Friday, July 5, 2013

महात्मा गाँधी, इस्लाम और आर्यसमाज




महात्मा गाँधी,इस्लाम और आर्यसमाज


Mahatma and Islam - Faith and Freedom: Gandhi in History के नाम से मुशीरुल हसन नामक लेखक की नई पुस्तक प्रकाशित हुई हैं जिसमें लेखक ने इस्लाम के सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के विचार प्रकट किये हैं। इस पुस्तक के प्रकाश में आने से महात्मा गाँधी जी के आर्यसमाज से जुड़े हुए पुराने प्रसंग मस्तिष्क में पुन: स्मरण हो उठे। स्वामी श्रद्धानंद जी की कभी मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाले महात्मा गाँधी जी का स्वामी जी से कांग्रेस द्वारा दलित समाज का उद्धार ,इस्लाम,शुद्धि और हिन्दू संगठन विषय की लेकर मतभेद था। महात्मा गाँधी ने आर्यसमाज, स्वामी दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और स्वामी श्रद्धानंद जी के विरुद्ध लेख २९ मई १९२४ को "हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य , उसका कारण और उसकी चिकित्सा"के नाम से लिखा था। इस लेख में भारत भर में हो रहे हिन्दू-मुस्लिम दंगो का कारण आर्य समाज को बताया गया था। इस लेख का सबसे अधिक दुष्प्रभाव इस्लाम को मानने वालो की सोच पर पड़ा था क्यूंकि महात्मा गाँधी का समर्थन मिलने से उन्हें लगने लगा था की जो भी नैतिक अथवा अनैतिक कार्य वे इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए कर रहे हैं ,वे उचित हैं एवं उनके अनैतिक कार्यों का विरोध करने वाला आर्यसमाज असत्य मार्ग पर हैं इसीलिए महात्मा गाँधी भी आर्यसमाज और उनकी मान्यताओं का विरोध कर रहे हैं। सब पाठकगन शायद जानते ही होगे की महात्मा गाँधी द्वारा रंगीला रसूल के विरुद्ध लेख लिखने के बाद ही मुस्लिम समाज के कुछ कट्टरपंथी तत्व महाशय राजपाल की जान के प्यासे हो गये थे जिसका परिणाम उनकी शहादत और इलमदीन की फाँसी के रूप में निकला था। महात्मा गाँधी के आर्यसमाज के विरुद्ध लिखे गए लेख का प्रतिउत्तर आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने दिया जैसे लाला लाजपत राय , मिस्टर केलकर , मिस्टर सी.एस.रंगा अय्यर , महात्मा टी . एल . वासवानी , स्वामी सत्यदेव जी , पंडित चमूपति जी आदि।





आर्य समाज की और से एक डेलीगेशन के रूप में पंडित आर्यमुनिजी, पंडित रामचन्द्र देहलवी जी, पंडित इन्द्र जी विद्यावाचस्पति जी स्वयं गाँधी जी से उनके लेख के विषय में मिले परन्तु गाँधी जी ने उत्तर देने के स्थान पर टाल मटोल कर मौन धारण कर लिया था।





कालांतर में सार्वदेशिक सभा दिल्ली के सदस्य श्री ज्ञानचंद आर्य जी ने अत्यंत रोचक पुस्तक उर्दू में "इजहारे हकीकत" के नाम से लिखी जिसका हिन्दू अनुवाद"सत्य निर्णय" के नाम से १९३३में छापा गया था। इस पुस्तक में लेखक ने महात्मा गाँधी द्वारा जो आरोप लगाये गये थे न केवल उनका यथोचित समाधान किया हैं अपितु गाँधी जी की हिन्दू धर्म के विषय में जो भी मान्यता थी उनका उचित विश्लेषण किया हैं।





आर्यसमाज के प्रकाण्ड विद्वान पंडित धर्मदेव जी विद्यामार्तंड द्वारा आर्यसमाज और महात्मा गाँधी के शीर्षक से एक और महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी गई थी जिसका पुन: प्रकाशन घुड़मल ट्रस्ट हिंडौन सिटी राजस्थान ने हाल ही में किया हैं।





गाँधी जी के शुद्धि विषयक विचार आर्यसमाज की विचारधारा के प्रतिकूल थे। गाँधी जी एक और शुद्धि से हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा देना मानते थे दूसरी और मुसलमानों द्वारा गैर मुसलमानों की तब्लोग करने पर चुप्पी धारण कर लेते थे। १९२१ के मालाबार के हिन्दू मुस्लिम दंगों के समय तो आर्यसमाज खिलाफत आन्दोलन के लिए मुसलमानों का साथ दे रहा था, फिर शुद्धि को हिन्दू मुस्लिम दंगों का कारण बताना असत्य नहीं तो और क्या था? मुल्तान में हुए भयंकर दंगों का कारण ताजिये के ऊपर बंधी डंडी का टेलीफोन की तार से उलझ कर टूट जाना था जिससे आक्रोशित होकर मुस्लिम दंगाइयों ने निरीह हिन्दू जनता पर भयंकर अत्याचार किये थे। कोहाट के दंगों का कारण एक हिन्दू लड़की को कुछ हिन्दू एक मुस्लिम की गिरफ्त से छुड़वा लाये थे जिससे चिढ़ कर मुसलमानों ने हथियार सहित हिन्दू बस्तीयों पर हमला बोल दिया जिससे हिन्दू जनता को कोहाट से भाग कर अपने प्राण बचने पड़े थे। एक प्रकार के अन्य दंगों का कारण खिलाफ़त आन्दोलन के कारण बदली हुई मुस्लिम मनोवृति, अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो की निति, हिन्दू संगठन का न होना एवं तत्कालीन कांग्रेस द्वारा नर्म प्रतिक्रिया दिया जाना था नाकि सत्यार्थ प्रकाश का १४ समुल्लास , आर्यसमाज द्वारा चलाया गया शुद्धि आन्दोलन, शास्त्रार्थ एवं लेखन कार्य था।





विस्तार भय से हम गाँधी की के विचारों को इस लेख में केवल शुद्धि विषय तक ही सीमित कर रहे हैं क्यूंकि जहाँ एक और गाँधी जी ने आर्यसमाज के शुद्धि मिशन की भरपूर आलोचना की थी कालांतर में उन्ही के सबसे बड़े सुपुत्र हीरालाल गाँधी के मुस्लमान बन जाने पर आर्यसमाज द्वारा ही शुद्धि द्वारा वापिस हिन्दू धर्म में दोबारा से शामिल किया गया था।





हीरालाल के धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन जाने पर महात्मा गाँधी जी का व्यक्तव्य





(सन्दर्भ-सार्वदेशिक पत्रिका जुलाई अंक १९३६)





महात्मा गाँधी के सबसे बड़े पुत्र हीरालाल गाँधी तारीख २८ मई को नागपुर में गुप्त रीती से मुस्लमान बनाये गये हैं और नाम अब्दुल्लाह गाँधी रखा गया हैं तथा २९ मई को बम्बई की जुम्मा मस्जिद में उनके मुस्लमान बनने की घोषणा की गई।





कुछ दिन हुए यह खबर थी की वे ईसाई होने वाले हैं पर बाद में हीरालाल गाँधी ने स्वयँ ईसाई न होने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा हैं की वे अपने पिता महात्मा गाँधी से मतभेद होने के कारण वे मुस्लमान हो गये हैं।





महात्मा गाँधी जी का व्यक्तव्य





बंगलौर २ जून। अपने बड़े लड़के हीरालाल गाँधी के धर्म परिवर्तन के सिलसिले में महात्मा गाँधी ने मुस्लमान मित्रों के नाम एक अपील प्रकाशित की हैं। अपील का आशय निम्न हैं:-





"पत्रों में समाचार प्रकाशित हुआ हैं की मेरे पुत्र हीरालाल के धर्म परिवर्तन की घोषणा पर जुम्मा मस्जिद में मुस्लिम जनता ने अत्यंत हर्ष प्रकट किया हैं। यदि उसने ह्रदय से और बिना किसी सांसारिक लोभ के इस्लाम धर्म को स्वीकार किया होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। क्यूंकि मैं इस्लाम को अपने धर्म के समान ही सच्चा समझता हूँ किन्तु मुझे संदेह हैं की वह धर्म परिवर्तन ह्रदय से तथा बगैर किसी सांसारिक लाभ की किया गया हैं।"





शराब का व्यसन





जो भी मेरे पुत्र हीरालाल से परिचित हैं वे जानते हैं की उसे शराब और व्यभिचार की लत पड़ी हैं। कुछ समय तक वह अपने मित्रों की सहायता पर गुजारा करता रहा। उसने कुछ पठानों से भी भरी सूद पर कर्ज लिया था। अभी कुछ दिनों की बात हैं की बम्बई में पठान लेनदारों के कारण उसको जीवन ले लाले पड़े हुए थे। अब वह उसी शहर में सूरमा बना हुआ हैं। उसकी पत्नी अत्यंत पतिव्रता थी।वह हमेशा हीरालाल के पापों को क्षमा करती रही। उसके ३ संतान हैं, २ लड़की और एक लड़का , जिनके लालन-पालन का भर उसने बहुत पहले ही छोड़ रखा हैं।





धर्म की नीलामी





कुछ सप्ताह पूर्व ही उसने हिन्दुओं के हिन्दुत्व के विरुद्ध शिकायत करके ईसाई बनने की धमकी दी थी। पत्र की भाषा से प्रतीत होता था हैं की वह उसी धर्म में जायेगा जो सबसे ऊँची बोली बोलेगा। उस पत्र का वांछित असर हुआ। एक हिन्दू काउंसिलर के मदद से उसे नागपुर मुन्सीपालिटी में नौकरी मिल गई। इसके बाद उसने एक और व्यक्तव्य प्रकाशित किया और हिन्दू धर्म के प्रति पूर्ण आस्था प्रकट की।





आर्थिक लालसा





किन्तु घटना कर्म से मालूम पड़ता हैं की उसकी आर्थिक लालसाएँ पूरी नहीं हुई और उसको पूरा करने के लिए उसने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया हैं। गत अप्रैल जब मैं नागपुर में था वह मुझ से तथा अपनी माता से मिलने आया और उसने मुझे बताया की किस प्रकार धर्मों के मिशनरी उसके पीछे पड़े हुए हैं। परमात्मा चमत्कार कर सकता हैं। उसने पत्थर दिलों को भी बदल दिया हैं और एक क्षण में पापियों को संत बना दिया हैं। यदि मैं देखता की नागपुर की मुलाकात में और हाल की शुक्रवार की घोषणा में हीरालाल में पश्चाताप की भावना का उदय हुआ हैं और उसके जीवन में परिवर्तन आ गया हैं, तथा उसने शराब तथा व्यभिचार छोड़ दिया हैं तो मेरे लिए इससे अधिक प्रसन्नता की और क्या बात होती?





जीवन में कोई परिवर्तन नहीं





लेकिन पत्रों की ख़बरें इसकी कोई गवाही नहीं देती। उसका जीवन अब भी यथापूर्व हैं। यदि वास्तव में उसके जीवन में कोई परिवर्तन होता तो वह मुझे अवश्य लिखता और मेरे दिल को खुश करता। मेरे सब पुत्रों को पूर्ण विचार स्वातंत्र्य हैं। उन्हें सिखाया गया हैं की वे सब धर्मों को इज्जत की दृष्टी से देखे। हीरालाल जनता हैं यदि उसने मुझे यह बताया होता की इस्लाम धर्म से मेरे जीवन को शांति मिली हैं तो में उसके रास्ते में कोई बाधा न डालता। किन्तु हम में से किसी को भी , मुझे या उसके २४ वर्षीय पुत्र को जो मेरे साथ रहता हैं उसकी कोई खबर नहीं हैं।





मुसलमानों को इस्लाम के सम्बन्ध में मेरे विचार ज्ञात हैं। कुछ मुसलमानों ने मुझे तार दिया हैं की अपने लड़के की तरह मैं भी संसार के सबसे सच्चे धर्म इस्लाम को ग्रहण कर लूँ।





गाँधी जी को चोट





मैं मानता हूँ की इन सब बातों से मेरे दिल को चोट पहुँचती हैं। मैं समझता हूँ की जो लोग हीरालाल के धर्म के जिम्मेदार हैं वे अहितयात से काम नहीं ले रहे जैसा की ऐसी अवस्था में करना चाहिए।





इस्लाम को हानि





हीरालाल के धर्म परिवर्तन से हिंदु धर्म को कोई क्षति नहीं हुई उसका इस्लाम प्रवेश उस धर्म की कमजोरी सिद्ध होगा। यदि उसका जीवन पहिले की भांति ही बुरा रहा।





धर्म परिवर्तन मनुष्य और उसके स्रष्टा से सम्बन्ध रखता हैं। शुद्ध ह्रदय के बिना किया हुआ धर्म परिवर्तन मेरी सम्मति में धर्म और ईश्वर का तिरस्कार हैं। धार्मिक मनुष्य के लिए विशुद्ध ह्रदय से न किया हुआ धर्म परिवर्तन दुःख की वस्तु हैं , हर्ष की नहीं।





मुसलमानों का कर्तव्य





मेरा मुस्लिम मित्रों को इस प्रकार लिखने का यह अभिप्राय हैं की वे हीरालाल के अतीत जीवन को ध्यान में रखे और यदि वे अनुभव करें की उसका धर्म परिवर्तन आत्मिक भावना से रहित हैं तो वे उसको अपने धर्म से बहिष्कृत कर दें, तथा इस बात को देखे की वह किसी प्रलोभन में न पड़े और इस प्रकार समाज का धर्म भीरु सदस्य बन जाये। उन्हें यह बात चाहिये की शराब ने उसका मस्तिष्क ख़राब कर दिया हैं वह सादअसद विवेक की बुद्धि खोखली कर डाली हैं। वह अब्दुल्ला हैं या हीरालाल इससे मुझे कोई मतलब नहीं। यदि वह अपना नाम बदल कर ईश्वरभक्त बन जाता हैं तो मुझे क्या आपत्ति हैं क्यूंकि अर्थ तो दोनों नामों का वही हैं।





(( महात्मा गाँधी ने अपने लेख मेंहीरालाल के इस्लाम ग्रहण करने पर न केवल अप्रसन्नता जाहिर की हैं अपितु उसे उसकी बुरी आदतों के कारण वापिस हिन्दू बन जाने की सलाह भी दी हैं। गाँधी जी इस लेख में मुसलमानों द्वारा किये जा रहे तबलीग कार्य की निंदा करने से बच रहे हैं परन्तु उनकी इस वेदना को उनके भावों द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता हैं))





माता कस्तूरबा बा का अपने पुत्र के नाम मार्मिक पत्र -तुम्हारे आचरण से मेरे लिए जीवन भारी हो गया हैं





मेरे प्रिय पुत्र हीरालाल ,





मैंने सुना हैं की तुमको मद्रास में आधी रात में पुलिस के सिपाही ने शराब के नशे में असभ्य आचरण करते देखा और गिरफ्तार कर लिया। दूसरे दिन तुमको अदालत में पेश किया गया। निस्संदेह वे भले आदमी थे , जिन्होंने तुम्हारे साथ बड़ी नरमाई का व्यवहार किया। तुमको बहुत साधारण सजा देते हुए मजिस्ट्रेट ने भी तुम्हारे पिता के प्रति आदर का भाव जाहिर किया। जबसे मैंने इस घटना का समाचार सुना हैं मेरा दिल बहुत दुखी हैं। मुझे नहीं मालूम की तुम उस रात्रि को अकेले थे या तुम्हारे कुसाथी भी तुम्हारे साथ थे?कुछ भी तुमने जो किया ठीक नहीं किया। मेरी समझ में नहीं आता की मैं तुम्हारे इस बारे में क्या कहूँ? मैं वर्षों से तुमको समझाती आ रही हूँ की तुमको अपने पर कुछ काबू रखना चाहिए। पर, तुम दिन पर दिन बिगड़ते ही जाते हो? अब तो मेरे लिए तुम्हारा आचरण इतना असह्य हो गया हैं की मुझे अपना जीवन ही भरी मालूम होने लगा हैं। जरा सोचो तो तुम इस बुढ़ापे में अपने माता पिता को कितना कष्ट पहुँचा रहे हो? तुम्हारे पिता किसी को कुछ भी नहीं कहते, पर मैं जानती हूँ की तुम्हारे आचरण से उनके ह्रदय पर कैसी चोटें लग रही हैं? उनसे उनका ह्रदय टुकड़े टुकड़े हो रहा हैं। तुम हमारी भावनाओं को चोट पहुँचा कर बहुत बड़ा पाप कर रहे हो। हमारे पुत्र होकर भी तुम दुश्मन का सा व्यवहार कर रहे हो। तुमने तो ह्या शर्म सबकी तिलांजलि दे दी हैं। मैंने सुना हैं की इधर अपनी आवारा गर्दी से तुम अपने महान पिता का मजाक भी उड़ाने लग गये हो। तुम जैसे अकलमंद लड़के से यह उम्मीद नहीं थी। तुम महसूस नहीं करते की अपने पिता की अपकीर्ति करते हुए तुम अपने आप ही जलील होते हो। उनके दिल में तुम्हारे लिए सिवा प्रेम के कुछ नहीं हैं। तुम्हें पता हैं की वे चरित्र की शुद्धि पर कितना जोर देते हैं, लेकिन तुमने उनकी सलाह पर कभी ध्यान नहीं दिया। फिर भी उन्होंने तुम्हें अपने पास रखने, पालन पोषण करने और यहाँ तक की तुम्हारी सेवा करने के लिए रजामंदी पप्रगट की। लेकिन तुम हमेशा कृतघ्नी बने रहे। उन्हें दुनिया में और भी बहुत से काम हैं। इससे ज्यादा और तुम्हारे लिये वे क्या करे?वे अपने भाग्य को कोस लेते हैं। परमात्मा ने उन्हें असीम इच्छा शक्ति दी हैं और परमात्मा उन्हें यथेच्छ आयु दे की वे अपने मिशन को पूरा कर सकें। लेकिन मैं तो एक कमजोर बूढ़ी औरत हूँ और यह मानसिक व्यथा बर्दाश्त नहीं होती। तुम्हारे पिता के पास रोजाना तुम्हारे व्यवहार की शिकायतें आ रही हैं उन्हें वह सब कड़वी घूंट पीनी पड़ती हैं। लेकिन तुमने मेरे मुँह छुपाने तक को कही भी जगह नहीं छोड़ी हैं। शर्म के मारे में परिचितों या अपरिचितों में उठने-बैठने लायक भी नहीं रही हूँ। तुम्हारे पिता तुम्हें हमेशा क्षमा कर देते हैं, लेकिन याद रखो, परमेश्वर तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगे।





मद्रास में तुम एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के मेहमान थे। परन्तु तुमने उसके आतिथ्य का नाजायज फायदा उठाया और बड़े बेहूदा व्यवहार किये। इससे तुम्हारे मेजबान को कितना कष्ट हुआ होगा? प्रतिदिन सुबह उठते ही मैं काँप जाती हूँ की पता नहीं आज के अखबार में क्या नयी खबर आयेगी? कई बार मैं सोचती हूँ की तुम कहा रहते हो? कहा सोते हो और क्या खाते हो? शायद तुम निषिद्द भोजन भी करते हो। इन सबको सोचते हुए बैचैनी में पलकों पर रातें काट देती हूँ। कई बार मेरी इच्छा तुमको मिलने की होती हैं लेकिन मुझे नहीं सूझता की मैं तुम्हे कहा मिलूँ? तुम मेरे सबसे बड़े लड़के हो और अब पचासवे पर पहुँच रहे हो। मुझे यह भी दर लगता रहता हैं की कहीं तुम मिलने पर मेरीबेइज्जाति न कर दो।





मुझे मालूम नहीं की तुमने अपने पूर्वजों के धर्म को क्यूँ छोड़ दिया हैं , लेकिन सुना हैं तुम दुसरे भोले भालेआदमियों को अपना अनुसरण करने के लिए बहकाते फिरते हो? क्या तुम्हें अपनी कमिया नहीं मालूम? तुम 'धर्म' के विषय में जानते ही क्या हो? तुम अपनी इस मानसिक अवस्था में विवेक बुद्धि नहीं रख सकते? लोगों को इस कारण धोखा हो जाता हैं क्यूंकि तुम एक महान पिता के पुत्र हो। तुम्हें धर्म उपदेश का अधिकार ही नहीं क्यूंकि तुम तो अर्थ दासहो। जो तुम्हें पैसा देता रहे तुम उसी के रहते हो। तुम इस पैसे से शराब पीते हो और फिर प्लेटफार्म पर चढ़कर लेक्चर फटकारते हो। तुम अपने को और अपनी आत्मा को तबाह कर रहे हो। भविष्य में यदि तुम्हारी यही करतूते रही तो तुम्हे कोई कोड़ियों के भाव भी नहीं पूछेगा। इससे मैं तुम्हें देती हूँ की जरा डरो , विचार करो और अपनी बेवकूफी से बाज आओ। मुझे तुम्हारा धर्म परिवर्तन परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं हैं। लेकिन जब मैंने पत्रों में पढ़ा कि तुम अपना सुधार करना चाहते हो तो मेरा अंत कारन इस बात से अलाहादित हो गया की अब तुम ठीक जिंदगी बसर करोगे, लेकिन तुमने तो उन सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अभी बम्बई में तुम्हारे कुछ पुराने मित्रों और शुभ चाहने वालों ने तुम्हे पहले से भी बदतर हालत में देखा हैं। तुम्हें यह भी मालूम हैं की तुम्हारी इन कारस्तानियों सेतुम्हारे पुत्र को कितना कष्ट पहुँच रहा हैं। तुम्हारी लड़किया और तुम्हारा दामाद सभी इस दुःख भार को सहने में असमर्थ हो रहे हैं, जो तुम्हारी करतूतों से उन्हें होता हैं।





जिन मुसलमानों ने हीरालाल के मुस्लमान बनने और उसकी बाद की हरकतों में रूचि दिखाई हैं, उनको संबोधन करते हुए श्रीमती गाँधी लिखती हैं-





"आप लोगों के व्यवहार को मैं समझ नहीं सकी। मुझे तो सिर्फ उन लोगों से कहना हैं, जो एन दिनों मेरे पुत्र की वर्तमान गतिविधियों में तत्परता दिखा रहे हैं। "मैं जानती हूँ की मुझे इससे प्रसन्नता भी हैं की हमारे चिर परिचित मुस्लमान मित्रों और विचारशील मुसलमानों ने इस आकस्मिक घटना की निंदा की हैं। आज मुझे उच्च मना डॉ अंसारी की उपस्थित का अभाव बहुत खल रहा हैं, वे यदि होते तो आप लोगों और मेरे पुत्र को सत्परामर्श देते, मगर उनके समान ही ओर प्रभावशाली तथा उदार मुस्लमान हैं, यद्यपि उनसे मैं सुपरिचित नहीं हूँ, जोकि मुझे आशा हैं,





तुमको उचित सलाह देंगे।मेरे लड़के को सुधारने की अपेक्षा मैं में देखती हूँ की इस नाम मात्र के धर्म परिवर्तन से उसकी आदतें बद से बदतर हो गई हैं। आपको चाहिए की आप उसको उसकी बुरी आदतों के लिए डांटे और उसको उलटे रास्ते से अलग करें। परन्तु मुझे यह बताया गया हैं की आप उसे उसी उलटे मार्ग पर चलने के लिए बढ़ावा देते हैं। कुछ लोगों ने मेरे लड़के को"मौलवी" तक कहना शुरू कर दिया है। क्या यह उचित हैं? क्या आपका धर्म एक शराबी को मौलवी कहने का समर्थन करता हैं? मद्रास में उसके असद आचरण के बाद भी स्टेशन पर कुछ मुस्लमानउसको विदाई देने आये। मुझे नहीं मालूम उसको इस प्रकार का बढ़ावा देने में आप क्या ख़ुशी महसूस करते हैं। यदि वास्तव में आप उसे अपना भाई मानते हैं, तो आप कभी भी ऐसा नहीं करेगे, जैसा की कर रहे हैं, वह उसके लिए फायदेमंद नहीं हैं। पर यदि आप केवल हमारी फजीहत करना चाहते हैं तो मुझे आप लोगो को कुछ भी नहीं कहना हैं। आप जितनी भी बुरे करना चाहे कर सकते हैं। लेकिन एक दुखिया और बूढ़ी माता की कमजोर आवाज़ शायद आप में से कुछ एक की अन्तरात्मा को जगा दे। मेरा यह फर्ज हैं की मैं वह बात आप से भी कह दूँ जो मैं अपने पुत्र से कहती रहती हूँ। वह यह हैं की परमात्मा की नज़र में तुम कोई भला काम नहीं कर रहे हो।





(कस्तूरबा बा के हीरालाल गाँधी के नाम लिखे गये पत्र को पढ़कर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से इस हीरालाल के मुस्लमान बनने की तीव्र आलोचना की हैं एवं समझदार मुसलमानों से हीरालाल को समझाने की सलाह दी हैं)




हीरालाल गाँधी को इस्लाम से धोखा और आर्यसमाज द्वारा उनकी शुद्धि




अब्दुल्लाह बनने के लिए हीरालाल गाँधी को बड़े बड़े सपने दिखाए गये थे। गाँधी जी ने तो लिखा ही था की जो सबसे बड़ी बोली लगाएगा हीरालाल उसी का धर्म ग्रहण कर लेगा। हीरालाल के अब्दुल्लाह बनने के समाचार को बड़े जोर शोर से मुस्लिम समाज द्वारा प्रचारित किया गया। ऐसा लगता था जैसे कोई बड़ा मोर्चा उनके हाथ आ गया हो। हीरालाल की आसानी से रुपया मिलने के कारण उसकी हालत बद से बदतर हो गई। उनको मुस्लमान बनाने के पीछे यह उद्देश्य कदापि नहीं था की उनके जीवन में सुधार आये, उनकी गलत आदतों पर अंकुश लग सके परन्तु गाँधी जी को नीचा दिखाना था, हिन्दू समाज को नीचा दिखाना था उन्हें इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना था। अपने नये अवतार में हरिलाल ने अनेक स्थानों का दौरा किया एवं अपनी तकरीरों में इस्लाम और पाकिस्तान की वकालत की। उस समय हरिलाल कानपुर में थे। उन्होंने एक सभा में भाषण देते हुए कहा '' अब मैं हरिलाल नहीं बल्कि अब्दुल्ला हूँ। मैं शराब छोड़ सकता हूँ लेकिन इसी शर्त पर किबापू और बा दोनों इस्लाम कबूल कर लें।




आर्यसमाज द्वारा कस्तूरबा गाँधी की अपील पर हीरालाल को समझाने के कुछ प्रयास आरम्भ में हुए पर नये नये अब्दुल्लाह बने हीरालाल ने किसी की नहीं सुनी। पर कहते हैं की जूठ के पाँव नहीं होते, जो विचार सत्य पर आधारित न हो, जिस विचार के पीछे अनुचित उद्देश्य शामिल हो वह विचार सुद्रढ़ एवं प्रभावशाली नहीं होता। ऐसा ही कुछ हीरालाल के साथ हुआ। हीरालाल की रातें या तो नशे में व्यतीत होती अथवा नशा उतरने के बाद उनकी आँखों के सामने उनकी बुढ़ी माँ कस्तूरबा का पत्र उन्हें याद आने लगा जिससे उनका मन व्यथित रहने लगा।




उस काल में हिन्दू-मुस्लिम दंगे सामान्य बात थी। एक बार कुछ मुस्लमान उन्हें एक हिन्दू मन्दिर तोड़ने के लिए ले गये और उनसे पहली चोट करने को कहा। उन्हें उकसाते हुए कहाँ गया की या तो सोमनाथ के मंदिर पर मुहम्मद गोरी ने पहली चोट की थी अथवा आज इस मंदिर पर अब्दुल्लाह गाँधी की पहली चोट होगी। कुछ समय तक चुप रहकर , सोच विचार कर अब्दुल्लाह ने कहा की जहाँ तक इस्लाम का मैनें अध्ययन किया हैं मैंने तो इस्लाम की शिक्षाओं में ऐसा कहीं नहीं पढ़ा की किसी धार्मिक स्थल को तोड़ना इस्लाम का पालन करना हैं और किसी भी मंदिर को तोड़ना देश की किसी जवलंत समस्या का समाधान भी नहीं हैं। हीरालाल के ऐसा कहने पर उनके मुस्लिम साथी उनसे नाराज होकर चले गये और उनसे किनारा करना आरंभ कर दिया।




श्रीमान ज़कारिया साहिब जिन्होंने हीरालाल को अब्दुल्लाह बनने के लिए अनेक वायदे किये थे की तो बात करने की भाषा ही बदल गई थी। जो मुस्लमान हीरालाल को बहका कर अब्दुल्लाह बना लाये थे वे अपने मनसूबे पूरे न होते देख उन्हें ही लानते देने लगे।




आखिर उन्हें गाँधी जी का वह कथन समझ में आ गया की हीरालाल को अब्दुल्लाह बनाने से इस्लाम का कुछ भी फायदा होने वाला नहीं हैं। अब्दुल्लाह का मन अब वापिस हीरालाल बनने को कर रहा था परन्तु अभी भी मन में कुछ संशय बचे थे।




इतिहास की अनोखी करवट देखिये की गाँधी जी ने आर्यसमाज के शुद्धि मिशन की जहाँ खुले आम आलोचना की थी उन्हीं गाँधी जी के पुत्र हीरालाल को आर्यसमाज की शरण में वापिस हिन्दू धर्म में प्रवेश के लिए ,अपनी शुद्धि के लिए आना पड़ा था।




आर्यसमाज बम्बई के श्री विजयशंकर भट्ट द्वारा वेदों की इस्लाम पर श्रेष्ठता विषय पर दो व्याख्यान उनके मन में बचे हुए बाकि संशयों की भी निवृति हो गई। जिन हीरालाल को मुसलमानों ने तरह तरह ले लोभ और वायदे किये थे उन्ही हीरालाल को बिना किसी लोभ अथवा प्रलोभन के,बिना किसी जूठे वायदे के अब्दुल्लाह ने हीरालाल वापिस बनाया गया।




बम्बई में खुले मैदान में हजारों की भीड़ के सामने, अपनी माँ कस्तूरबा और अपने भाइयों के समक्ष आर्य समाज द्वारा अब्दुल्लाह को शुद्ध कर वापिस हीरालाल गाँधी बनाया गया।




अपने भाषण में हीरालाल ने उस दिन को अपने जीवन का सबसे स्वर्णिम दिन बताया। उन्होने कहा की धर्म का सत्य अर्थ केवल उसकी मान्यताएँ भर नहीं अपितु उसके मानने वालो की संस्कृति ,शिष्टता और सामाजिक व्यवहार पर उसका प्रभाव भी हैं। इस्लाम के विषय में अपने अनुभवों से मैंने यह सीखा हैं की हिन्दुओं की वैदिक संस्कृति एवं उसको मानने वालो की शिष्टता और सामाजिक व्यवहार इस्लाम अथवा किसी भी अन्य धर्म से कही ज्यादा श्रेष्ठ हैं। इतना ही नहीं इस्लाम मैं पाई जाने वाली सत्यता हिन्दू संस्कृति की ही देन हैं। जिन मुसलमानों के मैं संसर्ग में आया वे इस्लाम की मान्यताओं से ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं। इसलिए अब में इस्लाम को इससे अधिक नहीं मान सकता और मैं अब वही आ गया हूँ जहाँ से मैंने शुरुआत की थी। अगर मेरे इस निश्चय से मेरे माता पिता, मेरे भाइयों,मेरे सम्बन्धियों को प्रसन्नता हुई हैं तो में उनका आशीर्वाद चाहूँगा।




अंत में मैं उनसे क्षमा माँगता हूँ और उन्हें मेरा सहयोग करने की विनती करता हूँ।




हीरालाल वैदिक धर्म का अभिन्न अंग बनकर भारतीय श्रद्धानन्द शुद्धि सभा के सदस्य बन गये और आर्यसमाज के शुद्धि कार्य में लग गये।








हीरालाल गांधी द्वारा अपनी शुद्धि के समय दिया गया व्यक्तव्य





(हीरालाल गांधी द्वारा शुद्धि के समय दिया गया व्यक्तव्य संक्षेप में इस्लाम कि असलियत और वैदिक धर्म कि सर्वश्रेष्ठता को सिद्ध करता हैं)





माननीय भद्रपुरुषों भाइयों और बहनों





नमस्ते





कुछ आदमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैंने पुन: क्यूँ धर्म परिवर्तन किया। बहुत से हिन्दू और मुस्लमान बहुत से बातें सोच रहे होगे परन्तु मैं अपना दिल खोले बगैर नहीं रह सकता हूँ। वर्त्तमान में जो "धर्म" कहा गया हैं उसमें न केवल उसके सिद्धांत होते हैं वरन उसमें उसकी संस्कृति और और उसके अनुयायियों का नैतिक और सामाजिक जीवन भी सम्मिलित होता हैं। इन सबके तजुर्बे के लिए मैंने मुसलमानी धर्म ग्रहण किया था। जो कुछ मैंने देखा और अनुभव किया हैं उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन वैदिक धर्म के सिद्धांत, उसकी संस्कृति,भाषा, साहित्य और उसके अनुयायियों का नैतिक और सामाजिक जीवन इस्लाम और देश के दूसरे प्रचलित मतों के सिद्धांत और अनुयायियों के मुकाबले में किसी प्रकार भी तुच्छ नहीं हैं और न केवल इतना ही वरन उच्च हैं।











महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म के वास्तविक रूप को यदि हम समझे तो हम बलपूर्वक कह सकते हैं कि इस्लाम और दूसरे मतों में जो सच्चाई और सार्वभौम सिद्धांत मिलते हैं वे सब वैदिक धर्म से आये हैं इस प्रकार दार्शनिक दृष्टि से सत्य कि खोज के अलावा धर्म परिवर्तन और कोई चीज नहीं हैं। जिस भांति सार्वभौम सच्चाइयों अर्थात वैदिक धर्म का सांप्रदायिक असूलों के साथ मिश्रण हो जाने से रूप विकृत हो गया इसी भांति भारत के कुछ मुसलमानों के साथ अपने संपर्क के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे लोग मुहम्मद साहिब कि आज्ञाओं और मजहबी उसूलों से अभी बहुत दूर हैं।





जहा तक मुझे मालूम हैं हज़रात ख़लीफ़ा उमर ने दूसरे धर्म वालो के धर्म संस्थाओं और संस्थाओं को नष्ट करने का कभी हुकुम नहीं दिया था जो वर्त्तमान में हमारे देश कि मुख्य समस्याएँ हैं।





इस सब परिस्थितियों और बातों पर विचार करते हुए मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि "मैं" आगे इस्लाम कि किसी प्रकार भी सेवा नहीं कर सकता हूँ।





जिस प्रकार गिरा हुआ आदमी चढ़कर अपनी असली जगह पर पहुँच जाता हैं इसी प्रकार महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म कि सच्चाइयों को जानने और उन तक पहुँचने कि मैं कोशिश कर रहा हूँ। ये सच्चाइयाँ मौलिक, स्पष्ट स्वाभाविक और सार्वभौम हैं तथा सूरज कि किरणों कि तरह देश, जाति और समाज के भेदभाव से शुन्य तमाम मानव समाज के लिए उपयोगी हैं। इस सच्चाईयों और आदर्शों कि स्वामी दयानंद द्वारा उनकी पुस्तकों सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका और दूसरी किताबों में बिना किसी भय वा पक्ष के व्याख्या कि गई हैं। इस प्रकार मैं स्वामी दयानंद सरस्वती कि शिक्षाओं कि कृपा और आर्यसमाज के उद्योग से अपने धर्म रुपी पिता और संस्कृति रुपी माता के चरणों में बैठता हूँ। यदि मेरे माता-पिता, सम्बन्धी और दोस्त इस खबर से प्रसन्न हो तो मैं उनके आशीर्वाद कि याचना करता हूँ।





अंत में प्रार्थना करता हूँ प्रभु , मेरी रक्षा करो,मुझ पर दया करो। और मुझे क्षमा करो। मैं बम्बई आर्यसमाज के कार्यकर्ताओं और उपस्थित ससज्जनों को सहृदय धन्यवाद देता हूँ।





'तमसो माँ ज्योतिर्मय'





बम्बई हीरालाल गांधी





१४-११-३६











(सन्दर्भ- सार्वदेशिक मासिक दिसंबर १९३६)





Revered Gentleman, Sisters, Brothers Namaste





It will be a wonder to some man to know why I reconverted myself. Many Musalmans and Hindus might be thinking in many ways but I cannot help myself opening my heart. At present what goes under the name of religion does not only consists of its principle but it includes its cultural and social and moral life of those who follows that religion. I embrace Islam to experience all these from what I saw and experienced I can say that the religious principles of ancient Vedic religion its culture, language, its literature, its social and moral life of its followers are in no way inferior to Islam and other faiths and religions of our country, not only that but they are superior.





If we realize and appreciate the true form of Vedic religion as shown by maharishi swami Dayanand Saraswati we can emphatically say that whatever true and universal principles are found in Islam and other religions have all come from Vedic religion, therefore looking philosophically there is nothing there is nothing like conversion than search after truth.





As some universal truth mixed with other sectarian principles have deformed other faiths in the same way I can say that from my associations with some Muslims of India they have remained very far from the firmans and religious principles of Muhammad sahib.





As far as I know Hazrat Khalifa Umar never ordered the destruction of religious places and institutions of other religionists which is burning problem of our country at present.





Looking to all these circumstances and facts I have come to conclusion that I cannot serve Islam anymore and in any way.





Just as a fallen man reaches his original place by ascending, similarly I am also trying to reach and realize the true principles of Vedic religion as shown by Maharishi Swami Dayanand Saraswati. These principles are true, genuine, original, universal and useful for whole humanity without restrictions of country, caste or community as the rays of sun are. These principles have been propounded without any fear or favour by Swami Dayanand Saraswati in his well known books, Satyarth Prakash, Rigvedadibhahsya Bhumika and others. I thus come at the feet of my father religion and mother culture by the grace of teachings of Swami Dayanand Saraswati and efforts of Aryasamaj. If my parents, relatives and friends have become glad by hearing this news I crave their blessings.





In the end I say that protect me, have mercy on me and forgive me. I thank heartily the workers of Bombay Aryasamaj and all those who are present here.





With Namaste to all I pray to God.





“Lead kindly me to light”





OM SHANTI





Bombay Hiralal Gandhi





14-11-36








दिसम्बर १९३६ के सार्वदेशिक अख़बार के सम्पादकीय में महात्मा नारायण स्वामी लिखते हैं-





अबुद्ल्लाह से हीरालाल





महात्मा गाँधी के ज्येष्ठ पुत्र हीरालाल गाँधी अब अब्दुल्लाह नहीं हैं। आर्य समाज मुंबई में वे शुद्ध करके प्राचीनतम आर्यधर्म में वापिस ले लिए गये हैं। हिन्दू धर्म का परित्याग करने में उन्होंने जो भूल की थी , उसे अनुभव करके और प्रकाश रूप में उसे स्वीकार करके उन्होंने अच्छा हो किया हैं। उनका उदहारण भाषा वेश में परिवर्तन करने वालो के लिए एक अच्छा उदहारण हैं। हीरालाल जी को हिन्दू धर्म के प्रति जो उन्होंने अपराध किया हैं उसका प्रायश्चित करना बाकि रह जाता हैं। उन्हें चाहिए की वे वैदिक धर्म के सुसंस्कृत रूप का अध्ययन करे और अपने जीवन को उसके सांचे में ढाले। यही उस अपराध का उत्तम प्रयाश्चित हैं। जो मुस्लमान हीरालाल को इस्लाम के दायरे में बहुमूल्यवृद्धि समझे बैठे थे और जो उनमें सुधर की चेष्ठा के बजाय उन्हें इस्लाम के प्रोपेगंडा का साधन बनाए हुए थे वे गलती पर थे और इस्लाम की असेवा कर रहे थे, वह बात यह घटना स्पष्ट करती हैं और धर्म परिवर्तन करने वाली अन्य संस्थाओं को भी अच्छी शिक्षा प्रदान करती हैं।











महात्मा गाँधी अपने पुत्र को वापिस पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए थे और सार्वजानिक रूप से चाहे उन्होंने स्वामी दयानंद को शुद्धि की प्राचीन व्यवस्था को फिर से पुनर्जीवित करने का श्रेय भले ही न दिया हो परन्तु उनकी मनोवृति से यह भली प्रकार से स्पष्ट हो जाता हैं की आर्यसमाज के आलोचक होते हुए भी उन्हें सहारा तो स्वामी दयानंद के सिद्धांतों का ही लेना पड़ा था।





सन्दर्भ ग्रन्थ





१.सत्य निर्णय- ज्ञानचंद आर्य (सत्यानन्द नैष्ठिक , गुरुकुल लाढोत द्वारा पुन प्रकाशित )





(ज्ञानचंद जी ने "धर्म और उसकी आवश्यकता" के नाम से एक अत्यंत रोचक पुस्तक लिखी हैं जिसका पुन:प्रकाशन अवश्य होना चाहिए)





२.आर्यसमाज और महात्मा गाँधी- पंडित धर्मदेव विद्या मार्तण्ड (श्री घुड़मल ट्रस्ट हिंडौन सिटी द्वारा पुन प्रकाशित )





३.सार्वदेशिक पत्रिका के अंक (गुरुकुल कांगड़ी पुस्तकालय से प्राप्ति)





4. Mahatma Vs Gandhi: Based on the Life of Harilal Gandhi, the Eldest Son of Mahatma Gandhi by Dinkar Joshi





5. Mahatma and Islam - Faith and Freedom: Gandhi in History by Mushirul Rehman




6. Autobiographical Writings of Mahatma Gandhi by Rashi Sharma




7. आर्यसमाज किशन पोल बाजार , जयपुर का इतिहास -१९९०




8. Gandhiji’s Lost Jewel: Harilal Gandhi by Nilam Parikh.





डॉ विवेक आर्य

6 comments:

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    1. Do`nt be satisfied with your comment only.Know the importance & Join the Arya Samaj and Propagate its Principles and Vedic Religion & save the Country,its ancient rich culture and heritage.Lest people in future see its relics in museum only.

      Ashok Kumar Sahu,
      Advocate
      Lucknow

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  2. Amazing but I don not know the truth!

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  3. ऐसी अमूल्य जानकारी प्राप्त कर के बहुत ख़ुशी हुई

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  4. achha artical aur jankari se bharpoor hai

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  5. सहेज कर रखने योग्य सामग्री। ....आभार

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