Saturday, October 4, 2025

मृत्यु आदि दुःखों से मुक्त होने के 7 साधन



मृत्यु आदि दुःखों से मुक्त होने के 7 साधन

✍🏻 लेखक - महात्मा नारायण स्वामी (मृत्यु और परलोक)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

◾️१. ब्रह्मचर्य
सबसे प्रथम जिस शिक्षा को देना है, यह ब्रह्मचर्य की शिक्षा है। ब्रह्मचर्य का यह भाव है कि मनुष्य में आस्तिक बुद्धि के साथ वह योग्यता उत्पन्न हो, जिससे मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर अधिकार रख सके। मन बड़ा चंचल है। यही मन की चंचलता जब इन्द्रियों में भी आ जाती है, तब मनुष्य का पतन हो जाता है। इसलिए मनुष्य के लिए सबसे बड़े यही दो कर्तव्य हैं- (१) ईश्वर परायणता (२) अपने ऊपर अधिकार। इन्हीं कर्त्तव्यद्वय का नाम ब्रह्मचर्य है। सुतराम ब्रह्मचर्य प्रत्येक नर-नारी के लिये अनिवार्य है। जितने भी इन्द्रियों के विषय हैं, क्षणिक सुख के देने वाले हैं और उस क्षणिक सुख के बीतने के साथ ही प्राणियों में उस विषय की असारता जान कर उससे वैराग्य उत्पन्न होता है। परन्तु यह वैराग्य भी विषयों से सुख की भाँति क्षणिक होता है। इस वैराग्य के बीतने पर फिर मनुष्य उन्हीं विषयों की ओर चलने लगता है बस, इसी चलेन्द्रियता के दोष को दूर करने का साधन ब्रह्मचर्य है।

प्रश्न - विषय की निस्सारता का अभिप्राय क्या है?
उत्तर - कोई विषय हो, उसका सुख बहुत थोड़ी देर, उसके भोगने के समय मात्र में रहता है। इधर भोग खत्म हुआ उधर सुख रुखसत। उदाहरण के लिए रसना के विषय को लीजिये। मनुष्य को किसी वस्तु-विशेष का स्वाद अत्यन्त प्रिय है, वह उसी स्वाद के लिये उसे खाता है। जिह्वा पर उस वस्तु के रखते ही स्वाद आ जाता है। परन्तु वह स्वाद प्रिय प्राणी, चाहता है कि उस वस्तु को खाये नहीं, किन्तु जिह्वा पर ही रखा रहने दिया जाये, जिससे देर तक स्वाद आता रहे। परन्तु अब ऐसा करने से स्वाद नहीं आता। उस वस्तु के जिह्वा पर रखते ही खूब स्वाद आ गया था, परन्तु मालूम नहीं, वह स्वाद कहाँ चला गया। वस्तु जिह्वा पर रखी हुई है, परन्तु स्वाद नहीं आता। अब स्वाद क्यों नहीं आता, इसलिए कि वह तो क्षणिक था। स्वाद का क्षण बीतते ही स्वाद खत्म हो गया। वही हाल संसार के प्रत्येक विषय का है, इसलिए इन विषयों को क्षणिक और निस्सार कहा जाता है। ब्रह्मचर्य के नियमों पर अमल करने को योग्यता उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य उठते, बैठते, सोते, जागते इन सब नियमों को स्मरण करता रहे और भरसक प्रयत्न करे कि उन्हें काम में लाये। उनके काम में लाने के दो साधन हैं -

ब्रह्मचर्य के दो साधन - पहला साधन तप है। मनुष्यों को कठोरता सहने का जीवन व्यतीत करना चाहिये। कष्टों को प्रसन्नता से सहन करना चाहिए आरामतलबी के पास भी नहीं फटकना चाहिए। दूसरा साधन स्वाध्याय है। उत्तम उत्तम ग्रन्थों के अध्ययन से मनुष्य का हृदय और मस्तिष्क ब्रह्मचर्य के पवित्र नियमों के ग्रहण करने योग्य बना करता है।

◾️२. चित्त की एकाग्रता
सुख असल में विषयों में नहीं. किन्तु चित्त की एकाग्रता में है। इसलिए चित्त एकाग्र होना चाहिए। चित्त की एकाग्रता प्राप्त करने के लिए इस बात की आदत डालनी चाहिये कि जो भी काम करे, खूब जी लगाकर करे और अपने को कभी खाली न रखे। सदैव कुछ न कुछ करते रहना चाहिये। चित्त की एकाग्रता के लिए ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् का सार्थक जप इस प्रकार करना चाहिये कि कोई श्वास जप से खाली न जाने पाये। यह जप प्रातः, सायं, रात्रि आदि में अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार करना चाहिये। इन साधनों से चित्त एकाग्र हो जाता है। चित्त की एकाग्रता मानो मोहन मन्त्र है, जिससे प्रत्येक कार्य की सिद्धि हो सकती है।

◾️३. ममता का त्याग
ममता दुःखों की जननी है। ममता छोड़ देने से मनुष्य दुःखों की सीमा का उल्लंघन कर जाता है। मौत उसके लिए कष्टप्रद नहीं रहती। ममता का साधन वैराग्य है। प्रबल वैराग्य से ममता नष्ट हो जाती है। इसलिए यत्न करके वैराग्य से ममता के परदे को चित्त से हटा देना चाहिये। काम जरूर मुश्किल है, परन्तु असम्भव नहीं। यत्न करने से सब कुछ होता है

◾️४. आत्म-निरीक्षण
चौथी बात जो आचरण में लानी चाहिए, वह आत्म-निरीक्षण (self-inspection) है। आत्म-निरीक्षण का भाव यह है कि मनुष्य शान्ति के साथ समय-समय पर अपने गुणों और दोषों पर विचार किया करे और दोषों के छुड़ाने के लिए यत्नवान् रहा करे। जब तक मनुष्य अपने ऊपर दृष्टि नहीं रखता तब तक उसे अपने दोषों, अपनी त्रुटियों का पता नहीं चला करता। इसलिए दिन-रात में एक खास समय में और सबसे अच्छा रात्रि में सोने से पहले का समय इस काम के लिए हुआ करता है। उसी समय ईश्वर को अपने हृदय में विराजमान समझ कर अपने दिन भर के कामों पर विचार किया करे कि वे दोष उसमें न रहें। इसी का नाम आत्मनिरीक्षण है।

◾️५. विश्वप्रेम
पहली चार शिक्षाओं में वे कर्त्तव्य हैं, जिनका सम्बन्ध केवल उन्होंने मनुष्यों से हुआ करता है जो उन्हें प्रयोग में लाया करते हैं। अब दो शिक्षायें वे हैं, जिनका संबंध अन्यों से है। उनमें से पहली अर्थात् पाँचवीं शिक्षा "विश्वप्रेम" है। मनुष्य का हृदय लचकीला होना चाहिए। जिससे उसमें प्राणिमात्र की हित कामना निहित रहा करे। ईश्वर जगत् का पिता है। मनुष्य पशु, पक्षी सभी उसने उत्पन्न किए। वे उनके पुत्रों और पुत्रियों के सदृश है। इसीलिए जहाँ मनुष्यों के अन्तर्गत भ्रातृभाव होना चाहिए, वहाँ पशु-पक्षियों के लिए भी उनके हृदय में दया का भाव रहना चाहिए। इस प्रेम की मंगल कामना से जब मनुष्य का हृदय पूरित करता रहा है, तब उसके भीतर एक अपूर्व उत्साह और आह्लाद की आभा जाज्वल्यमान रहने लगती है और उसके प्रत्येक कार्य की सिद्धि का अचूक कारण बना करती है। मनुष्य इसी प्रकार से अनेक दोषों तथा अनाचारों से बचा करता है। जहाँ प्रेम से हृदय शुद्ध और उदारतापूर्ण नहीं हुआ करता, यहाँ ईर्ष्या द्वेष की मलिनता और संकीर्णता का यह निवास गृह बना करता है। यही कर्त्तव्य है, जिनके प्रयोग में आने से मनुष्य परस्पर प्रेम के सूत्र से सूत्रित होकर जाति और समाज बनाया करते हैं, जो अभ्युदय (लोकोन्नति) का एकमात्र कारण है। मनुष्यों में परस्पर इस प्रेम का अंकुर उसी समय अधिक अंकुरित हुआ करता है, जब उनके हृदय प्रभु प्रेम से पूरित हुआ करते हैं। इसलिए मनुष्य-प्रेम और ईश्वर-प्रेम दोनों साथ-साथ ही चला करते हैं।

◾️६. सेवा का उच्च भाव
छठा कर्त्तव्य सेवा का उच्च भाव है। यह वह श्रेष्ठ कर्त्तव्य है, जिससे मनुष्य सहृदय और लोकप्रिय बना करता है। उसकी आत्मा में विशालता आती है। इसी उच्च कर्त्तव्य के प्रयोग में लाने से मनुष्य पतितों का पावन बनता, गिरे हुओं को उठाता और अनेक दोषों से युक्त प्राणियों को दोषमुक्त करता है। एक उदाहरण दिया जाता है और यह उदाहरण वैष्णव सम्प्रदाय के एक आचार्य चैतन्य के जीवन से सम्बन्धित है-

एक उदाहरण-

एक बार महात्मा चैतन्य बंगाल के एक नगर में आये और एक वाटिका में ठहरे। उनके साथ कतिपय शिष्य भी थे। नगर के लोगों ने बातचीत में प्रकट किया कि उस नगर में एक व्यक्ति मघाई बहुत दुष्ट है। उससे नगर निवासी दुःखी रहा करते हैं। चैतन्य ने यह सुनकर अपने शिष्य को भेजा कि मघाई को बुला लाये। मघाई उस समय अपने एक-एक मित्रों के साथ बैठा शराब पी रहा था। उसी समय चैतन्य के शिष्य ने उसे गुरु का संदेश सुनाया और साथ चलने की प्रार्थना की। मघाई ने एक खाली बोतल संदेशहर को मारी, जिससे उसका सिर जख्मी हो गया और खून निकलने लगा। उसी दशा में शिष्य ने लौट कर घटित घटना गुरु को सुना दी। चैतन्य ने तब अपने १०-१२ शिष्यों को भेजा कि यदि वह प्रसन्नता से न आए, तो उसे पकड़ लायें। मघाई अब उनके साथ चैतन्य के पास जा रहा है। सोचता जाता था कि उससे अपराध हुआ है और उसे कठोर दण्ड भोगना पड़ेगा। इसी चिन्ता से चिन्तित और दुःखी मघाई चैतन्य की सेवा में उपस्थित किया जाता है। चैतन्य ने उसे आराम के साथ एक गुदगुदे बिस्तर पर लिटवा दिया। परन्तु इससे उसका डर और बेचैनी दूर नहीं हुई। इसी बीच में चैतन्य उसके पाँव के पास जाकर बैठते हैं। उसके पाँव दबाना चाहते हैं। पाँव छूते ही मघाई घबरा कर उठ बैठता है और नम्रता से अपने पातकों और अवगुणों की गिनती कराते हुए कहता है कि महाराज, आपने मेरे अपवित्र शरीर को हाथ लगा कर क्यों अपने हाथों को अपवित्र किया? उसकी आँखों से अश्रुधारा बही चली जा रही है और वह अपने दोषों की गणना चैतन्य को कराता चला आ रहा है। फल यह होता है कि मघाई की काया पलट हो जाती है और वह चैतन्य का शिष्य बनता है और उसके शिष्यों में सबसे ऊँचा स्थान पाता है। इस आख्यायिका से स्पष्ट है कि किस प्रकार चैतन्य ने सेवा द्वारा गिरे हुए पुरुष को उठाकर अच्छे से अच्छा इंसान बना दिया।

◾️७. ईश्वर भक्ति / ईश्वर प्रेम
सातवाँ और अन्तिम कर्त्तव्य विशेषकर चतुर्थाश्रमस्थ मनुष्यों का यह है कि वे अपने को ईश्वर भक्ति ईश्वर प्रेम से इस प्रकार रंग लें कि उसके सिवा उन पर और कोई रंग न चढ़ने पाये और संसार की प्रत्येक वस्तु उन्हें गौण प्रतीत होने लगे। इसके लिए उन्हें निरन्तर उठते-बैठते, सोते-जागते ईश्वर का स्मरण करते रहना चाहिए, यदि वे सोने से पहले जी लगाकर ईश्वर का स्मरण करते हुए सो जायें, तो निश्चित है कि उन्हें यदि स्वप्न भी दिखाई देगा तो उसमें वे अपने ईश्वर का साक्षात्कार करते हुए ही देखेंगे। प्रत्येक प्रकार के झगड़ों, झपटों और अशान्तिप्रद कार्यों से चित्त हटाकर इस एक काम में लग जाने से इष्ट की सिद्धि होती है और इस इष्ट सिद्धि के बाद व्यास के शब्दों में मनुष्य को अनुभव होने लगता है कि 🔥'प्राप्तं प्राप्तव्यम्।'

ईश्वर करें-
🔥सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
अर्थात् सभी सुखी और स्वस्थ हों, सभी मंगलकामनाओं की पूर्ति देखें और कोई भी दुःखी न हो।

[ मृत्यु और परलोक - अर्थात् शरीर, अन्तःकरण तथा जीव का स्वरूप और भेद, जीव और सृष्टि की उत्पत्ति का प्रकार, मृत्यु का स्वरूप तथा बाद की गति, मुक्ति और स्वर्ग, नरकादि लोकों का स्वरूप, मैस्मरिज्म और रूहों को बुलाने के साधन आदि विषयों पर नये ढंग पर एक अद्भुत पुस्तक ]

✍🏻 लेखक - महात्मा नारायण स्वामी (मृत्यु और परलोक)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’