Thursday, April 30, 2015

वेदों में विज्ञान



वेदों में विज्ञान

वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। आर्यसमाज के इन नियमों के माध्यम से स्वामी दयानंद न केवल वेदों को सब सत्य विद्या का कोष होने का सन्देश देते है अपितु उसे परमेश्वर द्वारा प्रदत भी मानते है। स्वामी जी अनुसार वेदों में मानव कल्याण के लिए विज्ञान बीजरूप में वर्णित है। वेदों में विज्ञान के अनेक प्रारूपों में से एक खगोल विद्या को इस लेख के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे। विश्व इतिहास में सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा आदि को लेकर अनेक मतमतांतर में अनेक भ्रांतियां प्रसिद्द हैं जो न केवल विज्ञान विरूद्ध है अपितु कल्पित भी है जैसे पृथ्वी चपटी है, सूर्य का पृथ्वी के चारों ओर घूमना, सूरज का कीचड़ में डूब जाना, चाँद के दो टुकड़े होना, पृथ्वी का शेषनाग के सर पर अथवा बैल के सींग पर अटका होना आदि। इन मान्यताओं की समीक्षा के स्थान पर वेद वर्णित खगोल विद्या को लिखना इस लेख का मुख्य उद्देश्य रहेगा।

वेदों में विश्व को तीन भागों में विभाजित किया गया हैं- पृथ्वी, अंतरिक्ष (आकाश) एवं धयो। आकाश  का सम्बन्ध बादल, विद्युत और वायु से हैं, धुलोक का सम्बन्ध सूर्य, चन्द्रमा,गृह और तारों से हैं। 

पृथ्वी गोल है

ऋग्वेद 1/33/8 में पृथ्वी को आलंकारिक भाषा में गोल बताया गया है। इस मंत्र में सूर्य पृथ्वी को चारों ओर से अपनी किरणों द्वारा घेरकर सुख का संपादन (जीवन प्रदान) करने वाला बताया गया है। पृथ्वी अगर गोल होगी तभी उसे चारों और से सूर्य प्रकाश डाल सकता है। 

अब कुछ लोग यह शंका कर सकते है कि पृथ्वी अगर चतुर्भुज होगी तो भी तो उसे चारों दिशा से सूर्य प्रकाशित कर सकता है।

इस शंका का समाधान यजुर्वेद 23/61-62 मंत्र में वेदों पृथ्वी को अलंकारिक भाषा में गोल सिद्ध करते है।

यजुर्वेद 23/61 में लिखा है कि इस पृथ्वी का अंत क्या है? इस भुवन का मध्य क्या है? यजुर्वेद 23/62 में इसका उत्तर इस प्रकार से लिखा है कि यह यज्ञवेदी ही पृथ्वी की अंतिम सीमा है। यह यज्ञ ही भुवन का मध्य है। अर्थात जहाँ खड़े हो वही पृथ्वी का अंत है तथा यही स्थान भुवन का मध्य है। किसी भी गोल पदार्थ का प्रत्येक बिंदु (स्थान) ही उसका अंत होता है और वही उसका मध्य होता है। पृथ्वी और भुवन दोनों गोल हैं।

ऋग्वेद 10/22/14 मंत्र में भी पृथ्वी को बिना हाथ-पैर वाला कहा गया है। बिना हाथ पैर का अलंकारिक अर्थ गोल ही बनता है। इसी प्रकार से ऋग्वेद 1/185/2 में भी अंतरिक्ष और पृथ्वी को बिना पैर वाला कहा गया है।


पृथ्वी के भ्रमण का प्रमाण

पृथ्वी को गोल सिद्ध करने के पश्चात प्रश्न यह है कि पृथ्वी स्थिर है अथवा गतिवान है। वेद पृथ्वी को सदा गतिवान मानते है।
ऋग्वेद 1/185/1 मंत्र में प्रश्न-उत्तर शैली में प्रश्न पूछा गया है कि पृथ्वी और धुलोक में कौन आगे हैं और कौन पीछे हैं अथवा कौन ऊपर हैं और कौन नीचे हैं? उत्तर में कहा गया कि जैसे दिन के पश्चात रात्रि और रात्रि के पश्चात दिन आता ही रहता है, जैसे रथ का चक्र ऊपर नीचे होता रहता है वैसे ही धु और पृथ्वी एक दूसरे के ऊपर नीचे हो रहे हैं अर्थात पृथ्वी सदा गतिमान है।
अथर्ववेद 12/1/52 में लिखा है वार्षिक गति से (वर्ष भर) पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्र काटकर लौट आती है।


पृथ्वी आदि गृह सूर्य के आकर्षण से बंधे हुए हैं


ऋग्वेद 10/149/1 मंत्र का देवता सविता है। यहाँ पर ईश्वर द्वारा पृथ्वी आदि ग्रहों को निराधार आकाश में आकर्षण से बांधना लिखा है।

ऋग्वेद 1/35/2 मंत्र में ईश्वर द्वारा अपनी आकर्षण शक्ति से सूर्य, पृथ्वी आदि लोकों को धारण करना लिखा है।

ऋग्वेद 1/35/9 मंत्र में सूर्य को धुलोक और पृथ्वी को अपने आकर्षण से  स्थित  रखने वाला बताया गया है।

ऋग्वेद 1/164/13 में सूर्य को एक चक्र के मध्य में आधार रूप में बताया गया है एवं पृथ्वी आदि को उस चक्र के चारों ओर स्थित बताया गया है। वह चक्र स्वयं घूम रहा है एवं बहुत भार वाला अर्थात जिसके ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित है , सनातन अर्थात कभी न टूटने वाला बताया गया है।


चन्द्रमा में प्रकाश का स्रोत्र

ऋग्वेद 1/84/15 में सूर्य द्वारा पृथ्वी और चन्द्रमा को अपने प्रकाश से प्रकाशित करने वाला बताया गया है।


दिन और रात कैसे होती हैं

ऋग्वेद 1/35/7 में प्रश्नोत्तर शैली में प्रश्न आया है कि यह सूर्य रात्रि में किधर चला जाता है तो उत्तर मिलता है पृथ्वी के पृष्ठ भाग में चला जाता है। दिन और रात्रि के होने का यही कारण है।

ऋग्वेद 10/190/2 में लिखा है ईश्वर सूर्य द्वारा दिन और रात को बनाता हैं।

अथर्ववेद 10/8/23 में लिखा है नित्य ईश्वर के समान दिन और रात्रि नित्य उत्पन्न होते हैं। 
  
वेद में काल विभाग

अथर्ववेद 9/9/12 में लिखा है वर्ष को बारह महीनों वाला कहा गया है।

अथर्ववेद 10/8/4 में लिखा है ईश्वर द्वारा प्रयोजन के लिए एक वर्ष को बारह मास, ऋतुओं और दिनों में विभाजित किया गया है।

अथर्ववेद 12/1/36 में वर्ष को 6 ऋतुओं में विभाजित किया गया है।

इस प्रकार से वेदों के अनेक मन्त्रों में खगोल विज्ञान के दर्शन होते है। वेदों में विज्ञान विषय पर शोध करने की आवश्यकता है।

(नोट- अनेक वैदिक मन्त्रों का भाष्य अनेक विद्वानों ने अपनी अपनी शैली में किया हैं जिस पर विरोधभास अथवा असहमति कि स्थिति में बृहत्तर चिंतन करने की आवश्यकता है।)

डॉ विवेक आर्य

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका- स्वामी दयानंद
यजुर्वेद भाष्य- स्वामी दयानंद
ऋग्वेद भाष्य- स्वामी दयानंद
अथर्ववेद भाष्य- विश्वनाथ वेदालंकार
अथर्ववेद भाष्य- पंडित क्षेमकरण दास त्रिवेदी
वैदिक विज्ञान- पंडित शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ
भूमिका भास्कर- स्वामी विद्यानंद
वेदों के पाठक सावधान- शिव नारायण सिंह गौतम

वेद पथ पत्रिका संपादक ठाकुर अमर सिंह, दिसंबर 1964 का अंक।

Wednesday, April 29, 2015

क्या महर्षि मनु जातिवाद के पोषक थे?




मनुस्मृति जो सृष्टि में नीति और धर्म (कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उस को घोर जाति प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृति की सबसे अधिक विवादित पुस्तक बना दी गई है | पूरा का पूरा दलित आन्दोलन  मनुवाद' के विरोध पर ही खड़ा हुआ है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले इन लोगों ने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा भी नहीं है। स्वामी दयानंद द्वारा आज से 140 वर्ष पूर्व यह सिद्ध कर दिया था की मनुस्मृति में मिलावट की गई है। इस कारण से ऐसा प्रतीत होता है कि मनुस्मृति वर्ण व्यवस्था की नहीं अपितु जातिवाद का समर्थन करती है। महर्षि मनु ने सृष्टि का प्रथम संविधान मनु स्मृति के रूप में बनाया था। कालांतर में इसमें जो मिलावट हुई उसी के कारण इसका मूल सन्देश जो वर्णव्यवस्था का समर्थन करना था के स्थान पर जातिवाद प्रचारित हो गया।

मनुस्मृति पर दलित समाज यह आक्षेप लगाता है कि मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया और शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति विशेषरूप से ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान का विधान किया।


मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था | अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कही पर  भी समर्थन नहीं करती | महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है (देखें ऋग्वेद-१०.१०.११-१२, यजुर्वेद-३१.१०-११, अथर्ववेद-१९.६.५-६) |

यह वर्ण व्यवस्था है।  वर्ण शब्द वृञधातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है।

मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है।  यदि जाति का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से सम्बंधित हैं।
इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है | ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं | ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे | जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे ? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे ?

मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए | अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए |

मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं | इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है |


वर्णों में परिवर्तन :

मनुस्मृति १०.६५: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं |

मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है |

मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ट कर्म नहीं करता, तो शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है |

उदाहरण-

२.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए |

२.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है

४.२४५ : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर  व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है | इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है | अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है | इसका, किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है |

२.१६८: जो ब्राह्मण,क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है | और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है | अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं वे सभी शूद्र हैं |

२ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है |

शूद्र भी पढ़ा सकते हैं :

शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए |

२.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए|

२.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे |

ब्राह्मणत्व का आधार कर्म :

मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती | मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए |

कई ब्राह्मण माता पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है| ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों

२.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है |

२.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है |

शिक्षा ही वास्तविक जन्म  :

मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है | जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है | ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है | शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं |

यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है|

२.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है | यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है |ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है| सुशिक्षा के बिना मनुष्य मनुष्यनहीं बनता|

इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा |

२.१४६ : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं | पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है|

२.१४७ :  माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है| वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है|

अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है | अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा |

१०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं | विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है |

इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता | उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा | और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा | अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं |

नीचकुल में जन्में व्यक्ति का तिरस्कार नहीं :  

किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं |

४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और / या अधिकार से वंचित न करें | क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं|

प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण :

ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं | यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था | जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना आज भी कर रहें हैं|

 वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण

(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |

(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन  किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए  |

(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |

(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |

(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

(r) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |

(s) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश |

(t) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर|

(u) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं | इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए |

शूद्रों  के प्रति आदर :

मनु परम मानवीय थे| वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते | जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं | उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं |

मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है | अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं |

कुछ और उदात्त उदाहरण देखें

३.११२: शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए |

३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें |

२.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए |

मनुस्मृति वेदों पर आधारित :

वेदों को छोड़कर अन्य कोई ग्रंथ मिलावटों से बचा नहीं है | वेद प्रक्षेपों से कैसे अछूते रहे, जानने के लिए वेदों में परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता ? ‘ पढ़ें | वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सभी विद्याएँ उसी से निकली हैं | उन्हीं को आधार मानकर ऋषियों ने अन्य ग्रंथ बनाएवेदों का स्थान और प्रमाणिकता सबसे ऊपर है और उनके रक्षण से ही आगे भी जगत में नए सृजन संभव हैं | अत: अन्य सभी ग्रंथ स्मृति, ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, दर्शन इत्यादि को परखने की कसौटी वेद ही हैं | और जहां तक वे  वेदानुकूल हैं वहीं तक मान्य हैं |

मनु भी वेदों को ही धर्म का मूल मानते हैं (२.८-२.११)

२.८: विद्वान मनुष्य को अपने ज्ञान चक्षुओं से सब कुछ वेदों के अनुसार परखते हुए, कर्तव्य का पालन करना चाहिए |

इस से साफ़ है कि मनु के विचार, उनकी मूल रचना वेदानुकूल ही है और मनुस्मृति में वेद विरुद्ध मिलने वाली मान्यताएं प्रक्षिप्त मानी जानी चाहियें |

शूद्रों को भी वेद पढने और वैदिक संस्कार करने का अधिकार :

वेद में ईश्वर कहता है कि मेरा ज्ञान सबके लिए समान है चाहे पुरुष हो या नारी, ब्राह्मण हो या शूद्र सबको वेद पढने और यज्ञ करने का अधिकार है |

देखें यजुर्वेद २६.१, ऋग्वेद १०.५३.४, निरुक्त ३.८  इत्यादि और  http://agniveer.com/series/caste-series/ |

और मनुस्मृति भी यही कहती है | मनु ने शूद्रों को उपनयन ( विद्या आरंभ ) से वंचित नहीं रखा है | इसके विपरीत उपनयन से इंकार करने वाला ही शूद्र कहलाता है |

वेदों के ही अनुसार मनु शासकों के लिए विधान करते हैं कि वे शूद्रों का वेतन और भत्ता किसी भी परिस्थिति में न काटें ( ७.१२-१२६, ८.२१६) |

संक्षेप में

मनु को जन्मना जाति व्यवस्था का जनक मानना निराधार है | इसके विपरीत मनु मनुष्य की पहचान में जन्म या कुल की सख्त उपेक्षा करते हैं | मनु की वर्ण व्यवस्था पूरी तरह गुणवत्ता पर टिकी हुई है |

प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र | मनु ने ऐसा प्रयत्न किया है कि प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान जो सबसे सशक्त वर्ण है जैसे किसी में ब्राह्मणत्व ज्यादा है, किसी में क्षत्रियत्व, इत्यादि का विकास हो और यह विकास पूरे समाज के विकास में सहायक हो |

महर्षि मनु पर जातिवाद का समर्थक होने का आक्षेप लगाना मूर्खता हैं क्यूंकि दोष मिलावट करने वालो का हैं न की मनु महर्षि का।

 (इस लेख को लिखने में अग्निवीर वेबसाइट का सहयोग लिया गया है)



डॉ विवेक आर्य

Sunday, April 26, 2015

क्या वेदों में अश्लीलता हैं?




क्या वेदों में अश्लीलता हैं?

डॉ विवेक आर्य 


वेदों के विषय में कुछ लोगों को यह भ्रान्ति हैं की वेदों में धार्मिक ग्रन्थ होते हुए भी अश्लीलता का वर्णन है। इस विषय को समझने की पर्याप्त आवश्यकता है क्यूंकि इस भ्रान्ति के कारण वेदों के प्रति साधारण जनमानस में आस्था एवं विश्वास प्रभावित होते है।
 पश्चिमी विद्वान ग्रिफ्फिथ महोदय ने इस विषय में ऋग्वेद 1/126 सूक्त के सात में पाँच मन्त्रों का भाष्य करने के पश्चात अंतिम दो मन्त्रों का भाष्य नहीं किया हैं एवं परिशिष्ठ में इनका लेटिन भाषा में अनुवाद देकर इस विषय में टिप्पणी लिखी हैं की इन्हें पढ़कर ऐसा लगता हैं कि मानो ये मंत्र किसी असभ्य उच्छृंखल, बेलगाम मनमौजी गडरियें के प्रेमगीत के अंश हो[i]
ग्रिफ्फिथ महोदय अपने यजुर्वेद के भाष्य में भी 23 वें अध्याय के 19 वें मंत्र के पश्चात सीधे 32 वें मंत्र के भाष्य पर जाते हैं। 20 वें मंत्र के विषय में उनकी टिप्पणी हैं की यह और इसके अगले 9 मंत्र यूरोप की किसी भी सभ्य भाषा में वर्णन करने योग्य नहीं हैं। एवं 30 वें तथा 31 वें मंत्र का इन्हें पढ़े बिना कोई लाभ नहीं हैं[ii]
विदेशी विद्वान वेद के जिन मन्त्रों में अश्लीलता का वर्णन करते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
ऋग्वेद 1/126/6-7
ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/31/1
यजुर्वेद 23-22,23
अथर्ववेद 1//11/ 3-6
अथर्ववेद 4//4/ 3-8 
अथर्ववेद 6//72/ 1-3
अथर्ववेद 6/101/1-3 
अथर्ववेद 6/138/4-5 
अथर्ववेद 7/35/2-3 
अथर्ववेद 7/90/ 3 
अथर्ववेद 20/126/16-17 
अथर्ववेद कांड 20 सूक्त 136 मंत्र 1-16 

शंका  1- वेदों में अश्लीलता होने के कारण है?
समाधान- यह प्रश्न ही भ्रामक है क्यूंकि वेदों में किसी भी प्रकार की अश्लीलता नहीं है। संस्कृत भाषा में यौगिक , रूढ़ि एवं योगरूढ़ तीन प्रकार के शब्द होते हैं।  वैदिक काल में अनेक ऐसे शब्द प्रचलित थे जिन्हे सर्वदा श्लील (शालीन) माना जाता था और उनका संपर्क कुत्सित भावों से करने की प्रवृति थी। ये शब्द है लिंग, शिश्न, योनि, गर्भ, रेत, मिथुन आदि। आजकल भी इन शब्दों को हम सामान्य भाव से ग्रहण करते हैं जैसे लिंग का प्रयोग पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में किया जाता हैं। योनि का प्रयोग मनुष्य योनि एवं पशु योनि में भेद करने के लिए प्रयुक्त होता हैं, गर्भ शब्द का प्रयोग पृथ्वी के गर्भ एवं हिरण्यगर्भ के लिए प्रयुक्त होता हैं। इस प्रकार से अनेक शब्दों के उदहारण लौकिक और वैदिक साहित्य से दिए जा सकते है जिनमें सभ्य व्यक्ति अश्लीलता नहीं देखते। श्लीलता एवं अश्लीलता में केवल मनोवृति का अंतर हैं। ऊपर में जिस प्रकार शब्दों के रूढ़ि अर्थों का ग्रहण किया गया हैं उसी प्रकार से कुछ स्थानों पर शब्दों के यौगिक अर्थों का भी ग्रहण होता हैं। जैसे 'माता की रज को सिर में धारण करो' का तात्पर्य पग धूलि हैं की माता के 'रजस्वला' भाव से प्रार्थना की गई हैं। इस प्रकार से शब्दों के अर्थों के अनुकूल एवं उचित प्रयोग करने से ही तथ्य का सही भाव ज्ञात होता हैं अन्यथा यह केवल अश्लीलता रूपी भ्रान्ति को बढ़ावा देने के समान है। इस भ्रान्ति का एक कारण कुछ मन्त्रों में अर्थों का अस्वाभाविक एवं पक्षपातपूर्ण प्रयोग करके उनमें व्यभिचार अथवा अश्लीलता को दर्शाना है। एक  कारण तथ्य को गलत परिपेक्ष में समझना है। एक उदहारण लीजिये की जिस प्रकार से चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकों में मानव गुप्तेन्द्रियों के चित्र को देखकर कोई यह नहीं कहता की यह अश्लीलता है क्यूंकि उनका प्रयोजन शिक्षा है उसी प्रकार से वेद ईश्वरीय प्रदत ज्ञान पुस्तक है इसलिए उसमें जो जो बातें हैं वे शिक्षा देने के लिए लिखी गई हैं। इसलिए उनमें अश्लीलता को मानना भ्रान्ति है।   

शंका 2 - अगर वेदों में अश्लीलता नहीं है तो फिर अनेक मन्त्रों में क्यों प्रतीत होता हैं?

समाधान- वेदों में अश्लीलता प्रतीत होने का प्रमुख कारण विनियोगकारों, अनुक्रमणिककारों, सायण,महीधर जैसे भाष्यकारों और उनका अनुसरण करने वाले पश्चिमी और कुछ भारतीय लेखक हैं। यदि स्वामी दयानंद और यास्काचार्य की पद्यति से शब्दों के सत्य अर्थ पर विचार कर मन्त्रों के तात्पर्य को समझा जाता तो वेद मन्त्रों में ज्ञान-विज्ञान के विरुद्ध कुछ भी मिलता। कुछ उदहारण से हम इस संख्या का निवारण करेंगे।
ऋग्वेद 1/126 के छठे और सातवें मंत्र का सायणाचार्य, स्कंदस्वामी आदि ने राजा भावयव्य और उनकी पत्नी रोमशा के मध्य संभोग की इच्छा को लेकर अत्यंत अश्लील संवाद का वर्णन मिलता है। पाठक सम्बंधित भाष्यकारों के भाष्य में देख सकते है। वही इसी मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद सुन्दर एवं शिक्षाप्रद रूप से इस प्रकार से करते है। स्वामी जी इस मंत्र में राजा (जो उत्तम गुण सीखा सके और सब लोग जिसे ग्रहण करके उस पर सुगमता से चल सके) के प्रजा के प्रति कर्तव्य का वर्णन करते हुए व्यवहारशील एवं प्रयत्नशील प्रजा को सैकड़ों प्रकार के भोज्य पदार्थ  दे सकने वाली  राजनीती करने की सलाह देते है। इससे अगले मंत्र में राजा कि भांति उसकी पत्नी  विदुषी और राजनीति में निपुण होने तथा प्रजा विशेष रूप से स्त्रियों का न्याय करने में राजा का सहयोगी बनने का सन्देश है। 

ऋग्वेद 1/164/33 और ऋग्वेद 3/3/11 में प्रजापति का अपनी दुहिता (पुत्री) उषा और प्रकाश से सम्भोग की इच्छा करना बताया गया हैं जिसे रूद्र ने विफल कर दिया जिससे की प्रजापति का वीर्य धरती पर गिर कर नाश हो गया ऐसे अश्लील अर्थो को दिखाकर विधर्मी लोग वेदों में पिता-पुत्री के अनैतिक संबंधो पर आक्षेप करते हैं।
स्वामी दयानंद इन मंत्रो का निरुक्त एवं शतपथ का प्रमाण देते हुए अर्थ करते हैं की प्रजापति कहते हैं सूर्य को और उसकी दो पुत्री उषा (प्रात काल में दिखने वाली लालिमा) और प्रकाश हैं। सभी लोकों को सुख देने के कारण सूर्य पिता के सामान है और मान्य का हेतु होने से पृथ्वी माता के सामान है।  जिस प्रकार दो सेना आमने सामने होती हैं उसी प्रकार सूर्य और पृथ्वी आमने सामने हैं और प्रजापति पिता सूर्य मेघ रूपी वीर्य से पृथ्वी माता पर गर्भ स्थापना करता है जिससे अनेक औषिधिया आदि उत्पन्न होते हैं जिससे जगत का पालन होता है। यहाँ रूपक अलंकार है जिसके वास्तविक अर्थ को समझ कर प्रजापति की अपनी पुत्रियो से अनैतिक सम्बन्ध की कहानी बना दी गई। 
इन्द्र अहिल्या की कथा का उल्लेख ब्राह्मण ,रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथो में मिलता हैं जिसमें कहा गया हैं की स्वर्ग का राजा इन्द्र गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या पर आसक्त होकर उससे सम्भोग कर बैठता हैं। उन दोनों को एकांत में गौतम ऋषि देख लेते हैं और शाप देकर इन्द्र को हज़ार नेत्रों वाला और अहिल्या को पत्थर में बदल देते है। अपनी गलती मानकर अहिल्या गौतम ऋषि से शाप की निवृति के लिया प्रार्थना करती है तो वे कहते है की जब श्री राम अपने पैर तुमसे लगायेगे तब तुम शाप से मुक्त हो जायोगी। इस कथा का अलंकारिक अर्थ इस प्रकार है।  यहाँ इन्द्र सूर्य हैं, अहिल्या रात्रि हैं और गौतम चंद्रमा है। चंद्रमा रूपी गौतम रात्रि अहिल्या के साथ मिलकर प्राणियो को सुख पहुचातें हैं।  इन्द्र यानि सूर्य के प्रकाश से रात्रि निवृत हो जाती हैं अर्थात गौतम और अहिल्या का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है।
यजुर्वेद के 23/19-31 मन्त्रों में अश्वमेध यज्ञ परक अर्थों में महीधर के अश्लील अर्थ को देखकर अत्यंत अप्रीति होती है। इन मन्त्रों में यजमान राजा कि पत्नी द्वारा अश्व का लिंग पकड़ कर उसे योनि में डालने, पुरोहित द्वारा राजा की पत्नियों के संग अश्लील उपहास करने का अश्लील वर्णन हैं। पाठक सम्बंधित भाष्यकार के भाष्य में देख सकते है। स्वामी दयानंद ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में इन मन्त्रों का पवित्र अर्थ इस प्रकार से किया है। राजा प्रजा हम दोनों मिल के धर्म, अर्थ। काम और मोक्ष की सिद्धि के प्रचार करने में सदा प्रवृत रहें। किस प्रयोजन के लिए? कि दोनों की अत्यंत सुखस्वरूप स्वर्गलोक में प्रिया आनंद की स्थिति के लिए, जिससे हम दोनों परस्पर तथा सब प्राणियों को सुख से परिपूर्ण कर देवें। जिस राज्य में मनुष्य लोग अच्छी प्रकार ईश्वर को जानते है, वही देश सुखयुक्त होता है। इससे राजा और प्रजा परस्पर सुख के लिए सद्गुणों के उपदेशक पुरुष की सदा सेवा करें और विद्या तथा बल को सदा बढ़ावें। कहाँ स्वामी दयानंद का उत्कृष्ट अर्थ और कहाँ महीधर का निकृष्ट और महाभ्रष्ट अर्थ
ऋग्वेद 7/33/11 के आधार पर एक कथा प्रचलित कर दी गयी की मित्र-वरुण का उर्वशी अप्सरा को देख कर वीर्य स्खलित  हो गया।  वह घड़े में जा गिरा जिससे वसिष्ठ ऋषि पैदा हुए।  ऐसी अश्लील कथा से पढ़ने वाले की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है।
इस मंत्र का उचित अर्थ इस प्रकार है। अथर्व वेद 5/19/15 के आधार पर मित्र और वरुण वर्षा के अधिपति यानि वायु माने गए है , ऋग्वेद 5/41/18 के अनुसार उर्वशी बिजली हैं और वसिष्ठ वर्षा का जल है।  यानि जब आकाश में ठंडी- गर्म हवाओं (मित्र-वरुण) का मेल होता हैं तो आकाश में बिजली (उर्वशी) चमकती हैं और वर्षा (वसिष्ठ) की उत्पत्ति होती है।  इस मंत्र का सत्य अर्थ पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है।
इस प्रकार से वेदों में जिन जिन मन्त्रों पर अश्लीलता का आक्षेप लगता है उसका कारण मन्त्रों के गलत अर्थ करना हैं। अधिक जानकारी के लिए स्वामी दयानंद[iii], विश्वनाथ वेदालंकार[iv] ,आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति[v], धर्मदेव विद्यामार्तंड[vi], स्वामी सत्यप्रकाश[vii],डॉ ज्वलंत कुमार शास्त्री[viii] आदि विद्वतगण की रचना महत्वपूर्ण है जिनकी पर्याप्त सहायता इस लेख में ली गई हैं।

शंका  3- वेदों में यम यमी जोकि भाई बहन हैं उनके मध्य अश्लील संवाद होने से आप क्या समझते है 

समाधान- वेदों के विषय में अपने विचार प्रकट करते समय पाश्चात्य एवं अनेक भारतीय विद्वानों ने पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण वेदों के सत्य ज्ञान को प्रचारित करने के स्थान पर अनेक भ्रामक तथ्यों को प्रचारित करने में अपना सारा श्रम व्यर्थ कर दिया ।यम यमी सूक्त के विषय में इन्ही तथाकथित विद्वानों की मान्यताये इसी भ्रामक प्रचार का नतीजा हैं। दरअसल विकासवाद की विचारधारा को सिद्ध करने के प्रयासों ने इन लेखकों को यह कहने पर मजबूर किया की आदि काल में मानव अत्यन्य अशिक्षित एवं जंगली था। विवाह सम्बन्ध, परिवार, रिश्ते नाते आदि का प्रचलन बाद के काल में हुआ।
श्रीपाद अमृत डांगे में लिखते हैं - “इस प्रकार के गुणों में परस्पर भिन्न नातों तथा स्त्री पुरुष संबंधों की जानकारी होना स्वाभाविक ही था। परन्तु इस प्रकार का अनियंत्रित सम्बन्ध संतति विकसन के लिए हानिकारक होने के कारण सर्व्रथम माता-पिता एवं उनके बाल बच्चों का बीच सम्भोग पर नियंत्रण उपस्थित किया गया और इस प्रकार कुटुंब व्यस्था की नींव रखी गई। यहाँ विवाह की व्यवस्था कुटुम्भ के अनुसार होनी थी, अर्थात समस्त दादा दादी परस्पर एक दुसरे के पति पत्नी हो सकते थे। उसी प्रकार उनके लड़के लड़कियां अर्थात समस्त माता पिता एक दूसरे के पति पत्नी हो सकते थे सगे चचेरे भाई-बहिन सब सुविधानुसार एक दूसरे के पति पत्नी हो सकते थे। आगे चलकर भाई और बहिन के बीच निषेध उत्पन्न किया गया ।परन्तु उस नवीन  सम्बन्ध का विकास बहुत ही मंदगति से हुआ और उसमें अड़चन भी बहुत हुई, क्यूंकि समान वय के स्त्री पुरुषों के बीच यह एक अपरिचित सम्बन्ध था ।एक ही माँ के पेट से उत्पन्न हुई सगी बहिन से प्रारंभ कर इस सम्बन्ध का धीरे धीरे विकास किया गया। परन्तु इसमें कितनी कठिनाई हुई होगी, इसकी कल्पना ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त से स्पष्ट हो जाती हैं। यम की बहिन यमी अपने भाई से प्रेम एवं संतति की याचना करती हैं। परन्तु यम यह कहते हुए उसके प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देता हैं की देवताओं के श्रेष्ठ पहरेदार वरुण देख लेंगे एवं क्रुद्ध हो जायेंगे। इसके विपरीत यमी कहती हैं की वे इसके लिए अपना आशीर्वाद देंगे। इस संवाद का अंत कैसे हुआ, यह प्रसंग तो ऋग्वेद में नहीं हैं, परन्तु यदि यह मान लिया जाये की अंत में यम ने यह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो भी यह स्पष्ट हैं की प्राचीन परिपाटी को तोड़ने में कितनी कठिनाई का अनुभव हुआ होगा[ix]
यम यमी सूक्त ऋग्वेद[x] और अथर्ववेद[xi] में आता हैं। डांगे विदेशी विद्वानों की सोच का ही अनुसरण करते दिख रहे हैं। यम यमी सूक्त का मूल भाव भाई-बहन के संवाद के माध्यम से शिक्षा देना हैं। यम और यमी दिन और रात हैं, दोनों जड़ है। इन्ही दोनों जड़ों को भाई बहन मानकर वेद ने एक धर्म विशेष का उपदेश किया हैं। अलंकार के रूपक से दोनों में बातचीत हैं। यमी यम से कहती हैं की आप मेरे साथ विवाह कीजिये पर यम कहता हैं की-
बहिन के साथ कुत्सित व्यवहार करने से पाप होता हैं। पुराकाल में कभी भाई बहिन का विवाह नहीं हुआ, इसलिए तू दुसरे पुरुष को पति बना। परमात्मा ने जड़ प्रकृति का उदहारण देकर लोगों को यह सूचित करा दिया हैं की एक जड़ स्त्री के कहने पर भी पाप के डर  से परम्परा की शिक्षा से प्रेरित होकर एक जड़ पुरुष जब इस प्रकार के पाप कर्म को करने से इंकार करता हैं, तब चेतन ज्ञानवान मनुष्य को भी चाहिए की वह भी इस प्रकार का कर्म कभी करे[xii]
वेदों में बहिन भाई के व्यभिचार का कितना कठोर दंड हैं तो श्रीपाद डांगे का यह कथन की यम यमी सूक्त में बहन भाई के व्यभिचार का वर्णन हैं अज्ञानता मात्र हैं।  देखें-
ऋग्वेद[xiii] और अथर्ववेद[xiv] में आता हैं जो तेरा भाई तेरा पति होकर जार कर्म करता हैं और तेरी संतान को मरता हैं, उसका हम नाश करते हैं।
अथर्ववेद[xv] में आता हैं यदि तुझे सोते समय (स्वपन में) तेरा भाई अथवा तेरा पिता भूलकर भी प्राप्त हो तो वे दोनों गुप्त पापी औषधि प्रयोग से नपुंसक करके मार डाले जाएँ।
आगे श्रीपाद डांगे का यह कथन की विवाह, रिश्ते आदि से मनुष्य जाति वैदिक काल में अनभिज्ञ थी भी अज्ञानता मात्र हैं। ऋग्वेद के विवाह सूक्त[xvi], अथर्ववेद[xvii] में पाणिग्रहण अर्थात विवाह विधि, वैवाहिक प्रतिज्ञाएँ, पति पत्नी सम्बन्ध, योग्य संतान का निर्माण, दाम्पत्य जीवन, गृह प्रबंध एवं गृहस्थ धर्म का स्वरुप देखने को मिलता हैं, जो विश्व की किसी अन्य सभ्यता में अन्यंत्र ही मिले।
वैदिक काल के आर्यों के गृहस्थ विज्ञान की विशेषता को जानकार श्रीमति एनी बेसंत ने लिखा हैं-  भूमंडल के किसी भी देश में, संसार की किसी भी जाति में, किसी भी धर्म में विवाह का महत्व ऐसा गंभीर एवं ऐसा पवित्र नहीं हैं, जैसे प्राचीन आर्ष ग्रंथों में पाया जाता हैं[xviii] यम यमी सूक्त एक आदर्श को स्थापित करने का सन्देश हैं नाकि भाई-बहन के मध्य अनैतिक सम्बन्ध का विवरण हैं। 

शंका 4- क्या अथर्ववेद में वर्णित गर्भाधान, प्रसव विद्या आदि = की प्रक्रिया का वर्णन अश्लील नहीं है?

समाधान- सभी मनुष्यों के कल्याणार्थ ईश्वर द्वारा वेदों में गृहस्थाश्रम में पालन हेतु संतान उत्पत्ति हेतु अथर्ववेद के 14 वें कांड के 2 सूक्त  के 31,32, 38 और 39 मन्त्रों में गर्भाधान की प्रक्रिया का वर्णन है। यह वर्णन ठीक इस प्रकार से है जैसा चिकित्सा विज्ञान के पुस्तकों में वर्णित होता है एवं उसे कोई भी अश्लील नहीं मानता। इसी प्रकार से अथर्ववेद के पहले कांड 11 वें सूक्त में प्रसव विद्या का वर्णन लाभार्थ वर्णित है। ग्रिफ्फिथ महोदय इन मन्त्रों को अश्लील मानते हुए अवांछनीय टिप्पणी लिख देते है[xix] अब कोई ग्रिफ्फिथ साहिब से पूछे कि चिकित्सा विज्ञान में जब अध्यापक छात्रों को प्रसव प्रक्रिया पढ़ाते है तो क्या योनि, गर्भ, लिंग आदि शब्द अश्लील प्रतीत होते हैं। उत्तर स्पर्श है कदापि नहीं अंतर केवल मनोवृति का है। इन मन्त्रों में कहीं भी अनाचार, व्यभिचार आदि का वर्णन नहीं हैं यही अंतर इन्हें अश्लील से श्लील बनता हैं।



[i]  I subjoin a Latin version of the two stanzas omitted in my translation. They are in a different metre from the rest of the Hymn, having no apparent connection with what precedes and look like a fragment of a liberal shepherd’s love song. Appendix 1, The Hymns of the Rigveda, 1889 by Ralph T.H.Griffith.
[ii] This and the following nine stanzas are not reproducible even in the semi-obscurity of a learned European language; and stanzas 30, 31 would be unintelligible without them.p.231, White Yajurveda by Ralph T.H.Griffith.
[iii] ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेदभाष्य ,ऋग्वेदभाष्य
[iv] अथर्ववेद भाष्य प्रकाशक- रामलाल कपूर ट्रस्ट
[v] वेद और उसकी वैज्ञानिकता भारतीय मनीषा के परिपेक्ष में- गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
[vi] वेदों का यथार्थ स्वरुप- समर्पण शोध संस्थान
[vii] वेदों पर अश्लीलता का व्यर्थ आक्षेप 
[viii] वेद और वेदार्थ- श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास
[ix] Origin of Marriage by Dange
[x] ऋग्वेद 10/10
[xi] अथर्ववेद 18/1
[xii] ऋग्वेद 10/10/10
[xiii] ऋग्वेद 10/162/5
[xiv] अथर्ववेद 20/16/15
[xv] अथर्ववेद 8/6/7
[xvi] ऋग्वेद 10/85
[xvii] अथर्ववेद 14/1, 7/37 एवं 7/38 सूक्त
[xviii] Nowhere in the whole world, nowhere in any religion, a nobler, a more beautiful, a more perfect ideal of marriage than you can find in the early writings of Hindus- Annie Besant
[xix] The details given in the stanza 3-6 are strictly obstetric and not presentable in English.