Monday, April 28, 2014

ईसाई धर्मान्तरण का एक कुत्सित तरीका- प्रार्थना से चंगाई




ईसाई धर्मान्तरण का एक कुत्सित तरीका- प्रार्थना से चंगाई

डॉ विवेक आर्य

विश्व इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण हैं की हिन्दू समाज सदा से शांतिप्रिय समाज रहा हैं। एक ओर मुस्लिम समाज ने पहले तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने की कोशिश करी थी, अब सूफियो की कब्रों पर हिन्दूओं के सर झुकवाकर, लव जिहाद या ज्यादा बच्चे बनाकर भारत की सम्पन्नता और अखंडता को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं  दूसरी ओर ईसाई समाज हिन्दुओ को ईसा मसीह की भेड़ बनाने के लिए रुपये, नौकरी, शिक्षा अथवा प्रार्थना से चंगाई के पाखंड का तरीका अपना रहे हैं।

 आज के समाचार पत्र में छपी खबर की चर्च द्वारा दिवंगत पोप जॉन पॉल द्वितीय को संत घोषित किया गया है ने सेमेटिक मतों की धर्मांतरण की उसी कुटिल मानसिकता की ओर हमारा ध्यान दिलाया है। पहले तो हम यह जाने की यह संत बनाने की प्रक्रिया क्या है?

सबसे पहले ईसाई समाज अपने किसी व्यक्ति को संत घोषित करके उसमे चमत्कार की शक्ति होने का दावा करते है। विदेशो में ईसाई चर्च बंद होकर बिकने लगे हैं और भोगवाद की लहर में ईसाई मत मृतप्राय हो गया है। इसलिए अपनी संख्या और प्रभाव को बनाये रखने के लिए एशिया में वो भी विशेष रूप से भारत के हिन्दुओं से ईसाई धर्म की रक्षा का एक सुनहरा सपना वेटिकन के संचालकों द्वारा देखा गया है।  इसी श्रृंखला में सोची समझी रणनीति के अंतर्गत पहले भारत से दो हस्तियों को नन से संत का दर्जा दिया गया था  ।पहले मदर टेरेसा और बाद में सिस्टर अलफोंसो को संत बनाया गया था और अब जॉन पॉल को घोषित किया गया है।



यह संत बनाने की प्रक्रिय अत्यंत सुनियोजीत होती है। पहले किसी गरीब व्यक्ति का चयन किया जाता है। जिसके पास इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं होते, जो बेसहारा होता है, फिर यह प्रचलित कर दिया जाता है कि बिना किसी ईलाज के केवल मात्र प्रार्थना से उसकी बीमारी ठीक हो गई और यह कृपा एक संत के चमत्कार से हुई। गरीब और बीमारी से पीड़ित जनता को यह सन्देश दिया जाता है कि सभी को ईसा मसीह को धन्यवाद देना चाहिए और ईसाइयत को स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि पगान पूजा अर्थात हिन्दुओं के देवता जैसे श्रीराम और श्रीकृष्ण में चंगाई अर्थात बीमारी को ठीक करने की शक्ति नहीं हैं। अन्यथा उनको मानने वाले कभी के ठीक हो गए होते।



अब जरा ईसाई समाज के दावों को परिक्षा की कसौटी पर भी परख लेते है।



मदर टेरेसा जिन्हें दया की मूर्ति, कोलकाता के सभी गरीबो को भोजन देने वाली, अनाथ एवं बेसहारा बच्चो को आश्रय देने वाली, जिसने अपने जन्म देश को छोड़ कर भारत के गटरों से अतिनिर्धनों को सहारा दिया, जो की नोबेल शांति पुरस्कार की विजेता थी, एक नन से संत बना दी गयी की उनकी वास्तविकता से कम ही लोग परिचित है। जब मोरारजी देसाई की सरकार में धर्मांतरण के विरुद्ध बिल पेश हुआ, तो इन्ही मदर टेरेसा ने प्रधान मंत्री को पत्र लिख कर कहाँ था की ईसाई समाज सभी समाज सेवा की गतिविधिया जैसे की शिक्षा, रोजगार, अनाथालय आदि को बंद कर देगा। अगर उन्हें अपने ईसाई मत का प्रचार करने से रोका जायेगा। तब प्रधान मंत्री देसाई ने कहाँ था इसका अर्थ क्या यह समझा जाये की ईसाईयों द्वारा की जा रही समाज सेवा एक दिखावा मात्र हैं और उनका असली प्रयोजन तो ईसाई धर्मान्तरण है।

यही मदर टेरेसा दिल्ली में दलित ईसाईयों के लिए आरक्षण की हिमायत करने के लिए धरने पर बैठी थी। महाराष्ट्र में 1947 में एक चर्च के बंद होने पर उसकी संपत्ति को आर्यसमाज ने खरीद लिया। कुछ दशकों के पश्चात ईसाईयों ने उस संपत्ति को दोबारा से आर्यसमाज से ख़रीदने का दबाव बनाया। आर्यसमाज के अधिकारियों द्वारा मना करने पर मदर टेरेसा द्वारा आर्यसमाज को देख लेने की धमकी दी गई थी।

प्रार्थना से चंगाई में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा खुद विदेश जाकर तीन बार आँखों एवं दिल की शल्य चिकित्सा करवा चुकी थी। यह जानने की सभी को उत्सुकता होगी की हिन्दुओं को प्रार्थना से चंगाई का सन्देश देने वाली मदर टेरेसा को क्या उनको प्रभु ईसा मसीह अथवा अन्य ईसाई संतो की प्रार्थना द्वारा चंगा होने का विश्वास नहीं था जो वे शल्य चिकित्सा करवाने विदेश जाती थी?



अब सिस्टर अलफोंसो का उदहारण लेते हैं। वह केरल की रहने वाली थी। अपनी करीब तीन दशकों के जीवन में वे करीब २० वर्ष तक अनेक रोगों से स्वयं ग्रस्त रही थी। केरल एवं दक्षिण भारत में निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने की प्रक्रिया को गति देने के लिए संभवत उन्हें भी संत का दर्जा दे दिया गया और यह प्रचारित कर दिया गया की उनकी प्रार्थना से भी चंगाई हो जाती हैं।

अभी हाल ही में सुर्ख़ियों में आये दिवंगत पोप जॉन पॉल स्वयं पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे और चलने फिरने से भी असमर्थ थे। यहाँ तक की उन्होंने अपना पद अपनी बीमारी के चलते छोड़ा था।



पोप जॉन पॉल को संत घोषित करने के पीछे कोस्टा रिका की एक महिला का उदहारण दिया जा रहा हैं जिसके मस्तिष्क की व्याधि का ईलाज करने से चिकित्सकों ने मना कर दिया था। उस महिला द्वारा यह दावा किया गया हैं की उसकी बीमारी पोप जॉन पॉल द्वितीय की प्रार्थना करने से ठीक हो गई है। पोप जॉन पॉल चंगाई करने की शक्ति से संपन्न है एवं इस करिश्मे अर्थात चमत्कार को करने के कारण उन्हें संत का दर्ज दिया जाये।



इस लेख का मुख्य उद्देश्य आपस में वैमनस्य फैलाना नहीं हैं अपितु पाखंड खंडन हैं। ईसाई समाज से जब यह पूछा जाता है कि आप यह बताये की जो व्यक्ति अपनी खुद की बीमारी को ठीक नहीं कर सकता, जो व्यक्ति बीमारी से लाचार होकर अपना पद त्याग देता हैं उस व्यक्ति में चमत्कार की शक्ति होना पाखंड और ढोंग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अपने आपको चंगा करने से उन्हें कौन रोक रहा था?

यह तो वही बात हो गई की खुद निसंतान मर गए औरो को औलाद बक्शते हैं। ईसाई समाज को जो अपने आपको पढ़ा लिखा समाज समझता है। इस प्रकार के पाखंड में विश्वास रखता है यह बड़ी विडम्बना है। मदर टेरेसा, सिस्टर अल्फोंसो, पोप जॉन पॉल सभी अपने जीवन में गंभीर रूप से बीमार रहे। उन्हें चमत्कारी एवं संत घोषित करना केवल मात्र एक छलावा है, ढोंग है, पाखंड है, निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने का एक सुनियोजित षडयन्त्र हैं। अगर प्रार्थना से सभी चंगे हो जाते तब तो किसी भी ईसाई देश में कोई भी अस्पताल नहीं होने चाहिए, कोई भी बीमारी हो जाओ चर्च में जाकर प्रार्थना कर लीजिये। आप चंगे हो जायेगे। खेद हैं की गैर ईसाईयों को ऐसा बताने वाले ईसाई स्वयं अपना ईलाज अस्पतालों में करवाते है।

मेरा सभी हिन्दू भाइयों से अनुरोध है कि ईसाई समाज के इस कुत्सित तरीके की पोल खोल कर हिन्दू समाज की रक्षा करे और सबसे आवश्यक अगर किसी गरीब हिन्दू को ईलाज के लिए मदद की जरुरत हो तो उसकी धन आदि से अवश्य सहयोग करे जिससे वह ईसाईयों के कुचक्र से बचा रहे।

सलंग्न चित्र- पॉल दिनाकरन के नामक ईसाई प्रचारक का चित्र जो वर्षों से रोग से पीड़ित महिला के रोग को चुटकियों में ठीक करने का दावा करता है। पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा इनके पिताजी लंबी बीमारी के बाद मरे थे। इसे दाल में काला नहीं अपितु पूरी दाल ही काली कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

Saturday, April 12, 2014

पुनर्जन्म या आगमन क्यों आवश्यक हैं?



rebirth


प्रातःकाल उद्यान में भ्रमण करते हुए आर्यजी और मौलाना साहब की भेंट हो गई। आर्य जी युनिवर्सिटी में प्राध्यापक थे व मौलाना साहब स्थानीय मस्जिद के इमाम। दोनों अच्छे मित्र थे। वार्तालाप करते हुए मौलाना साहब लाहौर स्थित मस्जिद पर आतंकवादी हमले का जिक्र कर बैठे तो आर्य जी बोले- मौलाना साहिब, निश्चित रूप से ये दरिंदे अगले जन्म में पशु बनेंगे।
मौलाना साहब: इस्लाम के अनुसार तो ये दोजख यानि नरक की आग में जलेंगे।
आर्य: मौलाना साहब, जरा ये तो बतायें कि यह दोजख कहाँ पर है !
मौ0 सा0: यह तो अल्लाह ही जानता है, पर इतना जरूर है कि बुरे काम करने वाला दोजख में जाता है।
आर्य: हमारे आसपास जो कुत्ता-सुअर आदि पशु हैं वे नरक का जीवन ही तो जी रहे हैं। जो जन्म से लंगड़े-लूले-अपाहिज हैं देखो उनका जीवन कितना कष्टदायक है! एक टूटी झोपड़ी में रहने वाले गरीब की तुलना अगर बंगलों में रहने वाले सेठ से की जाये तो पिछले जन्म में किये गये पापों का फल मिलना प्रत्यक्ष होता है।
मौ0सा0: परन्तु इस्लाम के अनुसार तो पुनर्जन्म होता ही नहीं है। अगर होता तो हमें पिछले जन्म की बात जरूर याद रहती– और किसी का अपाहिज या गरीब होना तो एक प्रकार से अल्लाह द्वारा उनकी परीक्षा लेना है कि विकट परिस्थितियों में वे अल्लाह ताला के ऊपर विश्वास बनाये रखते हैं और अपने आपको सच्चा मुसलमान साबित करते हैं या नहीं।
आर्य: अच्छा मौलाना जी जरा ये तो बताईए कि आप अपनी माता के गर्भ में नौ माह रहे थे। क्या आपको याद है? क्या अपने जन्म से लेकर पाँच वर्ष तक की आयु में किये गये कार्य आपको याद हैं? क्या आपरेशन के दौरान बेहोश किए गए मरीज को यह याद रहता है कि उसकी चिकित्सा किस प्रकार की गई थी? कभी बुढ़ापे में याददाश्त खो जाने पर व्यक्ति की इस जन्म की स्मृतियाँ तक लोप हो जाती हैं तो हमें पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ किस प्रकार स्मरण रहेंगी? आगे अगर सभी व्यक्तियों को पूर्वजन्म का स्मरण हो जाये तो सांसारिक व्यवस्था भी अव्यवस्थित हो जायेंगी क्योंकि अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु दुर्घटना अथवा कत्ल से हुई होगी इस जन्म में वह किस प्रकार अपने सामाजिक संबंधों को बनाए रखेगा? इसलिए जिस प्रकार पानी को देखकर वर्षा का, कार्य को देखकर कारण का विद्वान लोग अनुमान लगा लेते हैं उसी प्रकार जन्मजात बिमारियों को देखकर पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का अनुमान हो जाता है।
मौ0सा0: आपकी बातों में दम तो है पर अल्लाह द्वारा परीक्षा लेने वाली बात में क्या बुराई है?
आर्य: ईश्वर को न्यायकारी कहा गया है। वह यूँ ही नहीं एक आत्मा को मनुष्य के शरीर से निकालकर सूअर आदि पशु के शरीर में प्रविष्ठ करा देते हैं। अगर ऐसा करने लगे तो ईश्वर की न्यायकारिता पर संशय उत्पन्न हो जायेगा। किसी मनुष्य ने चोरी नहीं की पर उसे कारागार में डाल दिया जाये, किसी मनुष्य ने पाप नहीं किया और उसकी आंखें निकाल ली जायें या उसे अपाहिज बना दिया जाये और उसे कहा जाये कि ऐसा तुम्हारी परीक्षा के लिए किया जा रहा है तो उसे अत्याचार ही कहा जायेगा। आप बताईये अगर आपको किसी दूसरे द्वारा किये गये कत्ल की सजा में आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाये तो आप उसे परीक्षा कहेंगे या अत्याचार? अल्लाह या ईश्वर सर्वज्ञ हैं अर्थात् सब कुछ जानने वाला हैं तो क्या वह अपने द्वारा ली जाने वाली परीक्षा का परिणाम नहीं जानता है?
मौ0 सा0: बिल्कुल सही। इसी प्रकार ईश्वर भी न्यायकारी तभी कहलायेगा जब वह सज्जनों को सत्कार व दुर्जनो को दण्ड देगा। इसलिए जन्मजात बिमारियों में फंसे हुओं को देखकर इस बात का अनुमान लगाना सहज है कि ये पूर्वजन्म में किये गये पापों का फल है।
मौ0सा0: क्या कभी किसी का पुनर्जन्म से छुटकारा होता है?
आर्य: मनुष्य जब पूर्ण सत्यवादी, प्रभुभक्त, उपासक एवं संयमी जीवन जीते हुए, परमेश्वर की उपासना करते हुए अपने नित्य कार्य करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं, तब वे पुनर्जन्म से छुटकारा पा लेते हैं। पर बाईबिल वर्णित ईश्वर के दूत यीशु मसीह पर विश्वास लाने मात्रा से अथवा कुरान में वर्णित अल्लाह पर ईमान या विश्वास लाने मात्रा से पापों से मुक्ति नहीं मिलती। इसके लिए शुभ कार्य, मन की स्वच्छता, आत्मा की पवित्राता, श्रेष्ठ आचरण, प्राणीमात्र से प्रेमभाव अत्यंत आवश्यक हैं। मोक्ष के लिए कोई छोटा रास्ता भी नहीं है। आपको शॉर्टकट बताकर मूर्ख बनाने वाले अनेकों मिल जायेंगे पर उस सर्वज्ञ, सर्वहितकारी ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आपको ही प्रयासरत रहना होगा। उसी से आत्मा शुद्ध होकर मोक्ष रूपी अनंत सुख की पात्र बनेगी।
मौ0सा0: पशु तो अपनी योनि में प्रसन्न रहते हैं। उनको किस प्रकार दण्ड योनि माना जा सकता है?
आर्य: पशु योनि में आत्मा अपनी उन्नति कर उच्च योनियों में प्रवेश नहीं कर सकती और आत्मिक आनंद को प्राप्त नहीं कर सकती। पशु योनि एक प्रकार से सुधार योनि है। उस योनि में पशु एक सीमा तक गतिविधियाँ कर सकता है पर पूर्णतः स्वतंत्रा नहीं होता। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह प्रसन्न है पर यह भ्रम है। अगर पशु योनि इतनी ही अच्छी होती तो मनुष्यों को कभी ईश्वर से कुत्ता-गधा या सूअर बनने की प्रार्थना करते क्यों नहीं देखा जाता? तर्कशास्त्रा का सिद्धांत है कि मनुष्य और पशु में मूल रूप से अंतर बुद्धि का है। यदि मनुष्य बुद्धि से प्रतिकूल होकर चलता है तो वह पशु के समान काम करता है और वेद में बुद्धि को ईश्वर की सबसे बड़ी देन कहा गया है। आप ही देखें एक बुद्धिजीवी व्यक्ति समाज का कितना उपकार कर सकता है जबकि एक मंदबुद्धि व्यक्ति समाज में अपना सहयोग नहीं दे पाता। इसलिए बुद्धि सर्वोपरि है। मनन करने वाले को मनुष्य कहते हैं और मनन करने के लिए बुद्धि परम आवश्यक है इसलिए पशु योनि एक अभिशाप, एक दण्ड के समान हैं न कि प्रसन्न रहने की योनि है।
मौ0 सा0: अगर मोक्ष ही जीवन का मूल उद्देश्य है तो ईश्वर सभी आत्माओं को मोक्ष प्रदान करके उन्हें पुनर्जन्म के झंझट से ही क्यों नहीं मुक्ति दिला देता है?
आर्य: मौलाना जी, आपने बढ़िया प्रश्न किया है। ईश्वर, जीवात्माएँ एवं प्रकृति ये तीन अनादि (अर्थात् आरंभ से रहित) तत्व हैं। ईश्वर ने आत्माओं को उत्पन्न नहीं किया है। सृष्टि की रचना कर ईश्वर आत्माओं के लिए कर्म करने का अवसर प्रदान करते हैं। शरीर एवं आत्मा का मेल जन्म व अलग होना मृत्यु कहलाता है। सृष्टि की रचना के पश्चात् आत्माओं को वेद विद्या का ज्ञान देकर ईश्वर उन्हें दुःखों से छूट जाने अर्थात् मोक्ष की प्रेरणा प्रदान करते हैं। आत्माएं कर्म करने के लिए मुक्त हैं पर कर्मों के फल पाने के लिए बंधित है। जो जैसा कर्म करेगा वैसा फल पायेगा। इसलिए ईश्वर वेद ज्ञान द्वारा प्राणियों को मोक्ष प्राप्ति का ध्येय प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। अगर आत्माएँ ईश्वर ने बनाई होतीं तो जैसा कि हम ईश्वर की सम्पूर्णता के विषय में जानते हैं कि उसकी बनाई किसी वस्तु में खोट नहीं होता तो जीवात्मा भी ईश्वर द्वारा बनाए जाने पर कभी पाप के लिए प्रवृत्त नहीं होती। अगर कोई कहे कि जीवात्माएँ ईश्वर का अंश है तो भी वह ईश्वर के अविभाजित (जिसके टुकड़े नहीं हो सकते।) गुण के विपरीत तर्क हैं। बाईबिल वर्णित ईश्वर पहले सृष्टि निर्माण करता है, फिर आदम और हव्वा को बनाता है, फिर पाप के फलों द्वारा वृक्ष बनाकर हव्वा को बहकाने के लिए शैतान को बनाता है, फिर हव्वा को पापी कहकर उसे प्रसव पीड़ा का दण्ड देता है। फिर दूत यीशु मसीह पर विश्वास लाने वाले की पापों से मुक्ति का प्रपंच करता है। आप ही बताईये सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) ईश्वर क्या शैतान, हव्वा और पापी फल वाले पेड़ को बनाने से पहले यह नहीं जानता था कि उनका क्या हश्र होगा? अगर कोई पिता किसी के यहाँ पर चोरी करें तो क्या उसकी सजा उसके बेटे को देंगे? यह कहाँ तक न्यायकारी होगा। अब कुरान वर्णित ईश्वर को लें। पहले वह ज्ञान से अनभिज्ञ मनुष्यों को उत्पन्न करता है, फिर लम्बे समय बाद उन्हें कभी तोरैत, कभी जबूर, कभी इंजिल और अंत में कुरान का ज्ञान देता है और केवल कुरान, अल्लाह व रसूल पर ईमान लाने वाले को जन्नत बख्शता है। भला कुरान व रसूल के उद्भव से पहले जिन रूहों ने यहाँ जन्म लिया उनका क्या बना और गैर मुसलमान कभी जन्नत नहीं जा पाएँगे क्योंकि वे कभी कुरान पर ईमान नहीं लाये तो फिर कुरान वर्णित अल्लाह ने गैर मुसलमानों को बनाया ही क्यों? इससे एक तो अल्लाह पक्षपाती सिद्ध हुआ दूसरा उसकी रचना में कमियाँ मिलती हैं जो अल्लाह के गुणों के विपरीत बात है।
अतः ईश्वर, जीवात्माएँ एवं प्रकृति तीनों अनादि हैं। सृष्टि प्रवाह से अनादि है। ईश्वर सृष्टि के आरंभ में ही वेद द्वारा जीवात्माओं को ज्ञान प्रदान कर श्रेष्ठ कर्म कर मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा देता है, यही सिद्धान्त तर्कसंगत व एकमात्रा सत्य कथन है। यजुर्वेद 31/7 में ईश्वर स्पष्ट रूप से कहते हैं- सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापक परमात्मा ने जगत पर कृपा करके, इसकी भलाई के लिए वेदों का प्रकाश किया, जिससे कि अज्ञान से निकल कर, ज्ञान की ओर अग्रसर हों और आध्यात्मिक प्रकाश से मन की आँखों को सुप्रकाशित करें।
मौ0सा0: वेदों में वर्णित ईश्वर पाप करने पर पशु योनि में जन्म देता है जबकि कुरान वर्णित अल्लाह ईमान लाने पर पापों को क्षमा कर जन्नत बख्शता है। इससे तो अल्लाह ज्यादा रहमदिल हुआ।
आर्य जी: मौलाना साहब। मैं हैरान हूँ कि आप पाप क्षमा होने वाली बात पर कैसे विश्वास कर सकते हैं! आप स्वीकारते हैं कि अल्लाह ताला न्यायकारी है। न्याय उसी को कहते हैं कि जो जितना करे, उसको वैसा और उतना ही फल देना। फिर क्षमा कैसी? हजरत! क्षमा, सिफारिश और रिश्वत ये सब ऐसे मन्तव्य हैं कि जिनसे सर्वेश्वर और सर्वज्ञ परमात्मा पर अन्याय व अत्याचार का दोष लगता है और अगर बाईबल व कुरान वर्णित पाप क्षमा होने की बात को माना जाये तो यह संसार में पापों की प्रवृत्ति को बढ़ाने वाली बात है। जरा बताईये अगर कोई व्यक्ति किसी का कत्ल कर दे व गिरिजाघर में जाकर यीशु मसीह के समक्ष अपने पाप का बखान कर क्षमा माँग ले तो क्या वह दण्ड से मुक्त हो जायेगा। अगर हाँ तो अगली बार वह इससे दुगुना पाप करेगा और फिर जाकर क्षमा माँग लेगा। अगर ऐसा होने लगा तो समाज में अराजकता फैल जायेगी व हर कोई पाप करेगा और माफी मांगकर फिर पाप करते रहेंगे। ईश्वर उसी को जन्नत अर्थात सुख देता है जो उसके बताये मार्ग पर चलता है। जो भी पाप कर्म छोड़कर पुण्य कर्म कर सदाचारी बनेगा ईश्वर उस पर निस्संदेह कृपादृष्टि करेगा।
मौ0सा0: अगर मनुष्य का जन्म पूर्व जन्म में किये गये पुण्यों से होता है तो एक विद्यार्थी को शिक्षा ग्रहण करने में कितने दुःख उठाने पड़ते हैं। इससे तो ईश्वर अन्यायकारी सिद्ध हुआ जो पूर्वजन्म में किये गये पुण्यों के बदले उसे इस जन्म में दुःख रूपी कष्ट दिया।
आर्य: सर्वप्रथम विद्यार्थी को शिक्षा ग्रहण करने में परिश्रम करना पड़ता है वह दुःख नहीं अपितु तप है। श्रेष्ठ कार्यों को करने में जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उसे दुःख नहीं अपितु तप कहते हैं। तप करने से व्यक्ति उन्नति करता है। और हमारे कर्मों के करने पर जो दुःख होता है उन्हें ईश्वर दूर नहीं करता बल्कि हमें उनसे लड़ने के लिए धैर्य या आत्मबल प्रदान करता है। इसलिए विद्यार्थी को विद्याग्रहण करने के समय होने वाले तप को दुःख कहना ही गलत है। इसे पूर्व जन्म में किये गए पुण्यों का फल ही मानना चाहिए जो इस जन्म में व्यक्ति को तप कर महान बनने का अवसर प्रदान करते हैं अन्यथा एक गुणरहित, आलसी, मूर्ख व संस्कारहीन व्यक्ति की संसार में कोई भी प्रशंसा नहीं करता।
मौ0 सा0: यहाँ तक तो ठीक है, आर्य जी! पर क्या आपके धर्मग्रंथ जिसमें रामायण-महाभारत, वेद आदि पुनर्जन्म के विषय में प्रकाश डालते हैं?
आर्य: बिल्कुल वेदादि शास्त्रों के प्रमाण तो स्वयं वेदों के प्रकाण्ड पण्डित स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में दिये हैं जैसे:-
1- हे सुखदायक परमेश्वर! आप कृपा करके पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्रा आदि सब इन्द्रियाँ स्थाप कीजिये। (ऋग्वेद 8/1/23/6)
2- परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करने वाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे। (ऋग्वेद 8/1/23/7)
3- परमेश्वर सब बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रखें। (यजुर्वेद 4/15)
4- हे जगदीश्वर! आपकी कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रियाँ मुझको प्राप्त हों। (अथर्ववेद 7/6/67/1)
5- जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है। (अथर्ववेद 5/1/1/2)
6- जीव अपने पाप और पुण्यों के आधार पर मनुष्य या पशु आदि अगले जन्म में बनते हैं। (यजुर्वेद 19/47)
7- श्री रामचन्द्र जी श्रीलक्ष्मण जी से कहते हैं:- लक्ष्मण! पूर्वजन्म में मैंनें अवश्य ही बारम्बार ऐसे कर्म किये हैं, जिनके कारण मैं आज दुःख में फंस गया हूँ। राज से भ्रष्ट हुआ, इष्ट मित्रों से बिछुड़ गया, पिता की मृत्यु हुई, माता-पिता से वियोग हुआ, हे लक्ष्मण! हमें ये सब शोक पूर्वजन्म के पापों के फलस्वरूप ही प्राप्त हुए हैं।
(वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग 63, श्लोक 4,5)
8- हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। मैं योग विद्या के बल से उन सबको जानता हूँ। परन्तु तू नहीं जानता। प्रत्येक मनुष्य को अपने-अपने शुभ या अशुभ कर्मों का फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है। (गीता)
मौ0 सा0: आर्यजी, आपने अपनी धर्मपुस्तकों से तो प्रमाण दे दिये परन्तु हम तो केवल कुरान को मानते हैं और कुरान में पुनर्जन्म का कोई भी प्रमाण नहीं है।
आर्य जी: ऐसा नहीं है मौलाना साहब! कुरान में पुनर्जन्म के अनेक प्रमाण हैं। किन्तु स्वार्थवश लोग उनको नहीं देखते हुए भी नहीं देखते। बिना विद्या के पूर्वाग्रहों और धारणाओं को तोड़ना आसान नहीं होता। देखिये पुनर्जन्म ेके विषय में कुरान शरीफ में क्या कहा है-
(1) सूरा 22, अल-हज, आयत 66- और वही है जिसने तुम्हें जीवन प्रदान किया। फिर वही तुम्हें मृत्यु देता है और वही तुम्हें जीवित करने वाला है। पेज- 292
(2) सूरा 23, अल-मोमिनून-आयत 15, 16। पेज 294
(3) सूरा 23, अल मोमीनून- आयत 100। पेज 300
(4) सूरा 7, अल आराफ, आयत 29, पेज 129
संस्करण (मधु संदेश संगम) अनुवादक: मौलाना-मुहम्मद फारूक खाँ व डॉ0 मुहम्मद अहमद)
मौलाना – बस बस आर्य जी, मुझे पता नहीं क्या हो गया है, लगता है जैसे आज तक बालू में से तेल निकालने का प्रयास करता रहा। मैं आपकी इन बातों पर मन से विचार करूँगा। इस्लामी विद्वानों से शंका समाधान करना बहुत मुश्किल है क्योंकि उनका अंधविश्वास हैं कि मजहब में अक्ल का दखल नहीं। लेकिन आपकी बातों से मेरी आंखें खुल रही हैं। आप बस कहीं से मुझे सत्यार्थ-प्रकाश उपलब्ध करा दीजिये।
आर्य – अरे नहीं मौलाना साहब, आप सात्त्विक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। इसलिए आपके अन्दर जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है। यह परमेश्वर की कृपा है। मेरा आपसे कोई आग्रह नहीं है। बस आप मेरे मित्रा हैं इसलिए मैं अपने आप को आपको सत्य मार्ग बतलाने से रोक नहीं सका। अगली भेंट में मैं आपको स्वामी दयानन्द द्वारा लिखित सत्यार्थ- प्रकाश भंेट करूँगा। परमात्मा हम सब की बुद्धियों को प्रकाशित करे ताकि हम सत्य और असत्य को जानकर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सक्षम हो सकें।

Thursday, April 10, 2014

वेद और पाप निवारण




 वेदों में पाप निवारण के विषय में ईश्वर से सबसे अधिक प्रार्थना निष्पापता अर्थात कभी पाप न करने की गई हैं। पाप निवारण की प्रार्थना का अर्थ यह नहीं हैं समझना चाहिए की किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं, अपितु इसका तात्पर्य यह हैं की मनुष्य पाप कर्म से सदा दूर ही रहे।  वेद में पाप निवारण के लिए अनेक मंत्र दिए गए हैं जिनमें मनुष्य ईश्वर से ऐसी मति, ऐसी बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना करता हैं, जिससे वह केवल और केवल सत्य मार्ग पर चलता रहे और पाप कर्म से सर्वथा दूर रहे। मनुष्य इन मन्त्रों का अनुष्ठान करते हुए यह संकल्प लेता हैं की वह पाप कर्म से सदा दूर रहेगा।
                     आइये इन मन्त्रों को ग्रहण कर, उनका चिंतन मनन कर, उन्हें अपने जीवन में शाश्वत करे जिससे हमारा जीवन सफल हो जाये।

१.प्राणी जगत का रक्षक, प्रकृष्ट ज्ञान वाला प्रभु हमें पाप से छुडाये- अथर्वेद ४/२३/१

२. हे सर्वव्यापक प्रभु जैसे मनुष्य नौका द्वारा नदी को पार कर जाते हैं, वैसे ही आप हमें द्वेष रुपी नदी से पार कीजिये। हमारा पाप हमसे पृथक होकर दग्ध हो जाये- अथर्ववेद ४/३३/७

३.हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर हम विद्वान तेरे ही बन जाएँ।  हमारा पाप तेरी कृपा से सर्वथा नष्ट कर दे - ऋग्वेद १/९७/४

४. हे मित्रावरुणो अर्थात अध्यापकों उपदेशकों आपके नेतृत्व में अर्थात आपकी कृपा से गड्डे की तरह गिराने वाले पापों से में सर्वथा दूर हो जाऊ। ऋग्वेद २/२७/५

५.हे ज्ञानस्वरूप प्रभु आप हमे अज्ञान को दूर रख पाप को दूर करों। - ऋग्वेद ४/११/६

६.इस शुद्ध बुद्धि से हम भगवान के भक्त बनें और पाप से बिलकुल परे चले जाएँ। - ऋग्वेद ७/१५/१३

७.हे प्रभु तू पाप से हमारी रक्षा कर , पाप की कामना करने वाले व्यक्ति से भी दिन रात निरंतर हमारी रक्षा कर।  – ऋग्वेद ७/१५/१५

८.हे मित्रा वरुणो आपके बताये हुए सत्य मार्ग से चलकर नौका से नदी की तरह पापरूपी नदी को तैर जाएँ। - ऋग्वेद ७/६५/३

९.हे सर्वज्ञ प्रभु आप मेरी सदा रक्षा करे मुझे कभी पाप की इच्छा रखने वाले दुष्ट बुद्धि वाले मनुष्य की संगती में मत पड़ने दे। - ऋग्वेद ८/७१/७

१०.निष्पापता की उत्सुकता इस सभी मन्त्रों में प्रकट की गयी हैं, प्रभु का सर्वव्यापकता तथा सर्वज्ञान गुण पाप दूर करने में सहायक होता हैं, सर्वव्यापक प्रभु हमारे द्वारा कहीं भी किये गए पाप कर्म को जान लेते हैं और यह प्रभु की न्याय व्यस्था ही हैं की किसी भी मनुष्य द्वारा किया गया पाप कर्म उसे दण्डित करने का हेतु बनता हैं, जो जैसा करेगा वैसा भरेगा का सिद्धांत स्पष्ट रूप से ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था को सिद्ध करता हैं. मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं और उसका फल पाने के लिए परतंत्र हैं, परतंत्रता का अर्थ ईश्वर का गुलाम अथवा मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कर्मों में बध्यता नहीं हैं अपितु पुण्य कर्म का फल सुख और पाप कर्म का फल दुःख हैं, इसलिए वेद भगवान अपने सन्देश द्वारा समस्त मानव जाति को पाप कर्म से दूर रहने का सन्देश दे रहे हैं।

११.हे प्रभु! आप सर्वव्यापक और सर्वज्ञाता हैं, आपकी सर्वव्यापकता तथा सर्वज्ञता को जानकर हम कभी पाप में प्रवित न हो। - ऋग्वेद १/१७/८

१२. हे ज्ञान के स्वामिन! जिसकी तुम रक्षा करते हो उसके पास कहीं से भी पाप नहीं फाटक सकता और न दुःख आ सकता हैं। - ऋग्वेद २/२३/५

पाप निवारण के उपाय-

पाप वृति को वशीभूत करने से ,दृढ संकल्प से ,यज्ञ से , सत्य संकल्प करने से, पापों में दोष दर्शन से और पापों के त्याग की कामना पाप निवारण के उपाय हैं।

वेद भगवान बड़े ही आत्मीय शब्दों में पाप निवारण के उपाय बताते है-

१. पाप वृति को वशीभूत करना

हे पाप! मुझे छोड़ दे, हमारे वशीभूत होकर , हमको सुखी कर ,कुटिलता से अलग करके हमे कल्याण और सुख के लोक में स्थापित कर।  – अथर्ववेद ६/२६/१
सत्य हैं की जब मनुष्य पाप करने वाली वृतियों को वश में कर लेता हैं तब मनुष्य सुखी हो जाता हैं। मनुष्य का चित शांत और संतुष्ट हो जाता हैं।  ऋग्वेद १/१८९/१ में कुटिलता को, उलटे कर्म को पाप कहा गया हैं, इसलिए जब तक कुटिलता रहती हैं तब तक मनुष्य भद्र नहीं बन सकता हैं।  मनुष्य को अंतत अपने मन को स्वाभाविक सरल अवस्था में रखना भी पापों से छुटने का उपाय हैं। इसके लिखे मन को कुटिलता से पृथक करके पापवृति को वशीभूत करना होगा।

२. दृढ संकल्प से

हे पाप! जो तू हमें नहीं छोड़ता हैं तब हम ही तुझे छोड़ देते हैं। - अथर्ववेद ६/२६/२
दृढ संकल्प के द्वारा हम अपने मन को पाप कर्म से दूर करे , अगर मन को पक्का कर सत्य मार्ग पार चलेगे तभी पाप से विमुख रहेगे। 

३. यज्ञ से

मेरे जो किये हुए यज्ञ- देवपूजन, सत्संग और दान हैं, वे मुझे प्राप्त रहें , मेरे मन का संकल्प सत्य हो , मैं किसी भी पाप को न प्राप्त होऊं। इस विषय में सब देव मरी पूर्ण रक्षा करें। - अथर्ववेद ५/३/४
वेद के इस मंत्र में स्पष्ट हैं की मनुष्य अपने सत्कर्मों में सदा लगा रहे और सत्य का संकल्प कर पाप कर्मों से दूर रहे। इसका अर्थ स्पष्ट हैं की मनुष्य अपने मन को श्रेष्ठ कर्मों इतना लीन कर ले की उसके पास पाप कर्म करने का समय ही न हो।  हैं

स्वामी दयानंद के जीवन में भी इस प्रकार का एक उदहारण हमें मिलता हैं किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा की महाराज क्या आपको वासना नहीं सताती हैं। स्वामी दयानंद ने उत्तर दिया की समय ही नहीं मिलता, स्वामी जी का सम्पूर्ण जीवन यज्ञमय और श्रेष्ठ कर्मों को पूर्ण करने में व्यस्त था, इसलिए वे पाप कर्म से बचते गए और अंत में सर्वश्रेष्ठ सुख मोक्ष के भागी बने। इस मंत्र को स्वामी दयानंद ने साक्षात् रूप से अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था।

४. पापों में दोष दर्शन से और पापों की कामना का त्याग

हे मानसिक पाप ! दूर हट जा,तू क्यूँ अप्रस्त कामों की प्रशंसा करता हैं।  दूर चला जा, मैं तुझे नहीं चाहता। - अथर्ववेद ६/४५/१

पाप तीन प्रकार के होते हैं- मानसिक, शारीरिक और वाचिक।  शारीरिक और वाचिक पापों की उत्पत्ति मानसिक पापों के द्वारा ही होती हैं। यदि मन में कोई पाप नहीं हैं तो वाणी और शरीर द्वारा भी कोई पाप नहीं होगा।  दूर चला जा, मैं तुझे नहीं चाहता। इस प्रकार के वाक्यों से व्यक्त रूप में या मानसिक रूप में पाप के विरुद्ध दृढ भावना पैदा होती हैं  इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति पापों के विरुद्ध लगातार वाचिक और मानसिक अभ्यास करेगा तो वह अवश्य ही उन पर विजय पा लेगा।  इस प्रकार अभ्यासी के मन में पापों के लिए घृणा पैदा होती हैं अत: प्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार का अभ्यास कर पापों की कामना का त्याग करना चाहिए।

पाप निवारण का फल-

वेद भगवान अथर्ववेद १६/६/१ में कहते हैं- हम आज ही पापरहित हो गए हैं. हम आज ही विजय कर लेंगे और सुख, शांति और आनंद का भोग करेंगे।

आइये अंग्रेजी भाषा में एक मुहावरा हैं की Prevention is always better than cure अर्थात बचाव ईलाज से हमेशा उत्तम हैं। दुःख, अशान्ति आदि से बचने के लिए एक मात्र उपाय ईश्वर प्रदित मार्ग पर चलते हुए पाप कर्मों से दूर रहना हैं।  वेद भगवान का सन्देश अपने जीवन में आत्मसात कर ही ऐसा संभव है।

डॉ विवेक आर्य

Saturday, April 5, 2014

Maharishi Dayananda and Christianity




 Dayananda was deeply pained by the humiliations suffered by his people which were caused by the military government's repression and debased Christian harangues against Hinduism. His first priority was... to restore his people's pride in their country and their cultural heritage. Centuries of foreign invasions had sunk Hindu society into poverty, sloth and defeatism. He mounted a frontal attack on some Hindu sects and systems of thought which he held responsible for this state of affairs. Hindu orthodoxy reacted by branding him as a hireling of Christian missionaries. There were certain strains in his thought which sounded like those of the alien creed. The missionaries themselves watched him for some time, for it appeared as if he was making things easy for them.

It was a matter of principle with Maharishi Dayananda not to speak on a subject which he had not studied and understood in advance. So he listened patiently to the Christian missionaries whenever and wherever they met him. There were seven such meetings between 1866 and 1873. He met J. Robson at Ajmer in 1866. During his stay in U.P. he had talks with J. T. Scott who presented to him the Christian position on various themes as well as a copy of the New Testament. In 1870, he met Dr. Rudolf Hoernle at Varanasi. On his way to Calcutta in 1872, he met the well-known Hindu convert Lal Behari De at Mughal Sarai and exchanged notes with him on the nature of sin and salvation. He discussed the nature of God with some English and native clergymen while he was staying at Bhagalpur in the course of the same journey.

By the time he reached Calcutta, the Brahmo Samaj had split into two. A minority consisting of those who wanted to retain their. Hindu identity had remained with the Adi Brahmo Samaj led by Debendra Nath Tagore and Rajnarayan Bose. The majority had walked away with Keshub Chunder Sen who had formed his Church of the New Dispensation (NababidhAna) and started dreaming of becoming the prophet of a new world religion. Dayananda saw with his own eyes how infatuation with Christ had reduced Keshub Chunder to a sanctimonious humbug and turned him into a rootless cosmopolitan. He also witnessed how Debendra Nath Tagore was finding it difficult to retrieve the ground lost when the Adi Brahmo Samaj had repudiated the fundamental tenets of Hinduism - the authority of the Vedas, VarNAshrama-dharma, the doctrine of rebirth, etc. The only consolation he found in Calcutta was a lecture, The Superiority of Hinduism, which Rajnarayan Bose had delivered earlier and a copy of which was presented to him.

Dayananda wrote a critique of Brahmoism soon after he returned from Calcutta. It was incorporated in Chapter XI of his Satyartha Prakasha which was first published from Varanasi in the beginning of 1875. The Brahmos, he wrote, have very little love of their own country left in them. Far from taking pride in their country and their ancestors, they find fault with both. They praise Christians and Englishmen in their public speeches while they do not even mention the rishis of old. They proclaim that since creation and till today, no wise man has been born outside the British fold. The people of Aryavarta have always been idiotic, according to them. They believe that Hindus have never made any progress. Far from honouring the Vedas, they never hesitate in denouncing those venerable Shastras. The book which describes the tenets of Brahmoism has place for Moses, Jesus and Muhammad who are praised as great saints, but it has no place for any ancient rishi, howsoever great. They denounce Hindu society for its division in castes, but they never notice the racial consciousness which runs deep in European society. They claim that their search is only for truth, whether it is found in the Bible or the Quran, but they manage to miss the truth which is in their own Vedic heritage. They are running after Jesus without knowing what their own rishis have bequeathed to them. They discard the sacred thread as if it were heavier than the foreign liveries they love to wear. In the process, they have become beggars in their own home and can do no good either to themselves or to those among whom they live.1

The critique of Christianity which Dayananda had written at the same time and which formed Chapter XIII of the SatyArth PrakAsha was left out of the first edition by the publisher in Varanasi. He was a deputy collector in the British administration and thought it prudent not to annoy the missionaries. He dropped Chapter XIV also because it was a critique of Islam and he had many friends among the Muslim gentry of United Provinces. Dayananda himself became heavily preoccupied from 1876 onwards, first in the Punjab and then in Rajasthan. The Arya Samaj he had founded in 1875 was being placed on a firm footing. He had also several other major books in hand. It was only in 1882 that he undertook a revision of the Satyarth Prakash for its second edition. The copy which was sent to the press in installments included the chapters on Christianity and Islam. He did not live to see the second edition which was published an year after his death in 1883. But by now the public at large had come to know his position vis-à-vis Christianity. His two dozen disputations with leading Christian missionaries, mostly in the Punjab, had left nobody in doubt that he had only contempt for the imported and criminal creed.

Dayananda did not know the English language, though he had tried to learn it at one time. He had to depend on Sanskrit and Hindi translations of the Bible done by some leading missionaries. Nor was he acquainted with the critique of Christianity which had, by his time, snowballed in the West. But his handling of the two Testaments shows that these were no disadvantages for him. His sense of logical consistency was quite strong. So was his humane and universal ethics derived from Vedic exegesis.

In his examination of the Old Testament, Dayananda concentrated his attention on the character of Jehovah. He found that Jehovah was not only blood-thirsty, vindictive and unjust but also extremely whimsical. Jehovah alone, said Dayananda, could choose a monster like Moses as his prophet and reveal a barbarous book like the Pentateuch. Dayanand summed up the character of Jehovah in a Sanskrit Sloka which deserves to be quoted verbatim: kshaNe rushtaH kshaNe tushTaH, rushTatushTaH kshaNe kshaNe; avyavasthitachittasya prasAdo�pi bhayaNkaraH (He is displeased in this moment and pleased in the next. He takes no time in travelling from dissatisfaction to satisfaction. His mind is deranged. Even a favour from such a being is to be feared). Only a savage society, said Dayananda, can project and worship such a being. He is no better than a tribal leader who sides with his own gang even if it is unjust and cruel and who reserves his wrath for every other people even if they are just and compassionate. Such a being should not be sold as the father of all mankind. Nor can he be entrusted with presiding over the world.

Coming to Jesus, Dayananda found him wanting even as a man, not to speak of as the son of God. One of the ten commandments required him to serve his parents. But instead of doing so himself, he made others leave their parents in the lurch. It was quite fit that he called himself and his disciples the fishers of men. They did ensnare ignorant people in the net of a creed they had invented to serve their own purpose. Their poor victims also left their homes. Jesus claimed that he had come with a sword and that his mission was to separate the son from the father, the daughter from the mother, the brother from the brother, and so on. The missionaries today are only following the example set by Jesus himself. They too entice ignorant people and separate them from their near and dear ones. The fraud, said Dayananda, should be exposed and the innocent people saved.

Coming to the miracles of Jesus, Dayananda said that the missionaries should be sent to share the company of sorcerers if they really believe in those miracles. The least they could do is to stop decrying the far more wonderful miracles mentioned in other people's books. Those who denounce other people's faith as false and sell their own falsehoods as truths, deserve to he described as dolts.

The apostles of Jesus, said Dayananda, were no better. One of them sold his teacher for thirty pieces of silver, others ran away when the teacher was caught and hanged. Yet we are told that these apostles will sit with Jesus on the day of judgment! Who could expect justice from judges of this kind? The missionaries are revealing the Christian standard of justice when they say that those alone who believe in Jesus will be saved and the rest sent to hell to rot there for ever. We see the same standard of justice in the Christian administration of this country. If a white man kills a black native, the murderer goes free! Moreover, is it not a mockery of justice that those who died soon after creation will have to wait to be judged in their graves for a long time while those who die close to the day of judgment will be judged very soon? All this proves that Christianity is the product of a primitive mind which lacks all sense of justice and fair play.

Jesus had said that the pieces of bread he was distributing were his body and the wine with which he was filling his disciples cups was his blood. Can a civilized man speak this language? No one except an uncouth savage would command his disciples to eat his flesh and drink his blood. Yet Christians applaud the practice as the Lord's Supper! Jesus was no lord. He was only a trickster. Had he had any spiritual powers, he would have saved himself from a shameful death. Nor was he a man of honor. Had he been one, he would have fought back and died a hero's death. Yet we are told that Jesus was the Only Son of God and that nobody can reach God except by his recommendation. God is thus reduced to the status of a servant of Jesus. The only conclusion we can draw from such statements of Jesus is that he was an impostor. He can be honored only in a savage society. Hindus have a saying that even a castor plant can pass as a tree in a land devoid of real trees. Jesus can pass as God only among people who have never known what constitutes Godhood.

Dayananda was thus fully equipped when he met the missionaries in a public debate at Moradabad in 1876. When the missionaries said that Christ was the only Saviour, the Swami retorted that Krishna and Shankaracharya were men of better caliber and that belief in salvation through the intercession of a man was worse than idolatry.2 In March 1877, there was a three-cornered contest at Chandpur Mela between Dayananda on one side and Muslim maulanas and Christian missionaries on the other. The theme was creation and salvation. Dayananda demonstrated how the literalistic methods which the missionaries employed in attacking Hindu Shastras and saints, could be used more effectively in dealing with the Bible and Jesus.

He had to rush to the Punjab in the same month as a wave of conversions in that province had made the missionaries feel triumphant and alarmed Hindu society. He met a missionary at his first stop in Ludhiana and silenced him immediately when he criticised Sri Krishna. A poor Brahmana had found employment in the missionary establishment and started feeling inclined towards Christianity. Dayananda demonstrated to him the errors of the alien creed and the merits of his own ancestral faith. The Brahmana was saved, though the missionaries sacked him.

During his prolonged tour of the Punjab, Dayananda faced the missionaries in no less than twenty public debates in different towns. Luminaries like E. M. Wherry, W. Hooper, W. C. Forman and Robert Clark were pitted against him, but he silenced them all. His performance in public debates not only stopped further conversions but also gave birth to a new movement - shuddhi (purification) of those who had been enticed away from Hindu society at one time or the other. It sent a wave of consternation through the missionary circles and restored Hindu confidence. In days to come, the missionaries became more and more reluctant to meet Dayananda in open forums.

The writings of Swami Dayananda and open debates with the Followers of Aryasamaj was the biggest opposition in the fields of India encountered by the Christian missionaries who were once dreaming to establish christian supremacy over the country as mere cake walk

Dayananda's work was continued after his death by the scholars of the Arya Samaj. They challenged the missionaries again and again to show the worth of Christianity as compared to the Vaidika Dharma. That is a long story which needs to be told in greater detail, and we reserve it for some other time. For the present, we would like to draw attention to a significant fact. Compared to the South, the progress of Christianity has been very, very slow in the North. The credit for reversing the trend in the North goes overwhelmingly to the lead given by Maharishi Dayananda and the Arya Samaj