• स्वामी नारायण और उनका पन्थ •
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लेखक - श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज
[भूमिका : 1825 ई. में गुजरात के नडियाद नगर में कोलकाता के बिशप हीबर (हेबर) - Reginald Heber (1783-1826) और स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक स्वामी सहजानंद (1781-1830) के बीच मुलाकात हुई थी। हीबर उनके नैतिक सुधारों और उनके मतानुयायिओं की भक्ति से प्रभावित हुए थे, हालांकि उन्हें आशा थी कि वे सहजानंद को ईसाई मत के प्रभाव में ले आएंगे। हीबर का प्रारंभिक उद्देश्य स्वामी सहजानंद और उनके मत को भारत में बाइबल फैलाने के लिए एक माध्यम बनाना था, लेकिन इस मुलाकात से दोनों के बीच आपसी सम्मान बढ़ा, और हीबर उन्हें कन्वर्ट करने के अपने मिशन में असफल होकर गुजरात से चले गए। हीबर ने अपने लेखन में सहजानंद के काम और इस मुलाकात के बारे में अपने विचार लिखे हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इसी बिशप हीबर की डायरी के आधार पर यह महत्त्वपूर्ण लेख लिखा है। ध्यातव्य है कि आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वामी सहजानंद तथा उनके संप्रदाय की समीक्षा की है। इतना ही नहीं, उन्होंने 'शिक्षापत्री ध्वान्त निवारण' नामक एक स्वतंत्र पुस्तक लिखकर स्वामी सहजानंद रचित 'शिक्षापत्री' ग्रंथ की प्रमाण पुरस्सर और तार्किक समालोचना की है। आशा है कि स्वामी श्रद्धानंद जी का एक-सौ एक वर्ष पुराना यह लेख पाठकों को रसप्रद एवं उपयोगी लगेगा। - भावेश मेरजा]
ऋषि दयानन्द ने जो मत मतान्तरों और सम्प्रदायों की समालोचना की है, उसे प्रायः कठोर कहा जाता है और उन पर असहिष्णुता का दोष लगाया जाता है। परन्तु आज तक किसी भी आलोचक ने कोई विशेष प्रमाण इस विषय में नहीं दिया। एक सहिष्णु महाशय ने यह कहा कि स्वामी दयानन्द अपने खण्डन में कल्पना से बहुत काम लेते थे। मैंने प्रमाण के लिये दृष्टान्त पूछा। इस पर उन्हें चुप होना पड़ा। बम्बई में एक महाशय ने स्वामी नारायण मत के विषय में कहा कि उन के अनुयायी किसी को भी अवतार नहीं मानते, सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी नारायण के विषय में अशुद्ध कल्पना की गई है। एक मास बीता, अकस्मात् "बिशप हीबर" की डायरी में से कुछ उद्धरण मुझे मिल गए जिन में स्वामी नारायण के विषय में जो कुछ भी लिखा है नीचे देता हूं। इस से निष्पक्ष सज्जन समझ जायंगे कि मतों और सम्प्रदायों की आलोचना में भी ऋषि दयानन्द ने कभी अत्युक्ति से काम नहीं लिया।
यदि कोई सज्जन ऋषि दयानन्द के लेखों में किसी प्रकार की अशुद्ध कल्पना समझे तो उस विषय के ग्रन्थों वा इतिहास का अनुशीलन करें, और उन के अशुद्ध होने का प्रमाण उन्हें मिले तो मेरे पास लिख भेजें। मैं स्वयं उस अशुद्धि को मान लूंगा क्योंकि भूल चुक को सुधारने के लिए दयानन्द का विशाल हृदय हर समय तय्यार रहता था।
बिशप हीबर (Bishop Heber) अपनी 25, 26 मार्च सन् 1825 ई० की डायरी में स्वामी नारायण और उन के मत के विषय में इस प्रकार लिखते हैं -
"कहा जाता था कि उस (स्वामी नारायण, उपनाम सहजानन्द) के धार्मिक सिद्धान्त उन से भी उच्च हैं कि जो शास्त्रों से सीखे जा सकते हैं। वह उच्च कोटि की पवित्रता का प्रचार करता है, यहां तक कि उस के शिष्यों को किसी स्त्री के मुंह की ओर ताकना भी मना है। चोरी और रक्त बहाने को यह दूषित मानता है। जिन ग्रामों व जिलों ने उस की शिक्षा को स्वीकार किया है ये अपनी बुराई को छोड़ कर सब से अच्छे और नियमबद्ध हो गए हैं। केवल यही नहीं प्रत्युत कहा जाता है कि उसने जातिबन्धन के जुए का नाश कर दिया है, एक परमात्मा का प्रचार करता है। सारांश यह कि वह सच्चाई की ओर इतना झुक आया है कि मुझे आशा हो गई कि वह बाइबिल की शिक्षा के लिए मार्ग खोलने का एक साधन सिद्ध होगा उस (स्वामी नारायण) ने आरम्भ में कहा कि उस का विश्वास एक परमात्मा पर है जो पृथ्वी और आकाश की सब वस्तुओं का निर्माता, सर्व व्यापक, सब का धारण और शासन करने वाला है और उन पुरुषों के हृदय में विशेष रूप से बसता है जो उसे यत्न से ढूंढते हैं। परन्तु उस ने अपने पूज्य परमात्मा का नाम कृष्ण बतला कर मुझे चकित कर दिया और कहा कि प्राचीन काल में वह पृथ्वी पर आया था जिसे अधर्मी आदमियों ने जादू के ज़ोर से मार दिया और उसके बाद बहुत से इलहाम और बहुत से झूठे अवतार दुनिया में प्रसिद्ध किए गए। मैंने कहा कि मैं तो सदा यह समझता रहा हूं कि हिन्दू परमेश्वर को सबका पिता कहते हैं न कि 'कृष्ण' को, और कि उसका नाम 'ब्रह्म' है और मैंने यह जानने की इच्छा प्रकट की कि उनका परमेश्वर "ब्रह्म" है वा उस के अतिरिक्त कोई और ? पण्डित (सहजानन्द) मुस्कराया और सिर झुका कर एक ऐसे आदमी की तरह जो किसी अधिकारी शिष्य को शिक्षा देता है कहा - "यह सच है कि एक ही परमात्मा है जो सर्वोपरि और सर्वत्र व्यापक है। उसी से सारा संसार उत्पन्न होता है। वह जो अनादि एकरस है उस के बहुत नाम हो सकते हैं और रक्खे गए हैं। उसे हम भी और अन्य हिन्दू भी 'ब्रह्म' बोलते हैं परन्तु एक विशेष आत्मा है जिस में परमात्मा विशेष प्रकार से व्यापक है और वह आत्मा परमात्मा से आता है और परमात्मा के साथ है, और परमात्मा ही है। वही सब के पिता परमात्मा की इच्छा मनुष्यों को बतलाता है। उसी को हम 'कृष्ण' बोलते, उसे परमात्मा की मूर्ति मान कर पूजते, और उसे 'सूर्य देवता' समझते हैं।"...मैंने पण्डित को फिर कहा "परन्तु सूर्य जिसे हम आकाश में देखते हैं हम विश्वास नहीं कर सकते कि वह परमात्मा हो सकता है वा 'शब्द' हो सकता है जो परमात्मा के साथ ही रहता है, क्योंकि सूर्य तो उदय होता और अस्त होता है और कभी दुनिया के इस ओर और कभी उस ओर होता है। परन्तु परमात्मा तो एक दम सब स्थानों में व्यापक है।" पण्डित (सहजानन्द) ने उत्तर दिया कि सूर्य परमेश्वर नहीं है परन्तु प्रकाश और ऐश्वर्य का द्योतक है। उसने कहा कि उनके विश्वास के अनुसार विविध देशों में परमात्मा के बहुत से अवतार हुए हैं, ख्रिस्टियों के लिये, मुसल्मानों के लिये, प्राचीन काल में हिन्दुओं के लिये। साथ ही उस ने इशारा दिया कि उस समय 'कृष्ण' वा 'सूर्य' का एक अवतार वह (स्वामी नारायण) स्वयं है।"... उस ने एक चित्र दिया जिस में एक नग्न पुरुष के शरीर से सूर्य की किरणों की तरह प्रकाश निकल रहा था और दो स्त्रियें उसे पंखा कर रही थीं। मैंने पूछा कि यह (चित्र वाला) क्योंकर परमात्मा हो सकता है, जो सब वस्तुओं ओर सब स्थानों में भरपूर है। उस ने उत्तर दिया कि यह परमात्मा स्वयं नहीं है प्रत्युत उस का वह रूप है जो कि मेरे हृदय में बसता है...। मैंने उस से जाति-बन्धन के विषय में पूछा। उस के उत्तर में उस ने कहा कि वह उसे कुछ भी नहीं समझता, परन्तु वह किसी को दुःख देना नहीं चाहता। उस ने कहा इस संसार में सारे लोग इकट्ठे भोजन करें, चाहें अलग-अलग, परन्तु ऊपर जाकर यह सब भेद भाव दूर हो जायेंगे। मि० आइरन-लाइड ने मुझे बतलाया कि जब पण्डित सहजानन्द से मूति पूजा के विषय में हुज्जत [तर्क-वितर्क, बहस] की गई तो उस ने माना कि यह सब व्यर्थ की कल्पना है परन्तु अपनी सफाई में कहा कि लोगों के पक्षपात को एक दम से धक्का नहीं देना चाहिये, और कि मूर्खों और कामी पुरुषों के लिये उपासना में इन से बाह्य सहायता मिलती है।"
[स्रोत : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का मासिक पत्र"आर्य" का मार्गशीर्ष 1981 (दिसम्बर 1924) का अंक, पृष्ठ 2-4, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]
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