Friday, August 22, 2025

दूसरी शती में प्रवेश - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती


 


दूसरी शती में प्रवेश - स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती 


[स्रोत्र ग्रन्थ- आर्यसमाज शताब्दी समारोह, वाराणसी, दिनांक 27-28 फरवरी, 1976. प्रस्तुतकर्ता- #डॉ_विवेक_आर्य ]


आर्यसमाज की संस्थापना १८७५ ई० में हुई थी । १९७५ ई० का वर्ष भी अब समाप्त हो गया । हमने दूसरी शती के प्रथम प्रहर में अपने चरण बढ़ा दिए हैं। नवीन शती की शुभ और मंगलमय कामनायें, और प्रभु से हम अब आशीर्वाद माँगें, कि अगली शती आर्यसमाज के लिए सर्वतोन्मुखी गौरवशालिनी हो । सम्भवतया हममें से कोई भी अगली शती के समारोहों को देखने के लिए जीवित न रहेगा, पर तीन-चार पीढ़ियों बाद आने बाली सन्तान नवीन इतिहास का निर्माण करेंगी और सम्भवतया वे उस समस्त इतिवृत्त को भी न भूलेंगी जो इस समय हमारी आँखों के सामने वर्तमान सा होकर प्रवाहित हो रहा है ।


उत्तर प्रदेशीय आर्यसमाजों का यह शती समारोह काशी नगरी में प्रथम और द्वितीय शती की सन्धि पर हो रहा है। इसका यह महत्व है । काशी में ही सौ से अधिक वर्ष हुए जब महर्षि दयानन्द ने विद्वन्मण्डली के साथ मूर्तिपूजा संबंध शास्त्रार्थ किए । इस नगरी में उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के मुद्रण की व्यवस्था की । उत्तर प्रदेश महर्षि की दीक्षा-स्थली रहा । अनेक छोटे और बड़े नगरों के साथ महर्षि दयानन्द के जीवन का महत्वपूर्ण संबंध रहा है । यह प्रदेश उनका धर्म-क्षेत्र और कुरुक्षेत्र दोनों रहा, और सीमान्तक हिमाञ्चल महर्षि की तपोभूमि रहे । इन सब बातों को हम न भूलें । कल्पना तो कीजिए माघ के महीनों की जब, महषि प्रयाग में नागाबासू ( नागवासुकी) के मन्दिर की सीढ़ियों पर नग्न वदन शीत में रात बिताते होंगे, और कल्पना कीजिये, महर्षि दयानन्द के उस साहस की, जब उन्होंने हरद्वार के कुम्भ मेले में शतियों से चली आयी रूढ़ियों के विरुद्ध क्रान्ति का आह्वान किया, और फिर कल्पना कीजिए, ऋषि के उस मनोबल की जिससे प्रेरित होकर, काशी के विद्वानों से आपूर्ण मण्डली में अकेले बैठकर उन्होंने पाण्डित्य की चुनौती दी ।


हमें आज के दिन अपने उन अगणित बन्धुओं को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने बड़े साहस से आर्यसमाज के कार्य को लोकप्रिय बनाया। आर्यसमाज तो पिछली शती का एक स्वाभाविक जन आन्दोलन था, जिसका प्रत्येक व्यक्ति नेता था । वह व्यक्ति ही मानो का एक कर्मठ संस्था था । समय की गतिविधियों ने स्वत: ही उसे प्रेरणा दी, ऐसा प्रतीत होता था । प्रादेशिक और सार्वदेशिक संघटन तो बाद को बने, गाँवों-गाँवों में आर्यसमाज पहले पहुँचा । यह जन आन्दोलन कांग्रेस आन्दोलन से भिन्न था। कांग्रेस के इतिहास में केन्द्रीय संस्था पहले बनी, (देश का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था), और इस संस्था ने गान्धीजी के युग में जनआन्दोलन का रूप धारण किया। आर्यसमाज के संघटन का इतिहास इसका उलटा है । इसकी केन्द्रीय संस्थाओं का संघटन जन-आन्दोलन के बाद का है । यही आर्यसमाज की विशेषता थी । हमारे पुराने नेता जन-आन्दोलन से अंकुरित हुए, वे ऊपर के संघटन की देन न थे । प्रत्येक आर्य व्यक्ति अपने दायित्व को निबाहने के लिए अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित करता था । वह स्वयं में एक संस्था था ।


आर्यसमाज के प्रचार का श्रेय न बड़े धनियों को है, न बड़े विख्यात नेताओं और बड़े विद्वानों को । जिसने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा, वही विद्वान् हो गया, और जिस जनता के बीच में उसने काम किया, उस जनता ने ही उसे विद्वान् बना दिया । सत्यार्थ प्रकाश और थोड़े से मौलिक चुटकुलों के आधार पर वह पंडितों से भी होड़ ले सकता था, मुसलमानों से भी, ईसाईयों से भी, पौराणिकों से भी और अंग्रेजी विद्वानों से भी । कभीकभी ऐसा प्रतीत होता है कि सचमुच "सत्य" तो बड़ा सरल है, इसके प्राप्त करने के लिए पाण्डित्य नहीं चाहिए और न शास्त्रीय विद्वत्ता । असत्य की पुष्टि के लिए तो दाव पेंच चाहिए, तर्काभास चाहिए, पर शुद्ध लक्ष्य हो, तो सरलतम सत्य विशुद्ध अन्तःकरण से सहज ही ग्राह्य हो जाता है ।


- शती समारोह के अवसर पर हमें अपने उन साहित्यिकों को नहीं भूलना चाहिए जिन्होने सुविधाओं के अभाव में आर्यसमाज के प्रारम्भिक युग से लेकर आज तक हमें विभिन्न प्रकार का साहित्य दिया । उत्तर प्रदेश ने इस दिशा में विशेष कार्य किया । महर्षि दयानन्द ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन इसी प्रदेश में किया । काशी और प्रयाग में सत्यार्थप्रकाश की रचना हुई । प्रयाग में वैदिक मन्त्रालय खोला गया । स्वामी दर्शनानन्द ने काशी में ही महाभाष्य का सस्ता संस्करण निकाला और अपने छोटे-छोटे ट्रैक्टों से आर्य जनता की सेवा की । इसी परम्परा में १६२५ के निकट से प्रयाग में आर्यसमाज चौक की ओर से कई श्रेणियों के ट्रैक्ट हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी और मराठी में निकले । इसी ट्रैक्ट विभाग की ओर से 'रेलिजस रेनेसाँ सीरीज़' में पेलिकन - पेंग्विन सीरीज़ के ढंग की अंग्रेजी में ८-१० पुस्तकें छपीं । हिन्दी के सबसे पुराने साप्ताहिक पत्रों में "आर्यमित्र" का स्थान बहुत ऊँचा है जो आज तक आर्यजगत् की सेवा कर रहा है । स्वर्गीय पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय ने न केवल आर्यसमाज चौक के ट्रैक्ट विभाग द्वारा हमें अच्छा साहित्य दिया, उन्होंने कला प्रेस के प्रकाशनों के द्वारा उच्च साहित्य का सृजन किया । प्रयाग की नगरी में पं० क्षेमकरणदास त्रिवेदी ने अथर्ववेद और गोपथ ब्राह्मण का भाष्य किया । पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय ने यहीं ऐतरेय ब्राह्मण का अनुवाद किया, जो हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुआ, और उनके शतपथ ब्राह्मण का अनुवाद उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली से प्रकाशित हो सका । शबर मुनि के पूर्वमीमांसा भाष्य का हिन्दी अनुवाद भी पाण्डुलिपि के रूप में तैयार है, पर प्रकाशित होने की सुविधा नहीं मिल पायी । पं० तुलसीराम जी ने उत्तर प्रदेश में ही सामवेद का भाष्य किया, जिसके केवल हिन्दी भाग का इस समय पुनः मुद्रण हुआ है। पं० घासीराम जी ने न केवल महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र पर काम किया, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका का उनका अंग्रेजी अनुवाद भी उत्तर प्रदेश में लिखा गया । गुरुकुल वृन्दावन, ज्वालापुर महाविद्यालय और गुरुकुल कांगड़ी के विद्वानों ने आर्यजगत् को अच्छा साहित्य दिया । प्रयाग विश्वविद्यालय के चीनी भाषा के अध्यापक से उपाध्याय जी ने सत्यार्थप्रकाश का चीनी भाषा में अनुवाद कराया, जो हांगकांग के प्रेस में छपा, और उसकी कुछ ही प्रतियाँ देश में आ पायीं । कित्तिमा द्वारा सत्यार्थप्रकाश का काशी में बरमी भाषा में उपाध्याय जी ने अनुवाद कराया जो रंगून में छपा । इन अनुवादों को फिर से मुद्रित कराने की आवश्यकता है । चीफ़ जज पं० गंगाप्रसाद ( टेहरी ) द्वारा "फाउण्टेन हेड आव् रेलिजन " नामक युगप्रवर्तक पुस्तक उत्तर प्रदेश में लिखी गयी, जिसके कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं । पं० नाथूराम शर्मा "शंकर" की प्रतिभा के कवि और पं० पद्म सिंह शर्मा की प्रतिभा के आलोचक, और सम्पादकाचार्यों में पं० रुद्रदत्त शर्मा और पं० हरिशंकर शर्मा की कोटि के व्यक्ति कम ही मिलेंगे । भाषा विज्ञान के क्षेत्र में डा० बाबूराम सक्सेना ने और हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में डॉ० धीरेन्द्र वर्मा आदि अनेक व्यक्तियों ने उच्च साहित्य द्वारा सेवा की है । डा० प्राणनाथ विद्यालंकार ने काशी विश्वविद्यालय में रहकर अर्थशास्त्र संबंधी उच्चकोटि के ग्रन्थ उस समय हिन्दी साहित्य को भेंट किए जब हिन्दी में इस प्रकार के ग्रन्थों का नितान्त अभाव था । बहुत कम लोगों को मालूम होगा, कि हिन्दी का प्रतिभाशाली कवि " बच्चन" प्रयाग की आर्यकुमार सभा का मंत्री था, अथवा धर्मयुग का यशस्वी सम्पादक और प्रख्यात लेखक डा० धर्मवीर भारती प्रयाग के ऐसे आर्य परिवार की सन्तान है जिसने आर्यसमाज की बड़ी सेवा की । प्रयाग के कवि विद्याभूषण " विभु" न केवल शिशु-कविता साहित्य के जन्मदाताओं में से हैं, इनका सुन्दर काव्य " विरजानन्द विजय" १९२५ में मथुरा शती समारोह के अवसर पर शताब्दी समिति की ओर से प्रकाशित हुआ था । क्या हम उस सेवा को भूल सकते हैं, जो " नारायणी शिक्षा" पुस्तक द्वारा उस समय हुई जब कन्याओं की उच्चशिक्षा का उत्तर प्रदेश में कोई प्रबन्ध न था । इसी प्रकार "संगीत रत्नप्रकाश" के कई भाग इसी प्रदेश में छपे जो युगों तक बड़े लोक- प्रिय रहे । इस प्रदेश को कुंवर सुखलाल, ठा० तेज सिंह, ठा० नत्था सिंह, श्री गंगा सिंह आदि भजनोपदेशकों पर भी गर्व है, जिनके गानों के लिए जनता उत्सुक रहा करती थी । पं० भोजदत्त जी, पं० मुरारी लाल शर्मा, पं० नन्दकिशोर देव शर्मा, श्री प्रयागदत्त अवस्थी आदि महोपदेशकों की सेवाओं को हमें भूलना नहीं चाहिए, जिन्होंने आर्यसमाज की नींव को सुदृढ़ किया । पं० ओंकारनाथ वाजपेयी द्वारा संस्थापित ओंकार प्रेस के जीवन चरित्रों के प्रकाशन, और हिन्दी साहित्य सम्मेलन और "विद्यार्थी" पत्र द्वारा पं० रामजीलाल शर्मा की सेवायें भी हमें हर समय याद आती हैं ।


उत्तर प्रदेश के सभी कार्यकर्त्ताओं का इस अवसर पर हम अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने जन-जीवन को आर्यसमाज के क्षेत्र में पुष्ट किया । स्वामी सर्वदानन्द जी के साधु आश्रम ने हरदुआगंज को अमर बना दिया ( शंकर जैसे कवि की भी यह पुण्यस्थली रही ) । महात्मा नारायण स्वामी के जीवन ने रामगढ़ को पवित्र कर दिया । बहुत समय तक नारायण स्वामी जी का साहित्य हमें प्रेरणा देता रहेगा । गुरुकुल अयोध्या के साथ स्वामी त्यागानन्द जी का नाम हमें बराबर याद आता है । उत्तर प्रदेश के डी० ए० वी० कालेज कानपुर के संदर्भ में ला ० दीवान चन्द, मुंशी ज्वाला प्रसाद जी, और श्री आनन्द स्वरूप जी और ब्रजेन्द्र स्वरूप जी की सेवाओं को भुलाना कठिन है । ठा० गदाधर सिंह (जिनकी पुस्तक "रूस-जापान युद्ध" अपने समय की प्रसिद्ध रचना थी) का आर्य भाषा प्रेम नागरी प्रचारिणी सभा काशी के आर्य भाषा - पुस्तकालय के नाम के साथ आज तक अभिव्यक्त है (महर्षि दयानन्द ने इस देश की राष्ट्रभाषा का नाम "आर्य भाषा" दिया था, न कि हिन्दी, क्योंकि हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान शब्द विदेशियों द्वारा हमें दिए गए हैं) ।

Friday, August 8, 2025

Swami Dayananda's purpose behind refutation and critique (khaṇḍana-maṇḍana)


 


Swami Dayananda's purpose behind refutation and critique (khaṇḍana-maṇḍana) •
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Swami Dayananda's personality, character, and thoughts have not yet been properly understood. Because he strongly refuted false beliefs like mūrtipūjā (idol worship), many people think of him as narrow-minded, intolerant, and as someone who hated other sects. But the truth is: whatever he saw as asatya (false), adharma (unrighteous), or unjust — he never hesitated to strongly oppose it.
However, his harsh words were always aimed only at those practices or ideas that were harmful to humanity, that destroyed unity, or led people toward downfall. It is unfortunate that the factual (truth-filled) and straightforward language used by Dayananda for khaṇḍana (refutation) and maṇḍana (critical examination) is often misunderstood, and people wrongly label him as rude or overly critical. So, it's necessary to explain — in his own words — why he chose to refute such beliefs.
In the preface (bhūmikā) of his famous book Satyārth Prakāśa, and in the sub-preface (anubhūmikā) at the beginning of each chapter in its second half, Dayananda clearly stated that his main aim was to reveal the satyārtha — the true meaning. That is:
“Whatever is true in all doctrines, because it is not in contradiction with others, I accept. And whatever is false in them, I have refuted.”
In reality, Dayananda believed that dharma (true religion) is only one — the one which is based on the true nature of things and therefore cannot ignored. So, true dharma can never be refuted. Dayananda only opposed the blind beliefs and false concepts — those which went against logic, reasoning, and science — that were responsible for hatred and division among followers of different sects.
Therefore, calling Dayananda intolerant towards other religions is completely unfair. He made it clear that he never judged any religion or sect hastily and out of any prejudice. He would carefully study both the strengths and weaknesses of a belief system before forming any opinion. His purpose in exposing the flaws in various sects was to help people recognize truth from falsehood — so that they gain the ability to accept what is right and reject what is wrong. He has expressed this same idea in other places as well.
In understanding the approach of Dayananda behind the khaṇḍana-maṇḍana (refutation and critical analysis), it is worth recalling the views of Dr. Raghuvansh. He wrote:
“Swami Dayananda accepted that there is only one true dharma — and in his view, only that dharma is valid which can help sustain the creative process of noble human values. Later harmonizers and internationalists tried to present Dayananda as a rigid critic and destructive reformer. But the reality is that no one was as broad-minded and humanitarian as he was.”
Some Christians and Muslims also had complaints against Dayananda, simply because they failed to understand the spirit behind his critiques. They didn’t realize that his strongest opposition was toward the paṇḍits, pūjārīs, mahants, and maṭhādhīshas who were doing religious business in the name of God. When Dayananda criticized Islam and Christianity, it wasn’t because they originated in foreign lands or came from Semitic ideas. His main target was the asatya (falsehoods), andhaviśvāsa (superstitions), and fixed prejudices found within these religions.
Dayananda also understood another important thing: that many preachers of Islam and Christianity used the outdated customs, blind beliefs, and foolish rituals of Hinduism as a tool to convince backward or uneducated people to convert. He used to say — how can those who live in glass houses throw stones at others?
Keeping this fact in mind, he offered thoughtful critiques of Christianity and Islam — almost as if warning them that their own religions were not much different from Hinduism in terms of flaws. Wise and open-minded individuals — whether Christian or Muslim — always admired Dayananda’s perspective. Leaders like Sir Syed Ahmad Khan (pioneer of Muslim reform in India), Munshi Murad Ali (editor of Rajputana Gazette, Ajmer), and Christian thinkers like Dr. Scott from Bareilly — all felt proud to call themselves Dayananda’s friends, admirers, or even devotees.
Of course, it’s a different matter that over time, certain political and social conditions developed in India that made it difficult for the Arya Samaj founded by Dayananda to maintain very friendly relations with Christians and Muslims. But that issue is not relevant to our discussion here.
[Source: Hindi biography "Navajāgaraṇa ke purodhā" Dayanand Saraswati" (The pioneer of the renaissance), pp. 564-5, 1st edition 1983, Translated & Presented by: Bhavesh Merja].
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Thursday, August 7, 2025

Veda – The Fundamental Basis of Sanātana Dharma


 


Veda – The Fundamental Basis of Sanātana Dharma

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— Bhavesh Merja
Īshvara (God) is a conscious power. Conscious means one who possesses knowledge. The knowledge that Īshvara has is not something He gained at a particular time—it is His natural and eternal quality. Just as Īshvara is anādi (beginningless) and nitya (eternal), His knowledge is also beginningless and eternal.
In contrast, we human beings (jīva-s) are by nature limited in knowledge (alpajña). The knowledge we gain through our senses is called naimittika jñāna (conditional or acquired knowledge). It constantly changes, increases and decreases. No matter how great a human may be, their knowledge will always have a limit. They may be all-knowing in some fields, but they can never be sarvajña (omniscient) like Īshvara.
But the knowledge of Īshvara is always true, complete, and free of error. That is why Maharshi Patañjali writes in the Yoga Darśana:
"Tatra niratiśayaṁ sarvajña-bījam"
(Yoga Sūtra, 1.25)
Meaning: In Īshvara lies the seed of unsurpassable omniscience.
There is no absence of Īshvara at any time. He is an eternal reality (sanātana sattā), existing in all three times—past, present, and future. Īshvara possesses infinite attributes, actions, and nature. Just as each day and night feels new, spiritual seekers (brahma-jijñāsu) continually experience new dimensions of the eternal qualities of Īshvara. Their understanding of Him keeps expanding. Hence, Īshvara is called sanātana.
In the same way, the dharma (eternal law) that never changes, and always remains the same, is called Sanātana Dharma.
Vaidika Dharma is the true Sanātana Dharma because its truths are universal and eternal, revealed in the four Mantra Saṁhitā-s: Ṛgveda, Yajurveda, Sāmaveda, and Atharvaveda. This is pure Sanātana Vaidika Dharma.
In the Vedic tradition, these four Veda-s are considered Īshvara’s revealed knowledge (śruti). Maharshi Manu clearly declares in the Manusmṛti:
"Pitṛ-deva-manuṣyāṇāṁ vedacakṣuḥ sanātanam"
(Manusmṛti 12.94)
Meaning: The Veda is the eternal eye (guidance) of ancestors, gods, and humans.
So the dharma taught in the Veda is Sanātana Dharma. He also states:
"Dharmaṁ jijñāsamānānāṁ pramāṇaṁ paramaṁ śrutiḥ"
(Manusmṛti 2.13)
Meaning: For those who seek to know dharma, the highest authority is the Veda (śruti), the final word.
The Veda itself declares:
"Devasya paśya kāvyaṁ na mamāra na jīryati"
(Atharvaveda, 10.8.32)
Meaning: Behold the divine wisdom (of the Vedas); it neither dies nor decays—it is eternal.
Thus, the truths revealed by Īshvara in the Veda are eternal. Anything that goes against these truths cannot be eternal.
While all Hindus claim to respect the Vedas, it is estimated that only a handful actually study the Vedas with meaning. Most religious people have never even seen all four Veda-s in their life. They give more importance to the books of their own sects or traditions, often limiting themselves entirely to them.
They are mostly unfamiliar with ancient Vedic texts written by the ṛṣi-s (sages), such as the Upaveda-s, Vedāṅga-s, Upāṅga-s (the six Darśanas), Brāhmaṇa grantha-s, Manusmṛti, Upaniṣad-s, Vālmīki Rāmāyaṇa, and Mahābhārata–Bhagavad Gītā, etc. Even the ācārya-s and gurus of various sects show little interest in the study of the Vedas—because the person they consider as their "Bhagavān" or iṣṭa-devatā is not mentioned anywhere in the Vedas or classical Vedic texts—not even as worthy of worship.
In contrast, the Vedas and Vedic scriptures present a pure monotheism (śuddha ekeśvaravāda): devotion, prayer, and meditation directed toward one all-pervading, formless, infinite, omnipotent, omniscient, eternal, unborn, deathless Supreme Being—the karma-phala-dātā (giver of the fruits of actions), the creator of the universe.
The main name of this Supreme Being is "Oṁ".
"Tasya vācakaḥ praṇavaḥ"
(Yoga Sūtra 1.27)
Meaning: The expressible name of Īshvara is Praṇava, that is, Oṁ.
Learned sages describe this one God using various meaningful names based on His attributes, actions, and nature:
"Ekaṁ sad viprā bahudhā vadanti"
(Ṛgveda 1.164.46)
Meaning: God is one; sages describe Him using many names.
Thus, the Vedas and Vedic scriptures urge us to worship this Sat–Cit–Ānanda-svarūpa Paramātmā (Supreme Soul of truth, consciousness, and bliss), who never takes birth or dies, and who always delivers just fruits to all beings based on their actions.
Maharshi Patañjali, in his Yoga Darśana, has described the path of Aṣṭāṅga Yoga (eightfold yoga) to attain this Supreme Being through samādhi.
As explained earlier, that which is eternal yet ever fresh is called Sanātana. Therefore, Vaidika Dharma is Sanātana Dharma.
Unfortunately, sectarianism has greatly harmed the true Sanātana Vaidika Dharma, knowingly or unknowingly. Today, many new sects are emerging that have no connection to the ancient Vedic knowledge tradition. They consider only their own founder as supreme, and under the name of religion and spirituality, they mislead innocent people and exploit them in various ways.
So many sects, paths, and doctrines now exist that it’s hard to even count them. As a result, we can no longer clearly define what makes Sanātana Dharma unique. If we truly want unity, we must recognize the supremacy of the Vedas.
We need to verify the truths of the Vedas through reason and evidence, and clearly distinguish truth from untruth.
Now think about this: when different groups have different scriptures, different deities, different worship styles, different temples and monasteries, different symbols like tilaka and rosaries, different paths, different founders, different ashrams and celebrations, and different fasting traditions—how can there be real unity among them?
Slogans like "Unity in diversity" sound good, but if there really is unity, why do all these differences and contradictions exist? And if there is unity, shouldn't we also see clear signs or marks of that unity?
But do we?
Therefore, we must rise above this maze of sects and paths, and accept the true Sanātana Vaidika Dharma as the only universal religion. In this lies not only the welfare of Hindu society but also the well-being of the entire world.
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उपदेशक के रूप में महर्षि दयानन्द




 • उपदेशक के रूप में महर्षि दयानन्द •

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— पंडित वेदमित्र ठाकोर
महर्षि दयानन्द को उपदेशक के रूप में एक अलग ही श्रेणी में रखा जा सकता है। उनकी कोई बराबरी नहीं है। वे अद्वितीय हैं।
भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब दयानन्द ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध प्रबल स्वर में आवाज़ उठाई, जबकि मूर्तिपूजा हिन्दुओं के जीवन, रक्त और हड्डियों तक में समाई हुई मानी जाती थी। लोग मानते थे कि मूर्तिपूजा तो हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। कोई भी इसके विरुद्ध बोलने का साहस नहीं करता था। लेकिन दयानन्द ने इसकी निरर्थकता को स्पष्ट रूप से समझा, क्योंकि उन्हें वेदों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिला। वेदों में बीस हजार से अधिक मंत्र हैं, पर एक भी मंत्र मूर्तिपूजा का समर्थन नहीं करता। इसके विपरीत वेद कहते हैं—"उस निराकार परमात्मा की कोई मूर्ति, प्रतिमा या रूप नहीं हो सकता।"
(‘न तस्य प्रतिमा अस्ति...’ — यजुर्वेद 32.3)
इसीलिए दयानन्द ने मूर्तिपूजा पर प्रबल प्रहार किया। उन्होंने सभी पुराणिक पंडितों को खुलेआम चुनौती दी कि यदि मूर्तिपूजा वेदों में है तो दिखाओ, नहीं तो इसे पूरी तरह छोड़ दो। यह आवाज़ गरजते हुए बम की तरह गूंजी। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी पंडित चौंक उठे। वे शास्त्रार्थ करने आए, लेकिन कोई भी वेदों से मूर्तिपूजा को सिद्ध नहीं कर सका।
जब दयानन्द ने बड़े-बड़े पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया, तो बुद्धिजीवी वर्ग पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। लोगों को मूर्तिपूजा की निरर्थकता का एहसास हुआ। कोई भी पत्थर की मूर्ति, चाहे वह कितनी भी सुंदर क्यों न हो, पत्थर ही रहती है। जैसे ताजमहल लोगों की प्रशंसा को सुन नहीं सकता, वैसे ही मूर्तियाँ चेतन नहीं होतीं।
दयानन्द ने भारत के कोने-कोने में घूम-घूम कर हिन्दुओं को मूर्तिपूजा से दूर रहने का उपदेश दिया। उनकी लगातार चलने वाली यह प्रचार यात्रा हिन्दुओं के मन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन ले आई। यह विचार और भावना के संघर्ष का युग बन गया — और विचारों ने भावनाओं को पराजित किया। बहुत से बुद्धिमान हिन्दुओं ने मूर्तिपूजा में अपनी आस्था खो दी और गंगा-यमुना में मूर्तियाँ प्रवाहित करने लगे।
इस प्रकार दयानन्द मूर्तिपूजा के विरुद्ध अपने अभियान में काफी हद तक सफल हुए।
उन्होंने हिन्दू धर्म को मूर्तिपूजा की गंदी बेड़ियों से मुक्त करके अतुलनीय सेवा की। मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म में बाद में जोड़ी गई चीज़ है। श्रीकृष्ण के समय तक हिन्दू धर्म में इसका कोई स्थान नहीं था। यह महावीर स्वामी के समय से हिन्दू धर्म में प्रवेश कर गई। इस तथ्य का यह पक्का प्रमाण है कि महावीर के पूर्व काल में मूर्तिपूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए यह बाद की उपज है, जिसे कुछ स्वार्थी पंडितों ने अपनी आजीविका के लिए चतुराई से जोड़ दिया।
इस विषय के अंत में बंगाल के एक महान और निष्पक्ष लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय की प्रेरणादायक वाणी स्मरण आती है:
"आप चाहे हाईकोर्ट के न्यायाधीश हों चाहे गवर्नर (लाट) साहब के प्रधानतर सचिव, आप बुद्धि में बृहस्पति के तुल्य हों चाहे वाग्मिता में सिसरो (Cicero) और गिटे (Goethe) से भी बढ़कर, आप अपने देश में पूजित हों अथवा विदेश में, आप की ख्याति का डंका बजा हो, आप सरकारी क़ानून को पढ़कर सब प्रकार से अकार्य्य और कुकार्य को आश्रय देने वाले अटर्नी (Attorney) कुल के उज्ज्वलतम रत्न हों चाहे मिष्टभाषी, मिथ्योपजीवी सर्वप्रधान, स्मार्त्त (वकील); परन्तु यदि किसी अंश में भी आप मूर्त्तिपूजा का समर्थन करेंगे, तो हमें यह कहने में अणुमात्र भी संकोच नहीं होगा कि आप किसी अंश में भी भारतवर्ष के मित्र नहीं हो सकते, क्योंकि मूत्तिपूजा भारतवर्ष के सारे अनिष्टों का मूल है।" (महर्षि दयानन्द जीवनचरित, भूमिका, पृ. 27)
प्रिय पाठको! निष्पक्ष सोचिए और बुद्धिपूर्वक निर्णय लीजिए।
दयानन्द का एक और प्रबल प्रहार था — साकारवाद (अर्थात ईश्वर के अवतार लेने की गलत धारणा) पर। वेदों में ईश्वर को सर्वव्यापक और निराकार बताया गया है:
"वह सर्वव्यापक परमात्मा किसी भी प्रकार के शरीर — स्थूल, सूक्ष्म या कारण — से रहित है। वह कभी किसी माता के गर्भ से नहीं आता। वह स्वयंप्रकाशमान, स्वयंभू और सर्वज्ञ है।" (‘स पर्यगात्...’ — यजुर्वेद 40.3)
"वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। वही पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चंद्रमा और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार है।" (‘स्कम्भो दाधार...’ और ‘यः श्रमात् तपसो...’ — अथर्ववेद 10.7.35–36)
यहाँ दयानन्द का मूल बिंदु अत्यंत महत्त्वपूर्ण है : जब ईश्वर सर्वशक्तिमान और सबका आधार है, तो फिर वह स्वयं किसी चीज़ या शरीर का आधार कैसे ले सकता है? अगर वह किसी चीज़ या शरीर का आधार लेता है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं रहा। अगर वह किसी का शरीर आदि का सहारा नहीं लेता, तो सिद्ध होता है कि वह निराकार है, क्योंकि शरीर का आधार लेने वाला तो साकार ही कहा जाएगा।
इस प्रकार दयानन्द ने साकारवाद और अवतारवाद की मजबूत दीवार को एक ही प्रहार से ध्वस्त कर दिया।
इसीलिए उन्होंने खुले शब्दों में कहा कि श्रीराम और श्रीकृष्ण न तो ईश्वर हैं और न ही ईश्वर के अवतार। वे महान् व्यक्ति थे, आत्माएँ थे, परंतु उन्हें सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार परमात्मा के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इसलिए श्रीराम और श्रीकृष्ण की पूजा ईश्वर के रूप में करना एक दार्शनिक और आध्यात्मिक भूल है।
कोई भी आत्मा, चाहे वह कितनी भी महान् क्यों न हो, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकती, क्योंकि आत्मा सीमित ज्ञान वाली होती है और ईश्वर असीम ज्ञानस्वरूप होता है। क्या कोई आत्मा, चाहे वह कितनी भी साधना करे, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी या ब्रह्मांड की रचना कर सकती है? नहीं। तो फिर राम और कृष्ण को ईश्वर मानने की यह सारी दलीलें व्यर्थ हैं। आत्मा सदा आत्मा ही रहती है और ईश्वर सदा ईश्वर ही।
इस प्रकार दयानन्द ने हिन्दू धर्म में उसके प्राचीन तत्त्व और उसकी महिमा को पुनः स्थापित किया। यही कारण है कि दयानन्द को उपदेशकों में एक विशेष स्थान प्राप्त है — वे अपने आप में अकेले हैं।
[स्रोत: ‘Dayananda the Great’ — लेखक: पं. वेदमित्र ठाकोर, अनुवाद और प्रस्तुति: भावेश मेरजा]
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महर्षि दयानंद जी का गर्जनपूर्ण आह्वान - भारत! स्वयं को जानो


 

• महर्षि दयानंद जी का गर्जनपूर्ण आह्वान - भारत! स्वयं को जानो •

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- पद्मभूषण श्री सूरजभान
स्वामी दयानंद जैसे बहुआयामी प्रतिभाशाली महापुरुष के कार्यों का मूल्यांकन करना कितना कठिन है! वह एक संत थे, एक विद्वान् थे, एक सामाजिक व धार्मिक सुधारक थे, और एक महान शिक्षाविद् भी थे — मानव जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जो उनके व्यापक कार्यक्रम में सम्मिलित न हो। लेकिन इन सभी कार्यों के पीछे एक मूल भावना थी, जो उनकी सभी गतिविधियों का प्रेरक स्रोत थी — भारत को फिर से उसकी वास्तविक पहचान दिलाना। उनका उद्घोष था: "भारत! स्वयं को जानो!"
उन्होंने देखा कि भारत अपने आप पर शर्मिंदा है — हीनता की भावना से ग्रसित है। उन्होंने भारत को उसकी प्राचीन महिमा दिखाई, उसे एक उज्ज्वल भविष्य का दर्शन कराया — इस शर्त के साथ कि भारत को स्वयं बनना होगा। उन्होंने भारत को अज्ञान के दलदल में फंसा पाया, अंधविश्वास की जंजीरों में जकड़ा हुआ देखा। तब उन्होंने अपने अनोखे ज्ञान का प्रकाश फैलाया, लोगों से आग्रह किया कि वे इन जंजीरों से चिपके न रहें, और उन्हें सलाह दी कि वे स्वयं बनें।
हज़ारों लोग नींद से जाग उठे, लाखों ने जागने से इनकार किया — लेकिन झंझोड़ा तो गया सबको। उन्होंने स्वयं को जानने से इनकार किया, परंतु दयानंद जैसे उद्धारक को पता था कि अगर वे जीवित रहना चाहते हैं, तो उन्हें स्वयं को जानना ही होगा। चाहे वे दयानंद से प्रभावित होकर न बदलें, तो भी उनके बाद उनके जैसे किसी प्रतिनिधि के माध्यम से उन्हें बदला ही जाना चाहिए, यदि हिंदू धर्म को जीवित रहना है।
हिंदू धर्म ने आर्य समाज को सबसे बड़ा सम्मान यह दिया है कि उसके कार्यक्रम की नकल की — उसकी योजनाएं चुराकर। लोग दयानंद की आलोचना करते हैं, पर उनके विचारों का पालन करते हैं — यही उनकी विजय है। जो दल उनके सबसे बड़े विरोधी थे, वही आज उन्हीं कार्यों को आगे बढ़ा रहे हैं, जिनके लिए दयानंद खड़े थे — और फिर भी उन्हीं पर हमला कर रहे हैं। यही उनकी जीत है। ऋषि दयानंद ने जो उपदेश दिए, वे आज हमारे जीवन का हिस्सा बन चुके हैं — अतः कोई अगर उनकी उपलब्धियों की महानता को समझ न पाए, तो इसमें आश्चर्य नहीं। इतिहासकारों ने अब तक उनके साथ न्याय नहीं किया है, परंतु एक दिन यह "सूर्य" अवश्य ही संदेह, झूठी प्रतिष्ठा और असहिष्णुता के बादलों से निकलकर पूरे तेज़ से चमकेगा।
दयानंद ने देखा कि तथाकथित शिक्षित भारत, पश्चिम के प्रभाव में बहता जा रहा है। तब इस उद्धारक ने गरज कर कहा — "स्वयं को जानो!" उन्होंने पुकारकर कहा — "अपनी आत्मा मत बेचो। तुम्हारा उद्धार अनुकरण में नहीं, बल्कि स्वयं बनने में है।" लोग उनका मज़ाक उड़ाते थे, उन्हें मूर्ख और सनकी कहते थे। लेकिन आज जब गांधी — जो भारत का आदर्श और हिंदू धर्म का सजीव प्रतीक हैं — वही संदेश देते हैं; जब टैगोर — भारत के संत-कवि — हमें कहते हैं कि हम केवल नकल न करें; और जब डॉ. राधाकृष्णन — भारतीय दार्शनिकों में श्रेष्ठ — यह खेद व्यक्त करते हैं कि "हमारी ब्रिटिश शासन से घृणा के साथ-साथ ब्रिटिश संस्थाओं के लिए एक अजीब प्रेम भी जुड़ा है" — तब हमें एहसास होता है कि दयानंद वास्तव में एक द्रष्टा थे। यही उनकी महिमा है। उन्होंने भारतीय समस्या को वैसा देखा, जैसा बहुत कम लोगों ने देखा। उनका आह्वान था — "स्वयं की ओर लौटो!" लोगों ने कहा, पीछे लौटना आगे बढ़ने के खिलाफ है। परंतु दयानंद को इन दोनों में कोई विरोधाभास नहीं लगा — और इतिहास ने उनके विश्वास को सही साबित किया।
ऋषि दयानंद "भारतीय भारत" के प्रतीक थे। वे पूरी तरह भारतीय थे। उनके भीतर जो चेतना थी, वह पूर्णतः स्वदेशी थी, और उनके विचारों और तरीकों दोनों में वे पूरी तरह से आर्य थे। हालांकि उनका दृष्टिकोण और विचारों की मौलिकता बहुत आगे की थी, फिर भी वे इतने भारतीय थे कि उनके व्यक्तित्व में एक भी बात नहीं थी जिसे विदेशी प्रभाव का परिणाम कहा जा सके।
वे चाहे जितनी ऊंचाई से लोगों से बात करते थे, फिर भी उन्हें अपने लोग मानकर ही बात करते थे। वे जानते थे कि वे लोग क्या हैं और क्या नहीं हैं। उनका विश्लेषण अद्वितीय था, और उनका समाधान भी — और पिछले अस्सी वर्षों का इतिहास इस तथ्य का जीवंत प्रमाण है।
[स्रोत: Dayanand - His Life and Work, पृष्ठ 82-84, प्रस्तुतकर्ता: भावेश मेरजा]

महर्षि स्वामी दयानंद - विज्ञान की प्रगति का स्वागत करनेवाले संन्यासी


 


• महर्षि स्वामी दयानंद - विज्ञान की प्रगति का स्वागत करनेवाले संन्यासी •

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- स्वामी (डॉ) सत्यप्रकाश सरस्वती
स्वामी दयानंद समाज से अंधविश्वास को मिटाना चाहते थे — और यह केवल हिन्दू समाज तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने ईसाइयों [एवं मुसलमानों, , बौद्धों, जैनों आदि सभी मतावलंबियों] से भी अपील की कि वे अपने कई विश्वासों को सत्य के प्रकाश में सुधारें। दयानंद की शिक्षाएं सम्पूर्ण मानवता के लिए थीं। वे सबका भला चाहते थे और एक महान् संन्यासी की तरह सभी के कल्याण के लिए समर्पित थे।
उन्हें यूरोपीयों के उन गुणों की प्रशंसा की थी, जिनमें वे विज्ञान के अध्ययन में लगे हुए थे, अपने देशों में मेहनत से काम कर रहे थे, स्त्रियों और सभी वर्गों के लोगों को शिक्षा के अवसर दे रहे थे, और बहुविवाह को नहीं मानते थे। स्वामी दयानंद ने कई स्थानों पर अपनी रचनाओं में यूरोपीयों की इन विशेषताओं और उनके देशभक्तिपूर्ण व्यवहार की प्रशंसा की है।
सत्रहवीं शताब्दी के बाद यूरोप में विज्ञान तेज़ी से आगे बढ़ने लगा। कई बार इस प्रगति का विरोध रूढ़िवादी धर्मशास्त्रियों द्वारा हुआ। धार्मिक मान्यताओं ने तर्कवाद का विरोध किया, और जब डार्विन ने "विकास सिद्धांत" प्रस्तुत किया, तब तो यह विरोध चरम पर पहुँच गया। विज्ञान ने तकनीक को जन्म दिया, और दोनों मिलकर एक नए प्रकार की सामाजिक व्यवस्था की ओर बढ़ने लगे। लोकतांत्रिक और समाजवादी जीवन-दृष्टि का विकास होने लगा।
जहाँ पश्चिम में धर्म के पक्षधर लोग समय-समय पर विज्ञान की प्रगति का विरोध करते रहे, वहीं स्वामी दयानंद पहले ऐसे धार्मिक विचारक थे, जिन्होंने इन नए विचारों का खुले दिल से स्वागत किया। वे विज्ञान और वैज्ञानिक अध्ययन के पक्ष में थे, क्योंकि यह अध्ययन ईश्वर, ज्योतिष, प्रेत-विद्या आदि से जुड़े अंधविश्वासों को मिटाने में सहायता करता है — जो समाज को खोखला कर रहे थे। इसलिए वे वैज्ञानिक खोजों और वैज्ञानिक सोच के समर्थन में थे।
स्वामी दयानंद के अनुसार — ईश्वर सत्य है, उसकी सृष्टि सत्य और उद्देश्यपूर्ण है। यह न कोई सपना है, न भ्रांति, न माया — जैसा कि कुछ दार्शनिकों ने बताया है। उन्होंने कार्य-कारण के सिद्धांत की पुष्टि की और अपने पूरे दर्शन को इसी सिद्धांत पर आधारित किया।
चूंकि यह संसार वास्तविक है, इसलिए ईश्वर अपनी सृष्टि के माध्यम से प्रकट होता है। यह सृष्टि नियमबद्ध है, और इन नियमों का अध्ययन करना ही विज्ञान है।
जब इन नियमों को बड़े पैमाने पर मानव हित में लागू किया जाए, तो वह तकनीक (technology) कहलाती है। अगर विज्ञान का उपयोग विवेकपूर्वक और बुद्धिमानी से किया जाए, तो यह मानवता के लिए समृद्धि लाता है।
स्वामी दयानंद का यथार्थवादी (रिअलिस्टिक) दर्शन धन की उत्पत्ति या संचय को नकारता नहीं है, इस शर्त पर कि वह सेवा के लिए हो — शोषण के लिए नहीं। वे चाहते थे कि गृहस्थजन समृद्ध हों।
उनका धर्म का दृष्टिकोण समाजवादी था — जिसमें व्यक्ति की उपेक्षा नहीं की जाती, क्योंकि व्यक्ति को भी तो अपनी मुक्ति के लिए कर्म करना होता है।
इस समाजवादी दृष्टिकोण में यह नैतिक मूल्य माना गया कि ज़रूरतमंदों की सेवा की जाए:
• जो विद्वान् हैं, वे अशिक्षित और सत्य के जिज्ञासु लोगों को ज्ञान दें।
• जो बलशाली हैं, वे निर्बलों की रक्षा करें।
• जो धनवान हैं, वे गरीबों की सेवा करें।
जो सेवा करता है, वही सच्चे मन से प्रार्थना करता है। सेवा एक नैतिक मूल्य है।
ईश्वर हमारा पिता है, और हम सब एक-दूसरे के भाई हैं।
स्वामी दयानंद एक समन्वित दर्शन के पक्षधर थे — जिसमें समाज का संतुलित विकास हो। इसलिए वे वैज्ञानिक विकास के विरोधी नहीं थे। उनके अनुसार, विज्ञान का उपयोग अज्ञानता मिटाने और गरीबी दूर करने में होना चाहिए। इसी कारण वे विज्ञान की प्रगति का स्वागत करते हैं।
वेद, जो कि दिव्य वाणी है, वह विज्ञान, सत्य ज्ञान और उसके जीवन में प्रयोग की शिक्षा देता है।
[स्रोत : Vincit Veritas, pp. 109-10, अनुवाद एवं प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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आर्यसमाज प्रणीत श्रीमद्भगवद्गीता विषयक व्याख्या एवं विवेचनामूलक साहित्य


 


• आर्यसमाज प्रणीत श्रीमद्भगवद्गीता विषयक व्याख्या एवं विवेचनामूलक साहित्य • 

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-- डॉ. भवानीलाल भारतीय 


यों तो भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व के अन्तर्गत आती है, किन्तु उसमें वर्णित विषयों की दृष्टि से उसे स्वतन्त्र महत्त्व प्राप्त है। युद्ध के आरम्भ में उत्पन्न अर्जुन के विषाद का शमन करने के लिए कृष्ण ने जो उपदेश दिये, उन्हें ही भगवद्‌गीता के रूप में संगृहीत किया गया है। 

आर्यसमाज में गीता को लेकर दो प्रकार की धारणाएँ प्रचलित हैं। अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में महाभारत का एक अंश होने के कारण गीता की गणना प्रामाणिक ग्रन्थों के अन्तर्गत होनी चाहिए। कथ्य की दृष्टि से भी गीता में जिन विषयों का प्रतिपादन हुआ है वे प्रायः वेद, उपनिषद् आदि प्राचीन ग्रन्थों के अनुकूल ही हैं, विशेषतया आत्मा के अमरत्व तथा कर्मयोग जैसे उपयोगी विषयों की मीमांसा गीता में जिस भावस्फूर्त शैली में की गई है, उसे देखते हुए इस ग्रन्थ की महनीयता और उपयोगिता को निरपवाद रूप से स्वीकार करना ही पड़ता है। 

किन्तु आर्यसमाज में ही कुछ ऐसे विद्वान् हैं जो गीता को न तो प्रामाणिक ग्रन्थ ही मानते हैं और न उन्हें खुद उसकी उपयोगिता ही स्वीकार्य है। इस प्रकार गीता की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता को लेकर आर्यसमाज के विद्वान् स्पष्टतया वो शिविरों में बंटे हुए हैं।

जहाँ तक स्वामी दयानन्द का सम्बन्ध है, उन्होंने गीता के विषय में अपनी कोई स्पष्ट सम्मति प्रकट नहीं की थी। सम्भवतः इसीलिए कि वे गीता को स्वतन्त्र ग्रन्थ न मानकर महाभारत का ही एक अंश स्वीकार करते थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में गीता के कुछ श्लोकों को यत्र-तत्र उद्धृत किया है तथा एक स्थान पर तो ईश्वर के अवतार लेने के प्रसंग का खण्डन करते हुए उन्होंने गीता के प्रसिद्ध श्लोक "यदा यदा ही धर्मस्य" को उद्धृत कर उसकी स्वमतानुकूल व्याख्या भी की है। यह कहना तो उचित नहीं होगा कि वर्तमान रूप में उपलब्ध गीता स्वामीजी को उसी रूप में स्वीकार्य थी, तथापि यह भी उतना ही सत्य है कि वे इस ग्रन्य को पुराणों और तन्त्रों के तुल्य न तो तिरस्कार्य मानते ये और न त्याज्य।

भारतीय धर्म और दर्शन को गीता ने जिस समग्रता के साथ चित्रित किया है उसके कारण इस ग्रन्थ की लोकप्रियता अत्यधिक बढ़ गई है। यह भी सत्य है कि अधिकांश में वैदिक और उपनिषद्-प्रतिपादित विचारसरणि का अनुकरण करने पर भी गीता में कुछ न कुछ पौराणिक तत्त्व मिलते ही हैं। तथापि इस ग्रन्य का बहुलांश प्रायः उत्कृष्ट तथा दोषरहित है। आर्यसमाज के विद्वानों ने गीता पर विभिन्न भाष्य, टीकाएँ और व्याख्याएँ लिखी हैं जिनकी संख्या बहुत अधिक है। अनेक विद्वानों ने स्वमति के अनुसार प्रक्षिप्त समझे जानेवाले श्लोकों को पृथक् कर गीता के शुद्ध एवं संक्षिप्त संस्करण भी प्रकाशित किये हैं। ऐसे ग्रन्थों की संख्या भी पर्याप्त है जिनमें गीता में वर्णित कुछ उदात्त प्रसंगों को संकलित किया गया है, साथ ही गीता की प्रामाणिकता तथा स्वामी दयानन्द की गीता-विषयक दृष्टि को ध्यान में रखकर भी कुछ ग्रन्थ लिखे गए हैं। कतिपय ग्रन्थ उस वर्ग के विद्वानों द्वारा भी लिखे गए हैं जो इस ग्रन्थ के कठोर आलोचक हैं। यहाँ हम भगवद्गीता-विषयक सम्पूर्ण साहित्य का किंचित् विस्तार से परिचय देना उपयुक्त समझते हैं।


गीता के भाष्य, टीकादि ग्रन्थ : 

सर्वप्रथम हम गीता पर लिखे गए भाष्य और टीका आदि की चर्चा करेंगे। 

स्वामी दयानन्द के आद्य शिष्य पण्डित भीमसेन शर्मा ने गीता पर भी अपनी लेखनी उठाई थी। उन्होंने गीता पर संस्कृत में विस्तृत भाष्य लिखा तथा उसका भावानुवाद हिन्दी में प्रस्तुत किया। पण्डित भीमसेन ने गीता में प्रक्षिप्त किये गए श्लोकों पर भी विचार किया है। उनके विचारानुसार आज उपलब्ध गीता में सात, नौ, दस, ग्यारह और बारह - ये पाँच अध्याय तो पूर्णतया प्रक्षिप्त माने जा सकते हैं। अन्य में भी उन्होंने जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है उसका संकेत उन्होंने ग्रन्थ की प्रस्तावना में कर दिया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन सर्वप्रथम 1897 ई० में सरस्वती यन्त्रालय, इटावा से हुआ। 

पण्डित आर्यमुनि का "गीता-योग प्रदीपार्य-भाष्य" लाहौर से 1962 वि० में छपा। आर्यमुनि ने सम्पूर्ण ग्रन्थ की संगति लगाने में अत्यधिक श्रम किया है। वे गीता में केवल एक श्लोक को ही प्रक्षिप्त मानते हैं, और यह है "पत्र पुष्पं फलं तोयम्"। 

पण्डित तुलसीराम स्वामी का गीताभाष्य भी अपनी दृष्टि से अपूर्व है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण ग्रन्थ को वैदिक सिद्धान्तों के अनुकूल सिद्ध किया गया है। 

पण्डित राजाराम, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी सत्यानन्द, पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार, पण्डित सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार आदि के गीता भाष्य भी अनेक दृष्टियों से उपयोगी तथा उल्लेखनीय हैं। 

पण्डित भूमित्र शर्मा स्वामी दयानन्द के समकालीन थे जिन्हें स्वामीजी से ही यज्ञोपवीत धारण करने का अवसर मिला था। उन्होंने गीता पर 'वेदानुगरत्नसंग्रह' शीर्षक भाष्य लिखा है। इसकी भूमिका में उन्होंने स्वामी दयानन्द के जीवन का एक प्रसंग वर्णित करते हुए बताया है कि ऋषि दयानन्द के अनुसार बर्तमान गीता में 7, 9, 10, 11, 12 अध्याय समग्र रूप से प्रक्षिप्त किये गए हैं। सम्भवतः स्वामीजी के गीता-विषयक इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर पण्डित भीमसेन और पण्डित भूमित्र शर्मा ने अपने गीता के संस्करणों में इन अध्यायों को प्रक्षिप्त मानकर स्थान ही नहीं दिया है।

गीता के प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने में पण्डित मुक्तिराम उपाध्याय (स्वामी आत्मानन्द सरस्वती) का परिश्रम विशेष रूप से प्रशंसनीय है। उन्होंने प्रक्षेप चुनने की एक मौलिक पद्धति निर्धारित की, जिसका विस्तृत विश्लेषण उन्होंने ग्रन्थ की भूमिका में किया। उनका यह तो आग्रह नहीं है कि जिन श्लोकों को उन्होंने प्रक्षिप्त माना है उन्हें अन्य विद्वान् भी प्रक्षिप्त मान लें, तथापि प्रक्षिप्त अंशों को निर्धारित करने में उन्होंने जिस युक्तिसरणि तथा तार्किकता का सहारा लिया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। 

गीता पर किये गए भाष्यों में पण्डित कृष्णस्वरूप विद्यालंकार का 'गीतामर्म' तथा स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती का 'समर्पणभाष्य' मौलिक विवेचना की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। 

इन पंक्तियों के लेखक ने पण्डित ईश्वरीप्रसाद प्रेम के आग्रह पर गीता के एक शुद्ध संस्करण का सम्पादन किया था जो सत्यप्रकाशन, मथुरा से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में गीता-विषयक सभी विषयों का ऊहापोह किया गया है। महाभारत में गीता की स्थिति का विवेचन करने के पश्चात् इसमें आर्यसमाज के उन विद्वानों की आपत्तियों का उत्तर भी दिया गया है जो गीता के कठोर आलोचक है। ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीकृत वैदिक गीता के क्रम के अनुसार ही गीता के श्लोकों का सरल और संक्षिप्त भावार्थ प्रस्तुत किया गया है। 

स्वामी वेदानन्द वेदवागीश ने गीता पर 'ज्योतिष्मती' और 'दीप्तिमती' शीर्षक टीकाएँ लिखी हैं। इनमें से ज्योतिष्मती टीका संस्कृत में और 'दीप्तिमती' टीका हिन्दी में है। 


हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी आर्यसमाजी विद्वानों द्वारा गीता पर अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गए हैं। 

उर्दू में भाई परमानन्द लिखित 'गीता के राज' तथा फिरोजपुर के पण्डित विष्णुदत्त वकील द्वारा लिखित 'गीता-शतक' उल्लेखनीय हैं। 

पण्डित घासीराम ने सम्पूर्ण गीता का उर्दू पद्यानुवाद किया था तथा पण्डित गोपदेव शास्त्री ने तेलुगु में गीता की टीका लिखी है।

आर्यसमाज के विद्वानों ने समग्र गीता को यथावत् मान्यता चाहे न दी हो, तथापि उन्होंने यह तो स्वीकार किया ही है कि इस ग्रन्थ में यत्र-तत्र अनेक गम्भीर उपदेश तथा उदात्त शिक्षाएँ संगृहीत हैं। अतः गीता के कुछ मार्मिक श्लोकों को पृथक् ग्रन्थ के रूप में संकलित करने की प्रवृत्ति आर्य विद्वानों में आरम्भ से ही रही है। 

स्वामी मंगलानन्द पुरी ने भगवद्गीता के 70 श्लोकों को ही प्राचीन ठहराया था और इसी के आधार पर उन्होंने 'प्राचीन भगवद्गीता' शीर्षक ग्रन्थ का सम्पादन किया। उनकी एक अन्य पुस्तक 'सप्तश्लोकी गीता' भी छपी थी। 

पण्डित ईश्वरदत्त मेधार्थी विद्यालंकार ने गीता से सौ श्लोकों का संग्रह कर 'आर्यकुमार गीता' का सम्पादन किया। 

पण्डित जगतकुमार शास्त्री ने द्वितीय अध्याय के अन्तिम श्लोकों की टीका 'स्थितप्रज्ञोपनिषद्' शीर्षक से की है। 

बंगला में पण्डित दीनबन्धु वेदशास्त्री ने 'प्राचीन गीता' शीर्षक से गीता के कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोकों का अनुवाद प्रकाशित किया।

भगवद्गीता के हिन्दी पद्यानुवाद : गीता जैसे लोकप्रिय ग्रन्थ का काव्यरुचि-सम्पन्न पाठकों के लिए पद्यानुवाद किया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारी जानकारी में ऐसे आठ पद्यानुवाद समय-समय पर किये जा चुके हैं। गुरुकुल वृन्दावन के डॉक्टर देवदत्त ने 'गीतायन' शीर्षक पद्यानुवाद किया। हितैषी अलावलपुरी लिखित 'हितैषी की गीता' गीता के श्लोकों का दोहानुवाद प्रस्तुत करती है। श्री ज्ञानप्रकाश ने राधेश्याम-तर्ज पर गीता का पद्यानुवाद किया। अन्य अनुवादों में स्वामी धीरानन्द संन्यासी का 'गीतागान', रामकृष्ण भारती का 'भगवद्गीता पद्यानुवाद', प्रकाशवीर शर्मा 'व्याकुल' का 'गीता-ज्ञान प्रकाश' तथा डॉक्टर वेदप्रकाश का 'वैदिक भगवद्गीता-दोहानुवाद' उल्लेखनीय हैं।

गीता-विषयक आलोचनात्मक ग्रन्थों की संख्या भी पर्याप्त है। भाई परमानन्द ने 'गीतामृत' लिखकर गीता में विवेचित विषयों की समीक्षा की थी। पण्डित नरदेव शास्त्री-लिखित 'गीता-विमर्श' इस ग्रन्थ का सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत करता है। पण्डित गोपाल तथा प्रिसिपल दीवानचन्द ने गीता-विषयक उल्लेखनीय ग्रन्थ लिखे हैं। पण्डित कृष्णस्वरूप विद्यालंकार ने 'गीता-विज्ञान-विवेचन' शीर्षक ग्रन्थ में गीता के प्रतिपाद्य विषयों की व्यापक समीक्षा की है।

गीता को अप्रामाणिक माननेवाले विद्वानों में पण्डित राजेन्द्र तथा डॉ० श्रीराम आर्य आदि हैं। इन्होंने अपने दृष्टिकोण को 'गीता-विमर्श', 'गीता की पृष्ठभूमि', 'ऋषि दयानन्द और गीता' तथा 'गीता-विवेचन' आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। उक्त विद्वानों द्वारा किये गए आक्षेपों के समाधान रूप में तथा गीता और वेद की शिक्षाओं में परस्पर अविरोध स्थापित करने की दृष्टि से अमर स्वामी सरस्वती ने कुछ ग्रन्थ लिखे हैं। इनमें 'गीता और वेद', 'ऋषि दयानन्द और गीता' आदि मुख्य है। 

निश्चय ही गीता जैसे लोक-प्रिय धार्मिक ग्रन्थ पर विस्तृत टीका, भाष्य, व्याख्या और आलोचना लिखकर आर्यसमाजी विद्वानों ने इसके अध्ययन और प्रचार में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है।

[स्रोत: आर्य समाज का इतिहास, भाग 5, पृष्ठ 164-6, प्रधान संपादक: डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार, प्रस्तुतकर्ता: भावेश मेरजा]


नोट : यह तो 1986 ई. तक का विवरण है। तत्पश्चात् भी आर्य समाज के अनेक विद्वानों ने गीता पर ग्रन्थ लेखन किया है, जिसमें स्वामी विद्यानंद सरस्वती रचित 'मूल गीता में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद' उल्लेखनीय है, जिसका गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है। 'वेदवाणी' पत्रिका के वर्तमान संपादक श्री आचार्य प्रदीप जी ने भी आर्य विद्वानों द्वारा लिखित गीता विषयक विभिन्न लघु ग्रंथों का एक संग्रह संपादित किया है। - प्रस्तुतकर्ता।

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