि क्यों कराते हो ,सारा संसार उसके मध्य में है , उसे वस्त्र कैसे पहना सकते हैं । परमात्मा आलम्बनरहित है , फिर उसके लिए यज्ञोपवीत कैसा ? परमात्मा स्वय रमणीय है , पुन : उसकेलिए आभूषण कैसे ?




🌻 निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्यं निर्वासनस्य च ।

निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम् ।४।

निलेंप भगवान् को चन्दन का लेप क्यों लगाते हो , जब वह सुगन्ध कीइच्छा से रहित है , पुन : उसको पुष्प क्यों चढ़ाते हो , निर्गन्ध को धूप क्यों जलाते होतथा स्वयं प्रकाशमान के आगे दीपक क्यों जलाते हो ?




🌻 नित्यतृप्तस्य नैवेद्यं निष्कामस्य फलं कुतः ।

ताम्बूलं च विभो कुत्र नित्यानन्दस्य दक्षिणा ।५।

प्रदक्षिणा ह्यनन्तस्य चाद्वितीयस्य नो नतिः ।६।

नित्यतृप्त को भोग क्यों लगाते हो , निष्काम को फल कैसे , विभु कोताम्बूल क्यों , जब परमात्मा अनन्त है पुन : उसकी प्रदक्षिणा कैसे करते हो ?

उपर्युक्त श्लोकों में स्वामी शंकराचार्य जी ने कैसी प्रबल युक्तियों सेमूर्तिपूजा का खण्डन किया है । सर्वत्र परिपूर्ण , पूर्णकाम , फल इच्छारहित ,परमात्मा को भोग लगाना , स्नान कराना , कपड़े पहनाना , दीपक दिखलाना आदिअत्यन्त असङ्गत तथा बुद्धिरहित कार्य है










▪️शिवगीता▪️




🌻वेदैरशेषैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्धेदविदेव चाहम्।

न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्मदेहेन्द्रियबुद्धिरस्ति ॥

— अम० ६ . ५५

सम्पूर्ण वेद परमात्मा का गान करते हैं , वेदों का उपदेश परमात्मा ने हीकिया है , उस परमात्मा में देह के कारणभूत पाप तथा पुण्य भी नहीं हैं तथा उसकानाश भी नहीं होता । उसका जन्म नहीं होता , देह , इन्द्रिय , बुद्धि आदि का सम्बन्धभी उससे नहीं है ।

इस श्लोक में यह सिद्ध किया है कि जिस परमात्मा ने वेदों का उपदेशकिया है तथा जिसका वर्णन चारों वेदों में किया है वह परमात्मा जन्म - मरण केबन्धन से रहित है तथा उसका शरीर आदि भी नहीं है । जब वह शरीर से रहित हैफिर उसकी मूर्ति कैसे बन सकती है ?




🌻अज्ञानमूढा मुनयो वदन्ति पूजोपचारादिबलिक्रियाभि:।

तोषं गिरीशे भजतीति मिथ्या कुतस्त्वमूर्तस्य तु भोगलिप्सा ।३१।

अज्ञानी तथा मूढ़ यह कहते हैं कि धूप - दीपादि द्वारा पूजा करने सेपरमात्मा प्रसन्न हो जाते हैं , यह सब मिथ्या प्रलाप है । जब शरीराभाव से परमात्माकी मूर्ति नहीं है , फिर उसको भोग की इच्छा कैसे हो सकती है ?




🌻किंचिद् दलं वा चुलुकोदकं वा यस्त्वं महेश प्रतिगृह्म दत्से।

त्रेलोक्यलक्ष्मीमपि यज्जनेभ्य: सर्व त्वविद्याकृतमेव मन्ये ।३२।

जो परमात्मा हमें सम्पूर्ण संसार का ऐश्वर्य प्रदान करता है , पुन: उसपरमेश्वर को एक चुल्लु पानी चढ़ाना या उसे पत्ते चढ़ाना क्या अज्ञान नहीं है ।

शिवगीताकार कहते हैं ये सब अविद्या की बातें हैं ।







▪️उत्तरगीता का प्रमाण▪️




🌻तीथर्धानि तोयपूणनि देवान् पाषाणामृणमयान् ।

योगिनो न प्रपद्यन्ते आत्मज्ञानपरायणा: ।६।

सब तीर्थ पानी से परिपूर्ण है , सिवाय जल के वहाँ मुक्ति देनेवाली कोईभी बात नहीं है तथा पौराणिक लोगों ने मन्दिरों में जितने भी देवता स्थापित किये हुएहैं वे सब पत्थर या मिट्टी या धातुओं के बने हुए हैं । जो परमात्मा की पूजा करनेवालेयोगिजन हैं वे कभी भी इन पाषाणों की पूजा नहीं करते ।




🌻अग्रिदेव द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम् ।

प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम् । -अ०३.७

अग्निहोत्र करना द्विजमात्र का धर्म है तथा मुनियों का कर्तव्य है । कि वेहृदय में परमात्मा का स्मरण करें । अल्पबुद्धि लोग मूर्तिपूजा करते हैं । जो बुद्धिमानहैं वे तो परमात्मा को सर्वव्यापक मानते हुए कभी पाषाणपूजा नहीं करते ।




इन प्रमाणों द्वारा उत्तरगीता में मूर्तिपूजा का कैसा प्रबल खण्डन किया है। जैसे शिवगीता तथा उत्तरगीता में पाषाण आदि की मूर्तियों का खण्डन किया है ,वैसे अन्य गीताओं में भी मूर्तिपूजा का खण्डन आता है ।




लेखक - पंडित बुद्धदेव मीरपुरी ( पुस्तक - मीरपुरी सर्वस्व )

प्रस्तुति - 📚 आर्य मिलन

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