Monday, July 29, 2013

धर्म और उसकी आवश्यकता




धर्म की परिभाषा क्या है?

१. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना है। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात् जो धारण किया जाये वह धर्म है। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति है, वह धर्म है।

२. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण है लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता है।

३. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया है। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म है और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म है।

४. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा

धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९

अर्थात् धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।

दूसरे स्थान पर कहा है आचार:परमो धर्म १/१०८

अर्थात सदाचार परम धर्म है। 

५. महाभारत में भी लिखा है- 

धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:

अर्थात् जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई हैं वह धर्म है।

६. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महामुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया है-

यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:

अर्थात् जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती है, वह धर्म है।

७. स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा

जो पक्षपात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म है। -सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास

पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य

इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश

धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है अथवा बाधक है इसको जानने के लिए हमें सबसे पहले धर्म और मजहब में अंतर को समझना पड़ेगा। कार्ल मार्क्स ने जिसे धर्म के नाम पर अफीम कहकर निष्कासित कर दिया था वह धर्म नहीं अपितु मज़हब था। कार्ल मार्क्स ने धर्म ने नाम पर किये जाने वाले रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि को धर्म की संज्ञा दी थी। जबकि यह धर्म नहीं अपितु मज़हब का स्वरुप था।

धर्म और मजहब में अंतर क्या है?

प्राय: अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लोग धर्म और मज़हब को एक ही समझते हैं।

मज़हब अथवा मत-मतान्तर अथवा पंथ के अनेक अर्थ हैं जैसे वह रास्ता ही स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का है और जो कि मज़हब के प्रवर्तक ने बताया है। अनेक जगहों पर ईमान अर्थात विश्वास के अर्थों में भी आता है।

१. धर्म और मज़हब के समान अर्थ नहीं हैं और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: है।

२. धर्म क्रियात्मक वस्तु है, मज़हब विश्वासात्मक वस्तु है।

३. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक है और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम है। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक है। मज़हबों का अनेक व भिन्न भिन्न होना तथा परस्पर विरोधी होना उनके मनुष्य कृत अथवा बनावटी होने का प्रमाण है।

४. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं वह सभी मानव जाति के लिए एक समान है और कोई भी सभ्य मनुष्य उसका विरोधी नहीं हो सकता। मज़हब अनेक हैं और केवल उसी मज़हब को मानने वालों द्वारा ही स्वीकार होते हैं। इसलिए वह सार्वजानिक और सार्वभौमिक नहीं हैं। कुछ बातें सभी मजहबों में धर्म के अंश के रूप में हैं इसलिए उन मजहबों का कुछ मान बना हुआ है।

५. धर्म सदाचार रूप है अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य है। परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं है। अर्थात् जिस तरह धर्म के साथ सदाचार का नित्य सम्बन्ध है उस तरह मजहब के साथ सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं है। क्यूंकि किसी भी मज़हब का अनुनायी न होने पर भी कोई भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन सकता है।

परन्तु आचार सम्पन्न होने पर भी कोई भी मनुष्य उस वक्त तक मज़हबी अथवा पन्थाई नहीं बन सकता जब तक उस मज़हब के मंतव्यों पर ईमान अथवा विश्वास नहीं लाता। जैसे कि कोई कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च कोटि का सदाचारी क्यूँ न हो वह जब तक हज़रात ईसा और बाइबिल अथवा हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान नहीं लाता तब तक ईसाई अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता।

६. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है अथवा धर्म अर्थात् धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है। दूसरे शब्दों में धर्म और मनुष्यत्व पर्याय है। क्यूंकि धर्म को धारण करना ही मनुष्यत्व है। कहा भी गया है-

खाना,पीना,सोना,संतान उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और पशुओं के एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष है जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता है। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान है। परन्तु मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता है। दूसरे शब्दों में मज़हब अथवा पंथ पर ईमान लेन से मनुष्य उस मज़हब का अनुनायी अथवा ईसाई अथवा मुसलमान बनता है नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता है।

७. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता है परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मज़हबी बनना अनिवार्य बतलाता है। और मुक्ति के लिए सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मज़हब की मान्यताओं का पालन बतलाता है।

जैसे अल्लाह और मुहम्मद साहिब को उनके अंतिम पैगम्बर मानने वाले जन्नत जायेगे चाहे वे कितने भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर मुसलमान चाहे कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ न हो वह दोज़ख अर्थात नर्क की आग में अवश्य जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर अल्लाह और रसूल पर अपना विश्वास नहीं लाया है।

८. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं है क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं है- न लिंगम धर्मकारणं

अर्थात् लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं है।

परन्तु मज़हब के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य है जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाड़ी रखना अनिवार्य है।

९. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता है परन्तु मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता है क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें सिखाया जाता है।

१०. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य को स्वतंत्र और आत्म स्वावलंबी बनाता है क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट की आवश्यकता नहीं बताता। परन्तु मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर आश्रित बनाता है क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता।

११. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता है।

१२. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता है जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता है।

१३. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता है तथा एकता का पाठ पढ़ाता है। परन्तु मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के कारण अपने पृथक-पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते और एकता को मिटाते है।

१४. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता है जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर अन्धविश्वास फैलाते हैं।

धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके के श्रेष्ठ कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता है, इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण है।

डॉ विवेक आर्य



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