Sunday, March 9, 2025
Do Women Have the Right to Chant the Gayatri Mantra?
Friday, January 31, 2025
अन्तिम हिन्दू भाग 3
अन्तिम हिन्दू
लेखक - पुरुषोत्तम
प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य
भाग 3
नतमस्तक हो और हाथ जोड़कर वह हिन्दू भगवान् से बोला, “प्रभो ! समाज में अच्छे और बुरे लोग सर्वत्र ही होते हैं। भूल मनुष्य से ही होती है। आपने सब सत्य ही कहा किन्तु फिर भी मेरे समाज में दानी और परोपकारी मनुष्यों की, तपस्वी साधकों की कमी नहीं थी । दानी महानुभावों ने सहस्रों आश्रम खोले । एक- एक आश्रम में सैकड़ों साधक और परिव्राजक भोजन पाते थे । प्रवचन और पाठ होते थे ।" भगवान् उसे बीच में ही रोककर बोले, "हाँ मैंने तुम्हारे वह आश्रम देखे हैं वहाँ जो कुछ होता है वह मुझसे छिपा नहीं है । वह आश्रम कहाँ है ? विलास की क्या कमी है वहाँ ? जो सैकड़ों लोग नित्यप्रति मुफ्त भोजन पाते हैं उनमें गिनती के दो-चार भी तो साधक नहीं हैं ! अधिकांश निठल्ले लोग हैं जिन्हें बिना परिश्रम भोजन पाने की आदत पड़ गई है । वह समाज के परजीवी बन गये हैं। शेष जो श्रद्धावान लोग वहाँ आते हैं उनमें से कुछ तो वर्ष भर सांसारिक कार्यों में लिप्त रहकर वहाँ पर थोड़ी शान्ति की खोज में आते हैं। उनके लिये यह छुट्टी मनाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं । अधिकांश आश्रमों में उनकी जमीन जायदात के मुकदमे चल रहे हैं । अध्यात्म, स्वाध्याय और समाजसेवा से यह आश्रम और उनके मठाधीश कोसों दूर तुम्हारे साधु-सन्तों की इस बुरी दशा को देखकर मैंने तुम्हें एक अन्तिम अवसर और दिया। अपने तेजस्वी, तपस्वी पुत्र दयानन्द को भेजा । उसने वेदों का उद्धार किया। उन सभी तत्त्वों का अध्ययन किया जो तुम्हारे समाज को पतन की ओर ले जा रहे थे । उनके विरुद्ध उसने युद्ध की घोषणा कर दी। किन्तु उसे तुम्हारी ही जाति के एक मनुष्य द्वारा विष दिया गया। उसके निधन के ५० वर्ष पश्चात् ही उसका संगठन स्वार्थी लोगों द्वारा विघटित होने लगा। सत्ता और धन के लोभी बलशाली हो गये । उसके बताये हुए अपने मुख्य ध्येय को भूलकर वह दूषित राजनीति में उन्हीं तत्त्वों की कृपा जोहने लगे जिनके विरुद्ध उसने तुम्हें सावधान किया था । अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जनगणना की कोई पद्धति न थी, सन् १८६१ में पहली जनगणना हुई उस जनगणना में हिन्दू भारत में ७५.१ प्रतिशत रह गये । इसी समय मुसलमान १९.९७ प्रतिशत से आगे बढ़कर २४.२८ प्रतिशत हो गये। इसी प्रकार बढ़ोत्तरी ईसाइयों में भी हुई। "
"फिर १९४७ में भारत का बंटवारा हुआ, हिन्दुओं के साथ मुस्लिम भारत में। जिन नदियों के तट पर बैठकर तुम्हारे ऋषियों ने वेदों के भाष्य किये और जिस तक्षशिला में तुम्हारे महान् विद्वानों का निर्माण हुआ था, पाणिनी की जन्मस्थली, वह सब मुस्लिम प्रान्त बन गये । ९७ प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में मत देकर सिद्ध कर दिया कि वह तुम्हारे साथ सह नागरिक बनकर नहीं रह सकते। तुम्हारी जाति जिनको शूद्र कहती थी, उन्हीं शूद्रों में से मेरे एक मनस्वी और तेजस्वी पुत्र अम्बेडकर ने तुम्हारे अदूरदर्शी और भ्रमित नेताओं को बार-बार चेताया कि मज़हब के नाम पर ९७ प्रतिशत मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान की माँग उठाने के पश्चात् मुसलमानों का हिन्दू भारत में बने रहने का कोई औचित्य नहीं है । यदि वे भारत में बने रहे तो विभाजन से पूर्व की समस्यायें ज्यों की त्यों बनी रहेगी। किन्तु तुम्हारे पद लोलुप, दम्भी और अदूरदर्शी नेताओं ने उसकी एक न मानी। उन्होंने पाकिस्तान गये हुए मुसलमानों से लौट आने की अनुनय विनय की । फलस्वरूप हिन्दू भारत में वही मुस्लिम समस्यायें फिर खड़ी हो गईं जो पहले थीं । अपने M स्वप्नों में खोये तुम्हारे नेता टूटे हुए काँच के टुकड़ों को गोंद लगा-लगाकर जोड़ने का प्रयास करते रहे। उन प्रयासों की असफलता का दोष वह कभी काँच की कठोरता पर और कभी गोंद में चिपक की असफलता पर लगाकर रुदन करते रहे । १२०० वर्ष के अनुभव से वह काँच के कभी न जुड़ने वाले स्वभाव को क्यों नहीं समझ पाये ? ऐसे मूर्ख समाज को तो नष्ट होना ही था । " ८४.७८ प्रतिशत ।
"हिन्दू भारत में हिन्दू का प्रतिशत १९५१ में था बाद वह रह गया ८२.७२ प्रतिशत । "
१९७१ में अर्थात् केवल २० वर्ष " यह सीधा-सादा गणित तुम्हारे किसी नेता की समझ में क्यों नहीं आया कि बूँद-बूँद घटने पर भी समुद्र सूख सकता है। तुम अपने ही देश में एक प्रतिशत प्रति दस वर्ष की गति से कम होते जा रहे थे और मुसलमान, ईसाई लगभग इसी गति से बढ़ते जा रहे थे । संख्या की दौड़ में तुम उनसे दो प्रतिशत प्रति दस वर्ष की दर से पिछड़ते जा रहे थे । इसी प्रकार ईसाइयों से भी। किन्तु तुम्हारी जाति की यह संख्या ह्रास तो केवल जन्म दर के कारण था । विधर्मी पास के विदेशों से चोरी-छिपे तुम्हारी सीमाओं में घुसे चले आ रहे थे। नागालैण्ड में मुस्लिम १९६१ - १९७१ के बीच २३२ प्रतिशत और १९७१-१९८१ के बीच २९८ प्रतिशत बढ़े। जबकि हिन्दू लगभग ७५ प्रतिशत बढ़े। सिक्किम में मुस्लिम १९७१ - १९८१ में ८६७ प्रतिशत, अरुणाचल में ५०२, मिजोरम में १९६१ - १९७१ में ८०५ प्रतिशत बढ़े। तुम्हारे शासक और समाज चारों ओर से घिरती चली आ रही टिड्डी दल जैसी आपत्ति से कैसे आँखें मूँदें बैठे रहे।”
वह हिन्दू भगवान् की इन कटु बातों से तिलमिला उठा। उसने हाथ उठाकर कहा—“प्रभो ! क्षमा करें। क्या 'सर्वधर्म समभाव' और 'सत्यमेव जयते' जैसे सिद्धान्तों की संसार में घोषणा करने और उन पर आचरण करने वाले हिन्दू समाज को नष्ट हो जाना चाहिए था ? कौन सा दूसरा समाज है जो इन सिद्धान्तों पर आचरण तो दूर इनको मान्यता भी देता हो । "
भगवान् अपने उस अबोध बालक पर करुणामयी दृष्टि डालकर बोले“वत्स ! तुम्हारे समाज जैसा भ्रमित समाज संसार में दूसरा न कभी रहा है और न कभी रहेगा तुम्हारे उपरोक्त दोनों ही सिद्धान्त तुम्हारी मूर्खता के परिचायक हैं। धर्मों में समानता कम विरोध अधिक । क्या तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी धर्म दूसरे धर्म को आदर अथवा सम्मान योग्य घोषित करता है । कर भी नहीं सकता । अन्यथा उसके अस्तित्व की आवश्यकता ही क्या ? ईसाई, इस्लाम आदि मध्य एशिया में उत्पन्न मजहब हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों के नितान्त विपरीत सिद्धान्त पर बल देते हैं। वह जिन धर्मों का कुफ्र और मूर्खता की उपज समझते हैं उनको आदर कैसा ? समान आदर तो असम्भव है ।"
“ अब सुनो ‘सत्यमेव जयते' का रहस्य । तुमने इसका अर्थ समझा कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है असत्य पक्ष की नहीं । इस कारण से तुम अपने पक्ष को सत्य मानकर तुम सदैव आश्वस्त होते रहे कि विजय तुम्हारी ही होगी । किन्तु उपनिषद् वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है। इसका अर्थ यह है कि सत्य सिद्धान्त की सदैव विजय होती है, असत्य सिद्धान्त की नहीं । सत्य सिद्धान्त यह है कि बलवान की विजय होती है निर्बल की नहीं । चातुर्य की विजय होती है मूर्खता की नहीं । शौर्य की विजय होती है कायरता की नहीं । संगठित समाज की विजय होती है
असंगठित की नहीं। अनुशासित शासन की विजय होती है अनुशासनहीन की नहीं और जो विजयी होता है उसी का पक्ष सत्य मान लिया जाता है । इस कसौटी पर अपनी असफलताओं को परखोगे तो तुम्हें इस सिद्धान्त का वास्तविक अर्थ समझ में आ जायेगा। क्या तुमने कभी सोचा कि यदि सत्य पक्ष की ही सदैव विजय होती तो तुम यवनों और ईसाइयों से निरन्तर क्यों हारते रहे ? क्या इससे यह सिद्ध हो गया कि तुम्हारा पक्ष झूठा था और उनका सत्य ? नहीं पुत्र नहीं! इस उपनिषद् वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है असत्य पक्ष की कभी नहीं। इसका अर्थ यह है कि सत्य सिद्धान्त की सदैव विजय होती है असत्य सिद्धान्त की नहीं ।"
"मैंने कहा था कि जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते उनकी रक्षा मैं नहीं कर सकता हूँ । दुर्बल का मर जाना ही कल्याणकारी होता है, 'दैवो दुर्बल घातकः' दैव भी दुर्बल को ही मारता है ऐसा मेरा मत है। यदि तुम्हें अपने समाज को जीवित रहने की आकांक्षा होती तो तुमने उसके निरन्तर ह्रास को रोकने का कोई उपाय तत्काल सोचा और किया होता। तुमने साँपों, चीतों, बाघों, गैंडों इत्यादि पशुओं की सुरक्षा के तो कारगर उपाय किये जिससे उनकी प्रजाति लुप्त न हो जाय किन्तु अपने समाज, संस्कृति तथा धर्म को लुप्त होते हुए देखकर उसकी सुरक्षा का क्या कोई उपाय किया ? तुम और तुम्हारे द्वारा चुने हुए सत्ता प्राप्त शासक दशाब्दियों तक इस ह्रास को मूक बने देखते रहे। दूसरी ओर मुसलमानों और ईसाइयों ने वह सभी सम्भव उपाय किये जिससे इस दौड़ में उनकी तुम्हें पछाड़ने की गति तीव्र होती रही। इस आत्मघाती लापरवाही का जिम्मेदार तुम्हारा समाज स्वयं था । "
" 'तुम्हारे समाज ने बार-बार उन्हीं लोगों को सत्ता सौंपी जिन्हें तुम्हारे हितों की कोई चिन्ता नहीं थी । जो कहने को हिन्दू थे किन्तु विजातीय संस्कृति एवं धर्मों के प्रशंसक थे। उन्हें तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दू ज्ञान छू भी नहीं गया था। कैसी अद्भुत बात है कि 85 प्रतिशत जनसंख्या के बल पर चुने हुये प्रतिनिधि उसी समाज के साथ विश्वासघात करने की हिम्मत करें। ऐसा व्यवहार केवल मृतप्रायः समाज के साथ ही किया जा सकता है।"
'तुम्हारे तथाकथित विद्वान् भी धन और सम्मान की लालसा से इतिहास को तोड़ने मरोड़ने लगे। उन्हें अपनी जाति में ही सब दोष दिखाई देते थे । विजातीय संस्कृति एवं धर्म की झूठी प्रशंसा ही मानो उनका कर्त्तव्य बन गया था । उनकी खोटी हिन्दू - घातक गति-विधियों को उजागर करने का साहस तुम में से किसी में न था । हिन्दू बाहुल्य के कारण धर्म के नाम पर बने तुम्हारे देश में मुसलमान समस्यायें पैदा करते रहे। पड़ोसी देश समस्यायें उत्पन्न करते रहे । न तुम्हारे नेताओं में और न तुम्हारे बुद्धिजीवियों में यह कहने का साहस हुआ कि यह समस्यायें उनका इस्लामी दर्शन उत्पन्न कर रहा है। वह उन समस्याओं को सदैव राजनीतिक कहकर अपने को धोखा देते रहे और समाज को भ्रमित करते रहे। क्या उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस्लाम का एकमात्र ध्येय विश्व पर शरीय शासन और इस्लाम की स्थापना है। जब तक यह ध्येय प्राप्त नहीं हो जाते इस्लाम चुप नहीं बैठ सकता । जिस समाज के विद्वत्जन भ्रष्ट हो जाते हैं वह समाज नष्ट हो जाता है । क्योंकि शिक्षा द्वारा भावी पीढ़ी की मनोवृत्ति बनाने वाले वह ही हैं। जिस जाति को अपने हित चिन्तकों और अहित चिन्तकों की पहचान न हो, जिसे अपने नित्यप्रति क्षीण होने वाले अस्तित्व की चिन्ता ही न हो वह कितने दिन तक जीवित रह सकता है ?" " तुम्हारे अन्दर पूज्य अपूज्य का भेद न रहा, मित्र और शत्रु का भेद न रहा, धर्म-अधर्म का भेद न रहा, ज्ञान-अज्ञान का भेद न रहा, शिक्षा कुशिक्षा का भेद न रहा। क्या अब तुम्हारी समझ में आया कि अपनी बर्बादी के जिम्मेदार तुम स्वयं हो। मैंने तुम्हें बचाने के सहस्रों उपाय किये बताओ वत्स ! मैं और क्या करता ? इसमें दोष तुम्हारी जाति का है कि मेरा ?"
अन्तिम हिन्दू भाग 2
अन्तिम हिन्दू
लेखक - पुरुषोत्तम
प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य
भाग 2
"मैं पूछता हूँ एक सहस्र वर्षों में तुम्हें यह क्यों नहीं सूझा कि उस द्रव्य से तुम सेना और हथियार इकट्ठे करते । संगठन के लिये गाँव-गाँव में अखाड़े तथा शस्त्र शिक्षा का प्रबन्ध करते। ऐसी पाठशालायें खोलते जिसमें शस्त्र विद्या तथा युद्ध कौशल सीखे अर्जुन जैसे धनुर्धर, कर्ण जैसे दानी, भीम जैसे मल्ल, कृष्ण जैसे धर्म की स्थापना करने वाले, उसके मर्म के ज्ञाता, कौटिल्य जैसे कूटनीतिज्ञ सहस्रों की संख्या में निर्मित होते ?"
" मुसलमानों और ईसाइयों ने तुम्हारे देश में अपनी संस्कृति के प्रचारप्रसार के लिये सहस्रों मदरसे तथा स्कूल खोल डाले। वहाँ हिन्दू संस्कृति के मर्म पर चोट पहुँचाने की शिक्षा पा - पाकर लाखों भारतीय बच्चे प्रतिवर्ष युवा बनकर देश भर में फैलते रहे । तुमने अपनी भावी पीढ़ी में इन दोनों संस्कृतियों से श्रेष्ठ हिन्दू संस्कृति की छाप जमाने के लिये क्या किया ?"
क्या तुमने उनकी शिक्षा का भार विदेशियों, निरंकुश तथा अहिन्दू लोगों के हाथ में नहीं छोड़ दिया ? जब भारत गुलामी से स्वतन्त्र हुआ तो वहाँ कुल ८८ मुस्लिम मदरसे थे और कुछ ईसाई मिशनरी स्कूल । ५० वर्षों से भी कम समय में भारत में ३०००० मदरसे तथा असंख्य अंग्रेजी स्कूल खुल गये ।
कितना महत्त्वपूर्ण अन्तर था तुम्हारे पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान में और तुम्हारे विधर्मी आक्रमणकारियों में । उनके धर्म का सारा भवन टिका था मेरे द्वारा निर्मित एक मनुष्य के ऊपर। वह समझते थे कि मेरी कृपा प्राप्त करने के लिये उनमें से किसी एक पैगम्बर अथवा धर्मगुरु पर अन्धविश्वास होना ही पर्याप्त है। फिर उनके सभी दुष्कर्मों और पापों को मैं पैगम्बरों की मध्यस्थता के कारण क्षमा कर दूँगा । और तुम्हें बताया गया था कि कर्म तो अच्छे हों या बुरे भोगने ही पड़ते हैं। मेरे तुम्हारे बीच में कोई मध्यस्थ नहीं है। मैं भी अपने नियमों से बंधा हूँ ।
“मैं तो सत् चित् आनन्द हूँ । तुम मेरे गीत गाओ अथवा मुझे गाली दो, मन्दिर बनाओ या तोड़ो उससे न मैं प्रसन्न होता हूँ और न क्रुद्ध । यह दूसरी बात है कि मेरे गुणगान कर मेरे शाश्वत गुण तुम अपने अन्दर उत्पन्न करो। तुम्हें तो तुम्हारे कर्मों का फल ही प्राप्त होगा। तुम जड़ की पूजा करोगे तो जड़ता की ओर, चैतन्य की पूजा करोगे तो चैतन्य की ओर बढ़ते जाओगे। क्या गीता में कृष्ण ने तुम्हें नहीं बताया था-
यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥- गीता ९ । २५
जो देवताओं की पूजा करते हैं वह देवताओं को, जो पितरों की पूजा करते हैं वह पितरों को, जो भूतों और जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं वह जड़ता
को प्राप्त होते हैं। केवल वही मुझे प्राप्त होते हैं जो मेरी पूजा करते हैं। ऐसा कर्मफल सिद्धान्त तुम्हारे पास था किन्तु तुमने उसके विरुद्ध जड़ पदार्थों की पूजा, मृत पुरुषों की कब्रों, समाधियों और लक्ष्मी की पूजा की। फलस्वरूप मृत्यु, जड़ता एवं धन ही तुम्हारे पल्ले पड़ा । तुम्हें स्पष्ट बताया गया था-
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानाम च निरादरः । त्रीणि तत्र प्रविशन्ति, दुर्भिक्षम्, मरणम् भयम् ॥
- -महाभारत
जो समाज उनकी पूजा करता है जो पूजा के योग्य नहीं है और उनका निरादर करता है जो पूजा के योग्य है उस समाज को दुर्भिक्ष, मृत्यु और भय भोगना पड़ता है ।
" मैंने तुम्हें विद्याध्ययन और स्वाध्याय के लिये आदेश दिया था । इसमें प्रमाद न करने को कहा था । " स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमादितव्यं । " स्वाध्याय और उससे प्राप्त ज्ञान के प्रचार-प्रसार में प्रमाद मत करना । क्या तुमने अपने और विदेशी आक्रमणकारियों के धार्मिक विश्वासों और इतिहास का स्वाध्याय किया ? जब स्वाध्याय ही नहीं किया तो उसका प्रचार-प्रसार क्या करते ? उसका प्रतिकार कैसे करते ? ज्ञानार्जन के स्थान पर तुमने सरस्वती की पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी आराधना प्रारम्भ कर दी । शक्ति की उपासना की जगह उसकी भी पत्थर की कपोल कल्पित मूर्ति बनाकर पूजा करना ही ध्येय बना लिया। अपने शस्त्रास्त्र इन निर्जीव मूर्तियों को पकड़ाकर तुमने अपनी रक्षा का भार उन पर छोड़ दिया। जब महमूद गजनवी के खूनी लुटेरों का टिड्डी दल सोमनाथ की ओर बढ़ रहा था तुम्हारे मूर्ख अन्धविश्वासी रक्षक मन्दिर की दीवारों पर बैठकर उनका उपहास कर रहे थे कि पास आते ही सोमनाथ उन्हें भस्म कर देंगे। वह सब गाजर मूली की तरह काट दिये गये सोमनाथ की प्रतिमा तोड़कर गजनी की मस्जिदों की सीढ़ियों पर और बाजार में डाल दी गई जिससे वह मुसलमानों द्वारा पद्दलित व अपमानित होती रहे । सोमनाथ का मन्दिर न जाने कितनी बार बना और टूटा। राजनीति में कभीकभी भूल हो जाती है । किन्तु उस भूल को बार-बार करने वाले समाज को जीने का अधिकार नहीं होता । तुमने तो गायत्री छन्द में दिये गये एक ज्ञानमय मन्त्र के अर्थों पर आचरण न कर उसकी भी मूर्ति बना डाली। पुत्र ! स्वर्ण की गउवें दूध नहीं देतीं। पत्थर के सिंह एक चूहा भी नहीं मार सकते । यह बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आई।"
तुम्हारा मन्दिरों का मोह और पत्थर के देवी-देवताओं पर विश्वास बना रहा जितना कोलाहल तुम्हारे मन्दिरों में होता है उतना तो हाट बाजार में भी नहीं होता । और कौन जाता था तुम्हारे इन मन्दिरों में ? क्या करते थे वह वहाँ ? कितनी देर ? वहाँ अधिकतर जाते थे निकट आती मृत्यु से भयभीत वृद्ध और वृद्धायें ? जो लोग आते थे वह लोग भी वहाँ उतनी देर ही ठहरते थे जितना समय पुजारी को उनका प्रसाद मूर्ति पर चढ़ाने में लगता था । प्रसाद चढ़ाकर और शेष भाग लेकर उन्हें अपने व्यवसाय पर जाने की जल्दी रहती थी । तुम्हारे पुजारी भी अधिकतर ऐसे ही थे जिनका शास्त्र अध्ययन न के बराबर था। जो ज्ञान उन्हें स्वयं नहीं था वह तुम्हें क्या बताते ? कहीं-कहीं थोड़ा भजन कीर्तन होता था जिसका भाव होता था ईश्वर की भक्ति अथवा पौराणिक कथायें - कहानी मात्र सुनने का रस । प्रवचन यदि कहीं होता भी था तो केवल यह बताने के लिये कि संसार अनित्य है । सब माया है। सब छलावा है। जबकि सत्य यह है कि प्रवचन करने वालों और सुनने वालों के लिये वास्तव में संसार ही सब कुछ था । शेष सब झूठ था। वह अपनी जाति के लिये उस झूठे संसार का, उस माया का, जो उन्होंने उचित अनुचित का ध्यान किये बिना संचित किया था, एक पैसा भी समाज के लिये खर्च करने में संकोच करते थे। क्या वहाँ कभी इस पर प्रवचन होता था कि हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त क्या हैं ? वह दूसरे मत-मतान्तरों से क्यों श्रेष्ठ है । होता भी कैसे वहाँ प्रवचन करने वालों को ही इसका ज्ञान कहाँ था ?"
I " इसके विपरीत मस्जिदों में क्या होता था ? वयस्क पुरुषों का ५३ प्रतिशत समाज वहाँ दिन में पाँच बार एकदम शान्ति के साथ मेरा ध्यान करता था। इनमें अधिकांश युवक और किशोर होते थे । उसके पश्चात् वहाँ इस्लाम धर्म की विधिवत शिक्षा प्राप्त इमाम श्रोताओं को इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश करता था। उन्हें बताता था कि इस्लाम धर्म दूसरे धर्मों से श्रेष्ठ क्यों है । समाज में फैले इस्लाम विरोधी रीतिरिवाजों की वहाँ कड़ी आलोचना होती थी। उनको मिटाने पर बल दिया जाता था । साधन जुटाये जाते थे । गरीब से गरीब मुसलमान अपने समाज के लाभ के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने को तत्पर रहता था। और तो और समाज का वातावरण बिगाड़ने वाले कानूनी मुकदमे भी वहाँ सामाजिक दबाव डालकर सुलह कराये जाते थे। समाज की सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं से किस प्रकार जूझा जाय उस पर विचार होता था । सत्ता प्राप्त करना धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये आवश्यक है । इसलिये सत्ता पर किस प्रकार कब्जा किया जाय, उसके लिये ध्यानपूर्वक कुशल लोगों द्वारा नियोजित ढंग से अमल होता है । वहाँ पर स्थापित लाखों मकतबों में चार - चार, पाँच-पाँच साल के बच्चों को कट्टर इस्लाम की शिक्षा दी जाती थी । कुफ्र और काफिरों से घृणा करना सिखाया जाता था। समाज के लिये बलिदान होने की भावना भरी जाती थी । "
" तुम्हारे समाज की मूर्खता और आपसी फूट के कारण मुस्लिम राज्य आया। उन्होंने तुम्हारे शास्त्रों और चरित्र का गहन अध्ययन किया । तुम्हारी पुस्तकों के फारसी में अनुवाद कराये। तुम्हारी कमजोरियों का लाभ उठाया । तुम्हारी पाठशालायें और पुस्तकालय इसलिये ध्वस्त कर दिये कि तुम अपने बच्चों को अपने धर्म और इतिहास की शिक्षा देकर उनकी शक्ति के लिये खतरा न बन जाओ। तुमने उनके धर्म और इतिहास का, उनके संगठन का, उनकी युद्ध और सैन्य प्रणाली का कोई अध्ययन नहीं किया। तुम एक दूसरे के साथ विश्वासघात करते रहे। वह एक एक कर तुम्हें परास्त करते रहे। मैंने तुम्हें जो संगठन सूत्र दिया उस पर तुमने कितना आचरण किया ? करोड़ों लोग मुसलमान बनाये गये । यदि उन्होंने अपने धर्म में वापिस आने की भी गुहार की तो वह अस्वीकार कर दी गई । "
'तुम्हारी निरन्तर पराजय से उत्पन्न हताश दशा को देखकर मैंने प्रताप, दुर्गादास, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह जैसे योद्धा रासबिहारी बोस, जितेन्द्रनाथ, शचीन्द्र सान्याल, भगत सिंह, पिंगले, वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा जैसे सैकड़ों क्रान्तिकारी युवक भेजे। एक बार को लगा कि तुम भारत में फिर से धर्म पर आधारित, संसार के लिये आदर्श राज्य स्थापित करोगे । किन्तु तुम आपस में मिलकर न बैठ सके। यह भूल गये कि वसुन्धरा वीरभोग्या है कायर भोग्या नहीं। तुमने अहिंसा का मर्म न समझ कर अहिंसा के नाम पर फिर कायरता को वरण किया। समाज को शौर्य और प्रतिघात की क्रान्तिकारी शिक्षा नहीं दी।"
" फिर मुसलमान निर्बल हो गये तो अंग्रेजों ने उन्हें परास्त कर तुम दोनों पर राज्य किया । उन्होंने भी तुम्हारी पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। जिन धर्म पुस्तकों को तुमने अन्धेरी कोठरियों में बाँध बाँध कर रख दिया था उनको पैसे दे-देकर उन्होंने खरीदा। उनका अंग्रेजी में अनुवाद करवाया । उसमें दिये गये ज्ञान से लाभ उठाया । तुम्हारी कमजोरियों को समझा और तुम्हारे कमजोर मर्मस्थलों पर चोट की। उन्होंने भी करोड़ों लोगों को ईसाई बनाया । तुम्हारे सहस्रों वर्षों से प्रताड़ित धर्म बन्धु मुसलमान ईसाई बनकर तुम्हारी जड़ों को खोदने लगे । १२०० वर्ष पहले भी इन तथाकथित धर्मों की वास्तविकता को समझे बिना ही स्वयं तुम्हारे शासकों ने भारत में मस्जिदें तथा गिरिजाघर सरकारी धन से निर्माण कराये थे। मुस्लिम देशों से व्यापारिक लाभ उठाने के लिये स्वयं इस्लाम धर्म स्वीकार किया तथा अपने नाविकों को भी कराया। विदेशी नाविकों को हिन्दू स्त्रियाँ दे-देकर भारत में बसाया था। उन्हीं की सन्तानों मोपलों ने आगे चलकर तुम पर कहर ढाये । बलपूर्वक और छल द्वारा धर्मान्तरण किये । किन्तु १२०० वर्षों में क्या तुम्हारे विद्वानों ने कभी भी इन धर्मों का गहन अध्ययन कर उनके इरादों को समझा ? तुम्हारी संख्या कम होती गई। उनकी बढ़ती गई । तुम्हारा धर्म हो गया जैसे भी हो पैसा तथा क्षणिक सत्ता प्राप्त करना और सत्ता में बने रहना । फलस्वरूप पैसा तुमने पर्याप्त मात्रा में कमाया भी। सत्ता में भी तुम बने रहे किन्तु किसी संस्कृति को केवल पैसा नहीं बचा सकता । सत्ता भी नहीं बचा सकती । यह तो साधन मात्र है उसको बचाने के लिये ज्ञान, त्याग, लगन, तप एवं बलिदान की आवश्यकता होती है। इन गुणों का तुम्हारी जाति में नितान्त अभाव हो गया । त्याग तो तुम क्या करते, तुम लोगों ने अपनी उन सार्वजनिक संस्थाओं को भी लूट-लूट कर खोखला कर दिया जिनको जाति के भक्तों ने अपनी पसीने की कमाई का दान देकर खड़ा किया था । ऐसे लोभी, स्वार्थी, अज्ञानी लोग तपस्या और बलिदान नहीं किया करते।"
अन्तिम हिन्दू भाग 1
अन्तिम हिन्दू
लेखक - पुरुषोत्तम
प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य
भाग 1
एक समय भयङ्कर बाढ़ आई। लोग जान बचाने के लिये ऊँची जगहों पर, पेड़ों पर और मकान की छतों पर जा बैठे। फिर उन लोगों को बाढ़ - से निकालने का कार्य प्रारम्भ हुआ। कुछ साहसी लोग तैर तैर कर उन बाढ़ ग्रस्त लोगों के पास जाते और उन्हें सहारा देकर बाहर निकाल ले आते ।
स्थानीय गिरिजाघर के पादरी भी चर्च की गगनचुम्बी मीनार पर चढ़े बैठे थे। कुछ लोग तैर कर उनके पास पहुँचे और उन्हें बाहर निकालने का प्रस्ताव किया।“मुझे अपने परमेश्वर पर विश्वास है " पादरी ने कहा । " वह मुझे बचायेगा ।" वह लोग चले गये ।
पानी और बढ़ गया तो नावें लाई गईं। नाव लेकर एक नाविक पादरी के पास पहुँचा।‘‘सम्मानित पिता ! पानी बढ़ रहा है नदी की धारा भी तेज होती जा रही है। आप नाव में उतर आइये। अभी समय है । सब लोग निकाले जा चुके हैं। आप ही शेष हैं, " उसने पादरी को आवाज लगाई। पादरी ने चिल्लाकर कहा " क्या तुझे प्रभु में भरोसा नहीं है ? मुझे उसका पूरा भरोसा है । वह मुझे मरने नहीं देगा।" नाविक चला गया।
पानी और बढ़ गया। धारा तेज हो गई। अब नाव का जाना भी दुष्कर हो गया। पादरी मीनार पर बैठकर शान्तिपूर्वक प्रभु का स्मरण कर रहा था। शासन को पता चला तो तुरन्त एक हेलीकाप्टर पादरी को निकाल लाने के लिये भेजा गया। हेलीकाप्टर चालक ने एक रस्सी पादरी की ओर गिराई और चिल्लाकर कहा " पिता ! रस्सी कसकर पकड़ लो। मैं आपको ऊपर खींच लेता हूँ । रात होने वाली है। सूर्योदय से पहले अब कोई दूसरा साधन उपलब्ध न हो सकेगा।" पादरी को उन लोगों के अविश्वास पर बहुत क्रोध आया। उसने कहा " कैसा मूर्ख है तू ? तू मुझे क्या बचायेगा ? मेरा परमेश्वर क्या मुझे नष्ट हो जाने देगा ? मैंने जीवन भर उसका स्मरण किया है। मुझे उसमें पूर्ण विश्वास है ।" हेलीकाप्टर वापस चला गया। रात्रि में नदी की तेज धारा ने उस मीनार को धराशायी कर दिया। पादरी मर कर परमात्मा के सामने पहुँचा । उसने दोनों हाथ उठाकर कहा “पिता! मैंने सदा तेरा स्मरण किया। कोई पाप नहीं किया । तुझ पर पूर्ण विश्वास किया और तूने मुझे नदी में डूब जाने दिया । संसार में कैसी बदनामी होगी तेरी ? सब कहेंगे भगवान् ने उसकी रक्षा नहीं की जिसने केवल उसी में विश्वास रखा।"
परमेश्वर हँसा और कहा, "पुत्र ! मेरी बदनामी की चिन्ता मत कर। मैंने तुझे बचाने के लिये तैराक और गोताखोर भेजे। फिर नाव भेजी। फिर एक हेलीकाप्टर भेजा। बता मैं और क्या करता ?" आप हँसेंगे और कहेंगे कि " पादरी मूर्ख था । उसे बचाने को तीन सहायक तो भेजे गये। परमात्मा और क्या करता।"
किन्तु इससे भी विस्मयकारी एक कथा और भी है। यह एक पादरी की काल्पनिक कहानी नहीं है। यह हमारी आपकी सत्यकथा है । यह करोड़ों लोगों के एक समाज की कहानी है। हिन्दू समाज की।
जब संसार का अन्तिम हिन्दू भगवान् के सामने पहुँचा तो पादरी की तरह उसने भी हाथ उठाकर आरोप लगाया " पिता ! मेरी जाति ने तेरे लिये विशाल मन्दिर बनाये। तेरी सोने हीरों की मूर्तियाँ स्थापित कीं। करोड़ों रुपये के सोने और अलङ्कारों से तुझे ढक दिया। करोड़ों रुपये के प्रसाद के भोग तुझे लगा दिये । रात-दिन धर्म ग्रन्थों के अखण्ड पाठ किये। तूने विश्राम करने के लिये हमें रात्रि दी थी। हमने उसमें भी जाग जाग कर निरन्तर तेरे कीर्तन किये। न स्वयं सोये न पड़ोसियों को सोने दिया । कैसा अद्भुत प्रचार किया तेरे नाम का ? मेरी जाति के करोड़ों मनुष्यों ने तेरी भक्ति में अपने शरीर सुखा डाले । भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक तपती गर्मी, कँपकँपाती बर्फीली ठण्ड में पृथ्वी पर लेट-लेट कर तेरे धामों की तीर्थ यात्रायें कीं और तूने मेरी जाति को १२०० वर्ष तक विधर्मियों का गुलाम बनाया। और अन्त में मेरी जाति का नामोनिशान ही पृथ्वी से मिटा दिया। तूने ऐसा क्यों किया ? तूने इन विधर्मी विदेशी आताताइयों का और आक्रान्ताओं का साथ दिया और अपने भक्तों की रक्षा नहीं की? कहाँ गया तेरा वह प्रण कि तेरे भक्त का नाश कभी नहीं होता । "
परमेश्वर उस हिन्दू का आरोप सुनकर मन्द मन्द मुस्कराते रहे । फिर बोले, “पुत्र मैं अपने भक्तों की रक्षा उनके शत्रुओं से तो कर सकता हूँ किन्तु यदि वह स्वयं ही अपने शत्रु बनकर अपना विनाश करने लगें तो मैं क्या करूँ ? कृष्णवंशीय यादवों को किसी ने नष्ट नहीं किया था । वह आपस में लड़कर स्वयं ही नष्ट हो गये थे । सुनोगे हिन्दुओं की रक्षा के कितने उपाय मैंने किये ? कितने साधन उन्हें उपलब्ध कराये ?"
"सुनो! मैंने तुम लोगों को पूरे संसार का अनुपम भूभाग दिया किसी धातु किसी सम्पदा का नाम लो जो उस देश की धरती के नीचे, पहाड़ों अथवा समुद्र में न मिलती हो। ऐसी उपजाऊ भूमि दी जिसमें सभी वनस्पतियाँ, वृक्ष, फल, ईंधन और श्रेष्ठ इमारती लकड़ी पैदा होती है। नदियों और भूगर्भ में इतना जल दिया जिसे देखकर मनुष्य तो क्या देवता भी ईर्ष्या करें। इतना ही नहीं, मैंने उसे सहज सुरक्षित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संसार का सबसे ऊँचा और विशाल पर्वत उत्तर में और तीनों ओर से समुद्र, उसकी रक्षा करता है । बोलो इससे अधिक भौतिक सम्पदा मैं तुम्हें क्या देता ?"
भगवान् कहते गये - " अब सुनो ज्ञान-विज्ञान और नीति की बातें। मैंने तुम्हें वेदों के रूप में अपनी कल्याणमयी वाणी दी और तुम्हें सावधान किया पुत्रो ! यह मेरी कल्याणमयी वाणी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, भृत्य, स्त्रियों तथा अति शूद्रादि जनों के लिये भी है । इससे किसी को भी वंचित मत करना । सभी को इसका ज्ञान कराना।" किन्तु तुमने इसका उल्टा किया। अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिये इसके अर्थों का अनर्थ किया। स्त्री, शूद्र एवं अन्त्यजों को तो इससे पूर्णतया वंचित ही कर दिया। स्त्रियाँ इस ज्ञान के अभाव में मूढ़ हो गईं। स्त्रियाँ ही माता होती हैं। वह ही सन्तान की प्रथम गुरु होती हैं। जब वह मूढ़ हो गईं तो तुम्हारी भावी संतति पीढ़ी दर पीढ़ी मूढ़ होती गई । दूसरा कोई समाज है जो लगातार १२०० वर्षों तक गुलाम रहा हो ? यह इसी मूढ़ता का फल था। इसमें मेरा क्या दोष है ? इस ज्ञान-विज्ञान के अभाव में आर्य-अनार्य हो गये । स्वयं भारत में धर्म की निराली - निराली व्याख्यायें की गईं। धर्म के नाम पर अधर्म का, ज्ञान के नाम पर अज्ञान का बोलबाला हो गया। फिर बताओ तुम किस मापदण्ड के आधार पर मेरे भक्त रह गये ?"
"स्वभाववश मुझे तुम पर दया आई। मैंने मनु जैसे स्मृतिकार को भेजा । उसने तुम्हें राज्यव्यवस्था के नियम बताये । उसने तुम्हें बताया था कि जब सब सोते हैं तब दण्ड जागता है । इसलिये दुष्टों को दण्ड देना ही राजधर्म है । जब तक तुम्हारे शासक दुष्टों को निर्मूल करते रहे, तुम सुरक्षित रहे । उसने तुम्हें यह भी सावधान किया था कि सभा में या तो प्रवेश ही न करो और यदि प्रवेश करो तो वहाँ किसी भी मूल्य पर सत्य द्वारा झूठ को उजागर करो क्योंकि यही सभासद का कर्त्तव्य तथा धर्म है । यदि वह ऐसा नहीं करता तो पापी है। क्या तुमने इस पर आचरण किया ? तुमने तो मनु के उपदेशों को प्रदूषित करने से नहीं छोड़ा। स्वार्थपूर्ति के लिये अपनी ओर से उसमें सैकड़ों पापपूर्ण श्लोक जोड़कर पूरी स्मृति को दूषित बना डाला । अपने ही समाज के एक बड़े वर्ग को पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को बाध्य कर दिया। तुम्हारी अज्ञानावस्था को देखकर मैंने वाल्मीकि और व्यास जैसे कथाकार भेजे जो महापुरुषों की कथाओं द्वारा तुम्हें सन्मार्ग दिखा सकें। तुमने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये उनकी कलाकृतियों में भी सहस्रों श्लोक मिलाकर उन्हें भ्रष्ट कर डाला । देवदासियों के नाम पर अबोध बालिकायें वेश्यावृत्ति में उतार दी गईं। तीर्थ स्थान जहाँ लोग तपस्या के लिये जाते थे, व्यभिचार के अड्डे बन गये। निरीह पशुओं की बलि दी जाने लगी। मन्दिर बूचड़खाने बन गये ।"
'मुझे तुम पर फिर दया आई। मैंने गौतम बुद्ध को भेजा। उन्होंने अहिंसा तथा कर्मफल चक्र की शिक्षा दी । भारतवासियों ने उस शिक्षा को भी तोड़मरोड़ डाला। बुद्ध ने अहिंसा के अर्थ यह कब किये थे कि आतताइयों और आक्रमणकारियों से भी युद्ध मत करो ? किन्तु भारत के बौद्धों ने यही किया सिन्ध के अरब आक्रमण के समय बौद्धों ने अहिंसा के नाम पर आक्रमणकारियों से सहयोग किया। गौतम बुद्ध की मूर्तियों से देश को पाट तो दिया, किन्तु उनके उपदेशों की अवहेलना की। उनके प्रेम और त्यागमय जीवन का अनुकरण नहीं किया। उनके कर्मफल चक्र की उपेक्षा की। फलस्वरूप उन्हीं आतताइयों ने बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ डाला। बड़ी संख्या में बौद्धों को इस्लाम धर्म बलात् स्वीकार करना पड़ा । जापान, चीन इत्यादि देशों ने जिस बौद्ध धर्म के बल पर संगठन और शक्ति का संग्रह किया वह तुम्हारी गुलामी का कारण बना । "
" तुमने ठीक कहा है। तुमने मेरी करोड़ों रुपये की कल्पित मूर्तियाँ बनाबनाकर करोड़ों रुपये उनके मन्दिर, आभूषण और उनके भोग पर खर्च कर डाले। क्या तुमने कभी सोचा कि यही तुम्हारे पतन और अन्त में नष्ट हो जाने का कारण है ?"
" तुम यह मन्दिर और मूर्ति बनाते रहे । आतताई उन्हें ध्वस्त करते रहे। लूटते रहे । किन्तु मूर्तियाँ बना-बनाकर स्थापित करने, मन्दिर बनाने तथा वहाँ सोना, जवाहरात सञ्चित करने का तुम्हारा मोह भंग नहीं हुआ। मोहम्मद बिन कासिम, अकेले मुल्तान के सूर्य मन्दिर से १३५०० मन सोना लूट ले गया । महमूद गजनवी ने सोमनाथ मन्दिर से इतना सोना और हीरे लूटे कि गजनी के लोगों की आँखें फटी की फटी रह गईं। अलाउद्दीन खिलजी दक्खिन के मन्दिरों से ६०,००० मन सोना लूट लाया । इन लुटेरों ने मन्दिरों की इस सम्पत्ति का उपयोग सेना की भरती और तुम्हारे समाज को नष्ट करने में किया। अब्दाली को लूट का सामान ढोने के लिये अपनी तोपें छोड़ देनी पड़ी जिससे सेना के हर चौपाये और दुपाये का उपयोग सोना, रत्न इत्यादि ढोने में किया जा सके। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार लिखते हैं कि दिल्ली के आस-पास किसी नागरिक के पास उसने एक गधा तक न छोड़ा।"
" 'स्वतन्त्र भारत में भी तुमने विशाल मन्दिर तो बनाये किन्तु अपनी संस्कृति और समाज की रक्षा के लिये क्या कोई शिक्षा संस्थान भी खोला ?"
Tuesday, November 12, 2024
महर्षि दयानन्द और युगान्तर
महर्षि दयानन्द और युगान्तर
-सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
प्रस्तुतकर्ता- #डॉ_विवेक_आर्य
उन्नीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन चरित्र महापुरुष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर, इस समय, इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामण्डित महापुरुष हैं। हम देखते हैं, हमें इतिहास भी बतलाता है, समय की एक आवश्यकता होती है। उसी के अनुसार धर्म अपना स्वरूप ग्रहण करता है। हम अच्छी तरह जानते हैं, ज्ञान सदा एकरस है, वह काल के बन्ध से बाहर है और चूँकि वेदों में मनुष्य जाति की प्रथम तथा चिरंतन ज्ञान- ज्योति स्थित है, इसलिए उसके परिवर्तन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती, बल्कि परिवर्तन भ्रमजन्य भी कहा जा सकता है । पर साथ-साथ, इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उच्चतम ज्ञान किसी भी भाषा में हो, वह अपौरुषेय वेद ही है। परिवर्तन उसके व्यवहार-कौशल, कर्म-काण्ड आदि में होता है, हुआ भी है। इसे ही हम समय की आवश्यकता कहते हैं। भाषा जिस प्रकार अर्थ साम्य रखने पर भी स्वरूपतः बदलती गई है, अथवा, भिन्न देशों में, भिन्न परिस्थितियों के कारण अपर देशों की भाषा से बिलकुल भिन्न प्रतीत होती है, इसी प्रकार धर्म भी समयानुसार जुदा-जुदा रूप ग्रहण करता गया है। भारत के लिए यह विशेष रूप से कहा जा सकता है। बुद्ध, शंकर, रामानुज आदि के धर्ममत-प्रवर्त्तन सामयिक प्रभाव को ही पुष्ट करते हैं। पुराण इसी विशेषता के सूचक हैं। पौराणिक विशेषता और मूर्त्ति-पूजन आदि से मालूम होता है, देश के लोगों की रुचि अरूप से रूप की ओर ज्यादा झुकी थी। इसीलिए वैदिक अखण्ड ज्ञान-राशि को छोड़कर ऐश्वर्यगुणपूर्ण एक-एक प्रतीक लोगों ने ग्रहण किया। इस तरह देश की तरक्की नहीं हुई, यह बात नहीं। पर इस तरह देश ज्ञान-भूमि से गिर गया, यह बात भी है। जो भोजन शरीर को पुष्ट करता है, वही रोग का भी कारण होता है। मूर्त्ति-पूजन में इसी प्रकार दोषों का प्रवेश हुआ। ज्ञान जाता रहा। मस्तिष्क से दुर्बल हुई जाति औद्धत्य के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र सत्ताओ में बँटकर एक दिन शताब्दियों के लिए पराधीन हो गई। उसका वह मूर्तिपूजन-संस्कार बढ़ता गया, धीरे-धीरे वह ज्ञान से बिलकुल ही रहित हो गई। शासन बदला, अंग्रेज आए। संसार की सभ्यता एक नये प्रवाह से बही। बड़े-बड़े पण्डित विश्व-साहित्य, विश्वज्ञान, विश्व-मैत्री की आवाज उठाने लगे, पर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के माया जाल में भूला रहा। इस समय ज्ञान-स्पर्धा के लिए समय को फिर आवश्यकता हुई और महर्षि दयानन्द का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञान-राशि के आधारस्तम्भ-स्वरूप अकेले बड़े-बड़े पण्डितों का सामना करते हैं। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगान्तर साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम है, यही जनसंख्या में बढ़ी हुई है।
चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्द जी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा-संभूत नहीं; पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि जो लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नत-मना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं। महर्षि दयानन्द जी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता । यहीं वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यहीं आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है।
यहाँ से भारत के धार्मिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरु होता है, यद्यपि वह बहुत ही प्राचीन है। हमें अपने सुधार के लिए क्या-क्या करना चाहिए, हमारे सामाजिक उन्नयन में कहाँ-कहाँ और क्या-क्या रुकावटें हैं, हमें मुक्ति के लिए कौन-सा मार्ग ग्रहण करना चाहिए, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्यसमाज की प्रतिष्ठा भारतीयों में एक नये जीवन की प्रतिष्ठा है, उसकी प्रगति एक दिव्य शक्ति की स्फूर्ति है। देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पाँति के भेद-भाव मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यसमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्यसमाज को है । स्वधर्म में दीक्षित करने का यहाँ इसी समाज से श्रीगणेश हुआ है। भिन्न जातिवाले बन्धुओं को उठाने तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के प्रहारों से बचने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहर, जिले-जिले, कस्बेकस्बे में इसी उदारता के कारण, आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्रभाषा हिन्दी के भी स्वामी जी एक प्रवर्त्तक हैं और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। अनेक गीत खिचड़ी शैली के तैयार किये गये और गाए गये। शिक्षण के लिए 'गुरुकुल'जैसी संस्थाएँ निर्मित हो गईं। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा ।
स्वामी जी के प्रचार के कुछ पहले ब्राह्मसमाज की कलकत्ता में स्थापना हुई थी। राजा राममोहनराय द्वारा प्रवर्त्तित ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा, वैदान्तिक बुनियाद पर, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर कर चुके थे। वहाँ इसकी आवश्यकता इसलिए हुई थी कि अंग्रेजी सभ्यता की दीप ज्योति की ओर शिक्षित नवयुवकों का समूह पतङ्गों की तरह बढ़ रहा था, पुनः शिक्षा तथा उत्कर्ष के लिए विदेश की यात्रा अनिवार्य थी, पर लौटने पर वे शिक्षित युवक यहाँ ब्राह्मणों द्वारा धर्म-भ्रष्ट कहकर समाज से निकाल दिये जाते थे, इसलिए वे ईसाई हो जाते थे, उन्हें देश के ही धर्म में रखने की जरूरत थी। इसी भावना पर ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा तथा प्रसार हुआ। विलायत में प्रसिद्धि प्राप्त कर लौटनेवाले प्रथम भारतीय वक्ता श्रीयुत केशवचन्द्र सेन भी ब्राह्मधर्म के प्रवर्त्तकों में एक हैं। इन्हीं से मिलने के लिए स्वामी जी कलकत्ता गए थे। यह जितने अच्छे विद्वान् अंग्रेजी के थे, उतने अच्छे संस्कृत के न थे। इनसे बातचीत में स्वामी जी सहमत नहीं हो सके। कलकत्ता में आज ब्राह्मसमाज - मन्दिर के सामने, कार्नवालिस स्ट्रीट पर विशाल आर्यसमाज मन्दिर भी स्थित है।
किसी दूसरे प्रतिभाशाली पुरुष से और जो कुछ उपकार देश तथा जाति का हुआ हो, सबसे पहले वेदों को स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने ही हमारे सामने रक्खा। हम आर्य हों, हिन्दू हों, ब्राह्मसमाज वाले हों, यदि हमें ऋषियों की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त है और इसके लिए हम गर्व करते हैं, तो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया, जिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित कर दिया।
देश में विभिन्न मतों का प्रचलन उसके पतन का कारण है, स्वामी दयानन्द जी की यह निर्भ्रान्त धारणा थी। उन्होंने इन मतमतान्तरों पर सप्रमाण प्रबल आक्षेप भी किये हैं। उनकी इच्छा थी कि इस मतवाद के अज्ञान-पंक से देश को निकालकर वैदिक शुद्ध शिक्षा द्वारा निष्कलङ्क कर दें।
वाममार्गवाले तान्त्रिकों की मन्द वृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन आदि वेदविरुद्ध महा अधर्म कार्यों को वाममार्गियों ने श्रेष्ठ माना है। जो वाममार्गी कलार के घर बोतल-पर-बोतल शराब चढ़ावे और रात्रि को वारांगना से दुष्कर्म करके उसीके घर सोवे, वह वाममार्गियों में सर्वश्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा के समान है। स्त्रियों के प्रति विशद कोई भी विचार उनमें नहीं। स्वामी जी देशवासियों को विशुद्ध वैदिक धर्म में दीक्षित हो आत्मज्ञान ही-सा उज्ज्वल और पवित्र कर देना चाहते थे। स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचार-भक्त देश के लिए विशुद्ध भाववाले वैदान्तिक धर्म का उपदेश दिया है।
आपने गुरु-परम्परा को भी आड़े हाथों लिया है। योगसूत्र के 'स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' के अनुसार, आप केवल ब्रह्म को ही गुरु स्वीकार करते हैं। रामानुज-जैसे धर्माचार्य का भी मत आपको मान्य नहीं और बहुत कुछ युक्तिपूर्ण भी जान पड़ता है। आपका कहना है कि लक्ष्मी-युक्त नारायण की शरण जाने का मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिए बनाया गया-यह भी एक दुकान ठहरी।
मूर्ति-पूजा के लिए आपका कथन है कि जैनियों की मूर्खता से इसका प्रचलन हुआ। तान्त्रिक तथा वैष्णवों ने भिन्न मूर्त्तियों तथा पूजनोपचारों से अपनी एक विशेषता प्रतिष्ठित की है। जैनी वाद्य नहीं बजाते थे, ये लोग शङ्ख, घण्टा, घड़ियाल आदि बजाने लगे। अवतार आदि पर भी स्वामी जी विश्वास नहीं करते। 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' आदि-आदि प्रमाणों से ब्रह्म का विग्रह नहीं सिद्ध होता, उनका कहना है।
ब्राह्मणों की ठग विद्या के सम्बन्ध में भी स्वामीजी ने लिखा है। आज ब्राह्मणों की हठपूर्ण मूर्खता से अपरापर जातियों को क्षति पहुँच रही है। पहले पढ़े-लिखे होने के कारण ब्राह्मणों ने श्लोकों की रचना कर-करके अपने लिए बहुत काफी गुञ्जाइश कर ली थी। उसीके परिणामस्वरूप वे आज तक पुजाते चले आ रहे हैं। स्वामी जी एक श्लोक का उल्लेख करते हैं-
'दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः ।
ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद्ब्राह्मणदैवतम् ॥'
· अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, इसलिए ब्राह्मण ही देवता हैं। लोगों से पुजाने का यह पाखण्ड बड़ी ही नीच मनोवृत्ति का परिचायक है।
स्वामी जी ने शैव, शाक्त और वैष्णव आदि मतों की खबर तो ली ही है, हिन्दी-साहित्य के महाकवि कबीर तथा दादू आदि को भी बहुत बुरी तरह फटकारा है। आपका कहना है-" पाषाणादि को छोड़ पलङ्ग, गद्दी, तकिए, खड़ाऊँ, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाण मूर्ति से न्यून नहीं। कबीर साहब भुनगा था, व कली था, जो फूल हो गया ? जुलाहे का काम करता था, किसी पण्डित के पास संस्कृत पढ़ने के लिए गया, उसने उसका अपमान किया। कहा, हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा, परन्तु किसी ने न पढ़ाया, तब ऊट-पटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि लोगों को समझाने लगा। तंबूरे पर गाता था, भजन बनाता था, विशेष पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गए। जब मर गए, तब सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूँदकर जो शब्द सुना जाता है, उसको अनहद शब्द- सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को सुरति करते हैं, उसको उस शब्द के सुनने में लगाया, उसीको सन्त और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं, वहाँ काल नहीं पहुँचता । बर्डी के समान तिलक और चन्दनादि लकड़ी की कण्ठी बाँधते हैं। भला विचार के देखो, इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है ?" इसी प्रकार नानक जी के सम्बन्ध में भी आपने कहा है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान न था, उन्होंने वेद पढ़नेवालों को तो मौत के मुँह में डाल दिया है और अपना नाम लेकर कहा कि नानक अमर हो गए-वह आप परमेश्वर हैं। जो वेदों को कहानी कहता है, उसकी कुल बातें कहानियाँ है । मूर्ख साधु वेदों की महिमा नहीं जान सकते। यदि नानक जी वेदों का मान करते, तो उनका अपना सम्प्रदाय न चलता, न वह गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत नहीं पढ़ी थी, फिर दूसरों को पढ़ाकर शिष्य कैसे बनाते, आदि-आदि। दादू पन्थ को भी आप इसी प्रकार फटकारते हैं। शिक्षा, मार्जन तथा अपौरुषेय ज्ञान - राशि वेदों का आपका पक्ष है। मत-मतान्तरों के स्वल्प जल में वह आत्मतर्पण नहीं करते। वहाँ उन्हें महत्ता नहीं दीख पड़ती। पुनः भाषा में अधूरी कविता करके ज्ञान का परिचय देनेवाले अल्पाधार साधुओं से पण्डित - श्रेष्ठ स्वामीजी तृप्त भी कैसे हो सकते थे ? इन अशिक्षित या अल्पशिक्षित साधुओं ने जिस प्रकार वेदों की निन्दा कर-कर मूढ़ जनों में वेदों के प्रतिकूल विश्वास पैदा कर दिया था, उसी प्रकार नव्य युग के तपस्वी महर्षि ने भी उन सबको धता बताया और विज्ञों को ज्ञानमय कोष वेदों की शिक्षा के लिए आमन्त्रित किया। स्वामी नारायण के मत के विषय पर आप कहते हैं - 'यादृशी शीतलादेवी तादृशो वाहनः खरः '-जैसी गुसाईं जी की धन-हरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामी नारायण की भी है। माध्व मत के सम्बन्ध में आपका कथन है- "जैसे अन्यमतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है, क्योंकि ये भी चक्राङ्कित होते हैं, इनमें चक्राङ्कितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक बार चक्राङ्कित होते हैं और ये वर्षवर्ष फिर-फिर चक्राङ्कित होते जाते हैं, वे चक्राङ्कित कपाल में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माध्व पण्डित से किसी एक महात्मा का शास्त्रार्थ हुआ था। (महात्मा) तुमने यह काली रेखा और चाँदला (तिलक) क्यों लगाया ?. (शास्त्री) इसके लगाने से हम वैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं। (महात्मा) जो काली रेखा और चाँदला लगाने से वैकुण्ठ में जाते हों तो सब मुख काला कर लेओ तो कहाँ जाओगे ?"
स्वामी जी के व्यंग्य बड़े उपदेशपूर्ण हैं। आर्य-संस्कृति के लिए आपने निःसहाय होकर भी दिग्विजय किया और उसकी समुचित प्रतिष्ठा की। स्वामी जी का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की ओर नहीं देखा, वेदों की प्रतिष्ठा की है। ब्राह्म समाज और प्रार्थना समाज के सम्बन्ध में आपका कहना है- "ब्राह्म समाज और प्रार्थना समाज के नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है ? जो कुछ ब्राह्म समाज और प्रार्थना-समाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया और कुछ-कुछ पाषाण आदि मूर्त्ति-पूजा से हटाया, अन्य जाल ग्रन्थों के फन्दे से भी कुछ बचाया इत्यादि अच्छी बातें हैं। परन्तु इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत न्यून है, ईसाइयों के आचरण बहुत से लिए हैं। खानपान- विवाहादि के नियम भी बदल दिये हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके स्थान में पेट भर निन्दा करते हैं, व्याख्यानों में ईसाई आदि अंग्रजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ, आर्यावर्त्ती लोग सदा से मूर्ख चले आए हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई। वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते, ब्रह्मसमाज के उद्देश्य की पुस्तक में साधुओं की संख्या में 'ईसा', 'मूसा', 'मुहम्मद', 'नानक' और 'चैतन्य' लिखे हैं, किसी ऋषि महर्षि का नाम भी नहीं लिखा ।
आज शिक्षित सभी मनुष्य जानते हैं, भारत के अध:पतन का मुख्य कारण नारी जाति का पीछे रह जाना है, वह जीवन-संग्राम में पुरुष का साथ नहीं दे सकती, पहले से ऐसी निरवलम्ब कर दी जाती है कि उसमें कोई क्रियाशीलता नहीं रह जाती, पुरुष के न रहने पर सहारे के बिना तरह-तरह की तकलीफें झेलती हुई वह कभी-कभी दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेती है, आदि-आदि। पं० लक्ष्मण शास्त्री द्रविड़ जैसे पुराने और नए पण्डित अनुकूल तर्कयोजना करते हुए, प्रमाण देते हुए यह नहीं मानते कि भारत की स्त्रियाँ उसके पराधीन-काल में भी किसी तरह दूसरे देशों की स्त्रियों से उचित शिक्षा, आत्मोन्नति, गार्हस्थ्य सुख, विज्ञान, संस्कृति आदि में घटकर हैं। इसी तरह धर्म और जाति के सम्बन्ध में उनकी वाक्यावली, आज के अंग्रेजी शिक्षित युवकों को अधूरी जँचने पर भी, निरपेक्ष समीक्षकों के विचार में मान्य ठहरती है। फिर भी, हमें यहाँ देखना है कि आजकल के नवयुवक समुदाय से महर्षि दयानन्द, अपनी वैदिक प्राचीनता लिये हुए भी, नवीन सहयोग कर सकते हैं या नहीं। इससे हमें मालूम होगा हमारे देश के ऋषि जो हजारों शताब्दियों पहले सत्य-साक्षात्कार कर चुके हैं, आज की नवीनता से भी नवीन हैं। क्योंकि सत्य वह है जो जितना ही पीछे है, उतना ही आगे भी, जो सबसे पहले सृष्टि के सामने है वही सबसे ज्यादा नवीन है।
ज्ञान की ही हद में सृष्टि की सारी बातें हैं। सृष्टि की अव्यक्त अवस्था भी ज्ञान है। स्वामी जी वेदाध्ययन में अधिकारी भेद नहीं रखते। वह सभी जातियों की बालिकाओं-विद्यार्थिनियों को वेदाध्ययन का अधिकार देते हैं । यहाँ यह स्पष्ट है कि ज्ञानमयकोष चाहे वह जड़-विज्ञान से सम्बन्ध रखता हो या धर्मविज्ञान से नारियों के लिए युक्त हैं, वे सब प्रकार से आत्मोन्नति करने की अधिकारिणी हैं। इस विषय पर आप 'सत्यार्थ प्रकाश' में एक मन्त्र उद्धृत करते हैं- यथेमां वाचं कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः ।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय॒ चार्य्यय च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च ॥ - यजु० अ० २६ । २ "परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं ( जनेभ्यः ) सब मनुष्यों के लिए (इमाम्) इस (कल्याणीम् ) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का ( आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन-शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही को वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं (उत्तर) ब्रह्मराजन्याभ्याम् इत्यादि देखो, परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, ( आर्याय) वैश्य, (शूद्राय ) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि ( अरणाय) और अति शूद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है, अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़ पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ाके अच्छी बातों को ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुःखों से छूटकर आनन्द को प्राप्त हों । कहिए, अब तुम्हारी बात माने वा परमेश्वर की ? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है । इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा, क्योंकि 'नास्तिको वेद निन्दकः' वेदों का निन्दक और न माननेवाला नास्तिक कहाता हैं।"
स्वामी जी ने वेद के उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियों की शिक्षा, अध्ययन आदि वेद-विहित है । उनके लिए ब्रह्मचर्य के पालन का भी विधान है। स्वामी जी की इस महत्ता को देखकर मालूम हो जाता है कि स्त्री समाज को उठाने वाले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त पुरुषों से वह बहुत आगे बढ़े हुए हैं। वह संसार और मुक्ति दोनों प्रसंगों में पुरुषों के ही बराबर नारियों को अधिकार देते हैं। इस एक ही वाक्य से साबित होता है कि किसी भी दृष्टि से वह नारी जाति को पुरुष-जाति से घटकर नहीं मानते।
आपका ही प्रवर्त्तन आर्यावर्त्त के अधिकांश भागों में, महिलाओं के अध्यापन के सम्बन्ध में प्रचलित है। यहाँ स्त्री-शिक्षा-विस्तार का अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को दिया जा सकता है। यहाँ की शिक्षा की एक विशेषता भी है। महिलाएँ यहाँ जितने अंशों में देशी सभ्यता की ज्योति-स्वरूपा होकर निकलती हैं, उतने अंशों में दूसरी जगह नहीं। संस्कृति के भीतर से स्त्री के रूप में प्राचीन संस्कृति को ही स्वामी जी ने सामने खड़ा कर दिया है।
[ साभार- ऋषि दयानन्द और आर्य समाज। लेखक डॉ जवलंत कुमार शास्त्री]
Was Maharshi Dayananda Militant and Aggressive?
• Was Maharshi Dayananda Militant and Aggressive? •
Wednesday, October 30, 2024
महात्मा गाँधी - ईसाई मत के समालोचक के रूप में
महात्मा गाँधी - ईसाई मत के समालोचक के रूप में
(महात्मा गाँधी का एक कट्टर ईसाई प्रचारिका से शास्त्रार्थ)
(लेखक-धर्मदेव वि० वा० विद्यामार्तण्ड)
कई पाठक महानुभावों को उपर्युक्त शीर्षक देख कर आश्चर्य होगा क्योंकि महात्मा गांधी जी के विषय में प्रायः यह माना जाता है कि वे ईसाइयत को भी पूर्णतया सत्य मानते थे, किन्तु यह धारणा ठीक नहीं है। इस विषय में महात्माजी का एक कट्टर ईसाई प्रचारिका 86 वर्ष की वृद्धा लेडी एमिली के साथ 25 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में जो मनोरञ्जक शास्त्रार्थ हुआ था। उसका वृत्तान्त नव जीवन प्रेस अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित और श्री महादेव देसाई द्वारा सम्पादित Christian Mission in India नामक पुस्तक से देने से पूर्व मैं महात्माजी की 'आत्मकथा' से निम्न उद्धरण देना चाहता हूँ।
इस 'आत्मकथा' में महात्माजी ने पर लिखा है:-
'मेरी कठिनाईयों की जड़ बहुत गहरे में थी । एक मात्र ईसामसीह हो ईश्वर के पुत्र हैं, जो उन्हें मानता है वही मुक्ति का अधिकारी हो सकता है । यह बात मेरा मन किसी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था । यदि ईश्वर का पुत्र होना सम्भव है तो हम सभी उसके पुत्र हैं। ईसा मसीह ने अपनी जान देकर अपने खून से संसार के सब पापों को धो डाला है। इस बात को अक्षरशः सत्य मानने को मेरी बुद्धि कबूल नहीं करती। इसके अलावा ईसाई लोगों का विचार है कि आत्मा केवल मनुष्यों में ही है, अन्य जीवों में नहीं है, एवं शरीर के विनाश के साथ ही उनका सब कुछ विनष्ट हो जाता है। इस बात से मेरा मन सहमत नहीं है । ईसामसीह को मैं एक त्यागी महापुरुष और धर्म गुरु के रूप में मान सकता हूँ। यह भी मैं स्वीकार करता हूँ कि ईसा की मृत्यु संसार में बलिदान का एक महान् दृष्टान्त छोड़ गई है । पर मेरा हृदय यह स्वीकार नहीं कर सका है कि उनकी मृत्यु ने संसार में कोई अभूतपूर्व या रहस्यपूर्ण प्रभाव डाल रखा है । ईसाई लोगों के पवित्र जीवन में मुझे कुछ ऐसा नहीं मिलता है जो अन्य धर्मावलम्बियों के पवित्र जीवन में नहीं मिलता। सात्विक दृष्टि से भी ईसाई धर्म के तत्वों में कोई ऐसी असाधारगता नहीं है और त्याग की दृष्टि से देखने पर तो हिंदू धर्म ही श्रेष्ठ प्रतीत होता है, मैं ईसाई धर्म को पूर्ण अथवा सर्व श्रेष्ठ धर्म मानने को तयार नहीं हूँ | जब प्रसङ्ग या उपस्थित होता है तो मैं अपने ईसाई मित्रों के आगे धर्म संबंधी यह हृदयोद्गार व्यक्त कर दिया करता हूँ पर मुझे इसका सन्तोषजनक उत्तर उनसे नहीं मिलता।' (आत्म कथा महात्मा गांधी कृत नवजीवन प्रेस, अहमदाबाद)
लेडी एमिली से शास्त्रार्थ
अब पाठक उस मनोरंजक शास्त्रार्थ का वृत्तान्त पढ़ें जो 24 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में महात्मा गांधी और इङ्गलैण्ड की वृद्धा प्रचारिका लेडी एमिली के मध्य में हुआ और जिसका वृत्तान्त महात्मा जी के निज मन्त्री श्री महादेव भाई देसाई ने 'A Hot Gospeller' इस शीर्षक से Christian Mission in India नामक संग्रह ग्रन्थ में प्रकाशित कराया था । उसमें से निम्न अंश विशेष उल्लेखनीय है ।
लेडी एमिली ने ईसा मसीह के विषय में कहा कि 'Jesus Christ was the Son of God' अर्थात् ईसा मसीह ईश्वर का पुत्र था । इस पर महात्मा गाँधी जी ने उत्तर दिया 'And so we ही ( ईश्वर के पुत्र ) हैं । लेडी एमिली ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा 'Jesus Christ was the only Son of God' अर्थात् ईसामसीह ईश्वर का एकमात्र पुत्र था।
इस पर महात्मा गांधीजी ने जो उत्तर दिया और इस ईसाई सिद्धांत से अपना स्पष्ट मत भेद प्रकट किया वह उस पुस्तक के निम्न शब्दों में उल्लिखित है :-
'It is there said Gandhi Ji that the mother (Lady Emily) and son (Gandhi Ji ) must differ with you. Jesus was the only begotten son of God. With me he was the son of God, no matter how much purer than us all, but every one of us is a son of God and capable of doing what Jesus did, if we but endeavour to express the Divine in us" (Christian Missions in India P. 282 )
अर्थात यहाँ माता ( लेडीएमिली ) और पुत्र ( गाँधी ) का घोर मत भेद है । आपके विचार में ईसा मसीह ईश्वर का इकलौता बेटा था पर मेरे विचार में वह ईश्वर का एक पुत्र था | चाहे हमारी अपेक्षा वह कितना ही अधिक पवित्र क्यों न हो। किंतु हम में से प्रत्येक ईश्वर का पुत्र है और वह कार्य कर सकता है जो ईसा ने किया । यदि हम अपने अन्दर ईश्वरीयता वा दिव्यता को प्रकट करने का यत्न करें।'
इस पर लेडी एमली ने महात्मा गाँधी जी के विचार से सहमति करते हुए कहा:-
'Yes that is where I think you are wrong. Christ is our salvation and without receiving Him in our hearts, we can not be saved' she added अर्थात् हाँ, यहाँ आपका विचार अशुद्ध है । ईसामसीह हमारे लिये मुक्ति दाता है और उसको हृदय में ग्रहण किये बिना हम रक्षा नहीं पा सकते।'
इस पर महात्मा गाँधी जी ने निम्न तर्क किया:-
'So those who accept the Christ are all saved. They need do nothing more ?' अर्थात इस प्रकार आपकी बात को मानने पर जो ईसा मसीह को मानते हैं वे सब रक्षा व मुक्ति पाते हैं । उनको और कुछ करने की आवश्यकता नहीं ? लेडी एमिली ने उत्तर दिया:-
We are sinners all, and we have but to accept Him to be saved अर्थात् हम सब पापी हैं और हमें रक्षा अथवा मुक्ति पाने के लिये केवल उसको स्वीकार कर लेने की आवश्यकता है।
महात्मा गाँधी जी ने इस पर व्यङ्ग पूर्ण भाषा में कहा:
And then we may continue to be sinners ? Is that what you mean ?'और तब हम पापी बने रहें ? क्या आपका यही मतलब है ? इत्यादि ।
विस्तार भय से इस मनोरंजक संवाद वा शास्त्रार्थ का इतना अंश उल्लिखित करना ही पर्याप्त है जिससे स्पष्ट है कि महात्मा गाँधी जी ईसाई मत की बहुत सी बातों को सत्य और युक्ति युक्त नहीं मानते थे । रूस के सुप्रसिद्ध विचारक टालस्टाय ने जिसे महर्षि के नाम से भी पुकारा जाता है तो ईसाई मत की आलोचना करते हुए 'What is Religion' में यहाँ तक लिख दिया कि
"Really no religion has ever preached things so evidently incompatible with contemporary knowledge or so immoral, as the doctrines preached by church-Christianity” ( What is Religion by Tolstoy p.18 )
अर्थात् वास्तव में किसी मत ने इतनी स्पष्ट वर्तमान ज्ञान विज्ञान विरुद्ध और अनैतिकता पूर्ण बातों का प्रचार नहीं किया जितना गिर्जा घरों में प्रचारित ईसाइयत ने।इसके टालस्टाय ने बहुत से उदाहरण बाइबल के पुराने और नये वसीयत नाम से दिये हैं जिनको फिर कभी टालस्टाय, बनार्डशा और महर्षि दयानन्द का इसाई मत के समालोचक के रुप में तुलनात्मक अनुशीलन करते हुए हमारा दिखाने की विचार है । वस्तुतः महर्षि दयानन्द की समालोचना तो अन्य समालोचकों की अपेक्षा बहुत नर्म है ।