स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश में जाटजी और पोप जी की कहानी
(यह कथा यह सिद्ध करती है कैसे ब्राह्मणों ने जनसाधारण को पुराणों के नाम पर मुर्ख बनाया। धन्य को स्वामी दयानन्द का जिन्होंने इस पाखंड से हमें मुक्त करवाया)
एक जाट था । उसके घर में एक गाय बहुत अच्छी और बीस सेर दूध देने वाली थी । दूध उसका बड़ा स्वादिष्ट होता था । कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था । उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढ़ा बाप मरने लगेगा तब इसी गाय का संकल्प करा लूंगा । कुछ दिन में दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया । जीभ बन्द हो गई और खाट से भूमि पर ले लिया अर्थात् प्राण छोड़ने का समय आ पहुंचा । उस समय जाट के इष्ट-मित्र और सम्बन्धी भी उपस्थित हुए थे । तब पोपजी पुकारा कि "यजमान ! अब तू इसके हाथ से गोदान करा ।" जाट 10 रुपया निकाल कर पिता के हाथ में रखकर बोला - "पढ़ो संकल्प !" पोपजी बोला - "वाह-वाह ! क्या बाप बारम्बार मरता है ? इस समय तो साक्षात् गाय को लाओ, जो दूध देती हो, बुड्ढी न हो, सब प्रकार उत्तम हो । ऐसी गौ का दान करना चाहिये ।"
जाटजी - हमारे पास तो एक ही गाय है, उसके बिना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह न हो सकेगा इसलिए उसको न दूंगा । लो 20 रुपये का संकल्प पढ़ दे ओ ! और इन रुपयों से दूसरी दुधार गाय ले लेना ।
पोपजी - वाहजी वाह ! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो ? क्या अपने बाप को वैतरणी नदी में डुबाकर दु:ख देना चाहते हो । तुम अच्छे सुपुत्र हुए ? तब तो पोपजी की ओर सब कुटुम्बी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया । सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान उसी पोपजी को दिला दिया । उस समय जाट कुछ भी न बोला । उसका पिता मर गया और पोप जी बच्छा सहित गाय और दोहने की बटलोही को ले अपने घर में गाय-बच्छे को बाँध बटलो ही धर पुन: जाट के घर आया और मृतक के साथ श्मशान भूमि में जाकर दाहकर्म्म कराया । वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई । पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा । महाब्राह्मणों ने भी लूटा और भुक्खड़ों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग निर्वाह किया । चौदहवें दिन प्रात:-काल पोपजी के घर पहुँचा । देखा तो पोपजी गाय दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी । इतने में ही जाटजी पहुँचे । उसको देख पोपजी बोला, आइये ! यजमान बैठिये !
जाटजी - तुम भी पुरोहित जी इधर आओ ।
पोपजी - अच्छा दूध धर आऊँ ।
जाटजी - नहीं-नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ ।
पोपजी बिचारे जा बैठे और बटलोई सामने धर दी ।
जाटजी - तुम बड़े झूठे हो ।
पोपजी - क्या झूठ किया ?
जाटजी - कहो, तुमने गाय किसलिए ली थी ?
पोपजी - तुम्हारे पिता के वैतरणी नदी तरने के लिए ।
जाटजी - अच्छा तो तुमने वहाँ वैतरणी के किनारे पर गाय क्यों न पहुँचाई ? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम अपने घर बाँध बैठे । न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे ?
पोपजी - नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बनकर उसको उतार दिया होगा ।
जाटजी - वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है ?
पोपजी - अनुमान से कोई तीस करोड़ कोश दूर है । क्योंकि उञ्चास कोटि योजन पृथ्वी है और दक्षिण नैऋत दिशा में वैतरणी नदी है ।
जाटजी - इतनी दूर से तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ ?
पोपजी - हमारे पास 'गरुड़पुराण' के लेख के बिना डाक वा तारवर्की दूसरा कोई नहीं ।
जाटजी - इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें ?
पोपजी - जैसे हम सब मानते हैं ।
जाटजी - यह पुस्तक तुम्हारे पुरषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिए बनाया है । क्योंकि पिता को बिना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं । जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुंचा दूंगा और उनको पार उतार, पुन: गाय को घर में ले आ दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ ! दूध की भरी हुई बटलोही, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला ।
पोपजी - तुम दान देकर लेते हो, तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा ।
जाटजी - चुप रहो ! नहीं तो तेरह दिन दूध के बिना जितना दु:ख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूंगा । तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले अपने घर पहुँचे ।
जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले ।
सन्दर्भ- सत्यार्थ प्रकाश:आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, 1975 पृष्ठ 234-36
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