Monday, July 14, 2025

कश्मीर के हिन्दुओं को नष्ट करने का षड्यंत्र


 


कश्मीर के हिन्दुओं को नष्ट करने का षड्यंत्र


#डॉ_विवेक_आर्य 


[आपने समाचार पत्रों में पढ़ा होगा की जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला श्रीनगर के नौहट्टा में कब्रिस्तान का गेट फांदकर अंदर घुसे और कुछ कब्रों को श्रद्धांजलि दी। दैनिक जागरण समाचार पत्र के अनुसार छोटा गेट खुला था। फिर भी मुख्यमंत्री बंद मुख्य गेट के ऊपर से कूदकर अंदर घुसे। संभवत कश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं को छोड़कर देश के किसी हिन्दू को नहीं पता होगा के यह कब्रें किसकी हैं? 13 जुलाई 1931 को पुलिस की गोलीबारी में 21 दंगाई मारे गए थे। यह कब्रें उनकी हैं। 1948 के बाद से इन दंगाइयों को शहीद का दर्जा दे दिया गया और 13 जुलाई को कश्मीर शहीदी दिवस के नाम से बनाया जाने लगा और इस दिन छुट्टी होती थी।  दिसम्बर 2019 से धारा 370 हटने के बाद से इस दिन की छुट्टी रद्द कर दी गई। इन दंगों के पीछे अंग्रेजों का हाथ था। अब्दुल क़ादिर के नाम से एक अहमदी मुसलमान को पेशावर से अंग्रेजों ने एक बावर्ची के रूप में कश्मीर भेजा था। 21 जून 1931 को श्रीनगर की प्रसिद्द खानखा-ए-मौला (जिसे सुल्तान सिकंदर ने सैय्यद अली हमदानी की याद में काली मंदिर को भ्रष्ट करके बनाया था) के प्रांगण में अब्दुल कादीर के भड़कायु भाषण हुए। इन भाषणों में इस्लाम की दुहाई देकर मुसलमानों को उकसाया गया। महाराज हरी सिंह को काफिर कहकर उनके शासन को उखाड़ने की बात कहीं। अब्दुल कादीर को गिरफ्तार कर जेल भेज दया गया और स्थानीय जेल में उसकी पेशी होने लगी। पेशी के दौरान भारी भीड़ ने जेल का घेराव कर दिया। 5000 के लगभग भीड़ का उद्देश्य गेट तोड़कर अब्दुल कादिर को छुड़वाना था। पुलिस ने भीड़ को हटने का आदेश दिया। उसने अवमानना की।  पुलिस को बचाव में  गोलीबारी करनी पड़ी और उसमें 21 दंगाई मारे गए। कुछ दंगाई हरी पर्वत किले पर चढ़ाई करने लगे। भीड़ बेकाबू होकर महराजगंज, भूरिकादल , अलीकादल, विचित्रनाग आदि इलाकों में हिन्दुओं की सम्पत्तियाँ लूटने, मकानों को आगे लगाने, औरतों के साथ बलात्कार करने, हत्या करने जैसे अकल्पनीय अत्याचार किए।  शहर के बाद यह दंगे गांवों आदि में भी फैल गए और हिन्दुओं पर भारी अत्याचार हुए। 


प्रोफेसर रामनाथ कौल अपनी पुस्तक शेख अब्दुल्ला: ए पोलिटिकल फ़ीनिक्स में लिखते है किजेल से छुड़ाएं गए अपराधी शेख अब्दुल्ला से जाकर मिलें। शेख ने उन्हें बधाई दी। एक घायल दंगाई शेख की बाँहों में यह कहकर मरा कि शेख साहिब जैसा आपने कहा था वैसा हमने किया। शेख ने उस दंगाई को शहीद घोषित कर दिया और इस दिन कश्मीर शहीदी दिवस बनाने लगे। जबकि कश्मीरी हिन्दू इसे काला दिन के नाम से बनाते हैं। महाराज हरी सिंह को हटाने का षड़यंत्र इससे कई वर्षों से चल रहे थे। 


इससे एक वर्ष पूर्व एक षड़यंत्र रचा गया था।  श्रीयुत धर्मवीर जी एम. ए. का कश्मीर के हिन्दुओं पर अत्याचार सम्बंधित भाषण शुद्धि समाचार' में प्रकाशित हुआ था । जिसका संक्षिप्त इस प्रकार है- 


"सब जानते हैं कि डॉक्टर मुहम्मद इकबाल ने इलाहाबाद में मुस्लिम कांफ्रेंस में भाषण देते हुए कहा था कि हम चाहते हैं कि उत्तरीय भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना की जाए। आप यह भी जानते हैं कि लाहौर के मुस्लिम अखबार Muslim Outlook और Inquilab बहुत देर से महाराजा कश्मीर के खिलाफ propaganda कर रहे हैं। आप यह भी जानते हैं कि Princes Protection Act के अनुसार किसी भी पुरुष को यह अधिकार नहीं है कि वह रियासतों के बरखिलाफ कोई किसी किस्म का propaganda कर सके और आपको यह भी बतलाने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दुस्तानियों को दफा 153-A. 1. P. C. से कोई भी ऐसा कार्य करने की इजाजत नहीं जिस से एक धर्म के अनुयायियों को दूसरे धर्म के अनुयायियों के प्रति वैमनस्य होने की सम्भावना हो। परन्तु आप देख रहे हैं कि जुलूस निकाले जा रहे हैं, नौजवानों को भड़काने के लिये जोशीले भाषण दिये जा रहे हैं, जत्थे भेजने के लिये स्वयंसेवक भरती किये जा रहे हैं, रुपया इकट्ठा किया जा रहा है, महाराजा के खिलाफ लेख लिखवाये जा रहे हैं और पुस्तकें बनवाई जा रही है तो भी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। यह तो हुआ जो कुछ सरकारी भारत में हो रहा है। अब जरा देखिए कश्मीर से आये हुए लोग का बतलाते हैं। वह कहते हैं कि जाँच कमेटी को षड्यन्त्र के कागज पत्रों का एक बड़ा भारी पुलिन्दा मिला है। इसके अतिरिक्त और बातों से भी मालूम हुआ है कि महाराज कश्मीर सर हरिसिंह के जब से लड़का पैदा हुआ है, वहां के मुसलमान बहुत बेचैन रहते हैं। पुत्र उत्पन्न होने के पहिले मुसलमानों ने यह सोचा कि महाराज को वेश्याओं की संगति में रख कर ऐसा किया जाय कि इनके कोई लड़का न हो। इनका विचार था कि सर हरिसिंह गुलाब सिंह की आखिरी सन्तान है और इनके बाद कोई गद्दी का वारिस न रह जायगा और रियासत मुसलमानों के हाथ आ जावेगी । लेकिन महाराज के लड़का पैदा हो जाने से मुसलमानों के वह सुख स्वप्न गायब हो गये। निराश हो कर इन लोगों ने षड्यन्त्र रचा। कहा जाता है षड्यन्त्र में मुख्य कार्यकर्ता पीरहसमुद्दीन, खान बहादुर अब्दुल मजीद खां लाहौर के इन्किलाब पत्र वाले, डॉक्टर सर मुहम्मद इकबाल, सर फ़ज़ल हुस्सेन, मिस्टर वेकफ़ील्ड और महाराज के अपने Private Secretary नवाब खुसरो जङ्ग हैं। महाराजा प्रताप सिंह ने जो जामा मस्जिद बनवाई थी, उसी में सभायें होने लगीं। आखिर में यह फैसला हुआ कि अल्प संख्यक हिंदुओं पर हर जगह आक्रमण करके घेर लिया जाय और पाँच हजार मुसलमान महाराज के भवन पर आक्रमण कर दें। दूसरा विचार यह था कि एक दरबारी वेश्या को सवा लाख रिश्वत में दिया जाय और वह शराब में मिलाकर महाराज को ज़हर खिला दे । यह भी कहा जाता है कि षड़यंत्र का पता लगाने के लिये एक हिन्दू खुफ़िया मुसलमान हो गया था । उसने अब वह चाँदी का मुकुट जामा मस्जिद के एक किनारे से खोद निकाला है जो महाराज कश्मीर  गद्दी से हट जाने पर मुसलमान राजकुमार को पहनाया जाता। इन विचारों को कार्य रूप में लाने के लिये षड्यन्त्रकारियों ने यह निश्चय किया कि जम्मू, रावलपिण्डी और ऐबटाबाद के पुल तोड़ दिये जावें, टेलीफोन और अन्य तारें काट दी जावें, हिंदुओं की दुकानों और लूटा जावे, हत्याएं की जायें, स्त्रियों को अपमानित किया जाये और उसके शीघ्र ही महाराजा के खिलाफ विद्रोह खड़ा कर दिया जावे । इस निश्चय के बाद जो कुछ हुआ वह आप सब जानते ही हैं ।


13 जुलाई के कारनामों का बयान करते हुए सरकारी ऐलान में लिखा है कि—“विचारनाग में मुसलमानों की एक भीड़ ने वहां के हिंदुओं पर घोर अत्याचार किये । उनके घर लूट लिये। उन पर जंगली आक्रमण किए। औरतों की बेइज्जती की। उन्होंने जो कुछ नज़र आया लूट लिया बाकी का सामान जला दिया। इसी बीच में लोहड़ीकदल के समीप भी मुसलमानों ने लूटमार आरम्भ कर दी। लोहड़ीकदल और सफ़ाकदल की हिंदू दुकानें जिनमें महाराज गज की मण्डी भी सम्मिलित है लूट ली गई और दुकानदारों को ज़ख्मी कर दिया गया। कहा जाता है कि इस दंगे में लाखों की जायदाद का नुकसान हुआ। बहुत हिंदू इन हमलों के कारण मर गये । बलवाइयों ने हिन्दुओं पर हमला करने में लाठियों चाकुओं और पत्थरों का खुल्लमखुला इस्तेमाल किया। हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया और उन पर घोर अत्याचार किये।" ( सन्दर्भ ग्रंथ -शुद्धि समाचार, सितम्बर 1931 अंक, प्रकाशक भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा, दिल्ली ,पृष्ठ 352-354) 


कश्मीर में 1930 के इस षड्यंत्र को शायद ही आज के हिन्दू जानते होंगे पर यह भविष्य में 1947 के पाकिस्तान समर्थित दंगों और 1990 के कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन की पूर्व झांकी थीं। इसमें कोई शंका नहीं है।'


उस दौर में मुसलमानों की मानसिकता को समझने के लिए और उसका शुद्धि रूपी समाधान जानने के लिए (#डॉ_विवेक_आर्य कृत "आर्यसमाज और शुद्धि आंदोलन" पुस्तक पढ़े। पुस्तक का मूल्य 500रूपये। डाक खर्च सहित। मंगवाने के लिए WhatsApp on 9485599275 करें।)

Thursday, June 26, 2025

Misconceptions Surrounding the Term ‘Brāhmaṇa’ and Their Resolution

 



 

Misconceptions Surrounding the Term ‘Brāhmaṇa’ and Their Resolution


(Dr. Vivek Arya)


There are many misconceptions surrounding the word Brāhmaṇa, and it is essential to clarify them. One of the most significant weaknesses of contemporary Hindu society is casteism. The inability to understand the true meaning of the term Brāhmaṇa has contributed to the persistence and expansion of caste-based discrimination.


Doubt 1: What is the definition of a Brāhmaṇa?

Resolution:

According to Manusmṛti 2.28, a person becomes a Brāhmaṇa not by birth, but by engaging in study and teaching, deep contemplation, maintaining celibacy and discipline, speaking truthfully, performing acts of benevolence and virtue, studying the Vedas and sciences, fulfilling one’s duties, offering donations, and remaining committed to lofty ideals. These are the characteristics that transform a human being into a Brāhmaṇa.


Doubt 2: Is Brāhmaṇa a caste or a varṇa?

Resolution:

Brāhmaṇa is a varṇa, not a jāti (caste). The term varṇa literally means “choice” or “selection,” and it is derived from the root vṛ, meaning to choose. In Vedic society, individuals choose their varṇa based on their interests, aptitude, and actions. Thus, varṇa is self-elected and dynamic. The Vedic social system recognizes four varṇas: Brāhmaṇa, Kṣatriya, Vaiśya, and Śūdra.


The duties of a Brāhmaṇa include proper study and teaching, performing and guiding rituals (yajñas), receiving donations and giving them to the deserving.


The duties of a Kṣatriya include study, performing rituals, protecting and nurturing society, giving alms, remaining self-controlled and detached from material indulgence.


A Vaiśya is tasked with animal husbandry, charity, rituals, education, trade, and agriculture.


A Śūdra is responsible for offering service and labor to all other three varṇas.


Nowhere in the Vedas or Manusmṛti is the term Śūdra considered derogatory, inferior, or contemptible. In fact, Manusmṛti 10.4 states that all four varṇas—Brāhmaṇa, Kṣatriya, Vaiśya, and Śūdra—are equally part of the Ārya community.


Doubt 3: How many castes are there among humans?

Resolution:

There is only one jāti (genus/species) among humans, and that is “human.” Other classifications such as caste are artificial and not sanctioned by the original Vedic worldview.


Doubt 4: On what basis are the four varṇas divided?

Resolution:

The division of varṇa is fundamentally based on the division of labor (karma-vibhāga). The classification is merit-based, not birth-based. Even today, individuals become doctors, engineers, or lawyers after acquiring specific education and qualifications. No one is born into these professions—they are attained through learning and effort. This is precisely what the varṇa system intended.


Doubt 5: Is one born a Brāhmaṇa, or does one become a Brāhmaṇa through qualities (guṇa), actions (karma), and disposition (svabhāva)?

Resolution:

A person’s qualification is determined only after the acquisition of knowledge and not by birth. One’s varṇa is determined by their qualities, actions, and inner disposition. An illiterate or unqualified person who claims to be a Brāhmaṇa solely by birth is mistaken.


Manusmṛti 2.157 teaches:


“Just as a wooden elephant or a leather deer is only nominally an elephant or a deer, so too, an uneducated Brāhmaṇa is a Brāhmaṇa only in name.”



 Doubt 6: Is a child of a Brāhmaṇa father automatically a Brāhmaṇa?


Resolution:

It is a misconception that one becomes a Brāhmaṇa merely by being born to a Brāhmaṇa father. Just as a doctor’s child can only be called a doctor after completing an MBBS degree, or an engineer’s child only becomes an engineer after qualifying with a B.Tech degree, similarly, the title of *Brāhmaṇa* is an earned designation, not an inherited one.


According to Manusmṛti 2.147:


 “The birth that one obtains from the mother’s womb is ordinary. True birth occurs only after the completion of education.”


 Doubt 7: What were the requirements to become a Brāhmaṇa in ancient times?


Resolution:

In ancient times, to become a Brāhmaṇa, one had to be both educated and virtuous.


Manusmṛti 2.148 states:


 “True human birth begins only after a student is initiated into the Gāyatrī mantra by a learned preceptor well-versed in the Vedas.”


According to Manusmṛti 10.4:


“Brāhmaṇa, Kṣatriya, and Vaiśya obtain their second birth through Vedic education. One who is unable to undergo this education is classified as a Śūdra.”


Unfortunately, in contemporary times, some individuals boast of their Brāhmaṇa identity merely because their ancestors were Brāhmaṇas. This is fundamentally incorrect. Without acquiring the requisite qualifications, no one can claim the status of a Brāhmaṇa. The Brāhmaṇas of ancient India guided the world through their asceticism, wisdom, and knowledge. It is due to such noble qualities that India, then called Āryāvarta, was once known as the Viśvaguru (spiritual guide of the world).


Doubt 8: Why is the Brāhmaṇa regarded as superior?


Resolution:

Brāhmaṇa is a qualitative designation, not a birth-based entitlement. Only the most learned, wise, educated, self-disciplined, renunciate, and spiritually committed members of society are worthy of being called Brāhmaṇas. Hence, the Brāhmaṇa varṇa holds the highest respect in the Vedic system. However, this reverence comes with higher expectations and accountability. Vedic texts assign the highest punishments to Brāhmaṇas for any transgression.


As stated in Manusmṛti 8.337–338:


“For the same offense, a Śūdra is punished the least, a Vaiśya twice as much, a Kṣatriya thrice, and a Brāhmaṇa sixteen or even 128 times more.”


These verses demonstrate that Manu was not biased in favor of Brāhmaṇas but held them to higher standards of conduct.


Doubt 9: Can a Śūdra become a Brāhmaṇa, and a Brāhmaṇa become a Śūdra?


Resolution:

Since varṇas are determined by qualities (guṇa), actions (karma), and disposition (svabhāva), transitions between them are indeed possible. No one is born a Brāhmaṇa; one's varṇa is determined after acquiring education.


Manusmṛti 10.64 affirms:


 “A Brāhmaṇa may become a Śūdra, and a Śūdra may become a Brāhmaṇa. Similarly, Kṣatriyas and Vaiśyas may also change their varṇa based on conduct.”


According to Manusmṛti 9.335:


“A Śūdra who remains pure in body and mind, lives in the company of virtuous people, speaks sweetly, is free of arrogance, and serves those of higher varṇa, becomes worthy of Brāhmaṇa status and attains dvija (twice-born) status.”


Other relevant verses:


*“One who does not worship God daily in the morning and evening is to be considered a Śūdra.” – Manusmṛti 2.103

“Until a person is initiated into Vedic teachings, they are no different from a Śūdra.” – Manusmṛti 2.172

“A Brāhmaṇa becomes more exalted by keeping company with the most virtuous and by abandoning the company of the wicked. Conversely, if he indulges in lowly associations, he falls and becomes a Śūdra.”– Manusmṛti 4.245

“A Brāhmaṇa, Kṣatriya, or Vaiśya who forsakes Vedic study and pursues other subjects exclusively becomes a Śūdra.” – Manusmṛti 2.168


Doubt 10: Are those who call themselves Brāhmaṇas today truly the guardians of our ancient knowledge?


Resolution:

If a person born into a Brāhmaṇa family actively protects and promotes Vedic religion through dedicated action, then he undoubtedly deserves to be honored as a Brāhmaṇa. However, if a person born into a Brāhmaṇa family behaves in a manner contrary to Brāhmaṇical duties, he is not worthy of that title.


Consider this example: A university professor who is vegetarian, virtuous, and actively works for the cause of dharma—regardless of being born to Śūdra parents—should be considered a Brāhmaṇa by *varṇa*. In contrast, an illiterate, meat-eating, immoral person who contributes nothing to society cannot be called a Brāhmaṇa, no matter how exalted his paternal lineage may be.


Mere external markers such as the sacred thread (janeū) or a tuft of hair (śikhā) do not make one a Brāhmaṇa. Observing the duties and moral conduct associated with these symbols is imperative. In ancient times, Brāhmaṇas were revered because of their austere conduct and relentless pursuit of dharma.


Conclusion:

This article has attempted to dispel various misconceptions surrounding the term Brāhmaṇa from the standpoint of Vedic philosophy. In the Vedas, the term Brāhmaṇa carries immense significance. However, this significance is not rooted in *birth-based identity, but in conduct and merit. During the medieval period, the Vedic varṇa system degenerated into a rigid caste hierarchy. Tragically, we continue to perpetuate that distortion even today.


Casteism has fragmented the unity of Hindu society. It has fostered enmity among brothers and weakened our collective strength, ultimately rendering us vulnerable to foreign domination. If there is one chief cause behind the twelve centuries of Hindu oppression, it is casteism. It remains our gravest internal adversary.

Let us resolve to uproot this enemy—casteism—from the foundation of our society once and for all.






Wednesday, May 28, 2025

महर्षि का जीवन दर्शन




 महर्षि का जीवन दर्शन

लेखक: चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत सरकार 


महर्षि दयानन्द सरस्वती की पुण्यतिथि (1983) पर चौधरी चरणसिंह ने यह लेख एक स्मारिका के लिए लिखा था । स्वामी जी के जीवन-दर्शन और चिन्तन पर आधारित इस लेख में चौधरी चरण सिंह ने कुछ ऐसे सवाल उठाए हैं, जो राष्ट्रीय समस्या के रूप में हमारे सामने हैं। जातिवादी व्यवस्था, नारी वर्ग के समान अधिकार, सामाजिक अन्याय, समान शिक्षा का जन्मसिद्ध अधिकार तथा राष्ट्र-भाषा की समस्या-ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर स्वामी जी ने स्पष्ट विचार व्यक्त किए थे। चौधरी साहब का यक्ष–प्रश्न है कि क्या हम स्वामी जी के बताए रास्ते से आज भटक नहीं गए हैं?

आधुनिक भारत में महात्मा गांधी के नाम का जो महत्त्व है, वही महत्त्व इस देश के अगणित व्यक्तियों के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती, दयाराम मूलशंकर अथवा 'मूलजी' का है। उनका जीवन तथा उनके कार्य बहुत बड़ी सीमा तक स्वाधीन भारत की योजना की प्रेरणा के आधार बने थे। उनके स्वर्गवास के सात दशकों के पश्चात् यह आधार स्पष्ट हो गया है।

बीती शताब्दी में उनके विषय में पर्याप्त कहा तथा लिखा गया है और आगामी शताब्दी वर्ष में पर्याप्त लिखा तथा कहा जाएगा। उनके सिद्धांतों के प्रति यावज्जीवन श्रद्धालु होने के कारण मैं यह सब कुछ नहीं कह रहा हूं, बल्कि निरंतर सर्वाधिक आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से यह सब कुछ लिख रहा हूं। नवोदित, स्वाधीन, संयुक्त तथा गतिशील भारत के विषय में स्वामीजी की जो कल्पना थी और जो हमारे लोकतंत्र के संस्थापक नेताओं के सामने आदर्श रूप में मान्य थी, वह स्वाधीन भारत के प्रथम तीस वर्षों में ही धूमिल होती जा रही है । मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पूर्व की अपेक्षा यह समुचित अवसर है कि हम स्वामी जी की समस्त देन पर विचार करें और यह जानने का प्रयास करें कि कहां और क्यों हम मार्ग से विचलित हुए हैं? 

स्वामी जी की अनेक उपलब्धियों में से एक प्रमुख उपलब्धि थी हमारी राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप सांस्कृतिक तथा संगठनात्मक आधार प्रस्तुत करना। यह इसलिए सम्भव हो सका था कि उनकी सीमातीत शक्ति एवं कुशाग्र बुद्धि केवल वैयक्तिक मोक्ष की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील नहीं थी, अपितु वह अपने समाज के शारीरिक, नैतिक, भौतिक तथा धार्मिक उत्थान की दिशा में संलग्न थी ।

संतों तथा सुधारकों की लम्बी पंक्ति में, वह पहले व्यक्ति थे, जिसने हिन्दुत्व अथवा वैदिक धर्म के द्वार अहिन्दू लोगों के लिए खोले थे।

उनकी उपस्थिति तथा उनके सैद्धांतिक उपदेशों ने उन हालात को समाप्त कर दिया था, जबकि एक हिन्दू अपने धर्म पर लज्जा का अनुभव करता था और ईसाई तथा इस्लाम मत को अंगीकार करके लज्जा से मुक्ति पा लेता था। बाद के काल में, हिन्दू धर्म में घुस आए विकारों तथा विकृतियों पर प्रहार करते हुए, जैसा कि उनका स्वभाव बन गया था, उन्होंने एक नारा लगाया था - "वेदों के धर्म की ओर वापस चलो।" उनके समस्त सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों की आधारशिला यही थी । वेद परमात्मा के ज्ञान के प्रतीक हैं, वे सात्विक प्रमाण हैं, इसीलिए जन्म एवं जीवन के निकर्ष भी हैं।

इस सत्य के साथ वह वर्तमान हिन्दू धर्म पर अभियोग पत्र लेकर उपस्थित हुए। उनके 'सत्यार्थ प्रकाश' का अधिकांश भाग हिन्दू धर्म की अनेक विकृतियों - जन्म पर आधारित जाति का सिद्धांत, मूर्ति पूजा, चमत्कारवादिता, तीर्थ-यात्रा, पुरोहिती शोषण, पवित्रता की ठेकेदारी, रीति-रिवाज आदि की आलोचना पर आधारित है। सत्य के निर्णय की दिशा में उनके पास केवल दो सैद्धांतिक कसौटियां थीं. - "तर्क की तलवार और नैतिकता का आधार ।" 'भारतवर्ष अंधकार से परिपूरित है' शीर्षक के अन्तर्गत, संक्षेपित पृष्ठों में आपने हिन्दू धर्म के असंख्य रीति-रिवाजों तथा सामाजिक आडम्बरों की कटु आलोचना करते हुए, मूर्ति - पूजा तथा मदिरों के विशाल प्रांगणों से जुड़ी तीर्थयात्राओं, संकीर्ण तथा अंधविश्वासपरक कर्मकाण्डों को व्यर्थ तथा सारहीन घोषित किया था ।

जाति-प्रथा उन्मूलन

जातिवादी व्यवस्था की, उसकी अगणित वर्जनाओं एवं वरीयताओं के साथ, आपने आलोचना की और व्यक्तिगत जीवन में उसकी विकृतियों का खुलासा किया। जन्म के स्थान पर ज्ञान अथवा योग्यता को श्रेष्ठता की कसौटी निर्धारित करते हुए, आपने उस सामाजिक असमानता की समस्या का समाधान प्रस्तुत किया था, जो हमारी सतत राजनीतिक दासता का कारण रही है और आज भी हमारे राष्ट्रीय जीवन की शक्ति का क्षय कर रही है।

एक आदर्श समाज के विषय में, आपकी मान्यतानुसार, वर्णों का विभाजन जन्म अथवा जाति के आधार पर न होकर गण अथवा ज्ञान के आधार पर होना चाहिए । वर्णों का निर्धारण भी स्कूल तथा कालिजों से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद राज्य द्वारा होना चाहिए ।

आपने बड़ी तथा छोटी जाति में उत्पत्ति के आधार पर जाति-व्यवस्था के सिद्धांत को स्वीकार करके सर्वाधिक बल शिक्षा पर दिया था । यथार्थ में, आपने 'सत्यार्थ प्रकाश' के द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में इसी विषय पर बल दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार विषयक उनके भागीरथ प्रयत्न अपने समय के सर्वाधिक अग्रगामी थे। आपने दीर्घकाल से विस्मृत गुरुकुलीन शिक्षा-पद्धति को, जिसमें बड़े तथा छोटे व्यक्ति के बालक एक ही स्तर पर, शहर के दूषित वातावरण से दूर रहकर अध्यापक के स्नेहमय वैयक्तिक सम्पर्क के वरदान से पूरित शिक्षा पाने में समर्थ हो सकते हैं, पुनर्जीवित किया था ।

चारों जातियों (जिनमें शूद्रों को भी अन्यों के समान शिक्षा दी जाये) में पुरुष तथा महिला वर्ग के लिए अनिवार्य शिक्षा का समर्थन करते हुए आपने चेतावनी दी कि इसके अभाव में देश की समृद्धि की कोई सम्भावना नहीं है। नारी - समाज के लिए समान शिक्षा का प्रतिपादन करने वालों में वह अग्रगण्य थे। विशेष रूप से उनका विश्वास था कि विवाहित जीवन की खुशियां भी पति तथा पत्नी दोनों के शिक्षित होने पर निर्भर करती हैं।

आपने नारी वर्ग का समर्थन किया और उसके लिए पुरुष के समान अधिकारों की वकालत की। आपने पुरुष के लिए एक विवाह का सिद्धांत रखा और सोलह वर्ष से पूर्व कन्या के विवाह का समर्थन नहीं किया। आपने यहां तक कहा कि एक अयोग्य एवं अनुपयुक्त व्यक्ति के साथ विवाहित होने की अपेक्षा एक कन्या का अपने पिता के घर में ही रहना अधिक अच्छा है। दोनों साथियों की पूर्व तथा पूर्ण स्वीकृति के अभाव में शादी के वह विरोधी थे। उन्होंने बार-बार इस बात पर बल दिया कि एक घर की सुदृढ़ शांति का आधार पति - पत्नी का पारस्परिक प्रेम एवं दायित्व की समान भागीदारी है। उन्होंने अपने अनुयायियों को वैदिक कालीन उन स्वर्णिम दिनों का स्मरण कराया, जब कि नारी सामाजिक जीवन के समस्त कार्यों में समान रूप से भाग लेती थी ।

महर्षि दयानन्द उन लोगों में से प्रमुख थे, जिन्होंने एक मनीषी की दृष्टि से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा था । हिन्दी यहां के बुद्धि जीवियों तथा न्यायालय की भाषा कभी नहीं रही, फिर भी वह यहां के अधिकांश सामान्य लोगों की बोलचाल की भाषा थी, इसलिए उन्होंने यह भली प्रकार अनुभव कर लिया था कि स्वाधीन तथा संयुक्त भारत में अंग्रेजी के स्थान पर यही राष्ट्र भाषा हो सकती है । वह गुजरात के मोरवी नामक राज्य में पैदा हुए थे। उनकी मातृभाषा गुजराती थी, किन्तु उन्होंने स्वयं को हिन्दी में शिक्षित किया और कालान्तर में हिन्दी में ही अपना महान कार्य करने का निश्चय किया । यह निश्चय भी उस अवस्था में था, जबकि उनका सम्पूर्ण प्रशिक्षण संस्कृत में हुआ था । यथार्थ में, उनकी प्रतिभा का दूसरा प्रतीक, उनकी प्रारम्भिक संस्कृतनिष्ठ भाषा, जिसमें आपने कुछ पुस्तिकाएं लिखी थीं, की अपेक्षा प्रवाहपूर्ण हिन्दी में लिखी उनकी अंतिम रचना, वेदभाष्य है।

हिन्दी को प्रमुखता

आपने सब प्रकार की शिक्षा में हिन्दी को प्रथम स्थान दिया था। इसका एक छोटा-सा उदाहरण जोधपुर के राजकुमार की शिक्षा के विषय में दिया गया परामर्श है, जो उनके स्वदेशी चरित्र का प्रतीक भी है। अन्य बातों के अतिरिक्त आपने विशेष रूप से लिखा था कि राजकुमार को संस्कृत तथा हिन्दी का ज्ञान अंग्रेजी से पहले कराना चाहिए।

स्वामीजी के जीवन का, अनेक प्रकार से, अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य इस विश्वास को चुनौती देना था कि यह संसार विकारों का भण्डार है, अतः इसका त्याग कर देना चाहिए। आपने व्यक्ति के लिए मोक्ष - साधना का भी विरोध किया। आपने बताया कि जीवन के प्रति यह उदासीनता का सिद्धांत, व्यक्तिवादी चेतना और जातिवादिता, हमारे सामाजिक पराभव के प्रमुख कारण हैं । यथार्थ में स्वामी जी कर्मठ व्यक्ति थे। वह अतीत की सम्पन्नता से भली प्रकार अवगत थे और वर्तमान युग की नैतिकता को जानते थे। उनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने ज्ञान के माध्यम से संत की अवस्था का अर्जन किया था ।

उनका जीवन तथा उनके गुण वैयक्तिक तथा ऐतिहासिक संदर्भो में उनके वास्तविक तेज का ज्ञापन करते हैं। यद्यपि, हम उनको महर्षि पुकारते हैं, पर उन्होंने अपने जीवन काल में ऋषि की उपाधि को भी अस्वीकार कर दिया था। हालांकि दस दशक पश्चात् उनकी भविष्यवाणियों पर किसी को भी संदेह नहीं होगा, पर उन्होंने भविष्य द्रष्टा कहे जाने को भी अंगीकार नहीं किया था। हालांकि उनके कुछ अति उत्साही अनुयायियों ने उनको नवीन धर्म का प्रवर्तक तथा सत्य का उपदेश देने वाला कहा था, पर वह अपने जीवनकाल में, यह बात कहने में कभी पीछे नहीं रहे कि वह तो सत्य, प्राचीन धर्मग्रंथों, वेदों में निहित सत्य तथा धर्म का ही उपदेश दे रहे हैं । इन गुणों के विरोधी समाज में वह ऐतिहासिक पौराणिक संघर्षकर्ता के रूप में उभर कर आये थे। उनके चरित्र में स्वार्थपरायणता अथवा गुरुडम अथवा समझौतावादिता के सामने झुकना नहीं था। इन सबसे ऊपर, उस महान हिन्दू सुधारक का जीवन तथा धर्मोपदेश हमारे पुरातन युग की असाम्प्रदायिक सभ्यता का चित्रण करते हैं ।

महर्षि ने अपने तर्कों की तीक्ष्ण धारा से हिन्दू, ईसाई तथा मुस्लिम धर्म के उन तमाम पूर्वाग्रहों को काट दिया था, जो समस्त मानवता को आक्रान्त किये हुए थे। उन्होंने हमेशा सिद्धांतों का विरोध किया था, व्यक्तियों का नहीं ।

यही कारण था कि अन्य धर्मों में आस्था रखने वाले लोगों ने भी स्वामीजी को अपने धार्मिक स्थलों पर उपदेश करने के किए आमंत्रित किया था। दूसरे धर्मों के नेताओं के साथ उनका मैत्री - भाव, उनकी एक धरोहर थी।

यथार्थ में, स्वामीजी की रुचि हजारों धार्मिक विश्वासों के मूल सिद्धांतों के विश्लेषण में थी । एक धार्मिक सम्मेलन के बीच एक राजा ने प्रत्येक धर्म के उपदेशक से उसके धर्म का सार जानना चाहा था । उसको परस्पर विरोधी हजारों उत्तर मिले और उसने निर्णय किया था कि कोई समुचित धर्म इसलिए नहीं है कि प्रत्येक की असत्यता के विषय में 111 प्रमाण मौजूद हैं। एक सच्चे संत ने राजा से मूल बातें जानने का आग्रह किया, जिस पर सब लोग सहमत हो गए थे। ये मूल बातें थीं- सत्य, ज्ञान और नैतिक जीवन, और संत ने कहा था कि यही सच्चा धर्म है।

मैं, स्वामीजी के विषय में, इसी सामान्य ज्ञान के आधार पर विचार करना चाहता हूं। मैं पाठकों को स्वामीजी के जीवन पर दृष्टिपात करने के लिए सजग करना चाहता हूं और इस परिणाम पर ले जाना चाहता हूं कि हम लोग सही रास्ते से कितने भटक गए हैं। मैंने ऊपर जिन बातों का उल्लेख किया है, उनमें से क्या एक का भी हमने उपार्जन किया है ?

क्या हम अपने जीवन से जातिवादी व्यवस्था को दूर करने में समर्थ हुए हैं? क्या हम नारी वर्ग को अपने जीवन में समान अधिकार प्रदान करते हैं? क्या हम सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं और उनको असत्य संसार की विकृत अनिवार्यता के रूप में अंगीकार नहीं कर लेते और क्या हमने जाति और धर्म पर आधारित शिक्षा की बजाय, सभी बच्चों के लिए शिक्षा को जन्म सिद्ध अधिकार बनाया है?

इस सन्दर्भ में, मैं राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की समस्या की दुर्गति का स्मरण दिलाना चाहता हूं। इस प्रश्न की दुखद स्थिति से, सिवाय हमारी कमियों के और कोई नतीजा नहीं निकल सकेगा।

सन् 1837 में भारत सरकार ने घोषणा की थी कि संयुक्त प्रांत (आगरा व अवध) में फारसी लिपि में लिखी उर्दू राजभाषा होगी। 1860 में इसकी (उर्दू की) जगह देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी के पक्ष में एक आन्दोलन उभरकर आया था। उस समय भी कारण उतने ही मामूली थे, जितने कि आज हैं। लेकिन जब 1861 में बिहार प्रदेश में राज्यभाषा के रूप में उर्दू का स्थान हिन्दी ने ले लिया, तो इसने उत्तर प्रदेश में आन्दोलन के लिए प्रेरणा दी। शीघ्र ही स्वामीजी ने इस आन्दोलन के पक्ष में अपना समर्थन व्यक्त किया। उनके अथक परिश्रम के परिणामस्वरूप आर्यसमाज ने इसके समर्थन में 29 प्रतिवेदन सरकार के समक्ष प्रस्तुत किए । हिन्दी के पक्ष में स्वामीजी का समर्थन हिन्दी की संयोजक - क्षमता के कारण था। वह जिस दृढ़ता के साथ अपने सिद्धांतों के साथ प्रतिबद्ध रहे, उसकी झलक हमें अंग्रेजी भाषा में उनके उपदेशों का अनुवाद किए जाने की मांग को निरंतर ठुकराते जाने में देखी जा सकती है। वह जानते थे कि उर्दू अथवा अंग्रेजी में उनके सिद्धांतों का अनुवाद हिन्दी के अध्ययन की उदासीनता को बढ़ावा देगा। इस प्रश्न के उत्तर में, 'भारत कब महान बन सकेगा', वह प्रायः कहते थे कि "जिस समय यहां धर्म, भाषा तथा लक्ष्य की एकता हो जायेगी ।"

आज भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रश्न पर हम केवल अस्थिर ही नहीं हैं, वरन हम शक्तिशाली भाषायीविवाद की ओर वापिस जा रहे हैं । इन अंधकारमयी परिस्थितियों में, स्वामीजी का उदाहरण एक सुदृढ़ प्रकाश स्तम्भ के समान मौजूद है और वह उनका मार्ग-दर्शन कर रहा है, जिनमें उस मार्ग पर चलने का साहस तथा विश्वास है ।


हमारा दायित्व?


 

हमारा दायित्व?

लेखक: चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत सरकार 

(चौधरी चरणसिंह के जीवन पर महर्षि दयानन्द का गहरा प्रभाव था । जिस समय अजमेर में 'महर्षि दयानन्द सरस्वती अर्द्ध-शताब्दी समारोह' का आयोजन किया गया था, उस अवसर पर चौधरी चरणसिंह ने एक लेख लिखा था- 'हमारा दायित्व' (वाट इज अवर ड्यूटी ?) यह लेख दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के 3 जून 1933 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)

इस लेख में चौधरी साहब ने आर्य-पथ के अनुयायियों का आह्वान करते हुए लिखा है कि नवीन स्फूर्ति और प्रेरणा के साथ हम अपने महान गुरू के कार्यों की पूर्ति में जुट जायें, जो अजमेर में उनसे अधूरे छूट गए थे; हमारी यात्रा का यही पाथेय है।

महर्षि दयानन्द को कौन नहीं जानता? उन्होंने हमें ऐसे निराकार ईश्वर में विश्वास करने की शिक्षा दी थी, जो कभी जन्म नहीं लेता। उनका नारा था "वेदों की ओर चलो " - आर्य संस्कृति की यही आधार - शिला है, इसी पर उन्होंने अपने धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों को आधारित किया है। उन्होंने वर्ण–श्रेष्ठता अथवा ब्राह्मणत्व के लिए केवल योग्यता को कसौटी निर्धारित किया था, जाति विशेष में जन्म को नहीं । हिन्दू राज्य-व्यवस्था की शक्ति को क्षीण करने वाली सामाजिक असमानता की समस्या का समाधान उन्होंने इस प्रकार किया था। उन्होंने महिला वर्ग को भी पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने का समर्थन किया था और इस क्षेत्र में वह गौतम बुद्ध तथा शंकर से भी आगे निकल गए थे।

शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाने के लिए भी महर्षि दयानन्द ने दुस्साध्य प्रयत्न किए थे। उन्होंने अनिवार्य शिक्षा के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था और दीर्घकाल से भुला दी गई 'गुरुकुल शिक्षा-पद्धति' का पुनरावर्तन भी किया था, जहां बड़े तथा छोटे बालक - समान स्तर पर-शहरी जीवन के विकृत वातावरण से मुक्त होकर अध्यापकों की व्यक्तिगत समीपता से लाभान्वित होते हुए, शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। उनके अनुसार छात्रों के लिए ब्रह्मचर्य अनेक लाभ प्रदान करने वाला होता है। उन्होंने एक मनीषी के रूप में हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था ।

सन्तों की लम्बी परम्परा में गैर-हिन्दू लोगों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोलने वाले वह पहले संत थे । एक समय ऐसा था, जब एक हिन्दू अपने धर्म पर लज्जित होता था और ईसाई मत को अंगीकार करके लज्जा से मुक्ति की खोज किया करता था, किन्तु महर्षि के परिश्रम के लिए धन्यवाद है कि आज एक हिन्दू अपने अन्तर्मन में वैदिक धर्म के सत्य से आश्वस्त होकर और अपने मत के समर्थन में विश्वास के साथ, गर्दन ऊंची उठाकर घूम सकता है।

महर्षि दयानन्द ने इस मत का जमकर विरोध किया था कि यह संसार विकारों का घर है, अतः इससे दूर रहना चाहिए । समाज के प्रति एक सामान्य हिन्दू की इस उदासीनता का परिणाम यह हुआ कि वह सिर्फ अपने मोक्ष के विषय में ही प्रयत्नशील रहा। महर्षि दयानन्द ने प्रतिपादित किया था कि जीवन के प्रति यह नकारात्मक दृष्टिकोण, यह व्यक्तिवादी चेतना, जो जैन तथा बौद्ध धर्मों के प्रचार का विकृत प्रभाव है, भारत के राजनीतिक पराभव का प्रमुख कारण है। महर्षि दयानन्द भारतवर्ष के अतीत के प्रति श्रद्धा रखते थे और उनका विश्वास था कि विश्व के अन्य भागों में ज्ञान का प्रसारक स्रोत भारतवर्ष ही था । उन्होंने अपने देशवासियों की दृष्टि के सामने विलुप्त आर्य वैभव को फिर से प्रस्तुत किया था और उनको आश्वस्त किया था कि यदि हम उस मार्ग पर फिर से आसीन हो जायें और कार्य करना प्रारम्भ कर दें, तो गौरव - वृद्धि की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता ।

समाचार-पत्र के एक स्तम्भ में उस महान आत्मा द्वारा किए गए समस्त हितकर कार्यों को गिनाना एक निरर्थक कार्य होगा, किन्तु यह निश्चित है कि ऐसे महान व्यक्ति के प्रति हमारी श्रद्धा अपेक्षित है। पचास वर्ष पूर्व, क्रूर मृत्यु ने उनको हमारे बीच से उठा लिया था ।

आर्य समाज की सर्वोच्च कार्यकारिणी समिति, जो भारत में आज तक सुसंगठित समिति है, ने आगामी दीपावली के अवसर पर अजमेर में, उस महान गुरू की 'अर्द्ध - शताब्दी स्मरणोत्सव' मनाने का निश्चय किया है। इस सम्बन्ध में आर्य समाज के अनुयायियों का विशेष रूप से तथा अन्यों का सामान्य रूप से क्या दायित्व है? इस स्मरणोत्सव की आवश्यकता तथा उपयुक्तता के विषय में मतभेद हो सकते हैं, किन्तु एक बार जब इसका निश्चय कर लिया गया है, तब हममें से किसी को इसे बुरा कहने की आवश्यकता नहीं है । क्या हम लोग अभी तक इसके विषय में बहस करते रहेंगे? इस विषय में अब समस्त विवाद समाप्त हो जाने चाहिएं और प्रत्येक समाज को, अपनी शक्ति के अनुरूप इसको सार्थक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए |

हमें लाखों की संख्या में महर्षि द्वारा रिक्त किए गए स्थान पर एकत्रित होकर, आर्य समाज की शक्ति तथा क्षमता का प्रमाण उसी प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए, जिस प्रकार उस स्थान पर एकत्र होकर किया था, जहां वह गुरुवर स्वामी बिरजानन्द के चरणों में बैठे थे।

विचारों की स्वतंत्रता

महर्षि दयानन्द चरम सीमा तक विनम्र थे । अन्यों के समान उन्होंने स्वयं को ऋषि होने, परमात्मा का अवतार होने अथवा अतिमानवीय सत्ता का अंग होने का दावा नहीं किया, हालांकि ऐसा वह सरलतापूर्वक कर सकते थे। इसके विपरीत, उन्होंने बड़ी दृढ़तापूर्वक व्यक्ति-पूजा का विरोध किया। उन्होंने किसी नवीन सत्य अथवा धर्म के उपदेश का दावा नहीं किया, वरन् उसी का उपदेश देते रहे, जिसका प्रतिपादन ऋषियों द्वारा किया गया है। अपने अमोघ होने का दावा भी कभी नहीं किया। उन्होंने आर्य समाज के छठे नियमानुसार सबके विचार स्वातंर्त्य का समर्थन किया था। महर्षि दयानन्द विनम्र थे, क्या इसी कारण हम उनको आदर प्रदान करने से पीछे हट जायेंगे ? महर्षि आत्म- अस्वीकृति की साक्षात प्रतिमा थे, इसलिए यह हमारा दायित्व है कि हम अपनी श्रद्धा तथा भावना के पुष्प उनको समर्पित करें और अपने आचरणों द्वारा इस शंकालु विश्व को यह बता दें कि वह युग के महान व्यक्तियों में से एक हैं।

समस्त प्रकार की लज्जा, अंधविश्वास, भ्रान्त धारणाएं एवं विरोधी संसार के विरुद्ध महर्षि दयानन्द एक ऐसे सुदृढ़ स्तम्भ की भांति खड़े रहे, जिसने समस्त तूफानों को चुनौती दी हो। कैथोलिक ईसाइयों के एक विकारग्रसित रिवाज के विरोध में मार्टिन लूथर ने विद्रोह किया था, लेकिन महर्षि को अनेक धर्मों तथा सामाजिक रीति-रिवाजों के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा था। जनता की प्रशंसाएं उनके भाग्य में नहीं आईं। राजनीतिक नेताओं की तरह प्रशंसात्मक भीड़ों की जयकारें पाने की अपेक्षा उनको जूतों, पत्थरों तथा विष के रास्ते से सफलता अर्जित करनी पड़ी थी । महर्षि दयानन्द को तब तक आराम से नहीं बैठना था, जब तक कि धर्म का पूर्णतः संस्कार नहीं हो जाता। उनके विरोध तथा आलोचना का विषय सनातन धर्म की तरह इस्लाम तथा ईसाई धर्म भी बना । विरोधियों को उनकी कठोर आलोचना का प्रभाव अनुभव करना पड़ा था । इस आलोचना से मुक्ति पाने के लिए उनको अपना घर व्यवस्थित करना पड़ा था, यही कारण है कि आज हम देखते हैं कि सभी धर्मों के लोगों का उद्देश्य अपने धर्म का संस्कार करना हो गया है। क्या हम विश्वासपूर्वक यह कह सकते हैं कि हमने स्वामीजी का यह कार्य पूरा कर लिया है? मेरा मत है कि हम अभी ऐसा नहीं कर पाये हैं। आज भी लोग भ्रान्त धर्म की छाया में पल रहे हैं, पुजारीपन यद्यपि विघटित हो रहा है, पर अभी तक पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। अजमेर में हमारे विद्वानों को एकत्र होकर इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि वे कौन से तरीके हो सकते हैं, जिनके द्वारा इस प्राचीन भूमि पर वर्तमान भ्रान्त धर्मों को मिटाने का कार्य प्रारम्भ किया जाए ?

सत्य की खोज

जब तक महर्षि जीवित रहे, तब तक हमने प्रत्येक सम्भव - घृणा तथा विरोध का व्यवहार उनके साथ किया। जहां कहीं वह प्रकटित हुए, लोगों ने उनका विरोध किया, कोई ऐसा मंच नहीं था, जिससे उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया हो और उस पर उनका विरोध न किया गया हो। अपने पार्थिव शरीर के साथ, जब तक वह इस पृथ्वी पर विचरण करते रहे, तब तक घातक की तलवार और विष देने वालों का प्याला उनके भाग्य में लिखा था। मेरठ आर्य समाज अधिवेशन के, अपने अंतिम सम्बोधन में उन्होंने घोषणा की थी कि जब तक वह जीवित हैं, तब तक आर्य समाज तथा उनको घृणा की दृष्टि से देखा जायेगा, लेकिन एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा, जबकि आर्यसमाज के कार्यों का पुष्प - हारों से सम्मान किया जायेगा। ये शब्द पैगम्बर की तरह थे, समय की गति के साथ उनके कार्यों को अधिकतर स्वीकृति मिलती रही है और शीघ्र ही वह असली रूप में जाने जा सकेंगे।

स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित आर्य-समाज के सिद्धांतों को विश्व के अनेक विद्वान् मान्यताएं प्रदान करते जा रहे हैं। इस समय, भारत की भूमि पर ऐसा कोई आन्दोलन मौजूद नहीं है, जिसका श्रीगणेश महर्षि द्वारा साठ वर्ष पूर्व न कर दिया गया हो । स्वामीजी ने इस देश को संगठन का वरदान प्रदान किया था । हमको अजमेर में उस महान् सन्यासी को अपनी श्रद्धा, प्रशंसा तथा सम्मान इसलिए समर्पित करने के लिए एकत्र होना चाहिए, जिसके ऐतिहासिक उद्बोधन के फलस्वरूप हम युगों की दासता के प्रति पहली बार सजग हुए थे। ऐसे महर्षि दयानन्द को, जो संस्कृति का प्रतीक बन गया था, हम पूर्णतः बिना किसी विवाद तथा संकोच के अपनी श्रद्धांजलियां समर्पित करेंगे।

मानव–इतिहास में उनका संन्यास अभूतपूर्व था। सत्य के अनुसंधान के प्रति उनके भावुकतापूर्ण शोध ने उन्हें अपना घर जीवन के आरम्भ में ही छोड़ने के लिए अनुप्रेरित किया था और उन्होंने अद्वितीय पावनता का जीवन-यापन भी किया था । उनका अद्वितीय ब्रह्मचर्य, उनकी शिक्षा, उनका दृढ़ विश्वास, उनकी निर्भीकता, परमात्मा के अस्तित्व में अनुपमेय विश्वास के साथ जीवन और अपने उद्देश्य की ईमानदारी आदि कुछ ऐसे गुण थे, जिन्होंने उनको अप्रतिरोध्य शक्ति बनाया था। उनके गतिशील व्यक्तित्व के परिणामस्वरूप आस्थाहीन व्यक्ति भी उनकी प्रशंसा करने के लिए विवश हो गए थे। जो लोग उनकी भर्त्सना करने के लिए आये थे, वे उनकी प्रार्थना करने पर मज़बूर हुए। उन्होंने हमारे लिए लिखा तथा जीवन व्यतीत किया था। इस ऋण से हम किस प्रकार मुक्त हो सकेंगे? निश्चय ही उनके द्वारा निर्धारित मार्ग पर चलकर, उस कार्य को सम्पादित करके, जो उनको बहुत प्रिय था - वैदिक धर्म - जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन तथा रक्त समर्पित कर दिया था, का प्रचार करके और जैसी कि वह हमसे अपेक्षा करते थे, सच्चे वैदिक आर्य बनकर ही हम उस ऋण से मुक्त हो सकते हैं। हमको स्वयं महर्षि के उदाहरण से अनुप्रेरित होने की आवश्यकता है। हमें अजमेर में एकत्र होने की आवश्यकता इसलिए है, ताकि हम उस शक्ति के स्रोत से नवीन स्फूर्ति ग्रहण कर सकें। अजमेर में हम अपनी क्षमता का मूल्यांकन कर सकेंगे, अपनी शक्ति का अनुमान लगा सकेंगे और उसके पश्चात् यदि ईश्वर की कृपा हुई, तो भारतवर्ष की युवा पीढ़ी को नास्तिकता के ज्वार से प्रभावित करने वाली विचारधारा के विपरीत एक प्रबल संघर्ष खड़ा कर सकेंगे ।

हमको अजमेर में क्या करना चाहिए, इसके विषय में विस्तार के साथ मैं कुछ भी नहीं कहूंगा। इस विषय में सोचना हमारे अग्रजों का कार्य है । आर्य पुरुष, आर्य महिला तथा आर्य कुमारों से मेरा अनुरोध है कि वे अजमेर की महान यात्रा पर निकल पड़ें और उसके पश्चात् नवीन स्फूर्ति तथा प्रेरणा के साथ उस अपूर्ण कार्य की पूर्ति पर जुट जायें, जिसे हमारे महान गुरू ने अजमेर में अधूरा छोड़ दिया था। साथियो, हमारी तीर्थ-यात्रा का यही पाथेय है।


Sunday, May 18, 2025

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?


मैं आर्यसमाजी कैसे बना?

-श्री फैड्रिक जी फॉक्स एम०डी० (शिकागो)

आर्य समाजी बनने से पूर्व के जीवन पर जब मैं दृष्टि डालता हूं और १४ वर्ष की आयु के पूर्व के उन दिनों को याद करता हूँ जबकि मैं ईसाई चर्च के संडे स्कूल (रविवारीय स्कूल) का विद्यार्थी था तो विदेशीय लोगों के प्रति मेरी दिलचस्पी की मधुर स्मृतियां मेरे मानस चक्षुओं के समक्ष उपस्थित हो जाती हैं। विदेश की घटनाओं को जानने और वहां की कहानियों को पढ़ने और सुनने की मेरी सदैव विशेष रुचि रही है। मिशनरियों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों को सुनने के लिए जितना मैं उत्सुक रहता था उतना शायद ही कोई रहता हो। प्रतिवर्ष मुझे ऐसा लगता था कि भारत, चीन, अफ्रीका अथवा अन्य अज्ञात एवं रहस्यमय देशों में से किसी में अकाल पड़ने वा महामारी के फैल जाने की कहानी आयगी और पीडितों की सहायता के लिए धन की याचना की जायगी। उनके धर्म की चर्चा होगी और मूर्तियों की तस्वीरों का प्रदर्शन होगा जिनको विशेष वर्ग पूजता है।

मैं सोचता था कि ये निर्धन लोग ईसाई क्यों नहीं और ईसाइयों जैसा उनका धार्मिक विश्वास क्यों नहीं है, ऐसा सोचने का कारण यह था कि मैं यह मानता था कि ईसाई मत ही एक मात्र सच्चा धर्म है क्योंकि अब की तरह मैंने उस समय किसी उच्चतर धर्म की बात न सुनी थी। मैं ईसाई परिवार में उत्पन्न हुआ था मेरे माता-पिता भी ईसाई थे और मेरे आस-पास के सभी व्यक्ति ईसाई थे। तब ऐसी अवस्था में उच्चतर धर्म की बात सुनने का प्रसंग ही क्योंकर उपस्थित हो सकता था? परन्तु ईसाई जन सामान्यतः उदार मन वाले नहीं होते और धर्म के विषय में बहुत कम तर्क-वितर्क करते हैं विशेषतः उस धर्म के विषय में जिसका उ‌द्भव स्थान विदेश में हो। साथ ही वे लोग सदैव एक दूसरे से झगड़ते रहते हैं- "वे पैस्टर या मिनिस्टर (पुरोहित) को पसन्द नहीं करते और यह कहते रहते हैं कि उसके विचार मूर्खतापूर्ण हैं, वह अधिक कट्टर है, हम उसके उपदेशों को सुनते-सुनते तंग आ गए हैं, वह घिसी पिटी बात ही करता रहता है। कोई नई बात नहीं कहता। कुछ ईसाई इसलिए रुष्ट रहते हैं कि चर्च एक मात्र उनके पैसे का इच्छुक रहता है। कदाचित् इस मान्यता में यह भाव निहित होता है कि ईसाई चर्च के सिद्धान्तों में उनकी आस्था नहीं होती। कुछ के पास अच्छे कपड़े नहीं होते और उन कपड़ों को पहनकर चर्च जाने में उनको लज्जा अनुभव होता है। वे कपड़े फटे-पुराने वा मैले नहीं होते अपितु स्टाइल के नहीं होते।"

इस प्रकार वर्ष व्यतीत होते चले गए और मैं अच्छा बनने का भरसक प्रयत्न करता रहा। एक व्यक्ति ऐसे थे जिनके साथ मैं अपने भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में वार्तालाप किया करता था और वे मुझे प्रोटस्टैंट चर्च का मुख्य पादरी बनने का परामर्श दिया करते थे। परन्तु मेरी इस कार्य में रुचि न थी। मैं समझता हूं कि यदि मैं इस कार्य में पड़ जाता तो न जाने यह मुझे कहां ले जाता। कोई व्यक्ति जो अपने और परमात्मा के प्रति सच्चा बनना चाहे वह क्योंकर बाइबिल की कहानियों में वर्णित अनेक बुरे सिद्धान्तों में आस्था रख और उन्हें किया में ला सकता है साथ ही वह उन्हें परमात्मा की कृति भी क्योंकर मान सकता है! मैं यह मानता हूं कि जब मैं ईसाई था तो यह जानने के लिए कि बाइबिल में क्या है मैंने उसका अध्ययन कभी नहीं किया और न उसका पर्याप्त श्रवण ही किया। यही बात बहुत से ईसाइयों के सम्बन्ध में कही जा सकती है। उस समय तक मैंने किसी पुरोहित द्वारा सुनाई जाने वाली बाइबिल की अश्लील कहानियां और उपदेश नहीं सुने थे। यह सत्य है कि बाइबिल में ऐसी सामग्री बहुत कम है जो प्रजा के उपयोग की हो और उन्हें श्रेष्ठ जीवन की प्रेरणा देती हो। मैंने अनेक बार पुरोहित को किसी विषय पर लड़खड़ाते और उसमें से कोई तत्त्व की बात निकालने का प्रयास करते हुए सुना। इतना ही नहीं, असमर्थ होने पर उसे पूरा बल लगाते और अपनी भेड़ों को सीटों पर सो जाने से रोकने के लिए बीच बीच में जोरों से चिल्लाते हुए भी सुना। मेरे मन में प्रायः बाइबिल पढ़ने की इच्छा उत्पन्न होती परन्तु मेरे घर में बाइबिल की सब प्रतियां जर्मन भाषा में थीं और अतः मेरी इस भाषा में गति न थी अतः बाइबिल के अध्ययन के प्रति मेरी अभिरुचि समाप्त हो गई। बाद में मैंने अंग्रेजी बाइबिल की प्रति क्रय की इसलिए नहीं कि उससे मुझे किसी लाभ की आशा थी अपितु इसलिए कि मैं गरीब ईसाइयों को यह दिखाने के लिए तैयार होना चाहता था कि उनकी धर्म पुस्तक में क्या भरा हुआ है!

हाई स्कूल पास कर लेने के बाद जिसका खर्च मैंने स्वयं कमाकर पूरा किया था मैं एक मेडिकल स्कूल में भर्ती हुआ। इस स्कूल के अधिकांश छात्र निम्न कोटि के थे। मैं यथा सम्भव अपने को इनसे अलग रखता था। बड़ी श्रेणी में पहुंचने पर एक भद्रपुरुष से मेरी भेंट हुई। मुझे ऐसा लगा कि ४०० विद्यार्थियों के उस स्कूल में वही अकेले व्यक्ति थे जिनके विचार मेरे विचारों से मिलते थे। यह मेरे प्रिय मित्र के अतिरिक्त कोई दूसरा न था जिन्हें मैं देवदूत मानता था जिन्हें परमात्मा ने मेरी आँखें खोलने, संसार की मनोरम वस्तुएं दिखाने और यह बताने के लिए भेजा था कि एक ऐसा आस्तिक धर्म भी है जो निर्दोष है, जिसमें सीखने की अनेक वस्तुएं भरी हुई हैं और जिसके विषय में मनुष्य यह कह सकता है कि मेरी इसमें आस्था इसलिए है कि मैं इसे प्रमाणित कर सकता हूं। मैं अपने मित्र डा० खानचन्द देव एम०डी० से इस स्कूल के आखरी वर्ष के प्रारम्भ में मिला था जो भारत वर्ष के निवासी हैं। स्कूल की डिस्पेंसरी में अचानक मेरी उनसे भेंट हुई थी। उस दिन मरीज न होने के कारण हम दोनों मरीजों की प्रतीक्षा में हाल में बैठे थे। यह देखकर कि वह (डा० खानचन्द देव) एक विदेशी है और विदेशियों के प्रति मेरी स्वाभाविक दिलचस्पी थी ही मैं उनके पास गया और मैंने उनसे कई प्रश्न किए- वह कहां में आए हैं? इस देश में रहते हुए उन्हें कितना समय हो गया है? उन्होंने अंग्रेजी बोलना कहां सीखा इत्यादि-इत्यादि। मैंने ये प्रश्न इसलिए किए थे कि अमेरिका के लोगों को युरोप को छोड़ कर बाहर के देशों की अवस्था का बहुत कम सच्चा परिचय प्राप्त होता है। मैं उनकी ओर आकृष्ट हुआ क्योंकि उनकी बहुत सी बातें मुझे अपील करती थीं। जबतक कोई व्यक्ति पवित्र जीवन व्यतीत करता है तबतक मुझे किसी भी व्यक्ति के प्रति वैर-विरोध वा घृणा नहीं होती परन्तु अमेरिका में बहुत से व्यक्तियों को अकारण ही वैर-विरोध और घृणा करने की प्रवृत्ति होती है। स्कूल के सत्र के अन्त में मैंने डाक्टर देव को युवक संघ की मीटिंग में आने के लिए कहा जो उस चर्च में होने वाली थी जिसमें मैं जाया करता था। डा० देव आए और ज्यों ही वे कमरे में प्रविष्ठ हुए त्योंही पुरोहित उनकी ओर अकृष्ट हो कर उनसे बातचीत करने लग गया। उसने डा० देव को व्याख्यान देने के लिए कहा। डा० देव भारत के विषय में थोड़ी देर बोले और जब वह बोल चुके तो पुरोहित फिर उनसे वार्तालाप करने लगा। कुछ दिन के बाद मेरे मन में आया कि मैं डा० देव से पूछूं कि वे पुनः भाषण दे सकेंगे या नहीं। उनका उत्तर मिला कि मैं भाषण दे सकता हूं यदि मुझे अपने धर्म की चर्चा करने से न रोका गया। हमने यह बात स्वीकार कर ली परन्तु उनका भाषण वहां कभी न हुआ। इन थोड़े से शब्दों से स्पष्ट हो जायेगा कि पुरोहित का हृदय कितना संकीर्ण था और उसमें कितना पक्षपात भरा हुआ था। वह इस बात के लिए राजी न हुआ कि हम उनका भाषण सुनें और डा० देव धर्म पर कोई टीका टिप्पणी करें। स्कूल में थोड़ी बहुत धार्मिक चर्चा हो जती थी परन्तु हम सब अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे इसलिए विस्तार से बातें न हो पाती थीं।

अन्त में उन्होंने मुझे कुछ पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं। पहली पुस्तक जो मैंने पढ़ी वह गंगाप्रसाद कृत 'फाउन्टेन हेड ऑफ रिलीजन' थी। यह पुस्तक मुझे बहुत पसन्द आई। मैंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी और आर्य समाज के कार्य का कुछ थोड़ा सा अध्ययन किया। स्वामी जी की युक्तियों, सिद्धान्तों, विचारों और आर्य धर्म के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा को देखकर मैं आवक् रह गया। इसके बाद मैंने 'हिन्दू सुपीरियौरिटी' पुस्तक पढ़ी और उसे पढ़‌कर मेरे हृदय पर जो आश्चर्य जनक छाप पड़ी वह वर्णनातीत है। इस पुस्तक को मैं समय-समय पर पढ़ता रहता था और शान्तक्षणों में तो मैं अनिवार्य रूप से इस पुस्तक को पढ़ता था। इस पुस्तक के विषय में डा० देव के साथ तर्क-वितर्क भी करता था। परन्तु मेरे पास कोई तर्क न होता था। जो तर्क मैं उपस्थित करता था उसे डा० देव काट दिया करते थे। धीरे-धीरे मैं यह मानने लग गया था कि डा० देव की युक्तियां ठीक थीं।

इसके पश्चात् मैं उनसे नाराज हो गया था क्योंकि वे मुझे ईसाई कहा करते थे। मैं यह जानता था कि मुझे चिढ़ाने के लिए ही वे ऐसा करते हैं। मैं भी उन्हें चिढ़ाने के लिए कह देता था कि वे मुझे नास्तिक हिन्दू समझा करें। इस उपहास में दोनों को बड़ा आनन्द आता था। मैं उसी समय से आर्य चला आता हूं। मेरे साथ मेरी पत्नी भी आर्य धर्म की ओर आकृष्ट हो गई थीं। बाद में उसका एक भाई और उस भाई का एक मित्र भी हमारे विचार के बन गए। इन पंक्तियों को लिखते हुए डा० देव सहित हम ५ व्यक्तियों ने शिकागो में प्रथम आर्य समाज का संगठन किया है।

[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। संलग्न लेख आचार्य रामदेव द्वारा सम्पादित अंग्रेजी पत्रिका "The Vedic Magazine" के १९१४ के अंक में प्रथम बार छपा था। इसके महत्त्व को देखते हुए बाद में इसका हिन्दी अनुवाद सार्वदेशिक पत्रिका के १९६३ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

• Satyarth Prakash - an embodiment of a person who lived and died for upholding truth •




 • Satyarth Prakash - an embodiment of a person who lived and died for upholding truth •

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- Bharatendra Nath
One desirous of finding the fundamentals of truth, essence of true knowledge and the splendid pattern of character building blended together, must turn to the pages of Satyarth Prakash (The Light of Truth) which is the magnum opus of the great Indian sage who appeared on the scene in the 19th century. This is the monumental work of one of the greatest and the fore-most sons of India who had never bowed down before falsehood and never discriminated between man and man and who remained a seeker and propagator of truth throughout his whole life and who lived and died for upholding truth. Satyarth Prakash which he has left as an imperishable legacy to his countrymen and to the world at large is an embodiment of the genius of the master.
Swami Dayanand Saraswati, the author of Satyarth Prakash, was, no doubt, a World Teacher. He was a true son of God and wanted to see every human being like-wise. He had the credit for having revolutionised the human thought and turned it into healthy channels, especially through his work. He wanted to see the individual and the society fully developed - physically, morally and spiritually, guided by the light of Truth as well as the forces of love and joy, peace and prosperity. Satyarth Prakash presents a picture of the reconstructed society based on priceless traditions of the Vedic culture harmoniously adjusted to modern conditions and environments.
It is an irony of fate that a large number of world people did not try to assess the life and teachings of Dayanand in their true perspective. The path he has shown may or may not be gainful, but it is sure that it can never be baneful. A man treading on that path cannot lie drifted from enjoying peace and love. He chalked out such a grand scheme of life as may enable a man to constantly go ahead from birth to death smiling, and not weeping and wailing.
The world of Swami Dayanand's golden dreams had no scope for barriers between man and man. He wanted and tried to convert the whole mankind into one family by doing away with the obstacles which divided it on the artificial basis of sex, race, colour, creed and loyalties - local, regional and national. This work of Dayanand had certainly kindled a flame. But it was a flame of all consuming and all purfying fire. Swami Dayanand, the inspired son of God, kindled, the fire not merely for Aryas but for all who look for the redemption of humanity.
The Satyarth Prakash contains sum and substance and the great and essential truths of the Veda, the oldest revealed book in the library of mankind, on the authority of which the author of Satyarth Prakash had placed his unflinching faith and reliance and had based all his teachings. It was he, who had opened the closed portals of the Vedas to the whole mankind.
The work (Satyarth Prakash) which we are presenting to the public is the touch-stone on which truth and untruth are tested It is also an indicator of light and right path to those who may be groping in the dark. They can, by its thorough study, be able to know themselves and God and may make their lives shining shining and successful by having communion with Him.
We crave the indulgence of every man of understanding to make an impartial study of this great treatise. We are sure they will find it most advantageous, free from any discrepancy or anything contrary to the canons of truth and common sense.
To the present day world which stands torn asunder by mutual discord, animosity, hatred, and to mankind which is steeped in ignorance and addicted to the satisfaction of animal appetites and which is facing annihilation like a ship in the ocean turning up and down, we offer Satyarth Prakash as a light-house.
It is wrong to think Rishi Dayanand as a narrow sectarian preaching hatred towards other faiths. His criticism of some religious beliefs and practices is a beautiful instance of his independence of thought and judgement. Freedom of thought is not a thing to be afraid of. It is this that leads to true progress. If Rishi Dayanand has criticised some religious beliefs in the Satyarth Prakash, he has done a right thing. The followers of other religious faiths should not be perturbed over it. It is their duty to think over those points impartially and to reform their views in the light of Rishi's well meant criticism. This will be helpful to them. He was a cosmopolitan. His love was universal. In his generous heart there was equal love for all people whether they were Aryas, Muslims, Jains, Christians or Sanatanists; none was outside the pale of his universal love.
[Source: Above is part of "Publisher's Note" of Light of Truth, English translation of Satyarth Prakash, translated by Sri Durga Prasad and published second edition by Jan Gyan Prakashan, Delhi in 1970. Presented by: Bhavesh Merja]

Saturday, May 3, 2025

• Vedic Mysticism and the basis of Yoga •


 


• Vedic Mysticism and the basis of Yoga •

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- Acharya Vaidyanath Shastri 

In world of ours we find a lot of suffering. To remove these suffering we have to take the help of yoga or mysticism. Here "It is interesting however," points out Mr. Maxmuller, to observe the unanimity with which the principal systems of philosophy in india, nay some of their religious systems also, start from the conviction that the world is full of suffering and that this suffering should be accounted for and removed. This seems to have been one of the principal impulses, if not the principal impulse to philosophical thought in India."

The Sankhya philosophy begins with the recognition of the existence of three kinds of suffering and proclaims as its highest object the complete cessation of all pain. 

The Yoga philosophers after pointing out the way to Samadhi declare that this is the best means of escaping from all earthly troubles and in the end of reaching 'Kaivalya' or perfect freedom. 

Even the logic of Gautama aims at attaining 'apavarga' which is obtained by the complete destruction of all pain. 

The vaisesika aims at attaining the knowledge of truth and through it the final cessation of all pain. 

Badrayana teaches that the cause of all evils is 'avidya' or Nescience, and that it is the object of his philosophy to remove Nescience by science and thus to bring out true knowledge of Brahman, who is all-bliss.

If we see minutely, we would find that even the worldly pleasures are mixed with pain. The very thing in which a man seeks pleasure after a limit becomes the cause of pain. The excessive sweetness becomes distasteful. Nothing in the world is such which will always give pleasure. This is called 'Parinam-dukha' or every thing is pain-ending. 

Even if it not be so, the pleasre-giving thing is accompanied always with a nonpleasant idea. While enjoying pleasures the man always remains anxious lest this pleasant thing be not taken away from him. This anxiety is equally painful. This is called 'Sanskar-dukha' or pain in idea. 

Finally, after having enjoyed, the man always covets for the enjoyment, the necessary effort and then the consequent disappointment or difficulty, all these lead to a series of pains known as 'tapa-dukha' or pain in efforts. 

So we see that in this world, the best of the worldly pleasures also lead to pain and suffering. Whatever pain is in the present, one has to endure it, but the suffering which is to come after-wards must be done away with some-how. The attachment of the self with Prakriti is the pain. Shall we ever get rid of this widely diffused pain all around us? This sometimes lead us to pessimism.

But Vedic philosophy never presents a pessimistic outlook of life. It makes one understand that suffering is not without utility or purpose. It is a well-established fact that through suffering alone, one transcends suffering. It is through this suffering that one can attain the highest object of life. It is not a pessimism but facing of the reality that world has to fulfil two ends that is 'bhoga', the enjoyment of pleasure and pain and 'apavarga', the attainment of emancipation. To realise this latter one has to undergo the former one which activate all courage for this achievement.

All the Indian sciences, have their source in the Vedas and therefore, the yoga too has no exception. The whole system of this philosophy is based on the Vedas.

[Source: Gems of Aryan Wisdom, pp. 66-68, 1968 edition, Presented by Bhavesh Merja]

Sunday, March 9, 2025

Do Women Have the Right to Chant the Gayatri Mantra?


Do Women Have the Right to Chant the Gayatri Mantra?

By Priyanshu Seth

In today's era, a misconception has spread in Hindu society that women do not have the right to chant the Gayatri Mantra. This belief contradicts our scriptures. In ancient times, both men and women regularly worshiped Gayatri, but today, this practice is rare. Present-day sectarian gurus give their disciples new and various mantras. Some prescribe "Ramaṃ Rāmāya Namaḥ," others "Namo Nārāyaṇaḥ," while some suggest "So'ham" and many other unfamiliar chants. Among these, the Dvādaśākṣara Mantra (twelve-syllable mantra) is widely known as "Om Namo Bhagavate Vāsudevāya."

The first issue with this so-called mantra is that it does not appear in any Veda. No one can show this mantra in the Vedic texts. Secondly, it was never meant for the twice-born (Dvijas). Even the Puranas confirm this, stating:

"Dvādaśākṣarakaṃ mantraṃ strīśūdreṣu vidhīyate."
— Vishnu Dharma, Prathama Khaṇḍa 155/28

This means that the twelve-syllable mantra was created for women and Shudras.

When women were deprived of their right to Vedic knowledge, new mantras like "Om Namo Bhagavate Vāsudevāya" were introduced. No sectarian guru instructs their disciples to chant the Gayatri Mantra. If some do, they wrongly claim that women are not entitled to its recitation.

This falsehood must be corrected. From the Vedas to the Puranas and Smritis, all scriptures affirm that women have the right to Vedic knowledge. When Rishikas (female seers) have been acknowledged as composers of Vedic hymns, who can challenge women's right to study the Vedas? History also mentions many Brahmavadini (women scholars of Vedic knowledge).

The Shalya Parva of the Mahabharata narrates the story of a female ascetic named Siddha, who mastered the Vedas and attained yogic perfection. Bharadwaja’s daughter, Shrutavali, was a Vedic scholar, while devotee Shandilya’s daughter, Shrimati, was engaged in Vedic study. Shiva, a Brahmin woman, was also well-versed in the Vedas. Similarly, Bharti, Maitreyi, Gargi, Sulabha, Draupadi, Vayuna, Dharini, and Vedavati were all learned in the Vedas. Vedavati had committed all four Vedas to memory.

Not only were women allowed to study the Vedas, but some even attained the esteemed title of Brahma (spiritual master). If women have the right to study all four Vedas, then is the Gayatri Mantra outside the Vedic domain?

The Puranas also grant women the right to chant Vedic mantras. The Bhavishya Purana (Uttar Parva 4/13) states:

"A woman, even if widowed, should practice good conduct and receive Vedic mantras. A married woman may do so with her husband's consent."

Similarly, the Vasishta Smriti (21/7) states:

"If a woman develops ill thoughts toward her husband, she should atone by chanting the Gayatri Mantra 108 times to purify herself."

The Bhavishya Purana also warns against non-Vedic chants:

"Vrithā jāpyam avaidikam."
— Bhavishya Purana, Uttar Parva 122/9

This means that chanting non-Vedic mantras is futile.

There are numerous such references proving that those who forbid women from chanting the Gayatri Mantra are disregarding the Vedas, Shastras, Puranas, and historical records.

Many texts have been written on the profound meaning of the Gayatri Mantra, and more will continue to be written. However, its full essence can never be completely explained because it embodies the essence of all four Vedas. Practitioners who chant it should understand its significance. Without comprehension, chanting yields limited benefits. The devotee should be aware of what they are saying before the Divine, what requests they are making, and what they are offering.

The Gayatri Mantra, in essence, is an invocation of self-surrender. Just as a bride, with full awareness and determination, surrenders herself to her husband before the sacred fire during marriage, a devotee chanting the Gayatri Mantra says:

"O Beloved, I meditate upon Your divine, pure, and luminous radiance. You alone are worthy of adoration. You, the Creator of all, the illuminator of all beings, the remover of sorrows, and the giver of happiness! I offer my intellect to You—guide it toward the path of righteousness!"

Just as a devoted wife remains forever faithful to her husband, the practitioner of the Gayatri Mantra dedicates themselves entirely to the Divine. Once surrendered, no other entity can take the place of the Supreme within their heart. Any deviation from this devotion is akin to a blemish on one's faith.

Through constant chanting of the Gayatri Mantra, the devotee repeatedly submits themselves to the Divine, saying:

"I am now Yours. You hold the reins of my intellect. O Lord, lead me toward Your divine path!"

The mind, being singular, can either be devoted to God or become entangled in worldly distractions. As Kabir aptly puts it:

"Kabira yeh man ek hai, chahe jahān lagāya
Bhāve prabhu kī bhakti kar, bhāve viṣay kamāya."

"Kabir says: This mind is one—wherever you place it, there it will be. Either dedicate it to the devotion of the Lord or let it wander in worldly desires."

Through the Gayatri Mantra, one firmly establishes their mind in the Divine. Having surrendered everything to God, one should constantly cherish and adore Him, saying:

"Make my eyes a palace for You, let my pupils be the royal bed,
Let my eyelashes be the curtains, so I may enchant my Lord."

Once the intellect and mind have been offered to God, no other thoughts can intrude. Chanting "Bhūḥ," one calls out to the Supreme as their Prāṇa-pyāra (beloved of life). If the Beloved is separated even for a moment, the devotee feels the anguish of separation, just as a lover longs for their beloved. True devotion is marked by an intense longing for union with the Divine. As a poet describes:

"Ur me dāha, pravāha drig, rah-rah nikle āha,
Mar miṭne kī chāha ho, yahi viraha kī rāha."

"The heart burns, tears flow, and sighs escape time and again.
A deep longing to surrender—this is the path of devotion."

However, those who sincerely practice the Gayatri Mantra do not face spiritual death. Instead, they receive a new life, filled with divine wisdom and enlightenment.

(Thanks to the boundless grace of Maharshi Dayanand, women have regained their right to Vedic knowledge. Thus, these so-called non-Vedic mantras should be abandoned, and all should regularly chant the Gayatri Mantra.)

#women #gayatrimantra #vedas #vedicknowledge #maharshidayanandsaraswati #aryasamaj

Friday, January 31, 2025

अन्तिम हिन्दू भाग 3


 


अन्तिम हिन्दू


लेखक - पुरुषोत्तम

प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य 


भाग 3 


नतमस्तक हो और हाथ जोड़कर वह हिन्दू भगवान् से बोला, “प्रभो ! समाज में अच्छे और बुरे लोग सर्वत्र ही होते हैं। भूल मनुष्य से ही होती है। आपने सब सत्य ही कहा किन्तु फिर भी मेरे समाज में दानी और परोपकारी मनुष्यों की, तपस्वी साधकों की कमी नहीं थी । दानी महानुभावों ने सहस्रों आश्रम खोले । एक- एक आश्रम में सैकड़ों साधक और परिव्राजक भोजन पाते थे । प्रवचन और पाठ होते थे ।" भगवान् उसे बीच में ही रोककर बोले, "हाँ मैंने तुम्हारे वह आश्रम देखे हैं वहाँ जो कुछ होता है वह मुझसे छिपा नहीं है । वह आश्रम कहाँ है ? विलास की क्या कमी है वहाँ ? जो सैकड़ों लोग नित्यप्रति मुफ्त भोजन पाते हैं उनमें गिनती के दो-चार भी तो साधक नहीं हैं ! अधिकांश निठल्ले लोग हैं जिन्हें बिना परिश्रम भोजन पाने की आदत पड़ गई है । वह समाज के परजीवी बन गये हैं। शेष जो श्रद्धावान लोग वहाँ आते हैं उनमें से कुछ तो वर्ष भर सांसारिक कार्यों में लिप्त रहकर वहाँ पर थोड़ी शान्ति की खोज में आते हैं। उनके लिये यह छुट्टी मनाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं । अधिकांश आश्रमों में उनकी जमीन जायदात के मुकदमे चल रहे हैं । अध्यात्म, स्वाध्याय और समाजसेवा से यह आश्रम और उनके मठाधीश कोसों दूर तुम्हारे साधु-सन्तों की इस बुरी दशा को देखकर मैंने तुम्हें एक अन्तिम अवसर और दिया। अपने तेजस्वी, तपस्वी पुत्र दयानन्द को भेजा । उसने वेदों का उद्धार किया। उन सभी तत्त्वों का अध्ययन किया जो तुम्हारे समाज को पतन की ओर ले जा रहे थे । उनके विरुद्ध उसने युद्ध की घोषणा कर दी। किन्तु उसे तुम्हारी ही जाति के एक मनुष्य द्वारा विष दिया गया। उसके निधन के ५० वर्ष पश्चात् ही उसका संगठन स्वार्थी लोगों द्वारा विघटित होने लगा। सत्ता और धन के लोभी बलशाली हो गये । उसके बताये हुए अपने मुख्य ध्येय को भूलकर वह दूषित राजनीति में उन्हीं तत्त्वों की कृपा जोहने लगे जिनके विरुद्ध उसने तुम्हें सावधान किया था । अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जनगणना की कोई पद्धति न थी, सन् १८६१ में पहली जनगणना हुई उस जनगणना में हिन्दू भारत में ७५.१ प्रतिशत रह गये । इसी समय मुसलमान १९.९७ प्रतिशत से आगे बढ़कर २४.२८ प्रतिशत हो गये। इसी प्रकार बढ़ोत्तरी ईसाइयों में भी हुई। "


"फिर १९४७ में भारत का बंटवारा हुआ, हिन्दुओं के साथ मुस्लिम भारत में। जिन नदियों के तट पर बैठकर तुम्हारे ऋषियों ने वेदों के भाष्य किये और जिस तक्षशिला में तुम्हारे महान् विद्वानों का निर्माण हुआ था, पाणिनी की जन्मस्थली, वह सब मुस्लिम प्रान्त बन गये । ९७ प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में मत देकर सिद्ध कर दिया कि वह तुम्हारे साथ सह नागरिक बनकर नहीं रह सकते। तुम्हारी जाति जिनको शूद्र कहती थी, उन्हीं शूद्रों में से मेरे एक मनस्वी और तेजस्वी पुत्र अम्बेडकर ने तुम्हारे अदूरदर्शी और भ्रमित नेताओं को बार-बार चेताया कि मज़हब के नाम पर ९७ प्रतिशत मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान की माँग उठाने के पश्चात् मुसलमानों का हिन्दू भारत में बने रहने का कोई औचित्य नहीं है । यदि वे भारत में बने रहे तो विभाजन से पूर्व की समस्यायें ज्यों की त्यों बनी रहेगी। किन्तु तुम्हारे पद लोलुप, दम्भी और अदूरदर्शी नेताओं ने उसकी एक न मानी। उन्होंने पाकिस्तान गये हुए मुसलमानों से लौट आने की अनुनय विनय की । फलस्वरूप हिन्दू भारत में वही मुस्लिम समस्यायें फिर खड़ी हो गईं जो पहले थीं । अपने M स्वप्नों में खोये तुम्हारे नेता टूटे हुए काँच के टुकड़ों को गोंद लगा-लगाकर जोड़ने का प्रयास करते रहे। उन प्रयासों की असफलता का दोष वह कभी काँच की कठोरता पर और कभी गोंद में चिपक की असफलता पर लगाकर रुदन करते रहे । १२०० वर्ष के अनुभव से वह काँच के कभी न जुड़ने वाले स्वभाव को क्यों नहीं समझ पाये ? ऐसे मूर्ख समाज को तो नष्ट होना ही था । " ८४.७८ प्रतिशत ।


"हिन्दू भारत में हिन्दू का प्रतिशत १९५१ में था बाद वह रह गया ८२.७२ प्रतिशत । "


१९७१ में अर्थात् केवल २० वर्ष " यह सीधा-सादा गणित तुम्हारे किसी नेता की समझ में क्यों नहीं आया कि बूँद-बूँद घटने पर भी समुद्र सूख सकता है। तुम अपने ही देश में एक प्रतिशत प्रति दस वर्ष की गति से कम होते जा रहे थे और मुसलमान, ईसाई लगभग इसी गति से बढ़ते जा रहे थे । संख्या की दौड़ में तुम उनसे दो प्रतिशत प्रति दस वर्ष की दर से पिछड़ते जा रहे थे । इसी प्रकार ईसाइयों से भी। किन्तु तुम्हारी जाति की यह संख्या ह्रास तो केवल जन्म दर के कारण था । विधर्मी पास के विदेशों से चोरी-छिपे तुम्हारी सीमाओं में घुसे चले आ रहे थे। नागालैण्ड में मुस्लिम १९६१ - १९७१ के बीच २३२ प्रतिशत और १९७१-१९८१ के बीच २९८ प्रतिशत बढ़े। जबकि हिन्दू लगभग ७५ प्रतिशत बढ़े। सिक्किम में मुस्लिम १९७१ - १९८१ में ८६७ प्रतिशत, अरुणाचल में ५०२, मिजोरम में १९६१ - १९७१ में ८०५ प्रतिशत बढ़े। तुम्हारे शासक और समाज चारों ओर से घिरती चली आ रही टिड्डी दल जैसी आपत्ति से कैसे आँखें मूँदें बैठे रहे।”


वह हिन्दू भगवान् की इन कटु बातों से तिलमिला उठा। उसने हाथ उठाकर कहा—“प्रभो ! क्षमा करें। क्या 'सर्वधर्म समभाव' और 'सत्यमेव जयते' जैसे सिद्धान्तों की संसार में घोषणा करने और उन पर आचरण करने वाले हिन्दू समाज को नष्ट हो जाना चाहिए था ? कौन सा दूसरा समाज है जो इन सिद्धान्तों पर आचरण तो दूर इनको मान्यता भी देता हो । "


भगवान् अपने उस अबोध बालक पर करुणामयी दृष्टि डालकर बोले“वत्स ! तुम्हारे समाज जैसा भ्रमित समाज संसार में दूसरा न कभी रहा है और न कभी रहेगा तुम्हारे उपरोक्त दोनों ही सिद्धान्त तुम्हारी मूर्खता के परिचायक हैं। धर्मों में समानता कम विरोध अधिक । क्या तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी धर्म दूसरे धर्म को आदर अथवा सम्मान योग्य घोषित करता है । कर भी नहीं सकता । अन्यथा उसके अस्तित्व की आवश्यकता ही क्या ? ईसाई, इस्लाम आदि मध्य एशिया में उत्पन्न मजहब हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों के नितान्त विपरीत सिद्धान्त पर बल देते हैं। वह जिन धर्मों का कुफ्र और मूर्खता की उपज समझते हैं उनको आदर कैसा ? समान आदर तो असम्भव है ।"


“ अब सुनो ‘सत्यमेव जयते' का रहस्य । तुमने इसका अर्थ समझा कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है असत्य पक्ष की नहीं । इस कारण से तुम अपने पक्ष को सत्य मानकर तुम सदैव आश्वस्त होते रहे कि विजय तुम्हारी ही होगी । किन्तु उपनिषद् वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है। इसका अर्थ यह है कि सत्य सिद्धान्त की सदैव विजय होती है, असत्य सिद्धान्त की नहीं । सत्य सिद्धान्त यह है कि बलवान की विजय होती है निर्बल की नहीं । चातुर्य की विजय होती है मूर्खता की नहीं । शौर्य की विजय होती है कायरता की नहीं । संगठित समाज की विजय होती है 

असंगठित की नहीं। अनुशासित शासन की विजय होती है अनुशासनहीन की नहीं और जो विजयी होता है उसी का पक्ष सत्य मान लिया जाता है । इस कसौटी पर अपनी असफलताओं को परखोगे तो तुम्हें इस सिद्धान्त का वास्तविक अर्थ समझ में आ जायेगा। क्या तुमने कभी सोचा कि यदि सत्य पक्ष की ही सदैव विजय होती तो तुम यवनों और ईसाइयों से निरन्तर क्यों हारते रहे ? क्या इससे यह सिद्ध हो गया कि तुम्हारा पक्ष झूठा था और उनका सत्य ? नहीं पुत्र नहीं! इस उपनिषद् वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है असत्य पक्ष की कभी नहीं। इसका अर्थ यह है कि सत्य सिद्धान्त की सदैव विजय होती है असत्य सिद्धान्त की नहीं ।"


"मैंने कहा था कि जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते उनकी रक्षा मैं नहीं कर सकता हूँ । दुर्बल का मर जाना ही कल्याणकारी होता है, 'दैवो दुर्बल घातकः' दैव भी दुर्बल को ही मारता है ऐसा मेरा मत है। यदि तुम्हें अपने समाज को जीवित रहने की आकांक्षा होती तो तुमने उसके निरन्तर ह्रास को रोकने का कोई उपाय तत्काल सोचा और किया होता। तुमने साँपों, चीतों, बाघों, गैंडों इत्यादि पशुओं की सुरक्षा के तो कारगर उपाय किये जिससे उनकी प्रजाति लुप्त न हो जाय किन्तु अपने समाज, संस्कृति तथा धर्म को लुप्त होते हुए देखकर उसकी सुरक्षा का क्या कोई उपाय किया ? तुम और तुम्हारे द्वारा चुने हुए सत्ता प्राप्त शासक दशाब्दियों तक इस ह्रास को मूक बने देखते रहे। दूसरी ओर मुसलमानों और ईसाइयों ने वह सभी सम्भव उपाय किये जिससे इस दौड़ में उनकी तुम्हें पछाड़ने की गति तीव्र होती रही। इस आत्मघाती लापरवाही का जिम्मेदार तुम्हारा समाज स्वयं था । "


" 'तुम्हारे समाज ने बार-बार उन्हीं लोगों को सत्ता सौंपी जिन्हें तुम्हारे हितों की कोई चिन्ता नहीं थी । जो कहने को हिन्दू थे किन्तु विजातीय संस्कृति एवं धर्मों के प्रशंसक थे। उन्हें तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दू ज्ञान छू भी नहीं गया था। कैसी अद्भुत बात है कि 85 प्रतिशत जनसंख्या के बल पर चुने हुये प्रतिनिधि उसी समाज के साथ विश्वासघात करने की हिम्मत करें। ऐसा व्यवहार केवल मृतप्रायः समाज के साथ ही किया जा सकता है।"


'तुम्हारे तथाकथित विद्वान् भी धन और सम्मान की लालसा से इतिहास को तोड़ने मरोड़ने लगे। उन्हें अपनी जाति में ही सब दोष दिखाई देते थे । विजातीय संस्कृति एवं धर्म की झूठी प्रशंसा ही मानो उनका कर्त्तव्य बन गया था । उनकी खोटी हिन्दू - घातक गति-विधियों को उजागर करने का साहस तुम में से किसी में न था । हिन्दू बाहुल्य के कारण धर्म के नाम पर बने तुम्हारे देश में मुसलमान समस्यायें पैदा करते रहे। पड़ोसी देश समस्यायें उत्पन्न करते रहे । न तुम्हारे नेताओं में और न तुम्हारे बुद्धिजीवियों में यह कहने का साहस हुआ कि यह समस्यायें उनका इस्लामी दर्शन उत्पन्न कर रहा है। वह उन समस्याओं को सदैव राजनीतिक कहकर अपने को धोखा देते रहे और समाज को भ्रमित करते रहे। क्या उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस्लाम का एकमात्र ध्येय विश्व पर शरीय शासन और इस्लाम की स्थापना है। जब तक यह ध्येय प्राप्त नहीं हो जाते इस्लाम चुप नहीं बैठ सकता । जिस समाज के विद्वत्जन भ्रष्ट हो जाते हैं वह समाज नष्ट हो जाता है । क्योंकि शिक्षा द्वारा भावी पीढ़ी की मनोवृत्ति बनाने वाले वह ही हैं। जिस जाति को अपने हित चिन्तकों और अहित चिन्तकों की पहचान न हो, जिसे अपने नित्यप्रति क्षीण होने वाले अस्तित्व की चिन्ता ही न हो वह कितने दिन तक जीवित रह सकता है ?" " तुम्हारे अन्दर पूज्य अपूज्य का भेद न रहा, मित्र और शत्रु का भेद न रहा, धर्म-अधर्म का भेद न रहा, ज्ञान-अज्ञान का भेद न रहा, शिक्षा कुशिक्षा का भेद न रहा। क्या अब तुम्हारी समझ में आया कि अपनी बर्बादी के जिम्मेदार तुम स्वयं हो। मैंने तुम्हें बचाने के सहस्रों उपाय किये बताओ वत्स ! मैं और क्या करता ? इसमें दोष तुम्हारी जाति का है कि मेरा ?"

अन्तिम हिन्दू भाग 2


 


अन्तिम हिन्दू


लेखक - पुरुषोत्तम

प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य 


भाग 2 


"मैं पूछता हूँ एक सहस्र वर्षों में तुम्हें यह क्यों नहीं सूझा कि उस द्रव्य से तुम सेना और हथियार इकट्ठे करते । संगठन के लिये गाँव-गाँव में अखाड़े तथा शस्त्र शिक्षा का प्रबन्ध करते। ऐसी पाठशालायें खोलते जिसमें शस्त्र विद्या तथा युद्ध कौशल सीखे अर्जुन जैसे धनुर्धर, कर्ण जैसे दानी, भीम जैसे मल्ल, कृष्ण जैसे धर्म की स्थापना करने वाले, उसके मर्म के ज्ञाता, कौटिल्य जैसे कूटनीतिज्ञ सहस्रों की संख्या में निर्मित होते ?"


" मुसलमानों और ईसाइयों ने तुम्हारे देश में अपनी संस्कृति के प्रचारप्रसार के लिये सहस्रों मदरसे तथा स्कूल खोल डाले। वहाँ हिन्दू संस्कृति के मर्म पर चोट पहुँचाने की शिक्षा पा - पाकर लाखों भारतीय बच्चे प्रतिवर्ष युवा बनकर देश भर में फैलते रहे । तुमने अपनी भावी पीढ़ी में इन दोनों संस्कृतियों से श्रेष्ठ हिन्दू संस्कृति की छाप जमाने के लिये क्या किया ?"


क्या तुमने उनकी शिक्षा का भार विदेशियों, निरंकुश तथा अहिन्दू लोगों के हाथ में नहीं छोड़ दिया ? जब भारत गुलामी से स्वतन्त्र हुआ तो वहाँ कुल ८८ मुस्लिम मदरसे थे और कुछ ईसाई मिशनरी स्कूल । ५० वर्षों से भी कम समय में भारत में ३०००० मदरसे तथा असंख्य अंग्रेजी स्कूल खुल गये ।


कितना महत्त्वपूर्ण अन्तर था तुम्हारे पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान में और तुम्हारे विधर्मी आक्रमणकारियों में । उनके धर्म का सारा भवन टिका था मेरे द्वारा निर्मित एक मनुष्य के ऊपर। वह समझते थे कि मेरी कृपा प्राप्त करने के लिये उनमें से किसी एक पैगम्बर अथवा धर्मगुरु पर अन्धविश्वास होना ही पर्याप्त है। फिर उनके सभी दुष्कर्मों और पापों को मैं पैगम्बरों की मध्यस्थता के कारण क्षमा कर दूँगा । और तुम्हें बताया गया था कि कर्म तो अच्छे हों या बुरे भोगने ही पड़ते हैं। मेरे तुम्हारे बीच में कोई मध्यस्थ नहीं है। मैं भी अपने नियमों से बंधा हूँ ।


“मैं तो सत् चित् आनन्द हूँ । तुम मेरे गीत गाओ अथवा मुझे गाली दो, मन्दिर बनाओ या तोड़ो उससे न मैं प्रसन्न होता हूँ और न क्रुद्ध । यह दूसरी बात है कि मेरे गुणगान कर मेरे शाश्वत गुण तुम अपने अन्दर उत्पन्न करो। तुम्हें तो तुम्हारे कर्मों का फल ही प्राप्त होगा। तुम जड़ की पूजा करोगे तो जड़ता की ओर, चैतन्य की पूजा करोगे तो चैतन्य की ओर बढ़ते जाओगे। क्या गीता में कृष्ण ने तुम्हें नहीं बताया था-


यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥- गीता ९ । २५


जो देवताओं की पूजा करते हैं वह देवताओं को, जो पितरों की पूजा करते हैं वह पितरों को, जो भूतों और जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं वह जड़ता


को प्राप्त होते हैं। केवल वही मुझे प्राप्त होते हैं जो मेरी पूजा करते हैं। ऐसा कर्मफल सिद्धान्त तुम्हारे पास था किन्तु तुमने उसके विरुद्ध जड़ पदार्थों की पूजा, मृत पुरुषों की कब्रों, समाधियों और लक्ष्मी की पूजा की। फलस्वरूप मृत्यु, जड़ता एवं धन ही तुम्हारे पल्ले पड़ा । तुम्हें स्पष्ट बताया गया था-


अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानाम च निरादरः । त्रीणि तत्र प्रविशन्ति, दुर्भिक्षम्, मरणम् भयम् ॥


- -महाभारत


जो समाज उनकी पूजा करता है जो पूजा के योग्य नहीं है और उनका निरादर करता है जो पूजा के योग्य है उस समाज को दुर्भिक्ष, मृत्यु और भय भोगना पड़ता है ।


" मैंने तुम्हें विद्याध्ययन और स्वाध्याय के लिये आदेश दिया था । इसमें प्रमाद न करने को कहा था । " स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमादितव्यं । " स्वाध्याय और उससे प्राप्त ज्ञान के प्रचार-प्रसार में प्रमाद मत करना । क्या तुमने अपने और विदेशी आक्रमणकारियों के धार्मिक विश्वासों और इतिहास का स्वाध्याय किया ? जब स्वाध्याय ही नहीं किया तो उसका प्रचार-प्रसार क्या करते ? उसका प्रतिकार कैसे करते ? ज्ञानार्जन के स्थान पर तुमने सरस्वती की पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी आराधना प्रारम्भ कर दी । शक्ति की उपासना की जगह उसकी भी पत्थर की कपोल कल्पित मूर्ति बनाकर पूजा करना ही ध्येय बना लिया। अपने शस्त्रास्त्र इन निर्जीव मूर्तियों को पकड़ाकर तुमने अपनी रक्षा का भार उन पर छोड़ दिया। जब महमूद गजनवी के खूनी लुटेरों का टिड्डी दल सोमनाथ की ओर बढ़ रहा था तुम्हारे मूर्ख अन्धविश्वासी रक्षक मन्दिर की दीवारों पर बैठकर उनका उपहास कर रहे थे कि पास आते ही सोमनाथ उन्हें भस्म कर देंगे। वह सब गाजर मूली की तरह काट दिये गये सोमनाथ की प्रतिमा तोड़कर गजनी की मस्जिदों की सीढ़ियों पर और बाजार में डाल दी गई जिससे वह मुसलमानों द्वारा पद्दलित व अपमानित होती रहे । सोमनाथ का मन्दिर न जाने कितनी बार बना और टूटा। राजनीति में कभीकभी भूल हो जाती है । किन्तु उस भूल को बार-बार करने वाले समाज को जीने का अधिकार नहीं होता । तुमने तो गायत्री छन्द में दिये गये एक ज्ञानमय मन्त्र के अर्थों पर आचरण न कर उसकी भी मूर्ति बना डाली। पुत्र ! स्वर्ण की गउवें दूध नहीं देतीं। पत्थर के सिंह एक चूहा भी नहीं मार सकते । यह बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आई।"


तुम्हारा मन्दिरों का मोह और पत्थर के देवी-देवताओं पर विश्वास बना रहा जितना कोलाहल तुम्हारे मन्दिरों में होता है उतना तो हाट बाजार में भी नहीं होता । और कौन जाता था तुम्हारे इन मन्दिरों में ? क्या करते थे वह वहाँ ? कितनी देर ? वहाँ अधिकतर जाते थे निकट आती मृत्यु से भयभीत वृद्ध और वृद्धायें ? जो लोग आते थे वह लोग भी वहाँ उतनी देर ही ठहरते थे जितना समय पुजारी को उनका प्रसाद मूर्ति पर चढ़ाने में लगता था । प्रसाद चढ़ाकर और शेष भाग लेकर उन्हें अपने व्यवसाय पर जाने की जल्दी रहती थी । तुम्हारे पुजारी भी अधिकतर ऐसे ही थे जिनका शास्त्र अध्ययन न के बराबर था। जो ज्ञान उन्हें स्वयं नहीं था वह तुम्हें क्या बताते ? कहीं-कहीं थोड़ा भजन कीर्तन होता था जिसका भाव होता था ईश्वर की भक्ति अथवा पौराणिक कथायें - कहानी मात्र सुनने का रस । प्रवचन यदि कहीं होता भी था तो केवल यह बताने के लिये कि संसार अनित्य है । सब माया है। सब छलावा है। जबकि सत्य यह है कि प्रवचन करने वालों और सुनने वालों के लिये वास्तव में संसार ही सब कुछ था । शेष सब झूठ था। वह अपनी जाति के लिये उस झूठे संसार का, उस माया का, जो उन्होंने उचित अनुचित का ध्यान किये बिना संचित किया था, एक पैसा भी समाज के लिये खर्च करने में संकोच करते थे। क्या वहाँ कभी इस पर प्रवचन होता था कि हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त क्या हैं ? वह दूसरे मत-मतान्तरों से क्यों श्रेष्ठ है । होता भी कैसे वहाँ प्रवचन करने वालों को ही इसका ज्ञान कहाँ था ?"


I " इसके विपरीत मस्जिदों में क्या होता था ? वयस्क पुरुषों का ५३ प्रतिशत समाज वहाँ दिन में पाँच बार एकदम शान्ति के साथ मेरा ध्यान करता था। इनमें अधिकांश युवक और किशोर होते थे । उसके पश्चात् वहाँ इस्लाम धर्म की विधिवत शिक्षा प्राप्त इमाम श्रोताओं को इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश करता था। उन्हें बताता था कि इस्लाम धर्म दूसरे धर्मों से श्रेष्ठ क्यों है । समाज में फैले इस्लाम विरोधी रीतिरिवाजों की वहाँ कड़ी आलोचना होती थी। उनको मिटाने पर बल दिया जाता था । साधन जुटाये जाते थे । गरीब से गरीब मुसलमान अपने समाज के लाभ के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने को तत्पर रहता था। और तो और समाज का वातावरण बिगाड़ने वाले कानूनी मुकदमे भी वहाँ सामाजिक दबाव डालकर सुलह कराये जाते थे। समाज की सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं से किस प्रकार जूझा जाय उस पर विचार होता था । सत्ता प्राप्त करना धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये आवश्यक है । इसलिये सत्ता पर किस प्रकार कब्जा किया जाय, उसके लिये ध्यानपूर्वक कुशल लोगों द्वारा नियोजित ढंग से अमल होता है । वहाँ पर स्थापित लाखों मकतबों में चार - चार, पाँच-पाँच साल के बच्चों को कट्टर इस्लाम की शिक्षा दी जाती थी । कुफ्र और काफिरों से घृणा करना सिखाया जाता था। समाज के लिये बलिदान होने की भावना भरी जाती थी । "


" तुम्हारे समाज की मूर्खता और आपसी फूट के कारण मुस्लिम राज्य आया। उन्होंने तुम्हारे शास्त्रों और चरित्र का गहन अध्ययन किया । तुम्हारी पुस्तकों के फारसी में अनुवाद कराये। तुम्हारी कमजोरियों का लाभ उठाया । तुम्हारी पाठशालायें और पुस्तकालय इसलिये ध्वस्त कर दिये कि तुम अपने बच्चों को अपने धर्म और इतिहास की शिक्षा देकर उनकी शक्ति के लिये खतरा न बन जाओ। तुमने उनके धर्म और इतिहास का, उनके संगठन का, उनकी युद्ध और सैन्य प्रणाली का कोई अध्ययन नहीं किया। तुम एक दूसरे के साथ विश्वासघात करते रहे। वह एक एक कर तुम्हें परास्त करते रहे। मैंने तुम्हें जो संगठन सूत्र दिया उस पर तुमने कितना आचरण किया ? करोड़ों लोग मुसलमान बनाये गये । यदि उन्होंने अपने धर्म में वापिस आने की भी गुहार की तो वह अस्वीकार कर दी गई । "


'तुम्हारी निरन्तर पराजय से उत्पन्न हताश दशा को देखकर मैंने प्रताप, दुर्गादास, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह जैसे योद्धा रासबिहारी बोस, जितेन्द्रनाथ, शचीन्द्र सान्याल, भगत सिंह, पिंगले, वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा जैसे सैकड़ों क्रान्तिकारी युवक भेजे। एक बार को लगा कि तुम भारत में फिर से धर्म पर आधारित, संसार के लिये आदर्श राज्य स्थापित करोगे । किन्तु तुम आपस में मिलकर न बैठ सके। यह भूल गये कि वसुन्धरा वीरभोग्या है कायर भोग्या नहीं। तुमने अहिंसा का मर्म न समझ कर अहिंसा के नाम पर फिर कायरता को वरण किया। समाज को शौर्य और प्रतिघात की क्रान्तिकारी शिक्षा नहीं दी।"


" फिर मुसलमान निर्बल हो गये तो अंग्रेजों ने उन्हें परास्त कर तुम दोनों पर राज्य किया । उन्होंने भी तुम्हारी पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। जिन धर्म पुस्तकों को तुमने अन्धेरी कोठरियों में बाँध बाँध कर रख दिया था उनको पैसे दे-देकर उन्होंने खरीदा। उनका अंग्रेजी में अनुवाद करवाया । उसमें दिये गये ज्ञान से लाभ उठाया । तुम्हारी कमजोरियों को समझा और तुम्हारे कमजोर मर्मस्थलों पर चोट की। उन्होंने भी करोड़ों लोगों को ईसाई बनाया । तुम्हारे सहस्रों वर्षों से प्रताड़ित धर्म बन्धु मुसलमान ईसाई बनकर तुम्हारी जड़ों को खोदने लगे । १२०० वर्ष पहले भी इन तथाकथित धर्मों की वास्तविकता को समझे बिना ही स्वयं तुम्हारे शासकों ने भारत में मस्जिदें तथा गिरिजाघर सरकारी धन से निर्माण कराये थे। मुस्लिम देशों से व्यापारिक लाभ उठाने के लिये स्वयं इस्लाम धर्म स्वीकार किया तथा अपने नाविकों को भी कराया। विदेशी नाविकों को हिन्दू स्त्रियाँ दे-देकर भारत में बसाया था। उन्हीं की सन्तानों मोपलों ने आगे चलकर तुम पर कहर ढाये । बलपूर्वक और छल द्वारा धर्मान्तरण किये । किन्तु १२०० वर्षों में क्या तुम्हारे विद्वानों ने कभी भी इन धर्मों का गहन अध्ययन कर उनके इरादों को समझा ? तुम्हारी संख्या कम होती गई। उनकी बढ़ती गई । तुम्हारा धर्म हो गया जैसे भी हो पैसा तथा क्षणिक सत्ता प्राप्त करना और सत्ता में बने रहना । फलस्वरूप पैसा तुमने पर्याप्त मात्रा में कमाया भी। सत्ता में भी तुम बने रहे किन्तु किसी संस्कृति को केवल पैसा नहीं बचा सकता । सत्ता भी नहीं बचा सकती । यह तो साधन मात्र है उसको बचाने के लिये ज्ञान, त्याग, लगन, तप एवं बलिदान की आवश्यकता होती है। इन गुणों का तुम्हारी जाति में नितान्त अभाव हो गया । त्याग तो तुम क्या करते, तुम लोगों ने अपनी उन सार्वजनिक संस्थाओं को भी लूट-लूट कर खोखला कर दिया जिनको जाति के भक्तों ने अपनी पसीने की कमाई का दान देकर खड़ा किया था । ऐसे लोभी, स्वार्थी, अज्ञानी लोग तपस्या और बलिदान नहीं किया करते।"

अन्तिम हिन्दू भाग 1




अन्तिम हिन्दू

लेखक - पुरुषोत्तम

प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य 

भाग 1 

एक समय भयङ्कर बाढ़ आई। लोग जान बचाने के लिये ऊँची जगहों पर, पेड़ों पर और मकान की छतों पर जा बैठे। फिर उन लोगों को बाढ़ - से निकालने का कार्य प्रारम्भ हुआ। कुछ साहसी लोग तैर तैर कर उन बाढ़ ग्रस्त लोगों के पास जाते और उन्हें सहारा देकर बाहर निकाल ले आते ।


स्थानीय गिरिजाघर के पादरी भी चर्च की गगनचुम्बी मीनार पर चढ़े बैठे थे। कुछ लोग तैर कर उनके पास पहुँचे और उन्हें बाहर निकालने का प्रस्ताव किया।“मुझे अपने परमेश्वर पर विश्वास है " पादरी ने कहा । " वह मुझे बचायेगा ।" वह लोग चले गये ।


पानी और बढ़ गया तो नावें लाई गईं। नाव लेकर एक नाविक पादरी के पास पहुँचा।‘‘सम्मानित पिता ! पानी बढ़ रहा है नदी की धारा भी तेज होती जा रही है। आप नाव में उतर आइये। अभी समय है । सब लोग निकाले जा चुके हैं। आप ही शेष हैं, " उसने पादरी को आवाज लगाई। पादरी ने चिल्लाकर कहा " क्या तुझे प्रभु में भरोसा नहीं है ? मुझे उसका पूरा भरोसा है । वह मुझे मरने नहीं देगा।" नाविक चला गया।


पानी और बढ़ गया। धारा तेज हो गई। अब नाव का जाना भी दुष्कर हो गया। पादरी मीनार पर बैठकर शान्तिपूर्वक प्रभु का स्मरण कर रहा था। शासन को पता चला तो तुरन्त एक हेलीकाप्टर पादरी को निकाल लाने के लिये भेजा गया। हेलीकाप्टर चालक ने एक रस्सी पादरी की ओर गिराई और चिल्लाकर कहा " पिता ! रस्सी कसकर पकड़ लो। मैं आपको ऊपर खींच लेता हूँ । रात होने वाली है। सूर्योदय से पहले अब कोई दूसरा साधन उपलब्ध न हो सकेगा।" पादरी को उन लोगों के अविश्वास पर बहुत क्रोध आया। उसने कहा " कैसा मूर्ख है तू ? तू मुझे क्या बचायेगा ? मेरा परमेश्वर क्या मुझे नष्ट हो जाने देगा ? मैंने जीवन भर उसका स्मरण किया है। मुझे उसमें पूर्ण विश्वास है ।" हेलीकाप्टर वापस चला गया। रात्रि में नदी की तेज धारा ने उस मीनार को धराशायी कर दिया। पादरी मर कर परमात्मा के सामने पहुँचा । उसने दोनों हाथ उठाकर कहा “पिता! मैंने सदा तेरा स्मरण किया। कोई पाप नहीं किया । तुझ पर पूर्ण विश्वास किया और तूने मुझे नदी में डूब जाने दिया । संसार में कैसी बदनामी होगी तेरी ? सब कहेंगे भगवान् ने उसकी रक्षा नहीं की जिसने केवल उसी में विश्वास रखा।"


परमेश्वर हँसा और कहा, "पुत्र ! मेरी बदनामी की चिन्ता मत कर। मैंने तुझे बचाने के लिये तैराक और गोताखोर भेजे। फिर नाव भेजी। फिर एक हेलीकाप्टर भेजा। बता मैं और क्या करता ?" आप हँसेंगे और कहेंगे कि " पादरी मूर्ख था । उसे बचाने को तीन सहायक तो भेजे गये। परमात्मा और क्या करता।"


किन्तु इससे भी विस्मयकारी एक कथा और भी है। यह एक पादरी की काल्पनिक कहानी नहीं है। यह हमारी आपकी सत्यकथा है । यह करोड़ों लोगों के एक समाज की कहानी है। हिन्दू समाज की।


जब संसार का अन्तिम हिन्दू भगवान् के सामने पहुँचा तो पादरी की तरह उसने भी हाथ उठाकर आरोप लगाया " पिता ! मेरी जाति ने तेरे लिये विशाल मन्दिर बनाये। तेरी सोने हीरों की मूर्तियाँ स्थापित कीं। करोड़ों रुपये के सोने और अलङ्कारों से तुझे ढक दिया। करोड़ों रुपये के प्रसाद के भोग तुझे लगा दिये । रात-दिन धर्म ग्रन्थों के अखण्ड पाठ किये। तूने विश्राम करने के लिये हमें रात्रि दी थी। हमने उसमें भी जाग जाग कर निरन्तर तेरे कीर्तन किये। न स्वयं सोये न पड़ोसियों को सोने दिया । कैसा अद्भुत प्रचार किया तेरे नाम का ? मेरी जाति के करोड़ों मनुष्यों ने तेरी भक्ति में अपने शरीर सुखा डाले । भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक तपती गर्मी, कँपकँपाती बर्फीली ठण्ड में पृथ्वी पर लेट-लेट कर तेरे धामों की तीर्थ यात्रायें कीं और तूने मेरी जाति को १२०० वर्ष तक विधर्मियों का गुलाम बनाया। और अन्त में मेरी जाति का नामोनिशान ही पृथ्वी से मिटा दिया। तूने ऐसा क्यों किया ? तूने इन विधर्मी विदेशी आताताइयों का और आक्रान्ताओं का साथ दिया और अपने भक्तों की रक्षा नहीं की? कहाँ गया तेरा वह प्रण कि तेरे भक्त का नाश कभी नहीं होता । "


परमेश्वर उस हिन्दू का आरोप सुनकर मन्द मन्द मुस्कराते रहे । फिर बोले, “पुत्र मैं अपने भक्तों की रक्षा उनके शत्रुओं से तो कर सकता हूँ किन्तु यदि वह स्वयं ही अपने शत्रु बनकर अपना विनाश करने लगें तो मैं क्या करूँ ? कृष्णवंशीय यादवों को किसी ने नष्ट नहीं किया था । वह आपस में लड़कर स्वयं ही नष्ट हो गये थे । सुनोगे हिन्दुओं की रक्षा के कितने उपाय मैंने किये ? कितने साधन उन्हें उपलब्ध कराये ?"


"सुनो! मैंने तुम लोगों को पूरे संसार का अनुपम भूभाग दिया किसी धातु किसी सम्पदा का नाम लो जो उस देश की धरती के नीचे, पहाड़ों अथवा समुद्र में न मिलती हो। ऐसी उपजाऊ भूमि दी जिसमें सभी वनस्पतियाँ, वृक्ष, फल, ईंधन और श्रेष्ठ इमारती लकड़ी पैदा होती है। नदियों और भूगर्भ में इतना जल दिया जिसे देखकर मनुष्य तो क्या देवता भी ईर्ष्या करें। इतना ही नहीं, मैंने उसे सहज सुरक्षित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संसार का सबसे ऊँचा और विशाल पर्वत उत्तर में और तीनों ओर से समुद्र, उसकी रक्षा करता है । बोलो इससे अधिक भौतिक सम्पदा मैं तुम्हें क्या देता ?"


भगवान् कहते गये - " अब सुनो ज्ञान-विज्ञान और नीति की बातें। मैंने तुम्हें वेदों के रूप में अपनी कल्याणमयी वाणी दी और तुम्हें सावधान किया पुत्रो ! यह मेरी कल्याणमयी वाणी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, भृत्य, स्त्रियों तथा अति शूद्रादि जनों के लिये भी है । इससे किसी को भी वंचित मत करना । सभी को इसका ज्ञान कराना।" किन्तु तुमने इसका उल्टा किया। अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिये इसके अर्थों का अनर्थ किया। स्त्री, शूद्र एवं अन्त्यजों को तो इससे पूर्णतया वंचित ही कर दिया। स्त्रियाँ इस ज्ञान के अभाव में मूढ़ हो गईं। स्त्रियाँ ही माता होती हैं। वह ही सन्तान की प्रथम गुरु होती हैं। जब वह मूढ़ हो गईं तो तुम्हारी भावी संतति पीढ़ी दर पीढ़ी मूढ़ होती गई । दूसरा कोई समाज है जो लगातार १२०० वर्षों तक गुलाम रहा हो ? यह इसी मूढ़ता का फल था। इसमें मेरा क्या दोष है ? इस ज्ञान-विज्ञान के अभाव में आर्य-अनार्य हो गये । स्वयं भारत में धर्म की निराली - निराली व्याख्यायें की गईं। धर्म के नाम पर अधर्म का, ज्ञान के नाम पर अज्ञान का बोलबाला हो गया। फिर बताओ तुम किस मापदण्ड के आधार पर मेरे भक्त रह गये ?"


"स्वभाववश मुझे तुम पर दया आई। मैंने मनु जैसे स्मृतिकार को भेजा । उसने तुम्हें राज्यव्यवस्था के नियम बताये । उसने तुम्हें बताया था कि जब सब सोते हैं तब दण्ड जागता है । इसलिये दुष्टों को दण्ड देना ही राजधर्म है । जब तक तुम्हारे शासक दुष्टों को निर्मूल करते रहे, तुम सुरक्षित रहे । उसने तुम्हें यह भी सावधान किया था कि सभा में या तो प्रवेश ही न करो और यदि प्रवेश करो तो वहाँ किसी भी मूल्य पर सत्य द्वारा झूठ को उजागर करो क्योंकि यही सभासद का कर्त्तव्य तथा धर्म है । यदि वह ऐसा नहीं करता तो पापी है। क्या तुमने इस पर आचरण किया ? तुमने तो मनु के उपदेशों को प्रदूषित करने से नहीं छोड़ा। स्वार्थपूर्ति के लिये अपनी ओर से उसमें सैकड़ों पापपूर्ण श्लोक जोड़कर पूरी स्मृति को दूषित बना डाला । अपने ही समाज के एक बड़े वर्ग को पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को बाध्य कर दिया। तुम्हारी अज्ञानावस्था को देखकर मैंने वाल्मीकि और व्यास जैसे कथाकार भेजे जो महापुरुषों की कथाओं द्वारा तुम्हें सन्मार्ग दिखा सकें। तुमने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये उनकी कलाकृतियों में भी सहस्रों श्लोक मिलाकर उन्हें भ्रष्ट कर डाला । देवदासियों के नाम पर अबोध बालिकायें वेश्यावृत्ति में उतार दी गईं। तीर्थ स्थान जहाँ लोग तपस्या के लिये जाते थे, व्यभिचार के अड्डे बन गये। निरीह पशुओं की बलि दी जाने लगी। मन्दिर बूचड़खाने बन गये ।"



 'मुझे तुम पर फिर दया आई। मैंने गौतम बुद्ध को भेजा। उन्होंने अहिंसा तथा कर्मफल चक्र की शिक्षा दी । भारतवासियों ने उस शिक्षा को भी तोड़मरोड़ डाला। बुद्ध ने अहिंसा के अर्थ यह कब किये थे कि आतताइयों और आक्रमणकारियों से भी युद्ध मत करो ? किन्तु भारत के बौद्धों ने यही किया सिन्ध के अरब आक्रमण के समय बौद्धों ने अहिंसा के नाम पर आक्रमणकारियों से सहयोग किया। गौतम बुद्ध की मूर्तियों से देश को पाट तो दिया, किन्तु उनके उपदेशों की अवहेलना की। उनके प्रेम और त्यागमय जीवन का अनुकरण नहीं किया। उनके कर्मफल चक्र की उपेक्षा की। फलस्वरूप उन्हीं आतताइयों ने बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ डाला। बड़ी संख्या में बौद्धों को इस्लाम धर्म बलात् स्वीकार करना पड़ा । जापान, चीन इत्यादि देशों ने जिस बौद्ध धर्म के बल पर संगठन और शक्ति का संग्रह किया वह तुम्हारी गुलामी का कारण बना । "


" तुमने ठीक कहा है। तुमने मेरी करोड़ों रुपये की कल्पित मूर्तियाँ बनाबनाकर करोड़ों रुपये उनके मन्दिर, आभूषण और उनके भोग पर खर्च कर डाले। क्या तुमने कभी सोचा कि यही तुम्हारे पतन और अन्त में नष्ट हो जाने का कारण है ?"


" तुम यह मन्दिर और मूर्ति बनाते रहे । आतताई उन्हें ध्वस्त करते रहे। लूटते रहे । किन्तु मूर्तियाँ बना-बनाकर स्थापित करने, मन्दिर बनाने तथा वहाँ सोना, जवाहरात सञ्चित करने का तुम्हारा मोह भंग नहीं हुआ। मोहम्मद बिन कासिम, अकेले मुल्तान के सूर्य मन्दिर से १३५०० मन सोना लूट ले गया । महमूद गजनवी ने सोमनाथ मन्दिर से इतना सोना और हीरे लूटे कि गजनी के लोगों की आँखें फटी की फटी रह गईं। अलाउद्दीन खिलजी दक्खिन के मन्दिरों से ६०,००० मन सोना लूट लाया । इन लुटेरों ने मन्दिरों की इस सम्पत्ति का उपयोग सेना की भरती और तुम्हारे समाज को नष्ट करने में किया। अब्दाली को लूट का सामान ढोने के लिये अपनी तोपें छोड़ देनी पड़ी जिससे सेना के हर चौपाये और दुपाये का उपयोग सोना, रत्न इत्यादि ढोने में किया जा सके। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार लिखते हैं कि दिल्ली के आस-पास किसी नागरिक के पास उसने एक गधा तक न छोड़ा।"


" 'स्वतन्त्र भारत में भी तुमने विशाल मन्दिर तो बनाये किन्तु अपनी संस्कृति और समाज की रक्षा के लिये क्या कोई शिक्षा संस्थान भी खोला ?"