महर्षि का जीवन दर्शन
लेखक: चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत सरकार
महर्षि दयानन्द सरस्वती की पुण्यतिथि (1983) पर चौधरी चरणसिंह ने यह लेख एक स्मारिका के लिए लिखा था । स्वामी जी के जीवन-दर्शन और चिन्तन पर आधारित इस लेख में चौधरी चरण सिंह ने कुछ ऐसे सवाल उठाए हैं, जो राष्ट्रीय समस्या के रूप में हमारे सामने हैं। जातिवादी व्यवस्था, नारी वर्ग के समान अधिकार, सामाजिक अन्याय, समान शिक्षा का जन्मसिद्ध अधिकार तथा राष्ट्र-भाषा की समस्या-ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर स्वामी जी ने स्पष्ट विचार व्यक्त किए थे। चौधरी साहब का यक्ष–प्रश्न है कि क्या हम स्वामी जी के बताए रास्ते से आज भटक नहीं गए हैं?
आधुनिक भारत में महात्मा गांधी के नाम का जो महत्त्व है, वही महत्त्व इस देश के अगणित व्यक्तियों के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती, दयाराम मूलशंकर अथवा 'मूलजी' का है। उनका जीवन तथा उनके कार्य बहुत बड़ी सीमा तक स्वाधीन भारत की योजना की प्रेरणा के आधार बने थे। उनके स्वर्गवास के सात दशकों के पश्चात् यह आधार स्पष्ट हो गया है।
बीती शताब्दी में उनके विषय में पर्याप्त कहा तथा लिखा गया है और आगामी शताब्दी वर्ष में पर्याप्त लिखा तथा कहा जाएगा। उनके सिद्धांतों के प्रति यावज्जीवन श्रद्धालु होने के कारण मैं यह सब कुछ नहीं कह रहा हूं, बल्कि निरंतर सर्वाधिक आवश्यकता की पूर्ति के उद्देश्य से यह सब कुछ लिख रहा हूं। नवोदित, स्वाधीन, संयुक्त तथा गतिशील भारत के विषय में स्वामीजी की जो कल्पना थी और जो हमारे लोकतंत्र के संस्थापक नेताओं के सामने आदर्श रूप में मान्य थी, वह स्वाधीन भारत के प्रथम तीस वर्षों में ही धूमिल होती जा रही है । मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पूर्व की अपेक्षा यह समुचित अवसर है कि हम स्वामी जी की समस्त देन पर विचार करें और यह जानने का प्रयास करें कि कहां और क्यों हम मार्ग से विचलित हुए हैं?
स्वामी जी की अनेक उपलब्धियों में से एक प्रमुख उपलब्धि थी हमारी राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप सांस्कृतिक तथा संगठनात्मक आधार प्रस्तुत करना। यह इसलिए सम्भव हो सका था कि उनकी सीमातीत शक्ति एवं कुशाग्र बुद्धि केवल वैयक्तिक मोक्ष की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील नहीं थी, अपितु वह अपने समाज के शारीरिक, नैतिक, भौतिक तथा धार्मिक उत्थान की दिशा में संलग्न थी ।
संतों तथा सुधारकों की लम्बी पंक्ति में, वह पहले व्यक्ति थे, जिसने हिन्दुत्व अथवा वैदिक धर्म के द्वार अहिन्दू लोगों के लिए खोले थे।
उनकी उपस्थिति तथा उनके सैद्धांतिक उपदेशों ने उन हालात को समाप्त कर दिया था, जबकि एक हिन्दू अपने धर्म पर लज्जा का अनुभव करता था और ईसाई तथा इस्लाम मत को अंगीकार करके लज्जा से मुक्ति पा लेता था। बाद के काल में, हिन्दू धर्म में घुस आए विकारों तथा विकृतियों पर प्रहार करते हुए, जैसा कि उनका स्वभाव बन गया था, उन्होंने एक नारा लगाया था - "वेदों के धर्म की ओर वापस चलो।" उनके समस्त सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों की आधारशिला यही थी । वेद परमात्मा के ज्ञान के प्रतीक हैं, वे सात्विक प्रमाण हैं, इसीलिए जन्म एवं जीवन के निकर्ष भी हैं।
इस सत्य के साथ वह वर्तमान हिन्दू धर्म पर अभियोग पत्र लेकर उपस्थित हुए। उनके 'सत्यार्थ प्रकाश' का अधिकांश भाग हिन्दू धर्म की अनेक विकृतियों - जन्म पर आधारित जाति का सिद्धांत, मूर्ति पूजा, चमत्कारवादिता, तीर्थ-यात्रा, पुरोहिती शोषण, पवित्रता की ठेकेदारी, रीति-रिवाज आदि की आलोचना पर आधारित है। सत्य के निर्णय की दिशा में उनके पास केवल दो सैद्धांतिक कसौटियां थीं. - "तर्क की तलवार और नैतिकता का आधार ।" 'भारतवर्ष अंधकार से परिपूरित है' शीर्षक के अन्तर्गत, संक्षेपित पृष्ठों में आपने हिन्दू धर्म के असंख्य रीति-रिवाजों तथा सामाजिक आडम्बरों की कटु आलोचना करते हुए, मूर्ति - पूजा तथा मदिरों के विशाल प्रांगणों से जुड़ी तीर्थयात्राओं, संकीर्ण तथा अंधविश्वासपरक कर्मकाण्डों को व्यर्थ तथा सारहीन घोषित किया था ।
जाति-प्रथा उन्मूलन
जातिवादी व्यवस्था की, उसकी अगणित वर्जनाओं एवं वरीयताओं के साथ, आपने आलोचना की और व्यक्तिगत जीवन में उसकी विकृतियों का खुलासा किया। जन्म के स्थान पर ज्ञान अथवा योग्यता को श्रेष्ठता की कसौटी निर्धारित करते हुए, आपने उस सामाजिक असमानता की समस्या का समाधान प्रस्तुत किया था, जो हमारी सतत राजनीतिक दासता का कारण रही है और आज भी हमारे राष्ट्रीय जीवन की शक्ति का क्षय कर रही है।
एक आदर्श समाज के विषय में, आपकी मान्यतानुसार, वर्णों का विभाजन जन्म अथवा जाति के आधार पर न होकर गण अथवा ज्ञान के आधार पर होना चाहिए । वर्णों का निर्धारण भी स्कूल तथा कालिजों से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद राज्य द्वारा होना चाहिए ।
आपने बड़ी तथा छोटी जाति में उत्पत्ति के आधार पर जाति-व्यवस्था के सिद्धांत को स्वीकार करके सर्वाधिक बल शिक्षा पर दिया था । यथार्थ में, आपने 'सत्यार्थ प्रकाश' के द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में इसी विषय पर बल दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार विषयक उनके भागीरथ प्रयत्न अपने समय के सर्वाधिक अग्रगामी थे। आपने दीर्घकाल से विस्मृत गुरुकुलीन शिक्षा-पद्धति को, जिसमें बड़े तथा छोटे व्यक्ति के बालक एक ही स्तर पर, शहर के दूषित वातावरण से दूर रहकर अध्यापक के स्नेहमय वैयक्तिक सम्पर्क के वरदान से पूरित शिक्षा पाने में समर्थ हो सकते हैं, पुनर्जीवित किया था ।
चारों जातियों (जिनमें शूद्रों को भी अन्यों के समान शिक्षा दी जाये) में पुरुष तथा महिला वर्ग के लिए अनिवार्य शिक्षा का समर्थन करते हुए आपने चेतावनी दी कि इसके अभाव में देश की समृद्धि की कोई सम्भावना नहीं है। नारी - समाज के लिए समान शिक्षा का प्रतिपादन करने वालों में वह अग्रगण्य थे। विशेष रूप से उनका विश्वास था कि विवाहित जीवन की खुशियां भी पति तथा पत्नी दोनों के शिक्षित होने पर निर्भर करती हैं।
आपने नारी वर्ग का समर्थन किया और उसके लिए पुरुष के समान अधिकारों की वकालत की। आपने पुरुष के लिए एक विवाह का सिद्धांत रखा और सोलह वर्ष से पूर्व कन्या के विवाह का समर्थन नहीं किया। आपने यहां तक कहा कि एक अयोग्य एवं अनुपयुक्त व्यक्ति के साथ विवाहित होने की अपेक्षा एक कन्या का अपने पिता के घर में ही रहना अधिक अच्छा है। दोनों साथियों की पूर्व तथा पूर्ण स्वीकृति के अभाव में शादी के वह विरोधी थे। उन्होंने बार-बार इस बात पर बल दिया कि एक घर की सुदृढ़ शांति का आधार पति - पत्नी का पारस्परिक प्रेम एवं दायित्व की समान भागीदारी है। उन्होंने अपने अनुयायियों को वैदिक कालीन उन स्वर्णिम दिनों का स्मरण कराया, जब कि नारी सामाजिक जीवन के समस्त कार्यों में समान रूप से भाग लेती थी ।
महर्षि दयानन्द उन लोगों में से प्रमुख थे, जिन्होंने एक मनीषी की दृष्टि से हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा था । हिन्दी यहां के बुद्धि जीवियों तथा न्यायालय की भाषा कभी नहीं रही, फिर भी वह यहां के अधिकांश सामान्य लोगों की बोलचाल की भाषा थी, इसलिए उन्होंने यह भली प्रकार अनुभव कर लिया था कि स्वाधीन तथा संयुक्त भारत में अंग्रेजी के स्थान पर यही राष्ट्र भाषा हो सकती है । वह गुजरात के मोरवी नामक राज्य में पैदा हुए थे। उनकी मातृभाषा गुजराती थी, किन्तु उन्होंने स्वयं को हिन्दी में शिक्षित किया और कालान्तर में हिन्दी में ही अपना महान कार्य करने का निश्चय किया । यह निश्चय भी उस अवस्था में था, जबकि उनका सम्पूर्ण प्रशिक्षण संस्कृत में हुआ था । यथार्थ में, उनकी प्रतिभा का दूसरा प्रतीक, उनकी प्रारम्भिक संस्कृतनिष्ठ भाषा, जिसमें आपने कुछ पुस्तिकाएं लिखी थीं, की अपेक्षा प्रवाहपूर्ण हिन्दी में लिखी उनकी अंतिम रचना, वेदभाष्य है।
हिन्दी को प्रमुखता
आपने सब प्रकार की शिक्षा में हिन्दी को प्रथम स्थान दिया था। इसका एक छोटा-सा उदाहरण जोधपुर के राजकुमार की शिक्षा के विषय में दिया गया परामर्श है, जो उनके स्वदेशी चरित्र का प्रतीक भी है। अन्य बातों के अतिरिक्त आपने विशेष रूप से लिखा था कि राजकुमार को संस्कृत तथा हिन्दी का ज्ञान अंग्रेजी से पहले कराना चाहिए।
स्वामीजी के जीवन का, अनेक प्रकार से, अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य इस विश्वास को चुनौती देना था कि यह संसार विकारों का भण्डार है, अतः इसका त्याग कर देना चाहिए। आपने व्यक्ति के लिए मोक्ष - साधना का भी विरोध किया। आपने बताया कि जीवन के प्रति यह उदासीनता का सिद्धांत, व्यक्तिवादी चेतना और जातिवादिता, हमारे सामाजिक पराभव के प्रमुख कारण हैं । यथार्थ में स्वामी जी कर्मठ व्यक्ति थे। वह अतीत की सम्पन्नता से भली प्रकार अवगत थे और वर्तमान युग की नैतिकता को जानते थे। उनके विषय में कहा जाता है कि उन्होंने ज्ञान के माध्यम से संत की अवस्था का अर्जन किया था ।
उनका जीवन तथा उनके गुण वैयक्तिक तथा ऐतिहासिक संदर्भो में उनके वास्तविक तेज का ज्ञापन करते हैं। यद्यपि, हम उनको महर्षि पुकारते हैं, पर उन्होंने अपने जीवन काल में ऋषि की उपाधि को भी अस्वीकार कर दिया था। हालांकि दस दशक पश्चात् उनकी भविष्यवाणियों पर किसी को भी संदेह नहीं होगा, पर उन्होंने भविष्य द्रष्टा कहे जाने को भी अंगीकार नहीं किया था। हालांकि उनके कुछ अति उत्साही अनुयायियों ने उनको नवीन धर्म का प्रवर्तक तथा सत्य का उपदेश देने वाला कहा था, पर वह अपने जीवनकाल में, यह बात कहने में कभी पीछे नहीं रहे कि वह तो सत्य, प्राचीन धर्मग्रंथों, वेदों में निहित सत्य तथा धर्म का ही उपदेश दे रहे हैं । इन गुणों के विरोधी समाज में वह ऐतिहासिक पौराणिक संघर्षकर्ता के रूप में उभर कर आये थे। उनके चरित्र में स्वार्थपरायणता अथवा गुरुडम अथवा समझौतावादिता के सामने झुकना नहीं था। इन सबसे ऊपर, उस महान हिन्दू सुधारक का जीवन तथा धर्मोपदेश हमारे पुरातन युग की असाम्प्रदायिक सभ्यता का चित्रण करते हैं ।
महर्षि ने अपने तर्कों की तीक्ष्ण धारा से हिन्दू, ईसाई तथा मुस्लिम धर्म के उन तमाम पूर्वाग्रहों को काट दिया था, जो समस्त मानवता को आक्रान्त किये हुए थे। उन्होंने हमेशा सिद्धांतों का विरोध किया था, व्यक्तियों का नहीं ।
यही कारण था कि अन्य धर्मों में आस्था रखने वाले लोगों ने भी स्वामीजी को अपने धार्मिक स्थलों पर उपदेश करने के किए आमंत्रित किया था। दूसरे धर्मों के नेताओं के साथ उनका मैत्री - भाव, उनकी एक धरोहर थी।
यथार्थ में, स्वामीजी की रुचि हजारों धार्मिक विश्वासों के मूल सिद्धांतों के विश्लेषण में थी । एक धार्मिक सम्मेलन के बीच एक राजा ने प्रत्येक धर्म के उपदेशक से उसके धर्म का सार जानना चाहा था । उसको परस्पर विरोधी हजारों उत्तर मिले और उसने निर्णय किया था कि कोई समुचित धर्म इसलिए नहीं है कि प्रत्येक की असत्यता के विषय में 111 प्रमाण मौजूद हैं। एक सच्चे संत ने राजा से मूल बातें जानने का आग्रह किया, जिस पर सब लोग सहमत हो गए थे। ये मूल बातें थीं- सत्य, ज्ञान और नैतिक जीवन, और संत ने कहा था कि यही सच्चा धर्म है।
मैं, स्वामीजी के विषय में, इसी सामान्य ज्ञान के आधार पर विचार करना चाहता हूं। मैं पाठकों को स्वामीजी के जीवन पर दृष्टिपात करने के लिए सजग करना चाहता हूं और इस परिणाम पर ले जाना चाहता हूं कि हम लोग सही रास्ते से कितने भटक गए हैं। मैंने ऊपर जिन बातों का उल्लेख किया है, उनमें से क्या एक का भी हमने उपार्जन किया है ?
क्या हम अपने जीवन से जातिवादी व्यवस्था को दूर करने में समर्थ हुए हैं? क्या हम नारी वर्ग को अपने जीवन में समान अधिकार प्रदान करते हैं? क्या हम सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हैं और उनको असत्य संसार की विकृत अनिवार्यता के रूप में अंगीकार नहीं कर लेते और क्या हमने जाति और धर्म पर आधारित शिक्षा की बजाय, सभी बच्चों के लिए शिक्षा को जन्म सिद्ध अधिकार बनाया है?
इस सन्दर्भ में, मैं राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की समस्या की दुर्गति का स्मरण दिलाना चाहता हूं। इस प्रश्न की दुखद स्थिति से, सिवाय हमारी कमियों के और कोई नतीजा नहीं निकल सकेगा।
सन् 1837 में भारत सरकार ने घोषणा की थी कि संयुक्त प्रांत (आगरा व अवध) में फारसी लिपि में लिखी उर्दू राजभाषा होगी। 1860 में इसकी (उर्दू की) जगह देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी के पक्ष में एक आन्दोलन उभरकर आया था। उस समय भी कारण उतने ही मामूली थे, जितने कि आज हैं। लेकिन जब 1861 में बिहार प्रदेश में राज्यभाषा के रूप में उर्दू का स्थान हिन्दी ने ले लिया, तो इसने उत्तर प्रदेश में आन्दोलन के लिए प्रेरणा दी। शीघ्र ही स्वामीजी ने इस आन्दोलन के पक्ष में अपना समर्थन व्यक्त किया। उनके अथक परिश्रम के परिणामस्वरूप आर्यसमाज ने इसके समर्थन में 29 प्रतिवेदन सरकार के समक्ष प्रस्तुत किए । हिन्दी के पक्ष में स्वामीजी का समर्थन हिन्दी की संयोजक - क्षमता के कारण था। वह जिस दृढ़ता के साथ अपने सिद्धांतों के साथ प्रतिबद्ध रहे, उसकी झलक हमें अंग्रेजी भाषा में उनके उपदेशों का अनुवाद किए जाने की मांग को निरंतर ठुकराते जाने में देखी जा सकती है। वह जानते थे कि उर्दू अथवा अंग्रेजी में उनके सिद्धांतों का अनुवाद हिन्दी के अध्ययन की उदासीनता को बढ़ावा देगा। इस प्रश्न के उत्तर में, 'भारत कब महान बन सकेगा', वह प्रायः कहते थे कि "जिस समय यहां धर्म, भाषा तथा लक्ष्य की एकता हो जायेगी ।"
आज भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के प्रश्न पर हम केवल अस्थिर ही नहीं हैं, वरन हम शक्तिशाली भाषायीविवाद की ओर वापिस जा रहे हैं । इन अंधकारमयी परिस्थितियों में, स्वामीजी का उदाहरण एक सुदृढ़ प्रकाश स्तम्भ के समान मौजूद है और वह उनका मार्ग-दर्शन कर रहा है, जिनमें उस मार्ग पर चलने का साहस तथा विश्वास है ।