Tuesday, November 4, 2025

स्वामी नारायण और उनका पन्थ


 • स्वामी नारायण और उनका पन्थ •

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लेखक - श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज
[भूमिका : 1825 ई. में गुजरात के नडियाद नगर में कोलकाता के बिशप हीबर (हेबर) - Reginald Heber (1783-1826) और स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक स्वामी सहजानंद (1781-1830) के बीच मुलाकात हुई थी। हीबर उनके नैतिक सुधारों और उनके मतानुयायिओं की भक्ति से प्रभावित हुए थे, हालांकि उन्हें आशा थी कि वे सहजानंद को ईसाई मत के प्रभाव में ले आएंगे। हीबर का प्रारंभिक उद्देश्य स्वामी सहजानंद और उनके मत को भारत में बाइबल फैलाने के लिए एक माध्यम बनाना था, लेकिन इस मुलाकात से दोनों के बीच आपसी सम्मान बढ़ा, और हीबर उन्हें कन्वर्ट करने के अपने मिशन में असफल होकर गुजरात से चले गए। हीबर ने अपने लेखन में सहजानंद के काम और इस मुलाकात के बारे में अपने विचार लिखे हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इसी बिशप हीबर की डायरी के आधार पर यह महत्त्वपूर्ण लेख लिखा है। ध्यातव्य है कि आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वामी सहजानंद तथा उनके संप्रदाय की समीक्षा की है। इतना ही नहीं, उन्होंने 'शिक्षापत्री ध्वान्त निवारण' नामक एक स्वतंत्र पुस्तक लिखकर स्वामी सहजानंद रचित 'शिक्षापत्री' ग्रंथ की प्रमाण पुरस्सर और तार्किक समालोचना की है। आशा है कि स्वामी श्रद्धानंद जी का एक-सौ एक वर्ष पुराना यह लेख पाठकों को रसप्रद एवं उपयोगी लगेगा। - भावेश मेरजा]
ऋषि दयानन्द ने जो मत मतान्तरों और सम्प्रदायों की समालोचना की है, उसे प्रायः कठोर कहा जाता है और उन पर असहिष्णुता का दोष लगाया जाता है। परन्तु आज तक किसी भी आलोचक ने कोई विशेष प्रमाण इस विषय में नहीं दिया। एक सहिष्णु महाशय ने यह कहा कि स्वामी दयानन्द अपने खण्डन में कल्पना से बहुत काम लेते थे। मैंने प्रमाण के लिये दृष्टान्त पूछा। इस पर उन्हें चुप होना पड़ा। बम्बई में एक महाशय ने स्वामी नारायण मत के विषय में कहा कि उन के अनुयायी किसी को भी अवतार नहीं मानते, सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी नारायण के विषय में अशुद्ध कल्पना की गई है। एक मास बीता, अकस्मात् "बिशप हीबर" की डायरी में से कुछ उद्धरण मुझे मिल गए जिन में स्वामी नारायण के विषय में जो कुछ भी लिखा है नीचे देता हूं। इस से निष्पक्ष सज्जन समझ जायंगे कि मतों और सम्प्रदायों की आलोचना में भी ऋषि दयानन्द ने कभी अत्युक्ति से काम नहीं लिया।
यदि कोई सज्जन ऋषि दयानन्द के लेखों में किसी प्रकार की अशुद्ध कल्पना समझे तो उस विषय के ग्रन्थों वा इतिहास का अनुशीलन करें, और उन के अशुद्ध होने का प्रमाण उन्हें मिले तो मेरे पास लिख भेजें। मैं स्वयं उस अशुद्धि को मान लूंगा क्योंकि भूल चुक को सुधारने के लिए दयानन्द का विशाल हृदय हर समय तय्यार रहता था।
बिशप हीबर (Bishop Heber) अपनी 25, 26 मार्च सन् 1825 ई० की डायरी में स्वामी नारायण और उन के मत के विषय में इस प्रकार लिखते हैं -
"कहा जाता था कि उस (स्वामी नारायण, उपनाम सहजानन्द) के धार्मिक सिद्धान्त उन से भी उच्च हैं कि जो शास्त्रों से सीखे जा सकते हैं। वह उच्च कोटि की पवित्रता का प्रचार करता है, यहां तक कि उस के शिष्यों को किसी स्त्री के मुंह की ओर ताकना भी मना है। चोरी और रक्त बहाने को यह दूषित मानता है। जिन ग्रामों व जिलों ने उस की शिक्षा को स्वीकार किया है ये अपनी बुराई को छोड़ कर सब से अच्छे और नियमबद्ध हो गए हैं। केवल यही नहीं प्रत्युत कहा जाता है कि उसने जातिबन्धन के जुए का नाश कर दिया है, एक परमात्मा का प्रचार करता है। सारांश यह कि वह सच्चाई की ओर इतना झुक आया है कि मुझे आशा हो गई कि वह बाइबिल की शिक्षा के लिए मार्ग खोलने का एक साधन सिद्ध होगा उस (स्वामी नारायण) ने आरम्भ में कहा कि उस का विश्वास एक परमात्मा पर है जो पृथ्वी और आकाश की सब वस्तुओं का निर्माता, सर्व व्यापक, सब का धारण और शासन करने वाला है और उन पुरुषों के हृदय में विशेष रूप से बसता है जो उसे यत्न से ढूंढते हैं। परन्तु उस ने अपने पूज्य परमात्मा का नाम कृष्ण बतला कर मुझे चकित कर दिया और कहा कि प्राचीन काल में वह पृथ्वी पर आया था जिसे अधर्मी आद‌मियों ने जादू के ज़ोर से मार दिया और उसके बाद बहुत से इलहाम और बहुत से झूठे अवतार दुनिया में प्रसिद्ध किए गए। मैंने कहा कि मैं तो सदा यह समझता रहा हूं कि हिन्दू परमेश्वर को सबका पिता कहते हैं न कि 'कृष्ण' को, और कि उसका नाम 'ब्रह्म' है और मैंने यह जानने की इच्छा प्रकट की कि उनका परमेश्वर "ब्रह्म" है वा उस के अतिरिक्त कोई और ? पण्डित (सहजानन्द) मुस्कराया और सिर झुका कर एक ऐसे आद‌मी की तरह जो किसी अधिकारी शिष्य को शिक्षा देता है कहा - "यह सच है कि एक ही परमात्मा है जो सर्वोपरि और सर्वत्र व्यापक है। उसी से सारा संसार उत्पन्न होता है। वह जो अनादि एकरस है उस के बहुत नाम हो सकते हैं और रक्खे गए हैं। उसे हम भी और अन्य हिन्दू भी 'ब्रह्म' बोलते हैं परन्तु एक विशेष आत्मा है जिस में परमात्मा विशेष प्रकार से व्यापक है और वह आत्मा परमात्मा से आता है और परमात्मा के साथ है, और परमात्मा ही है। वही सब के पिता परमात्मा की इच्छा मनुष्यों को बतलाता है। उसी को हम 'कृष्ण' बोलते, उसे परमात्मा की मूर्ति मान कर पूजते, और उसे 'सूर्य देवता' समझते हैं।"...मैंने पण्डित को फिर कहा "परन्तु सूर्य जिसे हम आकाश में देखते हैं हम विश्वास नहीं कर सकते कि वह परमात्मा हो सकता है वा 'शब्द' हो सकता है जो परमात्मा के साथ ही रहता है, क्योंकि सूर्य तो उदय होता और अस्त होता है और कभी दुनिया के इस ओर और कभी उस ओर होता है। परन्तु परमात्मा तो एक दम सब स्थानों में व्यापक है।" पण्डित (सहजानन्द) ने उत्तर दिया कि सूर्य परमेश्वर नहीं है परन्तु प्रकाश और ऐश्वर्य का द्योतक है। उसने कहा कि उनके विश्वास के अनुसार विविध देशों में परमात्मा के बहुत से अवतार हुए हैं, ख्रिस्टियों के लिये, मुसल्मानों के लिये, प्राचीन काल में हिन्दुओं के लिये। साथ ही उस ने इशारा दिया कि उस समय 'कृष्ण' वा 'सूर्य' का एक अवतार वह (स्वामी नारायण) स्वयं है।"... उस ने एक चित्र दिया जिस में एक नग्न पुरुष के शरीर से सूर्य की किरणों की तरह प्रकाश निकल रहा था और दो स्त्रियें उसे पंखा कर रही थीं। मैंने पूछा कि यह (चित्र वाला) क्योंकर परमात्मा हो सकता है, जो सब वस्तुओं ओर सब स्थानों में भरपूर है। उस ने उत्तर दिया कि यह परमात्मा स्वयं नहीं है प्रत्युत उस का वह रूप है जो कि मेरे हृदय में बसता है...। मैंने उस से जाति-बन्धन के विषय में पूछा। उस के उत्तर में उस ने कहा कि वह उसे कुछ भी नहीं समझता, परन्तु वह किसी को दुःख देना नहीं चाहता। उस ने कहा इस संसार में सारे लोग इकट्ठे भोजन करें, चाहें अलग-अलग, परन्तु ऊपर जाकर यह सब भेद भाव दूर हो जायेंगे। मि० आइरन-लाइड ने मुझे बतलाया कि जब पण्डित सहजानन्द से मूति पूजा के विषय में हुज्जत [तर्क-वितर्क, बहस] की गई तो उस ने माना कि यह सब व्यर्थ की कल्पना है परन्तु अपनी सफाई में कहा कि लोगों के पक्षपात को एक दम से धक्का नहीं देना चाहिये, और कि मूर्खों और कामी पुरुषों के लिये उपासना में इन से बाह्य सहायता मिलती है।"
[स्रोत : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का मासिक पत्र"आर्य" का मार्गशीर्ष 1981 (दिसम्बर 1924) का अंक, पृष्ठ 2-4, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]
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आर्यसमाज द्वारा किये गये 150 ऐतिहासिक कार्य


 


आर्यसमाज द्वारा किये गये 150 ऐतिहासिक कार्य
1. विधवा विवाह का प्रावधान किया और इसकी शुरुवात आर्यों ने अपने घर में विधवा बहुएँ ला करके उदाहरण उपस्थित किया।
2. आर्यसमाज ने बहु विवाह को अवैदिक बताया और इसे स्त्री समाज के विरुद्ध सिद्ध किया।
3. आर्यसमाज ने बाल विवाह का प्रतिरोध किया परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को परतन्त्र भारत में विवाह की आयु का कानून बनाना पड़ा।
4. आर्यसमाज ने परतन्त्र भारत में सर्वप्रथम कन्याओं के लिए विद्यालय खोले और विरोध होने पर अपनी बेटियों का प्रवेश करवाया।
5. आर्यसमाज ने स्त्री शिक्षा को अनिवार्य बताया, समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए स्त्री शिक्षा की पुरजोर वकालत की।
6. आर्यसमाज ने कन्याओं के लिए परतन्त्र भारत में गुरुकुल खुलवाए और विधर्मी होने से हिन्दू समाज की बेटियों को बचाया।
7. आर्यसमाज ने सती प्रथा को अमानवीय बताया और विधवाओं को जीने का अधिकार दिलवाया।
8. बाल विधवाओं के पुनरुद्धार के लिए आर्यसमाज ने सामाजिक लडाईयाँ लड़ी।
9. बाल विधवाओं की शिक्षा, समाज में उनकी प्रतिष्ठा और उनके पुनर्विवाह के लिए न्यायिक प्रयास किए।
10. स्त्रियों को पर्दा प्रथा से निकालकर, शिक्षा, राजनीति और सामाजिक कार्यों में उनकी भूमिका के लिए संघर्ष किया।
11. स्त्रियों को नर्क का द्वार बताने वालों को सैद्धान्तिक रूप से पराजित किया। और उन्हें स्वर्ग पदात्री बताया।
12. आर्यसमाज ने स्त्रियों को पैर की जूती बताने वालों के मुंह पर तमाचा मारा और बताया कि स्त्रियाँ तो सिर की ताज होती हैं।
13. आर्यसमाज ने स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार दिलाया। उनके लिए गुरुकुल खोलकर वेद पढवाया और आज भी पढ़ा रहे हैं।
14 आर्यसमाज ने स्त्रियों को गायत्री मंत्र बोलने, पढ़ने और जपने का अधिकार दिलाया।
15. आर्यसमाज ने स्त्रियों को कर्मकांड करवाने का अधिकार दिलाया और उन्हें वेदों की विदुषी बनाकर यज्ञ में ब्रह्मत्व के आसन पर प्रतिष्ठित किया।
16. आर्य समाज ने संतानों के निर्माण के लिए 'माता निर्माता भवाति' के उद्घोष के साथ माता को सबसे पहला शिक्षक बताया।
17. आर्यसमाज ने परतन्त्रता के बाद सर्वप्रथम स्त्रियों को व्यासपीठ पर बैठाया और उनको उपदेश देने का अधिकार दिलाया।
18. आर्यसमाज ने संसार को बताया की स्त्रियाँ भी ऋषिकायें और संन्यासिनी हो सकती हैं।
19. आर्यसमाज ने "स्त्रियों में आधी आत्मा होती है या आत्मा नहीं होती है" इस बात का न केवल खण्डन किया अपितु समाज में पुरुषों के समानान्तर स्त्रियों की प्रतिष्ठा की।
20.स्त्रियों को दान देने, बेचने और जडवस्तु मानने वालों को आर्यसमाज ने करारा जवाब दिया।
21.आर्यसमाज ने दलित और पीछडे वर्ग की बेटियों के लिए निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था की। उन्हें गुरुकुल में शिक्षित कर मुख्य धारा में जोड़ा।
22.सदियों से चली आ रही मन्दिरों की देवदासी प्रथा का आर्यसमान ने विरोध किया। नारी को दासी नहीं नेत्री बताया।
23.आर्यसमाज ने नारियों के स्वाभिमान को जगाया उसको चौके से निकालकर विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढाया।
24.आर्यसमाज ने स्त्रियों को यज्ञोपवीत धारण करवाया।
25.आर्यसमाज ने स्त्रियों के वेद पढने पर जिह्वा काटने और मन्त्र सुनने पर कान में सीसा पिघलाकर डालने जैसे अत्याचारों से मुक्त करवाया।
26.आर्यसमाज ने परतन्त्र भारत में सर्वप्रथम शूद्रों के लिए विद्यालय खोले और सबके लिए समान पढने की व्यवस्था की।
27.आर्यसमाज ने शूद्रों को वेद पढने का अधिकार दिलाया।
28.आर्यसमाज ने शूद्रों को कर्मणा ब्राह्मण बनाना शुरु किया।
29.आर्यसमाज ने कहा कि शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी कोई मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी हो सकता है।
30. आर्यसमाज ने कथित रूप से शूद्र कुल में उत्पन्न हुए बच्चों को गुरुकुल में पढाना प्रारम्भ किया।
31. आर्यसमाज ने कथित रूप से दलित शूद्र और नीचली जाति के कुल में उत्पन्न हुए बच्चों को वेद पढ़ाना प्रारम्भ किया।
32. आर्यसमाज ने निर्धन बच्चों के लिए गुरुकुल में निशुल्क शिक्षा प्रारम्भ की।
33. आर्यसमाज ने छुआछूत को मिटाने के लिए बहुत संघर्ष किया।
34. आर्यसमाज ने अस्पृश्यता के कलंक धोने के लिए अनेक सामाजिक लडाई लडी।
35. आर्यसमाज ने शूद्रों के अतिरिक्त गैर ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए बच्चों को भी वेद न पढ़ने के अभिशप्त से मुक्त करवाया।
36. आर्यसमाज ने दबे कुचले लोगों को शिक्षा के साथ सम्मान दिलवाया।
37. आर्यसमाज ने वेद के बंद कपाटों को संपूर्ण मानव जाति के लिए खोल दिया।
38. आर्य समाज ने दलित उत्थान के लिए उनको उत्पीड़न से बचाने के लिए बहुत सी योजनाएं चलाई।
39. आर्यसमाज ने दलितों को मुख्य धारा में लाने के लिए उनको पढ़ाना शुरू किया।
40. आर्यसमाज ने दलितों को ईसाइयों के कुचक्र से बचाया।
41. आर्यसमाज ने दलितों एवं पिछड़ों को मुस्लिम धर्मान्तरण से बचाया।
42.आर्यसमाज ने दलितों के लिए समान शिक्षा और समान कर्मकांड करने की व्यवस्था की।
43. आर्य समाज ने दलितों को भारतीय समाज का अभिन्न अंग बताया।
44. आर्यसमाज ने बताया कि मनु स्त्रियों और दलितों के विरोधी नहीं है।
45. आर्यसमाज ने मनुस्मृति को वेदों के अनुकूल बताया।
46. आर्यसमाज ने वर्ण व्यवस्था को कर्म पर आधारित बताया।
47. आर्यसमाज में जन्मना वर्ण व्यवस्था को वेद विरुद्ध बताया।
48. आर्यसमाज ने कर्मणा व्यवस्था को अपने गुरुकुलों पर और आर्य समाज पर लागू करके उसको वेद आधारित सिद्ध किया।
49. आर्यसमाज ने जातिवाद का पुरजोर विरोध किया।
50. आर्यसमाज ने विदेशियों द्वारा दिए गए 'हिन्दू' शब्द की जगह भारतीय मूल 'आर्य' शब्द की वकालत की।
51. आर्य समाज ने जातिवाद को भारत के पतन का कारण माना और जातिवाद के मकड़जाल से भारतीय समाज को मुक्त करने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहा है।
52. आर्यसमाज ने भारतीयों को आर्ष शिक्षा और अनार्ष शिक्षा के भेद को बताया।
53. आर्य समाज ने सर्वप्रथम वेदों पर आधारित आर्य शिक्षा के गुरुकुल चलाए।
54. आर्यसमाज ने चारों वेदों को वैदिक संस्कृति का मूल माना।
55. आर्यसमाज चारों वेदों को ईश्वर का अमृत ज्ञान मानता है उसमें किसी भी प्रकार का इतिहास नहीं मानता।
56. आर्यसमाज ने वेदों को शंखचूड़ ले गया है इस भ्रांति का निवारण किया और वेद उपलब्ध कराए।
57. आर्य समाज महर्षि पाणिनि द्वारा व्याकरण अनुसार किए गए भाष्य वेदों के सच्चे अर्थों को मानता है।
58. आर्य समाज ने बताया कि वेद सृष्टि के आदि के हैं वेदों में सभी सत्य विद्याएं सूत्र रूप में विद्यमान है।
59. आर्य समाज ने बताया कि पुराण व्यस्कृत नहीं है और वे वेदों के अनुकूल भी नहीं है।
60. आर्य समाज वेद विरुद्ध ईश्वर के अवतारवाद को नहीं मानता।
61. आर्य समाज मूर्ति में ईश्वर की पूजा का विधान नहीं मानता, वह ईश्वर को सरल व्यापक मानकर उसकी संध्या करने का विधान मानता है।
62. आर्य समाज ने कर्म फल पर आधारित पुनर्जन्म व्यवस्था को बताया।
63. आर्य समाज ने ईश्वर एक है और वह निराकार सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक है इसका बहुत प्रचार किया।
64. आर्य समाज ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए योग के आठ अंग को क्रियात्मक रूप से लोगों को सिखाया।
65. आर्यसमाज ने नास्तिकता की आंधी के बीच पुनर्जन्म और मोक्ष के सिद्धांतों का व्यापक प्रचार किया।
66. आर्य समाज ने यह बताया कि जीवात्मा कभी ईश्वर में विलीन नहीं होता।
67. आर्य समाज ईश्वर और जीव के अलग-अलग अस्तित्व को मानता है।
68. आर्य समाज ने बताया कि मुक्ति के पश्चात फिर जीवात्मा लौटता है, मध्यकाल में जीवात्मा को ब्रह्म में विलीन होना मान लिया जाता था।
69. आर्यसमाज ने लाखों गृहस्थियों को पंच महायज्ञ सिखाया जो अब पीढियों से इसका पालन कर रहे हैं।
70. आर्य समाज ने वेदों पर आधारित आश्रम व्यवस्था की सर्वोपयोगी व्याख्या संसार को बताई ।
71. आर्य समाज में शरीर की अवस्था के अनुसार ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को समाज के लिए उपयोगी माना है।
72. आर्य समाज ने यज्ञ को मनुष्य के समाज और प्रकृति के लिए सर्वोदयोगी माना और सिद्ध किया।
73. आर्यसमाज यज्ञ में हिंसा स्वीकार नहीं करता, आर्यसमाज ने यज्ञ के अंदर में पशु हिंसा का घोर विरोध किया है।
74. आर्यसमाज ने यज्ञ के वैदिक स्वरूप को संसार के सामने में उपस्थित किया आज कराने के इच्छुक लोग आर्यसमाज में आते हैं।
75. आर्यसमाज ने संसार के उपकार के लिए यज्ञ को विज्ञान के धरातल पर स्थापित किया और इसकी वैज्ञानिकता को सिद्ध किया।
76. आर्यसमाज किसी भी प्रकार की बलि प्रथा का विरोध करता आ रहा है।
77.आर्यसमाज ने मंदिरों में दिए जाने वाली बलि प्रथा के विरुद्ध बहुत से शास्त्रार्थ किये और विजय प्राप्त की है।
78.आर्यसमाज पशु-पक्षियों को मार कर खाने को घोर पाप मानता है और छुडाने के लिए प्रयासरत है।
79.आर्यसमाज ने सदैव शाकाहार का समर्थन किया है क्योंकि शाकाहार के द्वारा प्रकृति का सन्तुलन उत्तम होता है।
80.आर्यसमाज मांसाहार को वेद विरुद्ध और मनुष्य की प्रकृति के प्रतिकूल मानता है।
81.आर्यसमाज जीव हत्या को पाप और प्रकृति के विनाश का कारण मानता है।
82.आर्यसमाज ने वेद पर आधारित कर्म फल सिद्धांत का प्रचार किया और इस पर मौलवियों और पादरियों से शास्त्रार्थ किए हैं।
83.आर्यसमाज ने इस सिद्धांत का प्रचार किया कि प्रकृति अपने आप संसार का निर्माण नहीं करती इसका बनाने वाला ईश्वर है।
84. आर्यसमाज ने अद्वैतवाद और विशिष्ट द्वैतवाद की आंधी में भारतीयों में इस सिद्धांत का भी प्रचार किया कि जीव और ईश्वर दोनों अलग-अलग हैं।
85. आर्यसमाज ने बडे अन्तराल के बाद पूरे विश्व को त्रैतवाद के बारे में समझाया कि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीन अनादि पदार्थ होते हैं।
86.आर्यसमाज सदैव सत्य के प्रचार प्रसार में उद्यत रहता है।
87.आर्यसमाज ने पाखंड और अंधविश्वास का विरोध करके समाज को बहुत बड़ी आपदा से रक्षा करता आया है।
88.आर्यसमाज जादू, टोना, टोटका इत्यादि का खंडन करता है।
89.आर्यसमाज ने गण्डे-ताबीज आदि के प्रपंचों से लाखों लोगों को मुक्त करवाया है।
90.आर्यसमाज ने भूत-प्रेत, जादू-टोना, टोटके के भय से समाज की रक्षा की है।
91. आर्यसमाज हाथ की रेखाओं में भविष्य को नहीं मानता, इसके लिए लोगों को जागरूक करता आया है।
92.आर्यसमाज ने पानी के जहाज की यात्रा को पाप मानने का निवारण कराया, जिससे यात्रा और व्यापार करने में सुगमता हुई।
93.आर्यसमाज ने बहुत बडे स्तर पर लोगों को समझाया कि आत्मा कभी नहीं भटकती और किसी को कोई नुकसान नहीं करती।
94.आर्यसमाज ने वेद के प्रचार-प्रसार को अपना उद्देश्य माना और इस पर किए जाने वाली भ्रान्तियों का निवारण किया।
95.आर्यसमाज ने परतंत्र भारत में आर्ष शिक्षा के पुनः गुरुकुल खोलें, आर्य समाज ने डीएवी स्कूल चलाकर शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक कार्य किया।
96.आर्यसमाज ने कन्याओं के लिए सबसे पहले पृथक पाठशाला खोली।
97.आर्यसमाज ने सर्वप्रथम यह बताया कि वेद में केवल जादू, टोना, टोटका के मंत्र नहीं हैं, वेदों मे परा और अपरा दोनों विद्यायें हैं।
98.आर्यसमाज ने देश को सपेरो का देश है इस अभिशाप से मुक्ति दिलायी।
99.आर्य समाज ने यह बताया कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है वेद कोई गडरियों का गीत नहीं है।
100. आर्यसमाज ने ये सिद्ध किया कि वेदों के मंत्र और विज्ञान के सूत्र एक समान हैं।
101 आर्यसमाज ने जन्म पत्रिका का घोर विरोध किया और इसे मरण पत्रिका बताया क्योंकि यह वेद विरुद्ध है।
102 आर्यसमाज अनेक अनेक ईश्वरवाद का खण्डन किया। एक ही ईश्वर की उपासना रीत सिखलाई जिससे लाखों लोगों का कल्याण हुआ।
103 आर्यसमाज ने मनुष्य मात्र के लिए एक जैसी शिक्षा पद्धति और अनिवार्य शिक्षा का पुरजोर प्रचार किया
104. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले अधिकतर क्रांतिकारी आर्य समाज से प्रेरित थे।
105. महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय आर्य समाज को अपनी मां बताते थे।
106. पंडित राम प्रसाद बिस्मिल बचपन में आर्य समाज से जुड़ चुके थे, आर्यसमाज के लिए उन्होंने घर तक त्याग दिया था।
107. अमर बलिदानी सरदार भगत सिंह का सारा परिवार आर्य समाज से प्रभावित था।
108. आर्य समाज के विद्वान पंडित लोकनाथ तर्क वाचस्पति ने सरदार भगत सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया था।
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109. भगत सिंह के दादाजी अर्जुन सिंह का महर्षि दयानंद सरस्वती ने यज्ञोपवीत कराया था।
110. आर्य समाज कलकत्ता 19 विधान सरणी में अमर सरदार भगत सिंह, क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के साथ दो बार आकर ठहरे थे।
. आर्य समाज वेद पर आधारित शासन व्यवस्था का अनुमोदन करता है।
112. आर्य समाज रामकृष्ण आदि को दिव्य महापुरुष मानकर उनके चरित्र की पूजा करता है।
113. आर्य समाज ने मूर्तिपूजा को भारत की अवनति का एक कारण माना और लोगों को समझाने में सफल हुआ है।
114. आर्य समाज ने मनुष्य की उन्नति के लिए 16 संस्कारों पर अत्यधिक कार्य किया और इसको संपन्न कराने वाले हजारों पुरोहित तैयार किये।
115. आर्य समाज ने हिंदुओं को मृतक श्राद्ध और उसके पाखंड से निकालने के बहुत से प्रयास किए हैं।
116. आर्य समाज संस्कृत भाषा को सर्वोपरि मानता है।
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117. आर्य समाज संस्कृति के प्रचार-प्रसार में सदैव संलग्न रहता है।
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को सर्वोपरी की मानता है। 118. आर्य समाज महर्षि पाणिनि द्वारा रचित व्याकरण
119. आर्य समाज चार वेद संहिताओं को ईश्वर कृत मानता है।
120. आर्य समाज ने चारों वेदों का अनुसरण करने वाले ग्रन्थों का आर्ष ग्रंथों के रूप में प्रचार-प्रसार किया है।
121. आर्यसमाज ने विधर्मियों के द्वारा किए जा रहे आक्रमणों का शास्त्रोक्त तरीके से शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करके सनातन की रक्षा की है।
122. श्याम जी कृष्ण वर्मा महर्षि दयानंद के शिष्य थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्व पूर्ण भूमिका निभाई थी।
123. आर्यसमाज ने स्वतंत्रता से पहले भारतीयों के लिए पंजाब नेशनल बैंक खोलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
124. आर्यसमाज महर्षि दयानन्द द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश को हिन्दू जाति के लिए सर्वोच्च उपयोगी ग्रंथ मानता है।
125. आर्यसमाज अपने साप्ताहिक सत्संग में नित्य सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय एवं पठन-पाठन करता है।
126. आर्यसमाज ने प्रारंभ काल से ही गौ रक्षा के लिए अनेक आन्दोलन किए और आज भी कर रहा है।
127. आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने रेवाड़ी में सर्व प्रथम गौशाला स्थापित की थी और गौ हत्या रोकने के लिये हस्ताक्षर अभियान चलाया था।
128. आर्यसमाज ने प्रारंभ से ही भारतीय वेशभूषा और पहनावा को प्रधानता दी है।
129. आर्यसमाज हिन्दी को पूरे भारत की जोड़ने की भाषा मानता है। आर्य समाज ने हिंदी के उत्थान के लिए बहुत से ऐतिहासिक कार्य किए हैं।
130. आर्यसमाज ने 'नमस्ते' को वैश्विक और वैदिक अभिवादन बताया। जिसे आज सम्पूर्ण विश्व स्वीकार कर रहा है।
131. आर्यसमाज ने विश्व पटल पर यह सिद्ध किया है कि 'वैदिक-धर्म' ही संसार का सबसे प्राचीन और एकमात्र धर्म है।
132. आर्यसमाज ने 'वेद' को अपना और पूरे संसार का धर्म ग्रंथ मानने में अथक प्रयास किया बहुत कुछ सफलता प्राप्त की है।
133. आर्यसमाज एक राष्ट्र, एक भाषा और एक ध्वज और एक संस्कृति की वकालत करता है।
134. आर्यसमाज ने यह सर्वप्रथम भारतीयों को बताया कि आर्य कहीं बाहर से नही आए हैं।
135. आर्यसमाज प्रत्येक भारतीय में अध्यात्म और देशभक्ति की भावना भरता है।
136. आर्यसमाज सनातन का सबसे अच्छा प्रहरी है और यह कार्य उसने अनेकों बार सिद्ध किया है।
137. आर्यसमाज से प्रभावित होकर वीर सावरकर ने कहा था कि "आर्य समाज के रहते हुए कोई भी विधर्मी अपनी शेखी नहीं बघार सकता।"
138. आर्यसमाज से प्रभावित होकर हिंदुओं के बड़े नेता पं मदन मोहन मालवीय "सत्यार्थ प्रकाश" का वितरण किया करते थे। मालवीय ने कहा था कि "सनातन रूपी खेती की आर्य समाज बाड़ है।"
139. आर्यसमाज के सर्वोच्च नेता स्वामी श्रद्धानंद जामा मस्जिद की मीनार से वेद मंत्र कर के द्वारा भाषण करने वाले पहले आर्य संन्यासी और एक मात्र भारतीय थे।
140. आर्यसमाज के महापुरुष में पं लेखराम, पं गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज आदि सैंकड़ो अनमोल रत्न थे जो आर्यसमाज की भट्टी से तैयार हुए थे।
141. आर्यसमाज ने भारतीय पर्वों को शुद्धता से मनाने की परम्परा को पुनर्जीवित किया।
142. आर्यसमाज ने भारतीय महापुरुषों पर उछाले जा रहे कलंकों को धोने का कार्य किया और उनकी उज्ज्वल कीर्ति बनाए रखा है।
143. आर्यसमाज ने हैदराबाद सत्याग्रह के विशेष आंदोलन अनेक बलिदान देकर जीता था। हिंदुओं की पूजा पद्धति एवं मंदिरों के लिए लड़ाइयां लड़ी थी।
144. आर्यसमाज ने अब तक करोड़ों लोगों को शुद्ध करके उनकी घर वापसी कराई है।
145. आर्यसमाज ने "सत्यार्थ प्रकाश" जैसे ग्रन्थ के द्वारा बहुत से लोगों का जीवन परिवर्तन किया है।
146. आर्यसमाज जातिवाद, भाषावाद, प्रांतवाद, आपसी फूट को दूर करके एक मानवतावाद का सदैव प्रचारक रहा है।
147. आर्यसमाज ने मनुस्मृति, गीता, रामायण, महाभारत आदि पर हो रहे आक्षेपों का सदैव वेदानुकूल उत्तर दिया है और इन ग्रंथो का शोध कार्य किया है।
148. आर्यसमाज अपने साप्ताहिक सत्संग में नित्य सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय एवं पठन-पाठन करता है।
149. आर्यसमाज ने प्रारंभ कल से ही गौ रक्षा के लिए अनेक आन्दोलन किए और आज भी कर रहा है।
150. आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने रेवाड़ी में सर्व प्रथम गौशाला स्थापित की थी और गौ हत्या रोकने के लिये हस्ताक्षर अभियान चलाया था।
【यह लेख आचार्य राहुलदेव जी द्वारा समस्त जन साधारण, आर्यजनों एवं सुधीपाठकों की जानकारी एवं ज्ञानवर्धन के लिए प्रस्तुत किया गया है। इस लेख में आर्यसमाज के 150 वर्षों के इतिहास में आर्यसमाज द्वारा किए गए 150 ऐतिहासिक कार्यों को उद्धृत किया गया है, जिसका आप भी अपने स्तर पर सोशल मीडिया तथा अन्य संसाधनों से प्रचार कर सकते हैं।】