दूसरी शती में प्रवेश - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती
[स्रोत्र ग्रन्थ- आर्यसमाज शताब्दी समारोह, वाराणसी, दिनांक 27-28 फरवरी, 1976. प्रस्तुतकर्ता- #डॉ_विवेक_आर्य ]
आर्यसमाज की संस्थापना १८७५ ई० में हुई थी । १९७५ ई० का वर्ष भी अब समाप्त हो गया । हमने दूसरी शती के प्रथम प्रहर में अपने चरण बढ़ा दिए हैं। नवीन शती की शुभ और मंगलमय कामनायें, और प्रभु से हम अब आशीर्वाद माँगें, कि अगली शती आर्यसमाज के लिए सर्वतोन्मुखी गौरवशालिनी हो । सम्भवतया हममें से कोई भी अगली शती के समारोहों को देखने के लिए जीवित न रहेगा, पर तीन-चार पीढ़ियों बाद आने बाली सन्तान नवीन इतिहास का निर्माण करेंगी और सम्भवतया वे उस समस्त इतिवृत्त को भी न भूलेंगी जो इस समय हमारी आँखों के सामने वर्तमान सा होकर प्रवाहित हो रहा है ।
उत्तर प्रदेशीय आर्यसमाजों का यह शती समारोह काशी नगरी में प्रथम और द्वितीय शती की सन्धि पर हो रहा है। इसका यह महत्व है । काशी में ही सौ से अधिक वर्ष हुए जब महर्षि दयानन्द ने विद्वन्मण्डली के साथ मूर्तिपूजा संबंध शास्त्रार्थ किए । इस नगरी में उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के मुद्रण की व्यवस्था की । उत्तर प्रदेश महर्षि की दीक्षा-स्थली रहा । अनेक छोटे और बड़े नगरों के साथ महर्षि दयानन्द के जीवन का महत्वपूर्ण संबंध रहा है । यह प्रदेश उनका धर्म-क्षेत्र और कुरुक्षेत्र दोनों रहा, और सीमान्तक हिमाञ्चल महर्षि की तपोभूमि रहे । इन सब बातों को हम न भूलें । कल्पना तो कीजिए माघ के महीनों की जब, महषि प्रयाग में नागाबासू ( नागवासुकी) के मन्दिर की सीढ़ियों पर नग्न वदन शीत में रात बिताते होंगे, और कल्पना कीजिये, महर्षि दयानन्द के उस साहस की, जब उन्होंने हरद्वार के कुम्भ मेले में शतियों से चली आयी रूढ़ियों के विरुद्ध क्रान्ति का आह्वान किया, और फिर कल्पना कीजिए, ऋषि के उस मनोबल की जिससे प्रेरित होकर, काशी के विद्वानों से आपूर्ण मण्डली में अकेले बैठकर उन्होंने पाण्डित्य की चुनौती दी ।
हमें आज के दिन अपने उन अगणित बन्धुओं को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने बड़े साहस से आर्यसमाज के कार्य को लोकप्रिय बनाया। आर्यसमाज तो पिछली शती का एक स्वाभाविक जन आन्दोलन था, जिसका प्रत्येक व्यक्ति नेता था । वह व्यक्ति ही मानो का एक कर्मठ संस्था था । समय की गतिविधियों ने स्वत: ही उसे प्रेरणा दी, ऐसा प्रतीत होता था । प्रादेशिक और सार्वदेशिक संघटन तो बाद को बने, गाँवों-गाँवों में आर्यसमाज पहले पहुँचा । यह जन आन्दोलन कांग्रेस आन्दोलन से भिन्न था। कांग्रेस के इतिहास में केन्द्रीय संस्था पहले बनी, (देश का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था), और इस संस्था ने गान्धीजी के युग में जनआन्दोलन का रूप धारण किया। आर्यसमाज के संघटन का इतिहास इसका उलटा है । इसकी केन्द्रीय संस्थाओं का संघटन जन-आन्दोलन के बाद का है । यही आर्यसमाज की विशेषता थी । हमारे पुराने नेता जन-आन्दोलन से अंकुरित हुए, वे ऊपर के संघटन की देन न थे । प्रत्येक आर्य व्यक्ति अपने दायित्व को निबाहने के लिए अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित करता था । वह स्वयं में एक संस्था था ।
आर्यसमाज के प्रचार का श्रेय न बड़े धनियों को है, न बड़े विख्यात नेताओं और बड़े विद्वानों को । जिसने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा, वही विद्वान् हो गया, और जिस जनता के बीच में उसने काम किया, उस जनता ने ही उसे विद्वान् बना दिया । सत्यार्थ प्रकाश और थोड़े से मौलिक चुटकुलों के आधार पर वह पंडितों से भी होड़ ले सकता था, मुसलमानों से भी, ईसाईयों से भी, पौराणिकों से भी और अंग्रेजी विद्वानों से भी । कभीकभी ऐसा प्रतीत होता है कि सचमुच "सत्य" तो बड़ा सरल है, इसके प्राप्त करने के लिए पाण्डित्य नहीं चाहिए और न शास्त्रीय विद्वत्ता । असत्य की पुष्टि के लिए तो दाव पेंच चाहिए, तर्काभास चाहिए, पर शुद्ध लक्ष्य हो, तो सरलतम सत्य विशुद्ध अन्तःकरण से सहज ही ग्राह्य हो जाता है ।
- शती समारोह के अवसर पर हमें अपने उन साहित्यिकों को नहीं भूलना चाहिए जिन्होने सुविधाओं के अभाव में आर्यसमाज के प्रारम्भिक युग से लेकर आज तक हमें विभिन्न प्रकार का साहित्य दिया । उत्तर प्रदेश ने इस दिशा में विशेष कार्य किया । महर्षि दयानन्द ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन इसी प्रदेश में किया । काशी और प्रयाग में सत्यार्थप्रकाश की रचना हुई । प्रयाग में वैदिक मन्त्रालय खोला गया । स्वामी दर्शनानन्द ने काशी में ही महाभाष्य का सस्ता संस्करण निकाला और अपने छोटे-छोटे ट्रैक्टों से आर्य जनता की सेवा की । इसी परम्परा में १६२५ के निकट से प्रयाग में आर्यसमाज चौक की ओर से कई श्रेणियों के ट्रैक्ट हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी और मराठी में निकले । इसी ट्रैक्ट विभाग की ओर से 'रेलिजस रेनेसाँ सीरीज़' में पेलिकन - पेंग्विन सीरीज़ के ढंग की अंग्रेजी में ८-१० पुस्तकें छपीं । हिन्दी के सबसे पुराने साप्ताहिक पत्रों में "आर्यमित्र" का स्थान बहुत ऊँचा है जो आज तक आर्यजगत् की सेवा कर रहा है । स्वर्गीय पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय ने न केवल आर्यसमाज चौक के ट्रैक्ट विभाग द्वारा हमें अच्छा साहित्य दिया, उन्होंने कला प्रेस के प्रकाशनों के द्वारा उच्च साहित्य का सृजन किया । प्रयाग की नगरी में पं० क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने अथर्ववेद और गोपथ ब्राह्मण का भाष्य किया । पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय ने यहीं ऐतरेय ब्राह्मण का अनुवाद किया, जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुआ, और उनके शतपथ ब्राह्मण का अनुवाद उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली से प्रकाशित हो सका । शबर मुनि के पूर्वमीमांसा भाष्य का हिन्दी अनुवाद भी पाण्डुलिपि के रूप में तैयार है, पर प्रकाशित होने की सुविधा नहीं मिल पायी । पं० तुलसीराम जी ने उत्तर प्रदेश में ही सामवेद का भाष्य किया, जिसके केवल हिन्दी भाग का इस समय पुनः मुद्रण हुआ है। पं० घासीराम जी ने न केवल महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र पर काम किया, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का उनका अंग्रेजी अनुवाद भी उत्तर प्रदेश में लिखा गया । गुरुकुल वृन्दावन, ज्वालापुर महाविद्यालय और गुरुकुल कांगड़ी के विद्वानों ने आर्यजगत् को अच्छा साहित्य दिया । प्रयाग विश्वविद्यालय के चीनी भाषा के अध्यापक से उपाध्याय जी ने सत्यार्थप्रकाश का चीनी भाषा में अनुवाद कराया, जो हांगकांग के प्रेस में छपा, और उसकी कुछ ही प्रतियाँ देश में आ पायीं । कित्तिमा द्वारा सत्यार्थप्रकाश का काशी में बरमी भाषा में उपाध्याय जी ने अनुवाद कराया जो रंगून में छपा । इन अनुवादों को फिर से मुद्रित कराने की आवश्यकता है । चीफ़ जज पं० गंगाप्रसाद ( टेहरी ) द्वारा "फाउण्टेन हेड आव् रेलिजन " नामक युगप्रवर्तक पुस्तक उत्तर प्रदेश में लिखी गयी, जिसके कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं । पं० नाथूराम शर्मा "शंकर" की प्रतिभा के कवि और पं० पद्म सिंह शर्मा की प्रतिभा के आलोचक, और सम्पादकाचार्यों में पं० रुद्रदत्त शर्मा और पं० हरिशंकर शर्मा की कोटि के व्यक्ति कम ही मिलेंगे । भाषा विज्ञान के क्षेत्र में डा० बाबूराम सक्सेना ने और हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में डॉ० धीरेन्द्र वर्मा आदि अनेक व्यक्तियों ने उच्च साहित्य द्वारा सेवा की है । डा० प्राणनाथ विद्यालंकार ने काशी विश्वविद्यालय में रहकर अर्थशास्त्र संबंधी उच्चकोटि के ग्रन्थ उस समय हिन्दी साहित्य को भेंट किए जब हिन्दी में इस प्रकार के ग्रन्थों का नितान्त अभाव था । बहुत कम लोगों को मालूम होगा, कि हिन्दी का प्रतिभाशाली कवि " बच्चन" प्रयाग की आर्यकुमार सभा का मंत्री था, अथवा धर्मयुग का यशस्वी सम्पादक और प्रख्यात लेखक डा० धर्मवीर भारती प्रयाग के ऐसे आर्य परिवार की सन्तान है जिसने आर्यसमाज की बड़ी सेवा की । प्रयाग के कवि विद्याभूषण " विभु" न केवल शिशु-कविता साहित्य के जन्मदाताओं में से हैं, इनका सुन्दर काव्य " विरजानन्द विजय" १९२५ में मथुरा शती समारोह के अवसर पर शताब्दी समिति की ओर से प्रकाशित हुआ था । क्या हम उस सेवा को भूल सकते हैं, जो " नारायणी शिक्षा" पुस्तक द्वारा उस समय हुई जब कन्याओं की उच्चशिक्षा का उत्तर प्रदेश में कोई प्रबन्ध न था । इसी प्रकार "संगीत रत्नप्रकाश" के कई भाग इसी प्रदेश में छपे जो युगों तक बड़े लोक- प्रिय रहे । इस प्रदेश को कुंवर सुखलाल, ठा० तेज सिंह, ठा० नत्था सिंह, श्री गंगा सिंह आदि भजनोपदेशकों पर भी गर्व है, जिनके गानों के लिए जनता उत्सुक रहा करती थी । पं० भोजदत्त जी, पं० मुरारी लाल शर्मा, पं० नन्दकिशोर देव शर्मा, श्री प्रयागदत्त अवस्थी आदि महोपदेशकों की सेवाओं को हमें भूलना नहीं चाहिए, जिन्होंने आर्यसमाज की नींव को सुदृढ़ किया । पं० ओंकारनाथ वाजपेयी द्वारा संस्थापित ओंकार प्रेस के जीवन चरित्रों के प्रकाशन, और हिन्दी साहित्य सम्मेलन और "विद्यार्थी" पत्र द्वारा पं० रामजीलाल शर्मा की सेवायें भी हमें हर समय याद आती हैं ।
उत्तर प्रदेश के सभी कार्यकर्त्ताओं का इस अवसर पर हम अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने जन-जीवन को आर्यसमाज के क्षेत्र में पुष्ट किया । स्वामी सर्वदानन्द जी के साधु आश्रम ने हरदुआगंज को अमर बना दिया ( शंकर जैसे कवि की भी यह पुण्यस्थली रही ) । महात्मा नारायण स्वामी के जीवन ने रामगढ़ को पवित्र कर दिया । बहुत समय तक नारायण स्वामी जी का साहित्य हमें प्रेरणा देता रहेगा । गुरुकुल अयोध्या के साथ स्वामी त्यागानन्द जी का नाम हमें बराबर याद आता है । उत्तर प्रदेश के डी० ए० वी० कालेज कानपुर के संदर्भ में ला ० दीवान चन्द, मुंशी ज्वाला प्रसाद जी, और श्री आनन्द स्वरूप जी और ब्रजेन्द्र स्वरूप जी की सेवाओं को भुलाना कठिन है । ठा० गदाधर सिंह (जिनकी पुस्तक "रूस-जापान युद्ध" अपने समय की प्रसिद्ध रचना थी) का आर्य भाषा प्रेम नागरी प्रचारिणी सभा काशी के आर्य भाषा - पुस्तकालय के नाम के साथ आज तक अभिव्यक्त है (महर्षि दयानन्द ने इस देश की राष्ट्रभाषा का नाम "आर्य भाषा" दिया था, न कि हिन्दी, क्योंकि हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान शब्द विदेशियों द्वारा हमें दिए गए हैं) ।






