ऋषि दयानन्द ने बार-बार रजवाड़ों को झकझोरा

राजा के सुधार से सम्पूर्ण राज्य का सुधार सम्भव

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महर्षि द्वारा महाराणा की दिनचर्या का उपदेश

"नवजागरण के पुरोधा : दयानन्द सरस्वती" के लेखक प्रो.भवानीलाल भारतीय बहुत मार्मिक शब्दों में लिखते हैं - "महर्षि दयानन्द ने राजस्थान प्रवास की योजना को एक विशिष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए क्रियान्वित करना चाहा था। उनके जीवन का संध्याकाल उपस्थित होने वाला है। वैदिक ज्योति को अशेष धरातल पर विकीर्ण करनेवाला यह ज्योतिष्मान् मार्त्तण्ड अपने सम्पूर्ण ताप और ऊष्मा से वसुन्धरा को सुपुष्ट कर मानो अब काल रात्रि का ग्रास बनने ही जा रहा है। जीवन-नाटक के इस अन्तिम अंक के लिए दयानन्द ने राजस्थान के रंगमंच को ही क्यों चुना ? स्वामीजी की यह धारणा थी कि जिन क्षत्रिय नरेशों की धमनियों में महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, वीर जयमल और पत्ता तथा वीर दुर्गादास जैसे रणबांकुरों का ऊष्ण रक्त प्रवाहित हो रहा है, वे आज के इस गये गुजरे जमाने में भी यदि चाहें तो अपनी प्रजा का सही मार्गदर्शन कर सकते हैं। यों तो सम्पूर्ण भारत ही उस समय विदेशी शासकों के अधिकार में था, किन्तु यदि स्वराज्य की कोई क्षीण झलक यत्र तत्र दिखाई दे जाती थी तो इन्हीं देशी राज्यों में ही। स्वामीजी यह भी जानते थे कि इन देशी रजवाड़ों के अधिकांश नरेश विषय-लोलुप, इन्द्रियारामी, स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश बन गये हैं। किन्तु उनकी यह धारणा थी कि यदि 'इन लोगों में स्वाभिमान, एवं आत्मगौरव का संचार कर प्रजारञ्जन तथा कर्त्तव्य-भावना को उद्बुद्ध किया जा सके तो निश्चय ही राजस्थान ब्रिटिश भारत का नेतृत्व करने में समर्थ हो जायगा। कुछ इसी आशा और विश्वास को लेकर स्वामीजी ने राजस्थान में अपना अवशिष्ट जीवन लगाया। उन्होंने राजन्यवर्ग की समस्याओं का अध्ययन किया, उनकी जीवनचर्या को सुधारा तथा उन्हें प्रजाहित तथा देशहित का पाठ पढ़ाया ।"

उदयपुर के तत्कालीन महाराजा सज्जनसिंह नवयुवक ही थे। एक बड़े राज्य के अधिपति होने तथा युवकोचित चापल्य के कारण उनमें धीरे धीरे वे सभी दोष आने लगे थे जो उन दिनों प्रायः सभी राजा और सामन्त वर्ग के युवकों में पाये जाते थे। यद्यपि महाराणा पर्याप्त विचारशील तथा अध्ययन में रुचि रखने वाले थे, किन्तु स्वेच्छाचारी क्षत्रिय शासकों में संसर्ग दोष के कारण जिस प्रकार के नाना व्यसन सहज उत्पन्न हो जाते हैं, वे युवक महाराणा में भी आ ही गये थे। महाराणा के इन चरित्रगत स्खलनों तथा नास्तिकता की ओर उनके विशेष झुकाव को देखकर मेवाड़ के दरबारी वर्ग को विशेष दुःख होता था। मेवाड़ राज्य के उच्च पदाधिकारी कविराजा श्यामलदास एवं मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या जैसों की हार्दिक अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार से महाराजा को सन्मार्ग पर लाया जाय। परन्तु यह तब तक सम्भव नहीं था जब तक कि कोई लोकोत्तर गुणसम्पन्न महापुरुष महाराणा का गुरु एवं पथ प्रदर्शक बनकर उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित नहीं करता। स्वामी दयानन्द की लोक-विश्रुत कीर्ति तथा उनके द्वारा धर्म और समाज के सार्वत्रिक सुधार एवं संशोधन की चर्चा उन दिनों देश में सर्वत्र प्रसरित हो रही थी। समाचार पत्रों में भी स्वामीजी के सुधार कार्य, उनके लोकहित चिन्तन तथा इसी ध्येय की पूर्ति हेतु उनके देशव्यापी भ्रमण का वृत्तान्त भी प्रायः प्रकाशित होता रहता था। पण्ड्याजी तथा कविराजाजी इन समाचारों को महाराणा के दृष्टिगोचर कराने का प्रयत्न करते। इस प्रकार धीरे धीरे स्वामीजी के कार्य तथा उनकी सार्वजनिक प्रवृत्तियों का परिचय महाराणा को मिलने लगा तथा देशोन्नति के कार्य में तत्पर इस अद्भुत संन्यासी के दर्शन की इच्छा उनके मन में जागृत हुई। इसी आधार पर पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या ने स्वामीजी से पत्र द्वारा सम्पर्क स्थापित किया और उनसे निवेदन किया कि निकट भविष्य में जब उनका राजस्थान में आगमन हो, तो उन्हें अवश्य सूचित किया जाय ।

स्वामीजी का चित्तौड़गढ़ जाने का कार्यक्रम अनायास ही बन गया और स्वामी जी ने अपने चित्तौड़ पहुंचने की सूचना कविराजा श्यामलदास को दी। यद्यपि उन दिनों कविराजा जी रुग्ण थे किन्तु राज्य की ओर से सब प्रबन्ध उत्तमता से हो गया।
कविराजा जी की प्रेरणा से मेवाड़ राज्य के बड़े-बड़े जागीरदार,सरदार तथा राजपुरुष भी स्वामी जी का सत्संग लाभ करने लगे। स्वामी जी 15 नवंबर सन् 1881 को जब प्रथम बार महाराणा जी से मिले तो वहीं धर्म के साथ राजधर्म का उपदेश दिया और कहा कि- "आप राजा सिंह तुल्य हैं। पासवान स्त्रियों को कदापि राजभवनों में नहीं डालना चाहिए। दरबार ने उस दिन जान लिया कि केवल यही व्यक्ति है जो बिना लागलपेट के सत्योपदेश करता है। हृदय से ऋषि के उपदेश को पसन्द किया। स्वामी जी ने महाराणा की प्रशंसा करते हुए आशा व्यक्त की कि उनके कुशल नेतृत्व में मेवाड़ राज्य की सर्वतोन्मुखी उन्नति होगी। वस्तुत: स्वामी जी की यह हार्दिक इच्छा थी कि राजस्थान के क्षत्रिय राजा आलस्य, प्रमाद, विषय-वासना,मद्यपान जैसे दुर्गुणों और दुर्व्यसन को त्याग कर निष्ठापूर्वक प्रजापालन को ही स्वकर्तव्य समझें। अतः राजन्य वर्ग के सुधार की महत्वाकांक्षा को लेकर ही स्वामी दयानन्द ने राजस्थान के इन रजवाड़े में भ्रमण का व्यापक कार्यक्रम बनाया था। दो माह से कुछ कम समय तक चित्तौड़ में निवास कर स्वामी जी ने मुंबई जाने का विचार किया।
मुंबई का यह प्रवास दीर्घ अवधि का था। स्वामी जी लगभग ६ माह के बाद ११ अगस्त १८८२ शुक्रवार को पुनः मेवाड़ राज्य की राजधानी उदयपुर पहुंचे। उदयपुर में स्वामी जी का प्रवास ६ माह से कुछ अधिक काल का रहा। मेवाड़ के महाराणा स्वामी दयानन्द के चरित्र, व्यक्तित्व एवं उनकी विचारधारा से तो प्रभावित थे ही, अतः इस बार उदयपुर आने पर उन्होंने स्वामीजी से दीर्घकाल पर्यन्त मेवाड़ की राजधानी में रहने का अनुरोध किया ।

महर्षि द्वारा महाराणा जी को शिक्षा तथा उसका प्रभाव - "अच्छे-अच्छे सिद्धान्तों से थोड़े काल में राणाजी को परिचित करा दिया। शरीर के रोगादि की शिक्षा, दिनचर्या की शिक्षा लिखकर राणा जी को दी। प्रातःकाल का भ्रमण, राजनीति, घर का प्रबन्ध, नमस्ते का प्रयोग, हवन का आरम्भ आदि बहुत-सी श्रेष्ठ बातें प्रचलित कराये। स्वामीजी के उपदेश से महाराणा ने अपने जीवन में तीव्र सुधार की तत्परता दिखाई ।

महाराज ने यह भी प्रस्ताव किया था कि राज्य के सरदारों के पुत्रों की शिक्षा के लिये एक पाठशाला होनी चाहिये जिसमें शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दी जावे। यह प्रस्ताव महाराणा ने स्वीकार भी कर लिया था और पाठशाला के भवन का चित्र भी बन गया था, परन्तु पश्चात् महाराणा के रोगग्रस्त हो जाने के कारण आगे कुछ कार्य न हुआ।

महाराज ने सरकारी पाठशालाओं के लिये श्रेणीवार पाठ्यक्रम भी बनाया था और उसे महाराणा ने प्रचलित कर दिया था।

महाराज का यह भी प्रस्ताव था कि राज्य के न्यायालयों में सब कार्य देवनागरी लिपि में हो और जिससे इसमें सुगमता हो। उन्होंने अरबी भाषा के शब्दों के, जो न्यायालयों में प्रचलिय थे, संस्कृत के पर्यायवाची शब्द बतला दिये थे।

महाराणा के लिये दिनचर्या -
महाराज ने महाराणा को निम्न प्रकार दिनचर्या का उपदेश
किया था : -

शय्यात्याग, शौचादि, रात्रि के ३ बजे। शौच से निवृत्त होकर एक प्याला ठण्डे जल का पीना वा रात्रि को चित्रक की छाल जल में भिगोकर प्रातःकाल उस जल को पीना।

फिर एक घड़ी तक परमेश्वर की उपासना करना ।

तत्पश्चात् पैदल वा घोड़े पर भ्रमण करना। पैदल भ्रमण करना अधिक अच्छा है। मार्ग में सब वस्तुओं को ध्यानपूर्वक देखना। हर वस्तु को ध्यानपूर्वक देखने की वान सारी आयु भर रखना अच्छा।

भ्रमण से लौटकर दिन को जिस राजप्रासाद में रहें उसमें घृत का हवन कराना।

हवन से न केवल वायु ही शुद्ध होती है प्रत्युत् वृष्टि भी। हवन से वहाँ की ही शुद्धि नहीं होती जहाँ हवन होता है, उससे सब नगर को लाभ पहुँचता है और महान् उपकार होता है।

९ बजे तक राज्य का आवश्यक कार्य करना ।

११ बजे तक भोजन और मनोविनोद ।

१२ बजे तक विश्राम यदि इच्छा हो।

४ बजे तक न्यायकार्य ।

तत्पश्चात् शौचादि से निवृत्त होकर अश्वादि पर सवार होकर सेना, उद्यान, प्रासाद, नगर, सड़क आदि का निरीक्षण सूर्यास्त तक ।

सूर्यास्त पर महल में आकर ग्रन्थादि पढ़ना, ईश्वराराधन वा विद्या-विज्ञान की बातें सुनना, विद्वानों से सत्सङ्ग वा वार्तालाप करना, इतिहास का सुनना।

तत्पश्चात् भोजन करके आध घण्टे तक टहलना और फिर टहलते हुए गाना सुनना परन्तु इस ओर अधिक न झुकना चाहिये। कविता सुनना भी अच्छा है, परन्तु वह ऋङ्गार रस की न हो।

फिर निश्चिन्त होकर पूरे छः घण्टे सोना। स्त्रियों के साथ न सोना। रति के लिये भी सप्ताह वा पक्ष का नियम रखना ।

दिनचर्या का उपदेश देकर महाराज ने महाराणा से पूछा कि आप इसके अनुकूल कार्य करेंगे वा नहीं तो उन्होंने कहा कि अवश्य करूँगा और अगले दिन से उन्होंने तदनुकूल आचरण करना आरम्भ कर दिया।
महाराज के उपदेश से महाराणा ने वेश्यागमन का कुव्यसन त्याग दिया था। बहु विवाह से भी उन्हें घृणा हो गई थी। उन्हीं दिनों एक स्थान से विवाह का प्रस्ताव हुआ था, परन्तु महाराणा ने उसे तुरन्त अस्वीकार कर दिया।
स्रोत- पंडित लेखराम जी द्वारा संकलित, बाबू देवेंद्र नाथ मुखोपाध्याय द्वारा संकलित, पंडित लक्ष्मण जी लिखित-महर्षि दयानन्द का जीवन चरित् और प्रो. भवानीलाल भारतीय लिखित 'नवजागरण के पुरोधा दयानन्द सरस्वती'
प्रस्तुतकर्ता- रामयतन
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