मैं आर्यसमाजी कैसे बना?
-श्री फैड्रिक जी फॉक्स एम०डी० (शिकागो)
आर्य समाजी बनने से पूर्व के जीवन पर जब मैं दृष्टि डालता हूं और १४ वर्ष की आयु के पूर्व के उन दिनों को याद करता हूँ जबकि मैं ईसाई चर्च के संडे स्कूल (रविवारीय स्कूल) का विद्यार्थी था तो विदेशीय लोगों के प्रति मेरी दिलचस्पी की मधुर स्मृतियां मेरे मानस चक्षुओं के समक्ष उपस्थित हो जाती हैं। विदेश की घटनाओं को जानने और वहां की कहानियों को पढ़ने और सुनने की मेरी सदैव विशेष रुचि रही है। मिशनरियों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों को सुनने के लिए जितना मैं उत्सुक रहता था उतना शायद ही कोई रहता हो। प्रतिवर्ष मुझे ऐसा लगता था कि भारत, चीन, अफ्रीका अथवा अन्य अज्ञात एवं रहस्यमय देशों में से किसी में अकाल पड़ने वा महामारी के फैल जाने की कहानी आयगी और पीडितों की सहायता के लिए धन की याचना की जायगी। उनके धर्म की चर्चा होगी और मूर्तियों की तस्वीरों का प्रदर्शन होगा जिनको विशेष वर्ग पूजता है।
मैं सोचता था कि ये निर्धन लोग ईसाई क्यों नहीं और ईसाइयों जैसा उनका धार्मिक विश्वास क्यों नहीं है, ऐसा सोचने का कारण यह था कि मैं यह मानता था कि ईसाई मत ही एक मात्र सच्चा धर्म है क्योंकि अब की तरह मैंने उस समय किसी उच्चतर धर्म की बात न सुनी थी। मैं ईसाई परिवार में उत्पन्न हुआ था मेरे माता-पिता भी ईसाई थे और मेरे आस-पास के सभी व्यक्ति ईसाई थे। तब ऐसी अवस्था में उच्चतर धर्म की बात सुनने का प्रसंग ही क्योंकर उपस्थित हो सकता था? परन्तु ईसाई जन सामान्यतः उदार मन वाले नहीं होते और धर्म के विषय में बहुत कम तर्क-वितर्क करते हैं विशेषतः उस धर्म के विषय में जिसका उद्भव स्थान विदेश में हो। साथ ही वे लोग सदैव एक दूसरे से झगड़ते रहते हैं- "वे पैस्टर या मिनिस्टर (पुरोहित) को पसन्द नहीं करते और यह कहते रहते हैं कि उसके विचार मूर्खतापूर्ण हैं, वह अधिक कट्टर है, हम उसके उपदेशों को सुनते-सुनते तंग आ गए हैं, वह घिसी पिटी बात ही करता रहता है। कोई नई बात नहीं कहता। कुछ ईसाई इसलिए रुष्ट रहते हैं कि चर्च एक मात्र उनके पैसे का इच्छुक रहता है। कदाचित् इस मान्यता में यह भाव निहित होता है कि ईसाई चर्च के सिद्धान्तों में उनकी आस्था नहीं होती। कुछ के पास अच्छे कपड़े नहीं होते और उन कपड़ों को पहनकर चर्च जाने में उनको लज्जा अनुभव होता है। वे कपड़े फटे-पुराने वा मैले नहीं होते अपितु स्टाइल के नहीं होते।"
इस प्रकार वर्ष व्यतीत होते चले गए और मैं अच्छा बनने का भरसक प्रयत्न करता रहा। एक व्यक्ति ऐसे थे जिनके साथ मैं अपने भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में वार्तालाप किया करता था और वे मुझे प्रोटस्टैंट चर्च का मुख्य पादरी बनने का परामर्श दिया करते थे। परन्तु मेरी इस कार्य में रुचि न थी। मैं समझता हूं कि यदि मैं इस कार्य में पड़ जाता तो न जाने यह मुझे कहां ले जाता। कोई व्यक्ति जो अपने और परमात्मा के प्रति सच्चा बनना चाहे वह क्योंकर बाइबिल की कहानियों में वर्णित अनेक बुरे सिद्धान्तों में आस्था रख और उन्हें किया में ला सकता है साथ ही वह उन्हें परमात्मा की कृति भी क्योंकर मान सकता है! मैं यह मानता हूं कि जब मैं ईसाई था तो यह जानने के लिए कि बाइबिल में क्या है मैंने उसका अध्ययन कभी नहीं किया और न उसका पर्याप्त श्रवण ही किया। यही बात बहुत से ईसाइयों के सम्बन्ध में कही जा सकती है। उस समय तक मैंने किसी पुरोहित द्वारा सुनाई जाने वाली बाइबिल की अश्लील कहानियां और उपदेश नहीं सुने थे। यह सत्य है कि बाइबिल में ऐसी सामग्री बहुत कम है जो प्रजा के उपयोग की हो और उन्हें श्रेष्ठ जीवन की प्रेरणा देती हो। मैंने अनेक बार पुरोहित को किसी विषय पर लड़खड़ाते और उसमें से कोई तत्त्व की बात निकालने का प्रयास करते हुए सुना। इतना ही नहीं, असमर्थ होने पर उसे पूरा बल लगाते और अपनी भेड़ों को सीटों पर सो जाने से रोकने के लिए बीच बीच में जोरों से चिल्लाते हुए भी सुना। मेरे मन में प्रायः बाइबिल पढ़ने की इच्छा उत्पन्न होती परन्तु मेरे घर में बाइबिल की सब प्रतियां जर्मन भाषा में थीं और अतः मेरी इस भाषा में गति न थी अतः बाइबिल के अध्ययन के प्रति मेरी अभिरुचि समाप्त हो गई। बाद में मैंने अंग्रेजी बाइबिल की प्रति क्रय की इसलिए नहीं कि उससे मुझे किसी लाभ की आशा थी अपितु इसलिए कि मैं गरीब ईसाइयों को यह दिखाने के लिए तैयार होना चाहता था कि उनकी धर्म पुस्तक में क्या भरा हुआ है!
हाई स्कूल पास कर लेने के बाद जिसका खर्च मैंने स्वयं कमाकर पूरा किया था मैं एक मेडिकल स्कूल में भर्ती हुआ। इस स्कूल के अधिकांश छात्र निम्न कोटि के थे। मैं यथा सम्भव अपने को इनसे अलग रखता था। बड़ी श्रेणी में पहुंचने पर एक भद्रपुरुष से मेरी भेंट हुई। मुझे ऐसा लगा कि ४०० विद्यार्थियों के उस स्कूल में वही अकेले व्यक्ति थे जिनके विचार मेरे विचारों से मिलते थे। यह मेरे प्रिय मित्र के अतिरिक्त कोई दूसरा न था जिन्हें मैं देवदूत मानता था जिन्हें परमात्मा ने मेरी आँखें खोलने, संसार की मनोरम वस्तुएं दिखाने और यह बताने के लिए भेजा था कि एक ऐसा आस्तिक धर्म भी है जो निर्दोष है, जिसमें सीखने की अनेक वस्तुएं भरी हुई हैं और जिसके विषय में मनुष्य यह कह सकता है कि मेरी इसमें आस्था इसलिए है कि मैं इसे प्रमाणित कर सकता हूं। मैं अपने मित्र डा० खानचन्द देव एम०डी० से इस स्कूल के आखरी वर्ष के प्रारम्भ में मिला था जो भारत वर्ष के निवासी हैं। स्कूल की डिस्पेंसरी में अचानक मेरी उनसे भेंट हुई थी। उस दिन मरीज न होने के कारण हम दोनों मरीजों की प्रतीक्षा में हाल में बैठे थे। यह देखकर कि वह (डा० खानचन्द देव) एक विदेशी है और विदेशियों के प्रति मेरी स्वाभाविक दिलचस्पी थी ही मैं उनके पास गया और मैंने उनसे कई प्रश्न किए- वह कहां में आए हैं? इस देश में रहते हुए उन्हें कितना समय हो गया है? उन्होंने अंग्रेजी बोलना कहां सीखा इत्यादि-इत्यादि। मैंने ये प्रश्न इसलिए किए थे कि अमेरिका के लोगों को युरोप को छोड़ कर बाहर के देशों की अवस्था का बहुत कम सच्चा परिचय प्राप्त होता है। मैं उनकी ओर आकृष्ट हुआ क्योंकि उनकी बहुत सी बातें मुझे अपील करती थीं। जबतक कोई व्यक्ति पवित्र जीवन व्यतीत करता है तबतक मुझे किसी भी व्यक्ति के प्रति वैर-विरोध वा घृणा नहीं होती परन्तु अमेरिका में बहुत से व्यक्तियों को अकारण ही वैर-विरोध और घृणा करने की प्रवृत्ति होती है। स्कूल के सत्र के अन्त में मैंने डाक्टर देव को युवक संघ की मीटिंग में आने के लिए कहा जो उस चर्च में होने वाली थी जिसमें मैं जाया करता था। डा० देव आए और ज्यों ही वे कमरे में प्रविष्ठ हुए त्योंही पुरोहित उनकी ओर अकृष्ट हो कर उनसे बातचीत करने लग गया। उसने डा० देव को व्याख्यान देने के लिए कहा। डा० देव भारत के विषय में थोड़ी देर बोले और जब वह बोल चुके तो पुरोहित फिर उनसे वार्तालाप करने लगा। कुछ दिन के बाद मेरे मन में आया कि मैं डा० देव से पूछूं कि वे पुनः भाषण दे सकेंगे या नहीं। उनका उत्तर मिला कि मैं भाषण दे सकता हूं यदि मुझे अपने धर्म की चर्चा करने से न रोका गया। हमने यह बात स्वीकार कर ली परन्तु उनका भाषण वहां कभी न हुआ। इन थोड़े से शब्दों से स्पष्ट हो जायेगा कि पुरोहित का हृदय कितना संकीर्ण था और उसमें कितना पक्षपात भरा हुआ था। वह इस बात के लिए राजी न हुआ कि हम उनका भाषण सुनें और डा० देव धर्म पर कोई टीका टिप्पणी करें। स्कूल में थोड़ी बहुत धार्मिक चर्चा हो जती थी परन्तु हम सब अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे इसलिए विस्तार से बातें न हो पाती थीं।
अन्त में उन्होंने मुझे कुछ पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं। पहली पुस्तक जो मैंने पढ़ी वह गंगाप्रसाद कृत 'फाउन्टेन हेड ऑफ रिलीजन' थी। यह पुस्तक मुझे बहुत पसन्द आई। मैंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनी और आर्य समाज के कार्य का कुछ थोड़ा सा अध्ययन किया। स्वामी जी की युक्तियों, सिद्धान्तों, विचारों और आर्य धर्म के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा को देखकर मैं आवक् रह गया। इसके बाद मैंने 'हिन्दू सुपीरियौरिटी' पुस्तक पढ़ी और उसे पढ़कर मेरे हृदय पर जो आश्चर्य जनक छाप पड़ी वह वर्णनातीत है। इस पुस्तक को मैं समय-समय पर पढ़ता रहता था और शान्तक्षणों में तो मैं अनिवार्य रूप से इस पुस्तक को पढ़ता था। इस पुस्तक के विषय में डा० देव के साथ तर्क-वितर्क भी करता था। परन्तु मेरे पास कोई तर्क न होता था। जो तर्क मैं उपस्थित करता था उसे डा० देव काट दिया करते थे। धीरे-धीरे मैं यह मानने लग गया था कि डा० देव की युक्तियां ठीक थीं।
इसके पश्चात् मैं उनसे नाराज हो गया था क्योंकि वे मुझे ईसाई कहा करते थे। मैं यह जानता था कि मुझे चिढ़ाने के लिए ही वे ऐसा करते हैं। मैं भी उन्हें चिढ़ाने के लिए कह देता था कि वे मुझे नास्तिक हिन्दू समझा करें। इस उपहास में दोनों को बड़ा आनन्द आता था। मैं उसी समय से आर्य चला आता हूं। मेरे साथ मेरी पत्नी भी आर्य धर्म की ओर आकृष्ट हो गई थीं। बाद में उसका एक भाई और उस भाई का एक मित्र भी हमारे विचार के बन गए। इन पंक्तियों को लिखते हुए डा० देव सहित हम ५ व्यक्तियों ने शिकागो में प्रथम आर्य समाज का संगठन किया है।
[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। संलग्न लेख आचार्य रामदेव द्वारा सम्पादित अंग्रेजी पत्रिका "The Vedic Magazine" के १९१४ के अंक में प्रथम बार छपा था। इसके महत्त्व को देखते हुए बाद में इसका हिन्दी अनुवाद सार्वदेशिक पत्रिका के १९६३ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]