Friday, May 22, 2015

रामधारी सिंह दिनकर और आर्यसमाज

रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित "संस्कृति के चार अध्याय" में स्वामी दयानंद और आर्यसमाज द्वारा हिन्दू समाज के जनजागरण  में योगदान पर दिनकर जी ने अपने विचार प्रकट किये है। लेखक ने आर्यसमाज के कार्य को खुले दिल से सराहा है। एक-दो स्थानों पर हमारी लेखक से सहमति नहीं हैं मगर ऐतिहासिक लेख होने के कारण उसे यहाँ पर प्रकाशित किया जा रहा है।

डॉ विवेक आर्य










Saturday, May 16, 2015

औरंगज़ेब के नाम से देश कि राजधानी दिल्ली में सड़क क्यों है?





दिल्ली में कुछ हिन्दुत्ववादी युवाओं ने दिल्ली की कुछ प्रमुख सड़कों जिनका नाम औरंगज़ेब, अकबर आदि के नाम पर रखा गया था पर लगे मार्ग निर्देशकों को रंग से पोत कर यह सन्देश दिया कि इतिहास में वर्णित इन घृणित कर्म करने वाले व्यक्तियों पर देश की राजधानी में उनके नाम से सड़कें होना शर्मनाक एवं अव्यवहारिक है। सरकार इन युवाओं पर सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का मामला दर्ज कर कार्यवाही करेगी मगर क्या सेक्युलर राजनीती का ढोल पीटने वाली सरकार यह जानने का कभी प्रयास भी करेगी की इन नौजवानों ने अपने कारनामें से जो सन्देश दिया हैं क्या उस पर विचार नहीं करना चाहिए? भारत संभवत विश्व का अकेला ऐसा देश होगा जिसमें राष्ट्र और धर्म घातकों के नाम पर सड़कों से लेकर स्मारक बनाये जाते है। क्या यह देश के हिन्दुओं के साथ अन्याय करने के समान नहीं हैं? जिस अकबर,औरंगज़ेब, टीपू सुल्तान ने हिन्दू जाति का समूल नाश करने का बीड़ा उठाया हुआ था उन्हीं का महिमामंडन न केवल शर्मनाक है अपितु मानसिक दिवालियापन को भी दर्शाता है। क्या पाकिस्तान में हिन्दू प्रजा रक्षक गुरु गोविन्द सिंह, वीर शिरोमणि बंदा बैरागी,  क्षत्रिय गौरव वीर महाराणा प्रताप और वीर छत्रपति शिवाजी के नाम से लाहौर की प्रमुख सड़कों का नामकरण किया गया है? क्या अरब की सड़कें शहीद पंडित लेखराम और शुद्धि रण अधिनायक बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द या हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रणेता हिन्दू हृदय सम्राट वीर सावरकर के नाम पर रखी गई हैं? अगर नहीं तो भारत में ऐसा क्यों किया गया? इस लेख के माध्यम से अकबर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान के कारनामों से पाठकों को परिचित करवाया जायेगा जिससे हमारे देश के युवा यह चिंतन करने पर अवश्य विवश होंगे कि उनके लिए देश,जाति और धर्महित में एक-जुट होना अत्यंत आवश्यक हैं।

अकबर के कारनामें-

1. अकबर गाज़ी कैसे बना- दिल्ली पर उस समय हिन्दू राजा हेमू का राज था जब अकबर ने बैरम खान के संग दिल्ली पर हमला किया। हेमू का पलड़ा युद्ध में भारी था। दुर्भाग्य से हेमू की आँख में तीर लग गया जिससे वह बेहोश होकर हाथी से गिर गया। अपने राजा को न देखकर हेमू की सेना तितर-बितर हो गई एवं युद्ध में अकबर की जीत हुई। बैरम खान के कहने पर अकबर ने बेहोश हेमू की गर्दन पर हमला कर उसका प्राणांत कर गाज़ी की उपाधि ग्रहण करी। हेमू के सर को काबुल भिजवा दिया गया एवं धड़ को दिल्ली के किले के दरवाजें पर लटका दिया गया। अकबर ने अपनी फौज संग दिल्ली के किले में घुसकर हेमू के परिवारजनों एवं बूढ़े पिता का क़त्ल कर दिया। (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 38-40)

2. बैरम ख़ाँ के साथ व्यवहार- अकबर को गद्दी पर बैठाने वाला बैरम खाँ था। कालांतर में अकबर का उससे विवाद हो गया तो अकबर ने उसे निकाल दिया और उसकी बेगम से निकाह कर उसे अपने हरम में दाखिल कर लिया। बैरम खाँ को देश निकाला दे दिया गया जहाँ पर उसकी हत्या करवा दी गई।   (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 40)पाठक स्वयं सोचे अपने पालने वाले, आश्रय देने वाले, युद्ध में जीत दिलवाने वाले, गद्दी पर बैठाने वाले बैरम ख़ाँ के साथ अकबर ने कैसा सलूक किया। हिन्दू प्रजा और सामंतों के साथ कैसा सलूक किया जाता होगा। पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं।

3. शांतिप्रिय छोटी छोटी रियासतों को भी न छोड़ना- अकबर की दृष्टि सदा हिन्दू रियासतों पर लगी रहती। उन्हें प्राप्त करने के लिए अकबर किसी भी हद तक जाने को तैयार था। मध्य प्रदेश में एक छोटी से रियासत पर रानी दुर्गावती का राज्य था एवं प्रजा सुख चैन से थी। अकबर को उसके खजाने की कहीं से भनक लग गई। उसे प्राप्त करने के लिए अकबर ने अपनी सेना भेज दी। रानी ने भारी युद्ध लड़ा मगर अंत में दो तीर लगने से रानी घायल हो गई। रानी ने शत्रुओं से शरीर को अपवित्र होने से बचाने के लिए अपने हृदय में चाकू मारकर आत्महत्या कर ली मगर अपने मान कि रक्षा करी। अकबर का हृदय तब भी नहीं पसीजा।  (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 71)

4. हिन्दुओं को काफिरों के समान समझना- थानेसर में दो हिन्दू पक्षों में विवाद हो गया। विचार से समाधान न निकलने पर दोनों का विवाद युद्ध कि सीमा तक पहुँच गया। अकबर ने मध्यस्ता का निर्णय किया एवं युद्ध में उस पक्ष की और तीर चलाने लग गया जो पक्ष जितने लगता जिससे उसकी जीत हार में बदल जाये। अंत में दोनों पक्ष एक दूसरे को मार कर समाप्त हो गए मगर समाधान न निकला। अकबर को इस युद्ध को करने में बड़ा आनंद आया क्यूंकि मरने वाले दोनों पक्षों से काफिर हिन्दू थे।  (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 78-79)

5. चित्तौड़गढ़ का कत्लेआम- चित्तोड़ पर आक्रमण कर अकबर ने  कत्लेआम मचाया उसका वर्णन  इतिहास में शायद ही कोई मिलता है। इस युद्ध में पागल हाथियों को हिन्दू राजपूतों को कुचलने के लिए छोड़ दिया गया था। वीरगति प्राप्त करने वाले हिन्दू राजपूतों की संख्या 30,000 के लगभग थी तथा हज़ारों हिन्दू रमणियों ने जौहर कर अपने प्राण अर्पण कर अपने सतीत्व कि रक्षा की थी। पाठक इस कत्लेआम का अंदाजा इसी बात से लगा सकते है कि मरे हुए राजपूतों के जनेऊ का वजन 74 मन था। हिन्दुओं की एक पूरी नस्ल को अकबर ने अपनी जिद के चलते बर्बाद कर दिया था। (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 89-91)

6. शराबी अकबर-सूरत कि एक घटना का वर्णन मिलता है जिसमें शराब के नशे में अकबर ने अपना हाथ जख्मी होने पर राजा मान सिंह को गर्दन से पकड़ लिया। अकबर के साथी साजिद मुजफ्फर ने किसी प्रकार से बीच बचाव कर मामले को सुलझाया। इतिहासकार लिखते है कि अकबर इतनी शराब पी लेता था की अपने आपको भी संभाल नहीं पाता था। (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 89-91)

7. कैदियों के साथ बर्बरता- अकबर अपने कैदियों के साथ अत्यंत बर्बरता से पेश आता था। वह उन्हें अनेक प्रकार से यातनाएँ देता और अंत में मार डालता। इतिहास लेखक उसकी इस निर्दयता पर आश्चर्य प्रकट करते है। (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 116)

8. राजपूतों के प्रति व्यवहार- युद्ध में अकबर कि ओर से अनेक राजपूत अपनी स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए हिन्दू राजाओं से युद्ध करते थे। एक युद्ध में इस्लामिक लेखक बदाओनी लिखता हैं कि जब उसने अपने सेना नायक आसिफ खान से पूछा कि लड़ने वाले राजपूतों में से कौन अकबर के साथ हैं और कौन शत्रु हैं तो उसने उत्तर दिया दोनों में से कोई भी मरे फायदा इस्लाम का ही है। काश वीर राजपूतों ने अपने भाइयों से लड़ने में जो वीरता दिखाई वह अकबर के राज्य को समाप्त करने में दिखाई होती तो इतिहास कुछ ओर ही होता। (सन्दर्भ-अकबर थे ग्रेट मुग़ल-विन्सेंट स्मिथ पृष्ठ 152-153)

अकबर के जीवन से ऐसे अनेक वृतांत मिल सकते हैं जिससे उसके नाम पर सड़कों के नामकरण से लेकर उसे महान बताना हिन्दू समाज के साथ एक बड़ा मजाक करने के समान हैं।

औरंगज़ेब के कारनामे:-
औरंगजेब द्वारा हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के लिए जारी किये गए फरमानों का कच्चाचिट्ठा

 1. 13 अक्तूबर,1666- औरंगजेब ने मथुरा के केशव राय मंदिर से नक्काशीदार जालियों को जोकि उसके बड़े भाई दारा शिको द्वारा भेंट की गयी थी को तोड़ने का हुक्म यह कहते हुए दिया की किसी भी मुसलमान के लिए एक मंदिर की तरफ देखने तक की मनाही हैंऔर दारा शिको ने जो किया वह एक मुसलमान के लिए नाजायज हैं।
 2. 12 सितम्बर 1667- औरंगजेब के आदेश पर दिल्ली के प्रसिद्द कालकाजी मंदिर को तोड़ दिया गया।
3. 9 अप्रैल 1669 को मिर्जा राजा जय सिंह अम्बेर की मौत के बाद औरंगजेब के हुक्म से उसके पूरे राज्य में जितने भी हिन्दू मंदिर थे उनको तोड़ने का हुक्म दे दिया गया और किसी भी प्रकार की हिन्दू पूजा पर पाबन्दी लगा दी गयी जिसके बाद केशव देव राय के मंदिर को तोड़ दिया गया और उसके स्थान पर मस्जिद बना दी गयी।  मंदिर की मूर्तियों को तोड़ कर आगरा लेकर जाया गया और उन्हें मस्जिद की सीढियों में दफ़न करदिया गया और मथुरा का नाम बदल कर इस्लामाबाद कर दिया गया।  इसके बाद औरंगजेब ने गुजरात में सोमनाथ मंदिर का भी विध्वंश कर दिया।
4.  5 दिसम्बर 1671 औरंगजेब के शरीया को लागु करने के फरमान से गोवर्धन स्थित श्री नाथ जी की मूर्ति को पंडित लोग मेवाड़ राजस्थान के सिहाद गाँव ले गए जहाँ के राणा जी ने उन्हें आश्वासन दिया की औरंगजेब की इस मूर्ति तक पहुँचने से पहले एक लाख वीर राजपूत योद्धाओं को मरना पड़ेगा।
5. 25 मई 1679 को जोधपुर से लूटकर लाई गयी मूर्तियों के बारे में औरंगजेब ने हुकुम दिया की सोने-चाँदी-हीरे से सज्जित मूर्तियों को जिलालखाना में सुसज्जित कर दिया जाये और बाकि मूर्तियों को जमा मस्जिद की सीढियों में गाड़ दिया जाये।
 6. 23 दिसम्बर 1679 औरंगजेब के हुक्म से उदयपुर के महाराणा झील के किनारे बनाये गए मंदिरों को तोड़ा गया। महाराणा के महल के सामने बने जगन्नाथ के मंदिर को मुट्ठी भर वीर राजपूत सिपाहियों ने अपनी बहादुरी से बचा लिया।
 7. 22 फरवरी 1980 को औरंगजेब ने चित्तोड़ पर आक्रमण कर महाराणा कुम्भा द्वाराबनाएँ गए 63 मंदिरों को तोड़ डाला।
8. 1 जून 1681 औरंगजेब ने प्रसिद्द पूरी का जगन्नाथ मंदिर को तोड़ने का हुकुम दिया।
9. 13 अक्टूबर 1681 को बुरहानपुर में स्थित मंदिर को मस्जिद बनाने का हुकुमऔरंगजेब द्वारा दिया गया।
10. 13 सितम्बर 1682 को मथुरा के नन्द माधव मंदिर को तोड़ने का हुकुम औरंगजेब द्वारा दिया गया। इस प्रकार अनेक फरमान औरंगजेब द्वारा हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के लिए जारी किये गए।

हिन्दुओं पर औरंगजेब द्वारा अत्याचार करना


2 अप्रैल 1679 को औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया गया जिसका हिन्दुओं ने दिल्ली में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्वक विरोध किया परन्तु उसे बेरहमी से कुचल दिया गया।  इसके साथ-साथ मुसलमानों को करों में छूट दे दी गयी जिससे हिन्दू अपनी निर्धनता और कर न चूका पाने की दशा में इस्लाम ग्रहण कर ले। 16 अप्रैल 1667 को औरंगजेब ने दिवाली के अवसर पर आतिशबाजी चलाने से और त्यौहार बनाने से मना कर दिया गया। इसके बाद सभी सरकारी नौकरियों से हिन्दू क्रमचारियों को निकाल कर उनके स्थान पर मुस्लिम क्रमचारियों की भरती का फरमान भी जारी कर दिया गया।  हिन्दुओं को शीतला माता, पीर प्रभु आदि के मेलों में इकठ्ठा न होने का हुकुम दिया गया। हिन्दुओं को पालकी, हाथी, घोड़े की सवारी की मनाई कर दी गयी। कोई हिन्दू अगर इस्लाम ग्रहण करता तो उसे कानूनगो बनाया जाता और हिन्दू पुरुष को इस्लाम ग्रहण करनेपर 4 रुपये और हिन्दू स्त्री को 2 रुपये मुसलमान बनने के लिए दिए जाते थे। ऐसे न जाने कितने अत्याचार औरंगजेब ने हिन्दू जनता पर किये और आज उसी द्वारा जबरन मुस्लिम बनाये गए लोगों के वंशज उसका गुण गान करते नहीं थकते हैं।
हिन्दुओं के प्रबल शत्रु अत्याचारी औरंगज़ेब ने नाम से दिल्ली में सड़के होना निश्चित रूप से  शर्मनाक है।

टीपू सुल्तान के कारनामें-

इतिहास में टीपू सुल्तान को क्रान्तिकारी के रूप में चित्रित किया जाता हैं। सच्चाई क्या है जानने के लिए इन प्रमाणों को पढ़िए-

   1. डॉ गंगाधरन जी ब्रिटिश कमीशन कि रिपोर्ट के आधार पर लिखते है की ज़मोरियन राजा के परिवार के सदस्यों को और अनेक नायर हिन्दुओं को टीपू द्वारा जबरदस्ती सुन्नत कर मुसलमान बना दिया गया था और गौ मांस खाने के लिए मजबूर भी किया गया था।
2. ब्रिटिश कमीशन रिपोर्ट के आधार पर टीपू सुल्तान के मालाबार हमलों 1783-1791 के समय करीब 30,000  हिन्दू नम्बूदरी मालाबार में अपनी सारी धनदौलत और घर-बार छोड़कर त्रावनकोर राज्य में आकर बस गए थे।
3. इलान्कुलम कुंजन पिल्लई लिखते है की टीपू सुल्तान के मालाबार आक्रमण के समय कोझीकोड में 7000 ब्राह्मणों के घर थे जिसमे से 2000 को टीपू ने नष्ट कर दिया था और टीपू के अत्याचार से लोग अपने अपने घरों को छोड़ कर जंगलों में भाग गए थे।  टीपू ने औरतों और बच्चों तक को नहीं बक्शा था। जबरन धर्म परिवर्तन के कारण मापला मुसलमानों की संख्या में अत्यंत वृद्धि हुई जबकि हिन्दू जनसंख्या न्यून हो गई।
4.  विल्ल्यम लोगेन मालाबार मनुएल में टीपू द्वारा तोड़े गए हिन्दू मंदिरों काउल्लेख करते हैं जिनकी संख्या सैकड़ों में है।
5.  राजा वर्मा केरल में संस्कृत साहित्य का इतिहास में मंदिरों के टूटने का अत्यंत वीभत्स विवरण करते हुए लिखते हैं की हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों को तोड़कर व पशुओं के सर काटकर मंदिरों को अपवित्र किया जाता था।
6.  मसूर में भी टीपू के राज में हिन्दुओं की स्थिति कुछ अच्छी न थी। लेवईस रईस के अनुसार श्री रंगपटनम के किले में केवल दो हिन्दू मंदिरों में हिन्दुओं को दैनिक पूजा करने का अधिकार था बाकी सभी मंदिरों की संपत्ति जब्त कर ली गई थी। यहाँ तक की राज्य सञ्चालन में हिन्दू और मुसलमानों में भेदभाव किया जाता था।  मुसलमानों को कर में विशेष छुट थी और अगर कोई हिन्दू मुसलमान बन जाता था तो उसे भी छुट दे दी जाती थी। जहाँ तक सरकारी नौकरियों की बात थी हिन्दुओं को न के बराबर सरकारी नौकरी में रखा जाता था कूल मिलाकर राज्य में 65 सरकारी पदों में से एक ही प्रतिष्ठित हिन्दू था तो वो केवल और केवल पूर्णिया पंडित था।
7.  इतिहासकार ऍम. ए. गोपालन के अनुसार अनपढ़ और अशिक्षित मुसलमानों को आवश्यक पदों पर केवल मुसलमान होने के कारण नियुक्त किया गया था।
8. बिदुर,उत्तर कर्नाटक का शासक अयाज़ खान था जो पूर्व में कामरान नाम्बियार था, उसे हैदर अली ने इस्लाम में दीक्षित कर मुसलमान बनाया था।  टीपू सुल्तान अयाज़ खान को शुरू से पसंद नहीं करता था इसलिए उसने अयाज़ पर हमला करने का मन बना लिया। जब अयाज़ खान को इसका पता चला तो वह बम्बई भाग गया. टीपू बिद्नुर आया और वहाँ की सारी जनता को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर कर दिया था।  जो न बदले उन पर भयानक अत्याचार किये गए थे।  कुर्ग पर टीपू साक्षात् राक्षस बन कर टूटा था।  वह करीब 10,000 हिन्दुओं को इस्लाम में जबरदस्ती परिवर्तित किया गया।  कुर्ग के करीब 1000 हिन्दुओं को पकड़ कर श्री रंगपटनम के किले में बंद कर दिया गया जिन पर इस्लाम कबूल करने के लिए अत्याचार किया गया बाद में अंग्रेजों ने जब टीपू को मार डाला तब जाकर वे जेल से छुटे और फिर से हिन्दू बन गए। कुर्ग राज परिवार की एक कन्या को टीपू ने जबरन मुसलमान बना कर निकाह तक कर लिया था। ( सन्दर्भ पि.सी.न राजा केसरी वार्षिक 1964)
9. विलियम किर्कपत्रिक ने 1811 में टीपू सुल्तान के पत्रों को प्रकाशित किया था जो उसने विभिन्न व्यक्तियों को अपने राज्यकाल में लिखे थे। जनवरी 19,1790 में जुमन खान को टीपू पत्र में लिखता हैं की मालाबार में 4 लाख हिन्दुओं  को इस्लाम में शामिल किया है।  अब मैंने त्रावणकोर के राजा पर हमला कर उसे भी इस्लाम में शामिल करने का निश्चय किया हैं। जनवरी 18,1790 में सैयद अब्दुल दुलाई को टीपू पत्र में लिखता है की अल्लाह की रहमत से कालिक्ट के सभी हिन्दुओं को इस्लाम में शामिल कर लिया गया है, कुछ हिन्दू कोचीन भाग गए हैं उन्हें भी कर लिया जायेगा। इस प्रकार टीपू के पत्र टीपू को एक जिहादी गिद्ध से अधिक कुछ भी सिद्ध नहीं करते।
10. मुस्लिम इतिहासकार पि. स. सैयद मुहम्मद केरला मुस्लिम चरित्रम में लिखते हैं की टीपू का केरल पर आक्रमण हमें भारत पर आक्रमण करने वाले चंगेज़ खान और तिमूर लंग की याद दिलाता हैं।
         इस लेख में अकबर, औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान के अत्याचारों का संक्षेप में विवरण दिया गया हैं। अगर सत्य इतिहास का विवरण करने लग जाये तो हिन्दुओं पर किये गए अत्याचारों का बखान करते करते एक पूरा ग्रन्थ ही बन जायेगा। यह लेख पढ़कर शायद ही कोई हिन्दू युवा होगा जो यह नहीं मानेगा कि हिन्दुओं के साथ निश्चित रूप से अन्याय हो रहा है। आप कब तक यह अत्याचार सहते रहेंगे?

डॉ विवेक आर्य

Tuesday, May 12, 2015

सिक्के के दो पहलु



सिक्के के दो पहलु

रतलाम जिले के एक हेलमेट पहने दूल्हे की तस्वीर कल से इंटरनेट पर प्रसारित हो रही है। दूल्हा दलित समुदाय से सम्बंधित है एवं उसने हेलमेट इसलिए पहना है क्यूंकि उस गांव के सवर्ण लोगों द्वारा दलित समाज से सम्बंधित व्यक्ति द्वारा घोड़ी की सवारी करने पर आपत्ति है। दलित भाई इसे सवर्णों द्वारा दलितों पर अत्याचार के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। इस घटना को विभिन्न दलित संस्थाओं द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं से लेकर इंटरनेट पर व्यापक रूप से यह दिखाने के लिए प्रचारित किया जा रहा हैं कि सम्पूर्ण स्वर्ण हिन्दू समाज अत्याचारी हैं। निश्चित रूप से यह अत्याचार है और हम इसकी निंदा करते है मगर इस घटना का सहारा लेकर जो स्वर्ण और दलितों के मध्य वैमनस्य पैदा किया जा रहा हैं वह एक देश घातक सोची समझी साजिश हैं। ध्यान से देखने पर मालूम चलता हैं कि दलित मुखपत्रों के चलाने वाले अथवा दिशा निर्देश देने वाले मुख्य रूप से ईसाई अथवा मुस्लिम होते हैं जो समाज सेवा कि आड़ में विदेशी धन के बल पर हिन्दू समाज को तोड़ने का कार्य करते हैं। आज के समय में 90% से अधिक हिन्दू समाज जातिवाद को नहीं मानता। केवल 10% अज्ञानता के चलते जातिवाद को मानते हैं जिसका उनर्मूलन आवश्यक है। मगर उन 10% के कुकृत्य को बाकि 90% पर थोपना सरासर गलत हैं। इस घटना के विरोध से दूरियाँ घटने के स्थान पर बढ़ेगी इसमें कोई दो राय नहीं है। तो इसका समाधान क्या है? इसका समाधान है ऐसी घटनाओं को जोर शोर से प्रचारित करना जिसमें स्वर्ण और दलित के मध्य दूरियां कम करने का प्रयास किया गया था और उसमें आंशिक ही सही मगर सफलता अवश्य मिली। आप बुराई के स्थान पर अच्छाई वाले दृष्टान्तों को प्रचारित कर भी सामाजिक सन्देश दे सकते हैं जिससे सकारात्मक माहौल बने और वैमनस्य न बढ़े। इस लेख के माध्यम से हम कुछ घटनाओं को यहाँ लिखते है -

सोमनाथ जी की माता का अमर बलिदान

 आर्यसमाज के इतिहास में अनेक प्रेरणादायक संस्मरण हैं जो अमर गाथा के रूप में सदा सदा के लिए प्रेरणा देते रहेंगे। एक ऐसी ही गाथा रोपड़ के लाला सोमनाथ जी की हैं। आप रोपड़ आर्यसमाज के प्रधान थे। आपके मार्गदर्शन में रोपड़ आर्यसमाज ने रहतियों की शुद्धि की थी। यूँ तो रहतियों का सम्बन्ध सिख समाज से था मगर उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता था। आपके शुद्धि करने पर रोपड़ के पौराणिक समाज ने आर्यसमाज के सभी परिवारों का बहिष्कार कर दिया एवं रोपड़ के सभी कुओं से आर्यसमाजियों को पानी भरने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आखिर में नहर के गंदे पानी को पीने से अनेक आर्यों को पेट के रोग हो गए जिनमें से एक सोमनाथ जी की माता जी भी थी। उन्हें आन्त्रज्वर (Typhoid) हो गया था। वैद्य जी के अनुसार ऐसा गन्दा पानी पीने से हुआ था। सोमनाथ जी के समक्ष अब एक रास्ता तो क्षमा मांगकर समझोता करने का था और दूसरा रास्ता सब कुछ सहते हुए परिवार की बलि देने का था। आपको चिंताग्रस्त देखकर आपकी माताजी जी आपको समझाया की एक न एक दिन तो उनकी मृत्यु निश्चित हैं फिर उनके लिए अपने धर्म का परित्याग करना गलत होगा। इसलिए धर्म का पालन करने में ही भलाई है। सोमनाथ जी माता का आदेश पाकर चिंता से मुक्त हो गए एवं और अधिक उत्साह से कार्य करने लगे। उधर माता जी रोग से स्वर्ग सिधार गई तब भी विरोधियों के दिल नहीं पिघले। विरोध दिनों दिन बढ़ता ही गया। इस विरोध के पीछे गोपीनाथ पंडित का हाथ था। वह पीछे से पौराणिक हिन्दुओं को भड़का रहा था। सनातन धर्म गजट में गोपीनाथ ने अक्टूबर 1900 के अंक में आर्यों के खिलाफ ऐसा भड़काया की आर्यों के बच्चे तक प्यास से तड़पने लगे थे। सख्त से सख्त तकलीफें आर्यों को दी गई। लाला सोमनाथ को अपना परिवार रोपड़ लेकर से जालंधर लेकर जाना पड़ा। जब शांति की कोई आशा न दिखी दी तो महाशय इंदरमन आर्य लाल सिंह (जिन्हें शुद्ध किया गया था) और लाला सोमनाथ स्वामी श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम जी) से मिले और सनातन गजट के विरुद्ध फौजदारी मुकदमा करने के विषय में उनसे राय मांगी। मुंशीराम जी उस काल तक अदालत में धार्मिक मामलों को लेकर जाने के विरुद्ध थे। कोई और उपाय न देख अंत में मुकदमा दायर हुआ जिस पर सनातन धर्म गजट ने 15 मार्च 1901 के अंक में आर्यसमाज के विरुद्ध लिखा "हम रोपड़ी आर्यसमाज का इस छेड़खानी के आगाज़ के लिए धन्यवाद अदा करते हैं की उन्होंने हमें विधिवत अदालत के द्वारा ऐलानिया जालंधर में हमें निमंत्रण दिया हैं। जिसको मंजूर करना हमारा कर्तव्य है। "


3 सितम्बर 1901 को मुकदमा सोमनाथ बनाम सीताराम रोपड़ निवासी" का फैसला भी आ गया। सीताराम अपराधी ने बड़े जज से माफ़ी मांगी। उसने अदालत में माफीनामा पेश किया। "मुझ सीताराम ने लाला सोमनाथ प्रधान आर्यसमाज रोपड़ के खिलाफ छपवाई थी, मुझे ऐसा अफ़सोस से लिखना है की इसमें आर्यों की तोहीन के खिलाफ बातें दर्ज हो गई थी। जिससे उनको सख्त नुकसान पहुंचा। इस कारण मैं बड़े अदब (शिष्टाचार) से मांफी मांगता हूँ। मैं लाला साहब के सुशील हालत के लिहाज से ऐसी ही इज्जत करता हूँ जैसा की इस चिट्ठी के छपवाने से पूर्व करता था। मैं उन्हें बरादारी से ख़ारिज नहीं समझता, उनके अधिकार साधारण व्यक्तियों सहित वैसे ही समझता हूँ जोकि पहिले थे। मुझे आर्य लोगों से कोई झगड़ा नहीं हैं। साधारण लोगों को सूचना के वास्ते यह माफीनामा अख़बार सत्यधर्म प्रचारक और अख़बार पंजाब समाचार लाहौर में और जैन धर्म शरादक लाहौर में प्रकाशित कराता हूँ। "

इस प्रकार से अनेक संकट सहते हुए आर्यों ने दलितोद्धार एवं शुद्धि के कार्य को किया था। मौखिक उपदेश देने में और जमीनी स्तर पर पुरुषार्थ करने में कितना अंतर होता हैं इसका यह यथार्थ उदहारण हैं। सोमनाथ जी की माता जी का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हैं। सबसे प्रेरणादायक तथ्य यह हैं की किसी स्वर्ण ने अछूतों के लिए अपने प्राण न्योछावर किये हो ऐसे उदहारण केवल आर्यसमाज के इतिहास में ही मिलते है।


नारायण स्वामी जी और दलितोद्धार

आर्यसमाज के महान नेता महात्मा नारायण स्वामी जी का जीवन आज हमारे लिए कदम कदम पर आर्य बनने की प्रेरणा दे रहा हैं। स्वामी जी की कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था। उनके जीवन के अनेक प्रसंगों में से दलितोद्धार से सम्बंधित दो प्रसंगों का पाठकों के लाभार्थ वर्णन करना चाहता हूँ। नारायण स्वामी जी तब मुरादाबाद आर्यसमाज के प्रमुख कर्णधार थे। आर्यसमाज में ईसाई एवं मुस्लमान भाइयों की अनेक शुद्धियाँ उनके प्रयासों से हुई थी जिसके कारण मुरादाबाद का आर्यसमाज प्रसिद्द हो गया। मंसूरी से डॉ हुकुम सिंह एक ईसाई व्यक्ति की शुद्धि के लिए उसे मुरादाबाद लाये। उनका पूर्व नाम श्री राम था व वह पहले सारस्वत ब्राह्मण थे। ईसाईयों द्वारा बहला-फुसला कर किसी प्रकार से ईसाई बना लिए गए थे। आपकी शुद्धि करना हिन्दू समाज से पंगा लेने के समान था। मामला नारायण स्वामी जी के समक्ष प्रस्तुत हुआ। अपने अंतरंग में निर्णय लिया की नाम मात्र की शुद्धि का कोई लाभ नहीं हैं। शुद्धि करके उसके हाथ से पानी पीने का नम्र प्रस्ताव रखा गया जो स्वीकृत हो गया। यह खबर पूरे मुरादाबाद में आग के समान फैल गई। शुद्धि वाले दिन अनेक लोग देखने के लिए जमा हो गए। शुद्धि कार्यकर्म सम्पन्न हुआ एवं शुद्ध हुए व्यक्ति के हाथों से आर्यों द्वारा जल ग्रहण किया गया। अब घोर विरोध के दिन आरम्भ हो गए। "निकालो इन आर्यों को जात से", "कोई कहार इनको पानी न दे", "कोई मेहतर इनके घर की सफाई न करे", "कोई इन्हें कुँए से पानी न भरने दे" ऐसे ऐसे अपशब्दों से आर्यों का सम्मान किया जाने लगा। बात कलेक्टर महोदय तक पहुँच गई। उन्होंने मुंशी जी को बुलाकर उनसे परामर्श किया। मुंशी जी ने सब सत्य बयान कर दिया तो कलेक्टर महोदय ने कहा की आर्य लोग इसकी शिकायत क्यों नहीं करते। मुंशी जी ने उत्तर दिया। "हम लोग स्वामी दयानंद के अनुयायी हैं। एक बार ऋषि को किसी ने विष दिया था। कोतवाल उसे पकड़ लाया। ऋषि ने कहा इसे छोड़ दीजिये। मैं लोगों को कैद करने नहीं अपितु कैद से मुक्त कराने आया हूँ। ये लोग मूर्खतावश आर्यों का विरोध करते हैं। इन्हें ज्ञान हो जायेगा तो स्वयं छोड़ देंगे। " अंत में कोलाहल शांत हो गया और आर्य अपने मिशन में सफल रहे।

कुआँ नापाक हो गया-

एक अन्य प्रेरणादायक घटना नारायण स्वामी जी के वृन्दावन गुरुकुल प्रवास से सम्बंधित हैं। गुरुकुल की भूमि में गुरुकुल का स्वत्व में एक कुआँ था। उस काल में एक ऐसी प्रथा थी कुओं से मुस्लमान भिश्ती तो पानी भर सकते थे मगर चमारों को पानी भरने की मनाही थी। मुस्लमान भिश्ती चाहते तो पानी चमारों को दे सकते थे। कुल मिलाकर चमारों को पानी मुस्लमान भिश्तीयों की कृपा से मिलता था। जब नारायण स्वामी जी ने यह अत्याचार देखा तो उन्होंने चमारों को स्वयं से पानी भरने के लिए प्रेरित किया। चमारों ने स्वयं से पानी भरना आरम्भ किया तो उससे कोलाहल मच गया। मुस्लमान आकर स्वामी जी से बोले की कुआँ नापाक हो गया हैं क्यूंकि जिस प्रकार बहुत से हिन्दू हम को कुँए से पानी नहीं भरने देते उसी प्रकार हम भी इन अछूतों को कुँए पर चढ़ने नहीं देंगे। स्वामी जी ने शांति से उत्तर दिया "कुआँ हमारा हैं। हम किसी से घृणा नहीं करते। हमारे लिए तुम सब एक हो। हम किसी मुस्लमान को अपने कुँए से नहीं रोकते। तुम हमारे सभी कुओं से पानी भर सकते हो। जैसे हम तुमसे घृणा नहीं कर्ट, हम चाहते हैं की तुम भी चमारों से घृणा न करो।" इस प्रकार से एक अनुचित प्रथा का अंत हो गया। आर्यसमाज के इतिहास में अनेक मूल्यवान घटनाएँ हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी।

(साभार-श्री नारायण स्वामी जी महाराज का जीवन चरित्र। लेखक पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय, विश्वप्रकाश जी। )

 मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नहीं है।

अपनी खेती कि देखभाल करके घर लौट रहे हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और कर्णधार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को रास्ते में सहसा किसी के चिल्लाने की ध्वनि सुनाई दी। शीघ्र जाकर देखा कि एक स्त्री को साँप ने काट लिया है।  त्वारित्बुद्धि आचार्य को लगा कि यहाँ ऐसा कोई साधन नही है जिससे सर्प-विष को फैलने से रोका जाये। इसलिये उन्होंने फौरन यज्ञोपवीत (जनेऊ) तोड़ कर सर्प-दंश के ऊपरी हिस्से में मजबूती से बांध दिया।  फिर सर्प-दंश को चाकू से चीरकर विषाक्त रक्त को बलात् बहार निकाल दिया।  उस स्त्री की प्राण-रक्षा हो गयी।  इस बीच गाँव के बहुत से लोग इकट्ठे हो गये।  वो स्त्री अछूत थी। इसलिये गाँव के पण्डितो ने नाराज़गी प्रकट करते हुए कहा “जनेऊ जैसी पवित्र वस्तु का इस्तेमाल इस औरत के लिये करके आपने धर्म कि लूटिया डुबो दी। हाय ! गज़ब कर दिया। " विवेकी आचार्य ने कहा ‘अब तक नही मालूम तो अब से जान लीजिये, मनुष्य और मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नही होता| मैंने अपनी ओर से सबसे बड़े धर्म का पालन किया है।

रिश्तों से बड़ा दलितोद्धार

प्रोफेसर शेर सिंह पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार के पिता अपने क्षेत्र के प्रसिद्द जागीरदार थे। दलितों से छुआछूत का भेदभाव मिटाने के लिए उन्होंने अपने खेतों में बने कुएँ दलितों के लिए पानी भरने हेतु स्वीकृत कर दिए। प्रोफेसर शेर सिंह उस समय विद्यालय में पड़ते थे मगर उस काल की प्रथा अनुसार उनका विवाह सुनिश्चित हो चूका था। जब समधी पक्ष ने शेर सिंह जी के पिता के निर्णय को सुना तो उन्होंने सन्देश भेजा की या तो दलितों के लिए कुँए से पानी भरने पर पाबन्दी लगा दे अन्यथा इस रिश्ते को समाप्त समझे। शेर सिंह जी के पिता ने रिश्तों को दलितोद्धार के सामने तुच्छ समझा और रिश्ता तोड़ना मंजूर किया मगर दलितों के साथ न्याय किया। जब आर्यसमाज के मूर्धन्य विद्वान पंडित बुद्धदेव जी वेदालंकार को यह जानकारी मिली तो वे शेर सिंह जी के पिता से मिलने गए एवं उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी निगाह में एक आर्य कन्या है जिनसे शेर सिंह जी का विवाह होगा। कालांतर में उन्होंने अपनी कन्या का विवाह जाति-बंधन तोड़कर शेर सिंह जी के साथ किया। शेर सिंह जी जाट बिरादरी से थे जबकि बुद्धदेव जी की ब्राह्मण समाज से सम्बंधित थे।

 इस प्रकार के अनेक प्रसंग महाशय रामचन्द्र जी जम्मू, वीर मेघराज जी इन्दोर, लाला लाजपत राय जी गढ़वाल,  लाला गंगाराम जी स्यालकोट, पंडित देवप्रकाश जी मध्य प्रदेश, मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी बरोडा, वीर सावरकर जी रत्नागिरी, स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली, पंडित रामचन्द्र देहलवी दिल्ली आदि के जीवन में मिलते हैं जिनके प्रचार प्रसार से जातिवाद उनर्मूलन की प्रेरणा मिलती हैं। यही इस सिक्के के दो पहलु हैं की दलितोद्धार के लिए दलितों पर अत्याचार के स्थान पर भेदभाव मिटाने वाली घटनाओं को प्रचारित किया जाना चाहिए।

डॉ विवेक आर्य 

Tuesday, May 5, 2015

वर्ण व्यवस्था एवं महात्मा बुद्ध



बौद्ध मत के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध के बारे में यह माना जाता है कि वह आर्य मत वा वैदिक धर्म के आलोचक थे एवं बौद्ध मत के प्रवर्तक थे। उन्हें वेद विरोधी और नास्तिक भी चित्रित किया जाता है। हमारा अध्ययन यह कहता है कि वह वेदों को मानते थे तथा ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व में उसी प्रकार से विश्वास रखते थे जिस प्रकार की कोई वेदों का अनुयायी रखता है। उपलब्ध प्रमाण यह भी इंगित करते हैं कि वह वैदिक धर्म के सुधारक होने से आर्यत्व को धारण किए थे। इस लेख में आर्य जगत के उच्च कोटि के विद्वान पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड की पुस्तक बौद्धमतऔर वैदिक धर्म” के आधार पर हम प्रकाश डाल रहे हैं जिससे महात्मा बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित सत्य पक्ष सामने आ सके। इस लेख की सामग्री उन्हीं की पुस्तक से साभार ली गई है। यह सर्वविदित है कि वेद और वैदिक धर्म गुण, कर्म व स्वभावानुसार वर्णाश्रम व्यवस्था को मानते हंै। गुण-कम-स्वभावानुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र हैं। इन चारों वर्णों का स्वरूप महाभारत काल के बाद विकृत होकर इसका स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया। इतना ही नहीं, स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित कर इन समाज के प्रमुख अंगों को वेद के सुनने तक पर अमानवीय यातनायें देने का विधान हमें प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत काल के बाद पूर्णतः अहिंसक यज्ञों में भी पशुओं की हिंसा की जाने लगी। अतः असत्य व मिथ्या कर्मकाण्ड का विरोध तो किसी न किसी ने अवश्य ही करना था। बहुत से तत्कालीन ब्राह्मणों ने भी विरोध किया ही होगा परन्तु उनका समाज पर प्रभाव इतना नहीं था कि वह इतिहास में सुरक्षित रखा जाता। इसी कारण इतिहास में ऐसे प्रयासों का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। आईये, इस स्थिति पर श्री धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी के विचार जान लेते हैं।
पं. धर्मदेव जी लिखते हैं कि पक्षपातरहित दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध के समय में अनेक सामाजिक और धार्मिक विकार उत्पन्न हो गये थे, लोग सदाचार, आन्तरिक शुद्धि, ब्रह्मचर्यादि की उपेक्षा करके केवल बाह्य कर्मकाण्ड व क्रिया-कलाप पर ही बल देते थे। अनेक देवी देवताओं की पूजा प्रचलित थी तथा उन देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये लोग यज्ञों में भेड़ों और बकरियों, घोड़ों की ही नहीं, गौओं की भी बलि चढ़ाते थे। वर्णव्यवस्था को जन्मानुसार माना जाता था और जाति भेद उच्चनीच भावना को उत्पन्न करके भयंकर रूपधारण कर रहा था। उच्चकुल में जन्म के अभिमान से लोग अपने को उच्च समझते और अन्यों को विशेषतः शूद्रों को अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखते थे। बहुत से लोगों को अस्पृश्य भी समझा जाता था। ये उच्चकुलाभिमानी अपने अन्दर ब्राह्मणोचित गुणों को धारण करने का कुछ भी प्रयत्न न करते थे और वस्तुतः उनमें से बहुतों का जीवन बड़ा पतित और अधोगामी था तथापि अन्यों को हीन दृष्टि से देखते हुए उन्हें लज्जा न आती थी। पवित्र जीवन निर्माण की ओर ध्यान न देते हुए भी वे शुष्क दार्शनिक चर्चा में अपना समय अवश्य नष्ट करते थे और बौद्ध ग्रन्थों तथाब्रह्मजाल सुत्त आदि में जो उनके दार्शनिक विचारों का वर्णन पाया जाता है उनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे प्राचीन ऋषियों के शुद्ध विचारों सेबहुत दूर जा चुके थे तथा भाग्यवादीअकर्मण्यतावादीभौतिकवादीनित्यपदार्थवादी तथा अक्रियावादी बने हुए पापपुण्यकर्म नियमसदाचारआदि की कोई परवाह  करते थे। उदाहरणार्थ अजित केशकम्बल नामक एक प्रसिद्ध दार्शनिक, महात्मा बुद्ध का समकालीन था जिस का मत यह था कि–दान-यज्ञ-हवन यह सब व्यर्थ हैं, सुकृत दुष्कृत कर्मों का फल नहीं मिलता। यह लोक-परलोक नहीं। दान करो यह मूर्खों का उपदेश है। जो कोई आस्तिकवाद की बात करते हैं वह उनका तुच्छ (थोथा) झूठ है। मूर्ख हों चाहे पण्डित, शरीर छोड़ने पर सभी उच्छिन्न हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं मरने के बाद कुछ नहीं रहता। ऐसी ही विचारों वाले अनेक विचारक और दार्शनिक उन दिनों में हुए।
वेदों में जन्मना जाति व्यवस्था व मनुष्यों में जाति भेद का कहीं किंचित वर्णन नहीं है। वैदिक धर्म में वर्णव्यवस्था को गुण-कर्म-स्वभावानुसार बताया गया है। अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावधुः सौभगाय। युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुधा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः” (ऋग्वेद5/60/5) इत्यादि वेद-मन्त्रों में यही स्पष्ट उपदेश है कि सब मुनष्य परस्पर भाई हैं। जन्म के कारण कोई बड़ा व छोटा, ऊंचा या नीचा नहीं है। परमेश्वर सबका एक पिता और प्रकृति व भूमि सबकी एक माता है। ऐसा मानकर आचरण करने से ही सबको सौभाग्य की प्राप्त होती है और वृद्धि होती है। वेदों में ब्राह्मण क्षत्रियादि शब्द यौगिक और गुणवाचक हैं। जो ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर और वेद को जानता है और उनका प्रचार करता है,वह ब्राह्मण है। क्षत व आपत्ति से समाज और देश की रक्षा करने वाले क्षत्रिय, व्यापारादि के लिये एक देश से दूसरे देश में प्रवेश करनेवाले वैश्य और शुआशु द्रवति अथवा शुचा द्रवति’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार सेवार्थ इधर-उधर दौड़नेवाले और उच्च ज्ञानरहित होने के कारण शोक करने वाले शूद्र कहलाते हैं। उपह्वहे  गिरीणांसंगमे  नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत।।‘ (यजुर्वेद 26/15) आदि वेद मन्त्रों में यही बतलाया गया है कि पर्वतों की उपत्यकाओंनदियों के संगम इत्यादि रमणीक प्रदेशों में रहकर विद्याध्ययन करने और (धियाउत्तम बुद्धि तथा अति श्रेष्ठ कर्म सेमनुष्य ब्राह्मण बन जाते हैं। अथर्ववेद मन्त्र 19.62.1 ‘प्रियं मा कृणुदेवेषु प्रियं राजसु मा कृणु। प्रियं सर्वस्य पश्यतउत शूद्र उतार्ये।‘ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र सबके साथ प्रेम करके सबके प्रेम पात्र बनने का उपदेश है। वेदों की इस प्रकार की अनेक सौहार्दपूर्ण शिक्षाओं को महात्मा बुद्ध जी के जीवनकाल में वैदिक धर्मी ब्राह्मणों ने भुला दिया गया था।
बौद्ध साहित्य के ग्रन्थ सुत्त निपात वसिट्ठ सुत्त’ में वर्णन है कि वसिट्ठ (वसिष्ठ) और भारद्वाज नामक दो ब्राह्मणों का जातिभेद विषय में परस्पर विवाद हुआ। उस विवाद का विषय वसिष्ठ ने महात्मा बुद्ध को इस प्रकार बताया कि भारद्वाज कहता है कि ब्राह्मण जन्म से होता है और मैं कहता हूं कि वह कर्म से होता है। इस पर उन्होंने महात्मा बुद्ध से व्यवस्था मांगी। वसिष्ठ ने कहा कि आप ज्ञान की दृष्टि से सम्पन्न हैं, अतः आपसे हम पूछते हैं कि ब्राह्मण जन्म से होता है वा कर्म से। इस पर महात्मा बुद्ध ने यह बताते हुए कि—जीव जन्तुओं में एक दूसरे से बहुतसीविभिन्नताएं और विचित्रताएं पाई जाती हैं और उनमें श्रेणियां भी अनेक हैं। इसी प्रकार वृक्षों और फलों में भी विविध प्रकार के भेदप्रभेद देखने मेंआते हैंउनकी जातियां भी कई प्रकार की हैं। देखो सांप कितनी जातियों के हैंजलचरों और नभचरों के भी असंख्य स्थिर भेद है जिनसे उनकीजातियां लोक में भिन्नभिन्न मानी जाती हैं।’  उन्होंने कहायथा एतेसुजासीसुलिंग जातिमयं पुथु। एवं नात्थि मनुस्सेसुलिंग जातिमयंपुथु।।  केसेहि  सीसेन कन्नेहि नाक्खिहि।  मुखेन  नासाया  ओट्ठेहि भमूहि वा।।  जिह्वाया  अंसेहि उदरेन  पिट्ठिया। सोणिया  उरसा सम्बाधे  मेथुने।। लिंग जातिमयं नेवयथा अन्नेसु जातिषु।। (सुत्त निपात श्लोक 607-610)।‘ इन श्लोकों में महात्मा बुद्ध द्वारा कहा गया है कि मनुष्यों के शरीर में तो ऐसा कोई भी पृथक् चिन्ह (लिंग भेदक चिन्हकहीं देखने में नहीं आता। उनके केशसिरकान,आंखमुखनाकगर्दनकन्धापेटपीठहथेलीपैरनाखून आदि अंगों में कहां हैं ऐसी विभिन्नताएं? जो मनुष्य गाय चराता है उसे हम चरवाहा कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। जो व्यापार करता है वह व्यापारी ही कहलाएगा और शिल्प करनेवाले को हम शिल्पी ही कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। दूसरों की परिचर्या करके जो अपनी जीविका चलाता है वह परिचर ही कहा जाएगा, ब्राह्मण नहीं। अस्त्रों-शस्त्रों से अपना निर्वाह करनेवाला मनुष्य सैनिक ही कहा जाएगा ब्राह्मण नहीं। अपने कर्म से कोई किसान है तो कोई शिल्पकार, कोई व्यापारी है तो कोई अनुचर। कर्म पर ही जगत् स्थित है। सुत्त निपात के 650 वें श्लोक  जच्चा ब्राह्मणो होति जच्चा होति अब्राह्मणो। कम्म्ना ब्राह्मणो होतिकम्मना होति अब्राह्मणो।।‘ मेंमहात्मा बुद्ध कहते है कि  जन्म से कोई ब्राह्मण होता है जन्म से अब्राह्मण। कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है और कर्म से अब्राह्मण। इसी बौद्ध ग्रन्थ के अन्य श्लोकों में महात्मा बुद्ध व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि मैं ब्राह्मण कुल में उत्पन्न  बाह्मणी माता से उत्पन्न को ब्राह्मणनहीं कहता। वह तो अहंकारी होता है। जो त्यागी है मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं। जो दूसरों की दी हुई गालियों और हिंसा को अदुष्टभाव से सहन करताहैक्षमा ही जिसका बल है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो क्रोध रहित हैव्रतधारी हैशील (सदाचारसम्पन्न हैजितेन्द्रिय और मन को जीतनेवालाहैउसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो जल में कमल की तरह कामों में निर्लेप रहता हैमैं उसे ब्राह्मण कहता हूं। जो गम्भीर बुद्धिवालामेधा सम्पन्न,मार्गअमार्ग  कर्तव्याकर्तव्य जानने में निपुण है। जो अत्यन्त उत्तम अवस्था को प्राप्त हुआ हैमैं उसको ब्राह्मण कहता हूं। तपब्रह्मचर्य (वेदऔर ईश्वर का ज्ञान), संयम और दम (इन्द्रिय और मन को वश में रखनाइनसे मनुष्य ब्राह्मण बनता है और यही उत्तम ब्राह्मणत्व है। धम्मपदके ब्राह्मण वग्ग में महात्मा बुद्ध जी ने जो उपदेश किया है कि  जटा से गोत्र से जन्म से ब्राह्मण होता हैजिसमें सत्य और धर्म है वहीशुचि (पवित्रहै और वही ब्राह्मण है। इस प्रकार अनेक वेदानुकूल सारगर्भित वर्णन बौद्ध साहित्य में अन्यत्र भी उपलब्ध है।
ब्राह्मण वर्ण का उपर्युक्त लक्षण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह सभी लक्षण जन्मना ब्राह्मण सन्तानों में नहीं घटते, अतः उनका स्वयं को ब्राह्मण मानना व कहना महात्मा बुद्ध जी शिक्षाओं के विपरीत है। महात्मा बुद्ध जी की इन शिक्षाओं व विचारों से उन लोगों के मत का पूर्णतया खण्डन हो जाता है जो यह मानते हैं कि महात्मा बुद्ध ने ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग बौद्ध भिक्षु के लिए ही किया और उनके अनुसार ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन आदि की आवश्यकता नहीं है। यहां वेदाध्ययन से सम्पन्न ब्राह्मणों के लिए वेदान्त पारग, ब्रह्मवादी आदि शब्दों का प्रयोग है। महात्मा बुद्ध केवर्णाश्रम धर्म विषयक उपर्युक्त उपदेश उन्हें वैदिक धर्म का सच्चा अनुगामी ही सिद्ध करते हैं। इससे यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि महात्माबुद्ध वेद  वर्णाश्रम धर्म के विरोधी नहीं अपितु वह महर्षि दयानन्द से कुछ समानता रखने वाले आर्य सुधारक थे। यह बात अलग है कि बाद में उनके अनुयायियों ने उनकी शिक्षाओं को भली प्रकार से न समझकर व स्वार्थवश उसके विपरीत व्यवहार किया हो।
मनमोहन कुमार आर्य