'अल्लामा इकबाल'
जिसके पूर्वज कश्मीर के मोह्याल ब्राह्मण थे। उन पर जब मजहबी रंग चढ़ा तो क्या-क्या परिवर्तन हुए- उसके बारे में आर्य विद्वान पण्डित प्रकाशवीर शास्त्री (संसद सदस्य) का एक भूमिकापरक उद्धरण यथावत् प्रस्तुत है -
"एक गिरे से गिरा मुसलमान भी गांधी से लाख दर्जे बेहतर है क्योंकि वह कुरान पर यकीन रखता है।" मुसलमान जब यह समझने लगा स्वराज्य तेरे ही कारण मिल या रुक सकता है उसने कभी गौकशी, कभी ताजियेदारी और कभी मस्जिद के आगे बाजे और कभी मन्दिरों के शंखों पर झगड़े आरम्भ कर दिये। जो समस्यायें इतने दिनों से कभी नहीं उठी थीं वह भी उन दिनों उठने लगीं। उठती भी क्यों न, हमारे लीडरों का आवश्यकता से अधिक महत्व देना और अंग्रेज का शाबाश कहकर बजता हुआ डमरू देखकर शैतान खुलकर खेलने लगा। चौदह प्रतिशत लोगों को तैंतीस प्रतिशत अधिकार मिल गये, इतने पर भी वे शान्त कहां? आधा देश बांटने की तैयारी करने लगा। अंग्रेज के अतिरिक्त भोपाल, रामपुर, हैदराबाद और जूनागढ़ से भी पीठें ठोकी ही जा रही थीं, इधर कांग्रेस के अन्दर रहकर जिन्ना हरेक को यह जान ही चुका था कौन कितने पानी में है और किसमें कहां तक खड़े रहने का दम है ? उसने इसका पूरा लाभ उठाया और मुसलमानों का नेतृत्व आरम्भ कर दिया गया । स्वामी श्रद्धानन्द जैसे वीर नेता जिसने देहली के घण्टाघर पर खड़े होकर गोरों की संगीनों को अपनी छाती खोलकर चुनौती दी थी, उनके वध का शोक समाचार गोहाटी कांग्रेस में रखते हुए हमारे नेताओं के हाथ कांपने लगे क्योंकि मुहम्मद अली जो वहां पर उपस्थित थे, परन्तु जनता के बढ़ते हुए रोष और मालवीय जी क्योंकि उस अधिवेशन के सभापति थे वह प्रस्ताव रखा गया और एक दिन का अधिवेशन भी स्थगित हुआ । उसी अब्दुल रशीद की पैरवी जिसने स्वामी जी को मारा था कचहरी में खुले आम करने वाले आज भी हमारे गवर्नर और राजदूत बन रहे हैं। इसी हिन्दू- मुस्लिम ऐक्य की बढ़ती हुई आंधी और पान इस्लामी स्टेट की कल्पना से सर अल्लामा इकबाल जैसे राष्ट्रीय शायर भी विचलित हो उठे । जिन्होंने कभी देशभक्ति के वह तराने गाये थे-
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ।
हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमार। ।।
उन्हीं इकबाल ने मुस्लिम रंग में रंगकर यह कहना आरम्भ किया-
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा।।
इकबाल जैसे राष्ट्रीय और देशभक्ति का अलाप लेने वाले शायर में इतना गहरा मजहबी रंग देखकर पंजाबी शायर श्री त्रिलोकचन्द ने उत्तर दिया-
इकबाल ने जब छोड़ी राहे वतन परस्ती ।
गा-गा के यह तराना सारा जहां हमारा ॥
हमने भी एक फिक्रे में बस बात खत्म कर दी।
सारा जहां तुम्हारा हिन्दोस्तां हमारा ॥
अन्त में आकर इन्हीं इकबाल ने अपने गीतों और बयानों में पाकिस्तान की भूमिका तैयार की। सन् १९३० के मुस्लिम लीग के इलाहाबाद वाले अधिवेशन में सभापति पद से भाषण करते हुए डा० इकबाल ने पहले पहल स्वतन्त्र मुस्लिम राष्ट्र की मांग की। उन्होंने कहा- जिस राष्ट्रीयता में मुसलमानों को इस्लाम के सिद्धान्त को हत्या करनी पड़े उस पर तो उन्हें विचार तक भी नहीं करना चाहिए। परिणामस्वरुप अन्ततः संसार का सबसे रक्त- रंजित और वीभत्स राष्ट्र-विभाजन घटित हुआ। निस्संदेह डॉ. अल्लामा इकबाल भारत-विभाजन के मुख्य सूत्रधारों में से एक हैं।
(स्रोत- 'मेरे सपनों का भारत', लेखक - पण्डित प्रकाशवीर शास्त्री)
प्रस्तुतकर्ता - रामयतन


